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शीशमहलों की संस्कृति : शीश महल जितने ऊंचे होते जाते हैं, उसमें बैठे हुए बौनों की ताकत उतनी अतुलित, असीमित होती जाती है

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शीशमहलों की संस्कृति : शीश महल जितने ऊंचे होते जाते हैं, उसमें बैठे हुए बौनों की ताकत उतनी अतुलित, असीमित होती जाती है
शीशमहलों की संस्कृति : शीश महल जितने ऊंचे होते जाते हैं, उसमें बैठे हुए बौनों की ताकत उतनी अतुलित, असीमित होती जाती है

तस्वीर, प्रधानमंत्री कार्यालय की है. शानदार लूटियन आर्किटेक्चर का भवन. लूटियन शैली की विशेषता थी कि इसके फीचर्स मुगलिया, राजपूत शैली से लूटे गए. यूरोपियन गोथिक शैली में यह लूट मिलाकर, लूटियन शैली विकसित की गई. लूटियन जोन की बिल्डिंगें अपने आप में हिंदुस्तान की जनता से लूटे गए धन के बेदर्द बेशर्म प्रदर्शन थी. इस तरह लूट के धन से बनी, लूटियन दिल्ली, इस गुलाम देश की राजधानी बनी.

शीशमहलों की संस्कृति भारत मे बड़ी पुरानी है. यही दिल्ली जब इंद्रप्रस्थ कहलाती थी, तब एक महल बना था. उसमें जल और थल का ऐसा आर्किटेक्चर था कि लोग जमीन समझ कर पानी मे कूद जाते. तो उसी महल में गूंजे ‘अंधे का पुत्र अंधा’ जैसे घटिया जुमले ने महाभारत की नींव रखी. वो महल मायावी मय ने बनवाया था. आज के मायावी मय भी शीशमहल बनवा रहे हैं. पर तब और अब के दौर में कुछ अंतर है.

तब राजाओं के भव्य अट्टालिका और प्रासाद, दरअसल ‘कम्प्लीट सीट ऑफ गवरमेंट’ थे. याने राजमहल में ही मंत्रालय, सचिवालय, सेना विदेश, निर्माण, राजस्व, वित्त के मुख्यालय होते. वही मीटिंग हॉल, आम खास दरबार, चपरासी और क्लर्क के निवास होते. राजा का अपना आवास, तो इस पूरे प्रतिष्ठान का छोटा हिस्सा होता. जिसे संस्कृत में अन्तःपुर, हिंदी में रनिवास, और उर्दू-फ़ारसी-अरबी में हरम कहते हैं. राजा की माताएं, बहनें वहां रहती.

कुल मिलाकर यह अमेरिका के व्हाइट हाउस जैसी व्यवस्था थी, जिसमें ओवल ऑफिस ही नहीं, पार्लियामेंट याने कांग्रेस, सीनेट, सब बना हुआ है. यहां सेकेट्री ऑफ फिनांस, स्टेट, डिफेंस, और तमाम विभागाध्यक्ष भी बैठते हैं. तो इसी में नार्थ साउथ ब्लॉक, रेल, निर्माण, कृषि और शास्त्री भवन भी है. तो व्हाइट हाउस, केवल ट्रम्प की ऐशगाह नहीं, पूरी सीट ऑफ गवरमेंट है.

लूटियन दिल्ली ऐसी नहीं बनी. वहां ऐशगाह सब अलग अलग है, कर्मगाह अलग. याने वाइसराय ए आजम, वहां रहते.. जहां आज राष्ट्रपति भवन है. इसे राजनिवास समझ लीजिए.  प्रधानमंत्री, तीन मूर्ति में आकर रहे, जो पहले ब्रिटिश फौज के कमांडर इन चीफ का घर था. लेकिन पीएम की कर्मगाह थी साउथ ब्लॉक. तो जैसे आम मध्यवर्गीय आदमी सुबह नहा धोकर ऑफिस जाता है, पीएम भी सुबह नहा धोकर काम पे जाते. वैसे ही सारे मंत्री औऱ सचिव भी. सबके बंगले अलग थे, और ऑफिस अलग.

