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दलितों को अपने हित और हक़ की लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ेगी

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दलितों को अपने हित और हक़ की लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ेगी
दलितों को अपने हित और हक़ की लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ेगी

देशभर में दलितों के खिलाफ अपराधों के मुकदमे बढ़ते जा रहे हैं. साल 2018 से 2020 यानी तीन वर्षों में 1,39,045 मामले दर्ज किए गए हैं. बसपा सांसद हाजी फजलुर्रमान ने संसद में सवाल पूछकर उन्होंने सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री रामदास अठावले से दलितों पर अत्याचार के राज्य वार दर्ज मामलों की जानकारी मांगी थी, उसी के जवाब में यह खुलासा हुआ था कि तीन सालों में यूपी में 36,467, बिहार में 20,973, राजस्‍थान में 18,418 और मध्‍य प्रदेश में 16,952 दलितों पर जुल्‍म हुए. ये आंकड़े 2018 से 2020 के हैं.

हालांकि, मंत्री द्वारा 2021 और 2022 के आंकड़े नहीं दिए गए हैं, जो की ज़्यादा भयावह हो सकते हैं. देश में छः सालों में लगभग 2 लाख केस दर्ज हुए हैं. देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में छः साल में अनुसूचित जाति पर अत्याचार के मुकदमे मामले कुछ इस प्रकार हैं –

2015 में 38,670 केस
2016 में 40,801 केस
2017 में 43,200 केस
2018 में 42,793 केस
2019 में 45,961 केस
2020 में 50,291 केस

दर्ज आंकड़ों को देख कर आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि अनुसूचित जाति भारत में आज भी हाशिये पर है. क्या ऐसे मामले को देखते हुए भी एससी / एसटी ऐक्ट को कमजोर किया जाना उचित होता ? बता दें कि अपराध की गंभीरता के आधार पर पीड़ित को सरकार की तरफ़ से आर्थिक सहायता मुहैया करायी जाती है. ज़बाव में यह भी बताया गया है कि साल 2018-19 में 25,722.34 लाख रुपए, 2019-20 में 37,732.99 लाख रुपए, 2020-21 में 37,968.17 रुपए और 2021 से 14 मार्च 2022 तक 43,917.43 लाख रुपए का भुगतान किया गया है.

अत्याचार की प्रमुख वजहें

जब से भाजपा सरकार केंद्र में सत्ताशीन हुई है दलितों पर अत्याचार की बाढ़ सी आ गयी है. स्थिति और भी भयावह तब हो गई जब से उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार दोबारा बनी है, मानो ऐसा लग रहा है कि भाजपा मुस्लिमों के प्रखर विरोधी होने का सिर्फ़ मुखौटा पहने है, असली मक़सद तो कुछ और ही नज़र आ रहा है, सरकार को गम्भीरता से सोचने की ज़रूरत है.

बात सिर्फ़ भाजपा शासित प्रदेशों की ही नहीं है, कांग्रेस शासित राज्य राजस्थान इस मामले में अपना अहम स्थान बनाये हुए है. जाति के आधार पर हो रहे अत्याचारों की कुछ प्रमुख घटनाओं पर नज़र डालने से यह प्रतीत होता है कि यह घटनाएं तथाकथित उच्च और पिछड़ी जातियों के लोगों ने अनुसूचित जाति के लोगों को नीचा दिखाने और उनपर अपना रौब जमाने के लिए हत्याएं तक की हैं.

कहीं दलितों के मूंछ रखने और अच्छे कपड़े पहनने पर दिक़्क़त होती है तो कहीं घोड़ी पर बिंदोरी निकालने से. कहीं मामला प्रेम प्रसंग का होता है, तो कहीं अंतर्जातीय विवाह का. ऑनर किलिंग में दलितों की हत्याएं भारत में आम होती जा रही हैं. कहीं दलित युवक को होली का जश्न मनाने पर मार दिया जाता है तो कहीं घोड़ी रखने पर.

अनुसूचित जाति की महिलाओं और लड़कियों के ख़िलाफ़ अत्याचार की खबरें आए दिन समाचार में बनी रहती हैं. दलितों के ख़िलाफ़ चुनाव में उनके द्वारा किसी अन्य को वोट दिए जाने पर उनके साथ अत्याचार किया जाता है, उन्हें धमकाया जाता है, प्रताड़ित किया जाता है. शैक्षणिक संस्थानों में भी दलितों के प्रताड़ना के मामले आते रहते हैं. ये मामले सिर्फ़ विद्यार्थियों के ख़िलाफ़ ही नहीं अपितु शिक्षकों, प्रोफेसरों के ख़िलाफ़ भी जाति आधारित भेदभाव से जुड़े होते हैं.

दलितों पर अत्याचार के मामलों में मुस्लिम भी बाज नहीं आते हैं, अभी हाल ही में हैदराबाद में एक दलित युवक की भरी भीड़ में उसकी मुस्लिम पत्नी के सामने महिला के भाई ने दिन दहाड़े मौत के घाट उतार दिया था. मामला प्रेम प्रसंग और ऑनर किलिंग का था. ऐसा ही मामला कर्नाटक में ऑनर किलिंग का सामने आया, यहां 25 साल के एक दलित युवक की हत्या कर दी गई, उसका मुस्लिम महिला के साथ संबंध था.

