जगदीश्वर चतुर्वेदी, प्रोफेसर एवं पूर्व अध्यक्ष हिंदी विभाग, कलकत्ता विश्वविद्यालय, कोलकाता
भारत में इस्लामोफोबिया के जन्मदाता हैं हिन्दुत्ववादी. ग्लोबल जन्मदाता सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ और सीआईए. इन दोनों में वैचारिक याराना है. इस्लामोफोबिया के लोकप्रिय होने का प्रधान कारण है – सामाजिक अज्ञानता और प्रतिगामिता. इसका लक्ष्य है मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच सामाजिक-राजनीतिक ध्रुवीकरण पैदा करना, नफरत फैलाना और भारत विभाजन करना.
यह भारत में मुसलमानों को सामाजिक तौर पर अलग-थलग डालने का सुनियोजित, संगठित प्रयोग है. यह स्वतःस्फूर्त्त या दंगे से उपजा विचार नहीं है, बल्कि संगठित और सुनियोजित प्रचार अभियान है. अफसोस की बात है कि इसके ख़िलाफ़ राज्यसत्ता चुप है. केन्द्र और राज्य की सरकारें और न्यायपालिका मूकदर्शक की तरह इस्लामोफोबिया को देख रही हैं.
भारत में इस्लामोफोबिया लंबे समय चल रहा है. पहले यह दंगों के समय दिखता था, अब 24घंटे दिखता है. इसके संदेशों से सोशल मीडिया भरा पड़ा है. इस्लामोफोबिया के ज़रिए मुसलमानों को विभिन्न तरीक़ों से कलंकित करने की कोशिशें हो रही हैं, जबकि उनकी समाज में हर क्षेत्र में शानदार भूमिका रही है. मुस्लिम विद्वेष का साइड इफ़ेक्ट है मुसलमानों का सोशल आइसोलेशन. उन्हें भारत की मुख्यधारा में अछूत बनाकर, नफरत के पात्र बनाकर चित्रित किया जा रहा है.
इस्लामोफोबिया का जहां एक ओर मुसलमानों पर मनोवैज्ञानिक-राजनीतिक दवाब पड़ रहा है, वहीं दूसरी ओर यह फिनोमिना सेना के लिए परेशानी पैदा कर रहा है और पुलिस-सैन्य उद्योग के लिए मुनाफ़े की खान साबित हुआ है।मुसलमानों को लेकर मीडिया से लेकर विभिन्न सामाजिक- फंडामेंटलिस्ट संगठन अहर्निश असत्य के प्रचार का फ्लो बनाए हुए हैं। मुसलमानों के प्रति भय, आशंका, संदेह का वातावरण बनाए हुए हैं। इसके साथ ही काल्पनिक ख़तरे और भय का गॉसिप संसार खड़ा कर दिया गया है।मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत पैदा करने के लिए बार-बार मुसलिम औरतों की दुर्दशा को पेश किया जाता है।जबकि हक़ीक़त यह है हिन्दुओं में भी औरतों की स्थिति बहुत ख़राब है।प्रतिदिन दर्जनों हिन्दू औरतें दहेज की बलि चढ़ती हैं।सामूहिक बलात्कार की शिकार होती हैं।अन्य तबकों में भी स्थिति सुखद नहीं है।लेकिन मुसलिम औरत और मुसलिम औरतों की दुर्दशा का न्यूज़ फ्लो एक विचित्र मुसलिम विरोधी आक्रामक माहौल बना रहा है।
इस्लामोफोबिया के प्रचारक प्रतिदिन मुसलमानों के साथ भेदभाव करते हैं,परेशान करते हैं, उनके ख़िलाफ़ हिंसा करते हैं।साथ ही मुसलमानों को सामाजिक पिछड़ेपन के लिए दोषी ठहराने की कोशिश करते हैं।जबकि हक़ीक़त एकदम विपरीत है।तमाम दवाबों, नौकरियों और शिक्षा में भेदभाव और हज़ारों दंगों में अकल्पनीय आर्थिक -मानवीय क्षति उठाने के बावजूद मुसलमानों में एक बड़ा मध्यवर्ग पैदा हुआ है।एक खुशहाल शिक्षित तबका पैदा हुआ है।उसने शांतिपूर्ण ढंग से भारतीय समाज और अपने आसपास के परिवेश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
यह मिथ है कि मुसलमान पिछड़े हुए हैं. सवाल यह है क्या समाज के अन्य तबकों में पिछड़ापन नहीं है ? मुसलमानों के पिछड़ेपन या भारत के पिछड़ेपन के लिए कौन सा वर्ग और किस तरह की राजनीतिक ताक़तें ज़िम्मेदार हैं ? हमारे अनुसार भारत और मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए देशी कारपोरेट घराने, बहुराष्ट्रीय कंपनियां और असमान पूंजीवादी विकास बुनियादी तौर पर ज़िम्मेदार है.