प्रधानमंत्री नेहरू के 16 साल में, उनके दफ्तर को एक संयुक्त सचिव स्तर का अफसर कोऑर्डिनेट करता. यह दिल्ली के गलियारों में, सबसे जूनियर स्तर का सचिव पद होता है. कोई ताकत नहीं, कोई औरा नहीं. वो बस, समन्वय और सूचना केंद्र होता. फाइलें मंगाता भेजता.

पीएम का एक निजी पीए होता, जो उनके दैनिक कार्यक्रम देखता. एम. ओ. मथाई ने यह काम सम्हाला. 1959 में उन्हें भगा दिया गया. फिर सरकारी अफसर ही यह भी काम देखते. पार्टी से जीवंत सम्पर्क के लिए एक अघोषित पोलिटिकल सेकेट्री भी होता. यह काम लंबे समय तक शास्त्री ने किया.

बहरहाल, इंदिरा के समय में PMO ताकतवर होना शुरू हुआ. इंदिरा के पास लॉयल अफसरों की कोटरी थी, जो सर्वशक्तिमान कोटरी थी. ‘पीएमओ के प्रधान सचिव’ का नया पद बना. यह दौर इंदिरा के दुर्गा होने का था, जिसकी फ़्रेंजी इमरजेंसी में जाकर टूटी. आगे सत्ता बदली लेकिन PMO नाम की संस्था शक्तिशाली हो चुकी थी.

जरा फर्क समझें. PM का शक्तिशाली होना एक बात है. PMO का शक्तिशाली होना दूसरी बात. दरअसल पीएम तो शक्तिशाली है ही, क्योकि सारे मंत्री, हर विभाग का सचिव सारी ब्यूरोक्रेसी उसकी है. संविधान के अनुसार उसका प्रमुख अधिकारी कैबिनेट सेकेट्ररी है. लेकिन PMO एक अलग स्ट्रक्चर है. वहां पीएम के ‘विश्वस्त’ बैठते है. उनकी अपनी अपनी निजी सत्ताएं होती है. वे पीएम के कान में फुसफुसाने वाले लोग होते हैं.

अब जितने हरिराम नाई होंगे, अंग्रेजों के जमाने के जेलर की जेल में उतनी उतनी ज्यादा फुसफुसाहटें होंगी. उसके जासूस इस जेल के कोने कोने में फैले होंगे. तब पीएम उतना ही भीतग्रस्त, कंट्रोल फ्रीक, हेकडीबाज होगा. वह किसी पर भरोसा नहीं करेगा. हर जगह अपने ड्रोन भेजकर खुद निगरानी करेगा. कोटरी में धंसे नेताओ की यही नियति होती है. वे जनता से कट जाते हैं. ड्रोन और रोबोटो के कैदी हो जाते हैं. यह बात इंदिरा युग से मोदी युग तक लागू है. राजा किसी बगीचे से एक फूल तोड़ ले, तो फौज उस बगिया की जड़-जड़ खोद डालती है. तो यही सनक मुख्यमन्त्रियों पर भी लागू है.

नेहरू युग की लेगेसी थी, कि प्रधानमंत्री फर्स्ट अमंग इक्वल्स होता था. कैबिनेट मीटिंग में नीतिगत निर्णय होते. फिर मंत्रीपरिषद, और कैबिनेट सारा काम सम्हालती. फिर उनके मातहत सचिव इम्पलीमेंट करते, और आगे के लिए जरूरी सुझाव देते. ये सुझाव जमीनी अनुभवों औऱ औचित्य के आधार पर होते लेकिन पीएमओ और सीएमओ ने यह प्रक्रिया तोड़ दी. पीएमओ में बाबे, बोकली और रणबांकुरे सीधे सुझाव भेजने लगे तो नोटबन्दी होने लगी.

