हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
भूमि सुधार जैसे मुद्दों का नेपथ्य के बियाबान में खो जाना दलित राजनीति की सबसे बड़ी हार थी.
वह तो जगजीवन राम, मिश्री सदा, रामविलास पासवान, मीरा कुमार आदि जैसे नेताओं ने सेफ्टी वाल्व का काम किया वरना उत्तर भारत के समाज में अंतर्निहित सांस्कृतिक तनाव राजनीति के माध्यम से अभिव्यक्त होता और भारतीय राजनीति का स्वरूप ऐसा तो नहीं ही रहता, जैसा वह आज है.
कांशीराम ने शुरुआत तो की थी लेकिन बहुजन समाज पार्टी की बुनियाद ही ऐसी थी कि मुख्य धारा में बने रहने की अकुलाहट में उसने भाजपा से ही गठजोड़ कर लिया. रही-सही कसर मायावती ने पूरी कर दी, जिन्होंने सर्वाधिकारवादी नेता की छवि बना कर सुप्रीमो की तरह पार्टी चलानी शुरू की और दलित हितों की जगह सत्ता की राजनीति में पूरी तरह रम गई.
बसपा घोषित रूप से दलितों की राजनीतिक पार्टी थी, लेकिन जब आप सिर्फ और सिर्फ सत्ता की राजनीति करने लगते हैं तो आपके अस्तित्व से जुड़े सिद्धांत कहीं न कहीं पीछे जाने लगते हैं. निष्कर्ष में यह पार्टी भी सेफ्टी वाल्व बन कर ही रह गई.
उत्तर भारत के बड़े दलित नेताओं को सत्ता के लिये किसी से भी गठजोड़ कर लेने में कोई गुरेज़ नहीं रहा. इसके तात्कालिक लाभ उन्हें और उनके समर्थकों को भले ही मिलते रहे लेकिन इसके नतीजे में दलित प्रश्न पीछे जाते रहे. आरक्षण की टेक पकड़ कर इन नेताओं ने अपने समर्थक समुदायों को हमेशा भ्रमित किये रखा और खुद राजा की तरह बन गए.
जातीय उपेक्षा और शोषण के खिलाफ खड़े हुए राम विलास पासवान या मायावती जैसे नेताओं की आखिरी नियति यही हुई कि पूरे दलित समाज का नेता भी ये नहीं बने रह सके और किसी खास उपजाति को अपने पीछे जोड़ कर उस वोट बैंक की तिजारत के आधार पर ऐसी राजनीति में मशगूल हो गए, जिसमें सैद्धांतिक नैतिकता की कोई खास जगह नहीं रह गई.
यह अपनी तरह का वर्चस्ववाद ही था. एक खास तरह के वर्चस्ववाद के खिलाफ एक खास तरह के वर्चस्ववाद का पोषण. दलितों में एक खास वर्चस्वशाली समुदाय का समर्थन रामविलास पासवान या मायावती के साथ रहा और इसके गांव इलाके में फैले इनके वोट प्रबंधकों ने जम कर मलाई काटी. अनुसूचित जातियों की बाकी बड़ी संख्या को नीतीश कुमार ने महादलित कह कर अपने पीछे कर रामविलास पासवान के राजनीतिक दायरे को सीमित कर दिया. इधर, यूपी में भाजपा ने बसपा से नाराज बाकी दलितों को अपने साथ जोड़ कर मायावती को अस्तित्व से जूझने के कगार पर ला दिया.
जाहिर है, बिहार और यूपी में दलित राजनीति भटक कर रह गई और भूमि सुधार जैसे बड़े आवश्यक मुद्दे इतने ठंडे बस्ते में चले गए कि अब तो इसकी चर्चा तक नहीं होती. भूमि सुधार जैसे मुद्दों का नेपथ्य के बियाबान में खो जाना दलित राजनीति की सबसे बड़ी हार थी.