मुसलमानों या भारत के पिछड़ेपन का इस्लाम या किसी धर्म विशेष से कोई संबंध नहीं है. इसका गहरा संबंध है केन्द्र सरकार की आर्थिक नीतियों से. इन नीतियों के कारण समाज में पिछड़ापन बढ़ा है. पिछड़ापन एथनिक समस्या नहीं है बल्कि आर्थिक समस्या है. भारत में इस्लामोफोबिया गैर-सत्ता केन्द्रों और दक्षिणपंथी संगठनों, खासकर आरएसएस की करतूत है, जिसे केन्द्र और राज्य सरकारें रोकने में असफल रही हैं.
ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ भारत में ही इस्लामोफोबिया है, यह ग्लोबल फिनोमिना है. यह उन देशों में भी है जहां अधिकांश आबादी मुसलमान है और इस्लाम का समूचे समाज पर असर है, वहां पर सत्ताधारी और कमजोर मुसलमानों के बीच भेदभाव और उत्पीड़न साफ़ देख सकते हैं. इसका अर्थ यह है कि सामाजिक उत्पीड़न से धर्म का कम और राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था का अधिक संबंध है.
इस्लामिक देशों में कमजोर और ताकतवर मुसलमान के बीच इस स्थिति और भेदभाव को साफ़ देखा जा सकता है. वहीं पर ऐसे भी देश हैं जिनमें मुसलमान अल्पसंख्यक हैं और गैर-मुसलिम बहुसंख्यक हैं. बहुसंख्यकों की राजनीति करने वालों ने अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के भेद को बनाए रखा है और मुसलमानों को खदेड़कर हाशिए के बाहर फेंक दिया है. म्यांमार इस मामले में आदर्श उदाहरण है.
वहां रोहिंग्या मुसलमानों के साथ बर्बर और अमानवीय व्यवहार वहां के शासकों, खासकर सेना ने किया. इसके कारण हज़ारों मुसलमान नरसंहार में मारे गए, लाखों को देश छोड़कर पड़ोसी देशों में शरण लेनी पड़ी. ठीक यही स्थिति चीन की है. वहां बड़े पैमाने पर मुसलमानों को यातना शिविरों में बंद करके रखा गया है. भारत में मुसलमानों को विगत 75 वर्षों में लगातार दंगों और नफ़रत के ज़रिए शिकार बनाया गया, इसमें हज़ारों मुसलमानों की हत्या हुई और उनकी अरबों की संपत्ति नष्ट हुई.
अकेले कश्मीर में धारा 370 हटाए जाने के बाद आठ महिने तक अघोषित लॉकडाउन रहा, जिससे वहां के व्यापारियों, जिनमें अधिकांश मुसलमान हैं, उनको 27000 हजार करो़ड रुपए से अधिक की क्षति उठानी पड़ी. यूरोप के शांत देश यूगोस्लाविया में बोस्निया-हस्बगोवनिया में हज़ारों मुसलमान मौत के घाट उतारे गए. कनाडा, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी आदि में मुसलमानों पर आए दिन हमले होते रहते हैं.
ये हमले हो रहे हैं इस्लामिक आस्था को लक्ष्य करके, जबकि हक़ीक़त यह है समाज की केन्द्रीय समस्या इस्लामिक आस्था नहीं है. इन देशों में ग़रीबी, माइग्रेशन और बेकारी की समस्या है, इनसे मुसलिम समाज भी परेशान है लेकिन इस्लामिक आस्था और मुसलिम पिछड़ेपन के सवाल उठाकर असल में उनको राष्ट्रवादी राजनीति की चक्की में पीसा जा रहा है. इस्लामीकरण का बोगस हौव्वा खड़ा किया जा रहा है, जिससे उनको सब समय भयभीत रखा जा सके.