राज्यों में शुरआत गुजरात से हुई. जब एक सीएम ही अपने आप मे सम्पूर्ण सत्ता बन गया. गुजरात मॉडल फिर देश पर भी लागू हुआ. तब से दिल्ली में घुड़दौड़ मार्ग से तमाम सत्ता चलती है. पीएमओ का आकार विशाल है. दृग हो तो दृश्य अकाण्ड देखें, PMO में सारा ब्रह्मांड देखें. देखे की उसमे गगन लय है, पवन लय है. चर अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर, नश्वर मनुष्य है PMO अमर. सब काम उसी से पाते है. उसी में प्रसाद धर आते हैं.

वही सीधे मंत्रियों, सचिवों, उप सचिवों, सुरक्षा अधिकारियों और चपरासियो को निर्देश देता है. कड़ी निगाह रखता है. यत्र तत्र सर्वत्र वही मौजूद है. वह विदेश मंत्री है, रक्षा मंत्री है, रेल-भेल-तेल-जेल वह सबका नीति नियंता, मॉनिटर और इम्प्लेमेन्टर है. देखा देखी, तमाम सीएम भी यही प्रक्रिया अपनाते हैं. वे हर विभाग के सचिव, डीएम, एसडीएम, तहसीलदार, थानेदार, पटवारी और चपरासी को खुद डील करते हैं. और कैबिनेट में खाली बैठे मंत्री बयान देते हैं. ट्वीट करते हैं. ट्रोल करते हैं. अरे हां, रील भी बनाते हैं.

ऐसे मे PMO-CMO के आकार बढ़ना स्वाभाविक है. उसमें लोग बढ़ेंगे, अफसर आयेंगे. सब एक से एक लॉयल, तो उनके ऑफिस, उनके परिचारक, उनका टीमटाम. ये सत्ता के बगलगीर हैं. दरअसल स्वयं सत्ताधीश हैं. पिछले दरवाजे से सत्ता सुख भोग रहे हैं. जनता के प्रति जवाबदेह नहीं. उनकी शक्ति सीएम-पीएम के विश्वस्त होने से आई है.

तो राजा के इर्द गिर्द आंख कान बने बैठे शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश, शत कोटि जिष्णु जलपति धनेश, शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल, शत कोटि दण्डधर लोकपाल को आप टपरी में नहीं बिठा सकते. इन्हें भव्य चेम्बर चाहिए. टॉयलेट चाहिए. स्टाफ चाहिए. तो उनके सुख के लिये सीएम-पीएम के नाम पर बने भवन बड़े, भव्य, महंगे, आलीशान होते जाते हैं.

ये शीश महल जितने ऊंचे होते जाते हैं, उसमें बैठे हुए बौनों की ताकत उतनी अतुलित, असीमित होती जाती है. जनता जंजीर बढाकर इन्हें साधने में असफल है. तो क्या आश्चर्य, कि लोकतंत्र पर ग्रहण बनकर, मायावी मय के बनाये शीशमहलों की संस्कृति.. इस धरा पर पुनः लौट आई है.

जगनमोहन रेड्डी ने अपनी सरकार के दौर में विशाखापटनम के ऋषिकोंडा में 500 करोड़ का महल बना लिया, खबर चर्चा में है. मगर डेढ़ लाख करोड़ का शहर बन रहा है, ये बात किसी ने आपको नहीं बताई. बात चंद्रबाबू नायडू के सपनों के शहर अमरावती की है. अमरावती, वैसे तो पुराणों में इंद्र के शहर का नाम है लेकिन यह नायडू के द्वारा बनवाई जा रही, आंध्र प्रदेश की नई राजधानी का नाम भी है.

किस्सा तब से शुरू होता है, जब आंध्र प्रदेश में नायडू काबिज थे, राजधानी हैदराबाद थी कि तभी राज्य का विभाजन हुआ, तेलंगाना बना. हैदराबाद शहर तेलंगाना के हिस्से में आ गया. कुछ समय के लिए तो दोनों राज्य हैदराबाद ही शेयर करते, ठीक वैसे ही जैसे चंडीगढ़ को पंजाब और हरियाणा करते हैं लेकिन सुनर लेटर, नए राज्य के लिए, एक नई राजधानी की जरूरत थी.