सिख धर्म भी जातिगत भेदभाव से अछूता नहीं है. हरियाणा और दिल्ली की सीमा सिंघु बॉर्डर पर एक दलित युवक लखबीर सिंह की हत्या कर दी गई थी. सिंघु बॉर्डर पर लखबीर सिंह को किसान आंदोलन के मंच के पास मार डाला गया था. युवक को रस्सी से बांधकर लटकाया गया और उसका हाथ काट दिया गया. तड़प-तड़पकर लखबीर सिंह की मौत हो गई थी.

दलित अत्याचार की घटनाओं के पीछे लोगों की संकीर्ण मानसिकता और न्याय में देरी की वजह से लोगों में क़ानून का कम हो रहा डर जान पड़ता है. साथ ही ज़िम्मेदार हैं भारत की लोकसभा और राज्यसभा में मौजूद अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधियों का इन मामलों में लचीला व्यवहार.

मार्च 2021 में राज्य सभा में प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार 2017 से 2019 में अनुसूचित जाति / जनजाति की महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराधों में 15.55 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी. वहीं अनुसूचित जाति / जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 के तहत इसी अवधि के दौरान दोषसिद्धि दर केवल 26.86 प्रतिशत रही, जबकि 84.09 प्रतिशत मामले लंबित हैं जो कि एक बेहद चिंताजनक स्थिति है.

अनुसूचित जाति / जनजाति के समुदायों की महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न के अपराध अवचेतन मन से निकलने वाली सोच का परिणाम है, जहां एक अनुसूचित जाति / जनजाति की महिला को कमजोर और साथ ही अपनी गरिमा के लिए लड़ने में अक्षम समझा जाता है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के वर्ष 2019 के प्रतिवेदन के अनुसार अनुसूचित जाति की महिलाओं के खिलाफ मार-कुटाई, निर्वस्त्र करना, अपहरण संबंधी उत्पीड़न के 13,372 मामले थे, जिसमें 3,486 मामले बलात्कार के थे.

नेताओं और आम जनता के लिए ये सिर्फ़ आंकड़े मात्र हो सकते हैं, असली दुःख सिर्फ़ इसे सहन करने वाला ही जान पाता है. साथ ही यहां यह भी ध्यान देने की बात है कि यह सिर्फ़ वो आंकड़े हैं जिन्हें दर्ज किया जाता है, वास्तविकता इन आंकड़ों से कहीं ज़्यादा भयावह हो सकती है. लाखों मामले ऐसे होते हैं जिनमें केस दर्ज नहीं किया जाता है, या मामले दबा दिए जाते हैं. अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के समुदायों की पीड़ितों के सामने वाली कुछ प्रमुख समस्याओं में व्यापक रूप से काम रिपोर्टिंग, पीड़ित और उसके परिवार को धमकाना, पीड़ित द्वारा स्वयं ही अपराध की सूचना देने में झिझक, प्राथमिकी दर्ज नहीं करना, ग़लत ढंग से की गयी जाँच इत्यादि शामिल हैं.

चुनाव में याद आते हैं दलित

दलितों की याद सिर्फ़ चुनाव के समय आती है और तभी मीडिया में यह विश्लेषण होता है दलित वोट किधर जाएगा, बजाय इसके की दलितों की हितैषी कौन सी राजनीतिक पार्टी है. तब सिर्फ़ यह दिखाया जाता है कि किसी जिले, राज्य में दलितों की कितनी भागीदारी है जबकि दिखाना ये चाहिए की किस राज्य में दलितों के खिलाफ कितने अत्याचार के मामले दर्ज हुए और कितने दलितों को न्याय दिलाया गया.

मीडिया अत्याचार की घटनाओं को दिखाने की बजाय नेताओं की सभाओं और मंदिर मस्जिद के विवादों को दिखाने में ज्यादा ध्यान देती है. जाति धर्म की राजनीति नेताओं से ज़्यादा भारत की मीडिया करती नजर आती है. चुनाव में नेताओं द्वारा दलितों के घर पे तो खाना खाने का नाटक किया जाता है, पर काश कभी दलितों को ये नेता अपने महलों में ले जाकर सम्मान के साथ अपने बर्तनों में खाना खिलाते नज़र आए.

अत्याचार की तमाम घटनाओं और सरकार की नाकामी को देख कर बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर की ये लाइनें याद आती हैं. उन्होंने कहा था कि भले ही क़ानून बन गए हों, अभी भी अनुसूचित जातियां बेफ़िक्र नहीं हो सकतीं क्योंकि इन कानूनों का संचालन ‘सवर्ण हिंदू अधिकारियों’ के हाथों में ही है. इसलिए उन्होंने अनुसूचित जातियों से आह्वान किया कि वे सरकार के अलावा लोक सेवाओं में भी बढ़ चढ़ कर शामिल हों.

अनुसूचित जातियों को तमाम जातियों में बांटकर इनके साथ अत्याचार करना, फिरंगियों की ‘फूट डालो और शासन करो’ जैसी राजनीति नज़र आती है. जब एक जाति पर अत्याचार हो रहा होता है तो दूसरी जातियां ये सोचकर चुप रहती हैं कि मेरी जाति उस जाति से ऊपर है और हम सुरक्षित हैं. यही भावना अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को अत्याचार के ख़िलाफ़ एक जुट नहीं होने देती और चुपचाप अत्याचार सहती रहती है.

सोशल मीडिया पर कुछ घटनाओं के ख़िलाफ़ आवाज़ उठती है तो उन्हें न्याय की उम्मीद हो जाती है. क्या कोई सवर्ण आगे आएगा इन अत्याचारों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने, शायद नहीं, दलितों को अपने हित और हक़ की लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ेगी.

  • जितेंद्र गौतम

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