पश्चिमी देशों से लेकर भारत तक एक ही तर्क दिया जा रहा है इस्लाम धर्म और मुसलमान पश्चिमी मूल्यों को नहीं मानते, उनके साथ सामंजस्य बिठाकर चलना मुश्किल है जबकि हक़ीक़त यह है कि मुसलमानों से पश्चिम को कोई ख़तरा नहीं है और भारत को भी कोई ख़तरा नहीं है. अनेक पश्चिमी देशों में मुसलमानों की आबादी बहुत कम है. मसलन्, पूरे यूरोप में मात्र 5 प्रतिशत मुसलमान रहते हैं. अमेरिका में मात्र 1.1 प्रतिशत मुसलमान रहते हैं. आस्ट्रेलिया में 2.6 फीसदी, फ्रांस में 8.8 फीसदी, स्वीडन में 8.1 फ़ीसदी आबादी मुसलमानों की है. इतनी कम आबादी के बावजूद इन देशों में मुसलमानों पर हमले बढ़े हैं.
इस्लामोफोबिया की आंधी चल रही है. मुसलमानों पर सार्वजनिक स्थानों पर हमले हो रहे हैं. मुसलमानों पर हमले करते हुए यह भी तर्क दिया जाता है कि वे इन देशों के मूल निवासी नहीं हैं, विदेशी हैं, इनको इन देशों में रहने का कोई हक़ नहीं है. यही तर्क भारत में संघियों के द्वारा दिया जा रहा है और उन पर हमले किए जा रहे हैं. यूरोप से लेकर भारत तक एंटी मुसलिम प्रौपेगैंडा के स्टीरियोटाइप रुपों की यही बुनियादी विशेषता है.
इस क्रम में हिन्दू बनाम मुसलमान, श्वेत बनाम मुसलिम का बोगस अंतर्विरोध निर्मित और प्रचारित किया जा रहा है. मुसलमान को हमलावर और समाज के लिए समस्या बनाकर पेश किया गया है. उनके राष्ट्रीय योगदान, सांस्कृतिक-राजनीतिक योगदान, साझा संस्कृति के विकास में उनकी भूमिका और इससे भी बड़ी बात यह कि राष्ट्रीय विकास में उनकी भूमिका की एकसिरे से अनदेखी की गई है.
इस्लामोफोबिया का लक्ष्य है मुसलमानों के साथ समानता, एकता और भाईचारे का व्यवहार न किया जाय. उनको उपनिवेश बनाकर रखा जाय, द्वितीय श्रेणी के नागरिक की तरह रखा जाय. उनको अन्य लोगों के बराबर हक़ न दिए जाएं. मुसलमानों को भयानक, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा, सेना के लिए विध्वंसक आदि रुपों में चित्रित किया जा रहा है. उनको माइग्रेशन या शरणार्थी समस्या के कारक के रुप में चित्रित किया जा रहा है. हकीकत यह है मुसलमान जहां भी रहते हैं, सामाजिक एकीकरण कर चुके हैं और राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक एकता के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका है. इस एकीकरण में उनका मुसलमान होना या इस्लाम कहीं पर बाधाएं खड़ी नहीं करता.
इस्लामोफोबिया के चक्कर में मुसलमानों को राष्ट्र और राष्ट्रवाद दोनों से बहिष्कृत कर दिया गया है. इन क्षेत्रों पर जब भी बातें होती हैं तो मुसलमानों को निकालकर बातें होती है. मुसलमानों के अनुभवों, अनुभूतियों और संवेदनाओं को दरकिनार करके बातें होती हैं. इस क्रम में एक ख़ास क़िस्म का मुसलिम नस्लवाद निर्मित किया गया है. संक्षेप में, इस्लामोफोबिया विशुद्ध रुप से निर्मित असत्य प्रौपेगैंडा है. यह ग्लोबल सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ की विचारधारा का महत्वपूर्ण प्रौपेगैंडा है, इसका लक्ष्य है मुसलमानों और इस्लाम को बदनाम करना और मुसलमानों को अधिकारहीन बनाना.
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