आजादी के बाद नेहरू जी व्यक्तिगत रूप से तो लोकतंत्र और समाजवादी आदर्शों के हामी थे लेकिन उनके नेतृत्व में कांग्रेस की ग्रासरूट राजनीति का चरित्र सामंती ही रहा. इंदिरा गांधी के दौर में हालात और बदतर ही हुए. यद्यपि, अनेक संवैधानिक प्रावधानों के तहत अनुसूचित जातियों, जनजातियों के हितों की रक्षा के उपाय किये गए लेकिन राजनीति और राजकाज का चरित्र सामंती ही बना रहा.
सीधी-सी बात है कि राजनीति का सामंती चरित्र वंचित समुदायों के वास्तविक संघर्षों का प्रतिनिधित्व कर ही नहीं सकता और किया भी नहीं. मायावती रानी की तरह बन गई, रामविलास पासवान राजा की तरह बन गए, जिनके युवराज चिराग पासवान को अब पार्टी चलाने की जिम्मेदारी हस्तांतरित की जा रही है. अक्सर फिल्मी लटकों-झटकों के साथ डायलॉग डिलीवरी करते उन्हें हम टीवी के पर्दों पर देख मुदित होते रहते हैं. बाकी ‘ग्रेट पासवान फैमिली’ के भाई-भतीजे भी दलित हितों के लिये अपना महान जीवन अर्पित कर चुके हैं.
आज अगर रामविलास पासवान भाजपा के साथ हैं, मायावती कहीं दुबकी बैठी हैं, बाकी छुटभैये दलित नेताओं की जमात भाजपा के पांव दबा रही है तो यह स्वतंत्रता के बाद विकसित और पोषित दलित राजनीति की तार्किक परिणति ही है.
शिक्षा का निजीकरण, चिकित्सा की जिम्मेदारी से राज्य का पल्ला झाड़ते जाना, सरकारी उपक्रमों के निजीकरण आदि का सबसे विपरीत असर समाज के सबसे निर्धन तबके पर ही पड़ना है और इस बात में क्या संदेह कि अनुसूचित जातियों, जनजातियों के लोग सबसे निर्धन तबके से आते हैं. लेकिन, उनके नेता नवउदारवादी राजनीति के हाथों की बांसुरी बन चुके हैं जिनसे जब चाहो, मनचाहा सुर निकाला जा सकता है.
वामपंथ के पराभव में जाने का एक बड़ा कारण यह भी रहा कि इन सेफ्टी वाल्व टाइप नेताओं के कारण दलित तबका वामपंथ से दीर्घकालिक तौर पर नहीं जुड़ सका. बाकी, भारतीय वामपंथ का मौलिक जातीय चरित्र और सैद्धांतिक अंतर्विरोध तो उनके पराभव के जिम्मेवार तो हैं ही. कांग्रेस को सेफ्टी वाल्व की राजनीति करने में महारत हासिल थी. उसने इस राजनीति के माध्यम से सामाजिक-सांस्कृतिक तनावों को कभी आक्रामकता में ढलने ही नहीं दिया.
जब तक भाजपा का दौर आया, दलित राजनीति का बड़ा हिस्सा पालतू चरित्र का बन कर रह गया था. पालतू कहीं संघर्ष चेता होते हैं क्या ? और, बिना संघर्षचेता हुए दलितों का सामाजिक, सांस्कृतिक या आर्थिक उद्धार हो सकता है क्या ?
जो भी नवउदारवादी राजनीति और सत्ता का पिछलग्गू बन कर या उनसे डर कर राजनीति करता है, वह दलित प्रश्नों को एड्रेस कर ही नहीं सकता. भले ही उनके नाम पर वोट ले, सत्ता में हिस्सेदारी ले और बाल-बच्चों, भाई-भतीजों के साथ मौज करता रहे.
दलित राजनीति की सार्थकता विशाल वंचित तबके की राजनीति और उनके संघर्षों के साथ एक होने में ही है. जब तक यह नहीं होगा, भारतीय राजनीति की दशा और दिशा बदल ही नहीं सकती. नारे चाहे जितने लगा लो, ज़िंदाबाद चाहे जितना कर लो.
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