नायडू ने विशाल, आधुनिक, वर्ल्ड क्लास राजधानी का सपना देखा. यह सपना मोदी जी के धौलेरा, याने दिल्ली से 6 गुना बड़े और न्यूयार्क से 10 गुना भव्य स्मार्ट सिटी वाली बकवास भर नहीं था. नायडू ने सीरियसली काम शुरू किया. बड़ी मात्रा में जमीन अधिग्रहण, आर्किटेचकर, प्लानिंग, सर्वे में ही हजारो करोड़ खर्चे हो गए. इतने में नायडू चुनाव हार गए. जगनमोहन रेड्डी ने सरकार बनाई. उन्हें यह प्रोजेक्ट, एक सफेद हाथी, और बेकार का फिजूलखर्च लगा. नई राजधानी का प्रोजेक्ट ठंडे बस्ते में चला गया.

बनिस्पत, रेड्डी ने बने बनाये, एक पुराने खूबसूरत शहर विशाखापटनम को ही राजधानी बनाने की बात की. वहां कुछ नए भवन बनाये. ऋषिकोंडा हिल पर जो भवन बने, इसी क्रम में बने. इसमें पूरे पांच सौ करोड़ खर्च हो गए. न्यूज वालों की मानें, तो सीएम के ऑफिस कम रेजिडेंस में इटालियन मार्वल, और 15 लाख का कमोड, 40 लाख का टब लगा है.

मने, भयंकर ही शीश महल बना है. ऐसा न्यूज वाली छम्मो चीख चीख कर बता रही है, और स्टूडियो में बैठा एंकर, जनता का धन बर्बाद होने पर, झूम झूम के अपना सर पीट रहा है. लेकिन मुझे फड़क नहीं पड़ता, उस भवन में 5 करोड़ लगे, या 50 …या फिर सच मे पूरे 500 करोड़ ही लगे हो. क्योंकि किसी भी हालत में, यह किसी बियाबान में 50 हजार करोड़ की लागत से एक समूचा शहर बसाने की सनक से बेहद सस्ता है.

ये 50 हजार करोड़ तो पुराना एस्टिमेट है. 5 साल बाद चंद्रबाबू नायडू फिर से सत्ता में लौट आये हैं. पुराना प्रोजेक्ट फिर गर्म बस्ते में लौट आया है. विकास के प्रोपगेंडे में अब बताया जा रहा खर्चा, मात्र डेढ़ लाख करोड़ जा चुका है. बतौर उनकी टेक पर केंद्र सरकार टिकी है, वे हार्ड बारगेनर भी है. केंद्र से धन की पाइपलाइन बिछी हुई है. इसमें कितने लाख करोड़ बह रहे हैं, किस नाले में जा रहे हैं, यह एंकर को नहीं पता. न्यूज वाली छम्मो को वहां घुसने की परमिशन नहीं.

जगनमोहन से मुझे कोई सिंपथी नहीं. वो छोटी मोटी रीजनल पार्टी के फालतू टाइप स्वार्थी नेता है. सत्ता में थे, तो बीजेपी से बढ़िया प्रेम सम्बन्ध रखे, इनके 22 लोकसभा और 10-12 राज्यसभा सांसद वस्तुतः बीजेपी की गोद मे ही खेलते थे. इसका लाभ लेकर तब, उन्होंने नायडू को जेल तक भिजवा दिया. वक्त बदला है, अब नायडू के हाथ में सत्ता है. तो बीजेपी उनके साथ है, और जगनमोहन मुकदमें झेल रहे हैं.

मुझे चिढ़ ये दो कौड़ी के चैनलों से है. सारे सुपारी किलर हैं. कई जमूरे इसे जगनमोहन की प्राइवेट प्रॉपर्टी बता हैं, कोई उसे ऐशगाह कह रहा है. उन्हें हर जिले में बने 2 करोड़ो के पार्टी ऑफिस, झंडेवालान में बना शीशमहल या 1200 करोड़ का केंद्रीय भाजपा कार्यालय के शौचालय में घुसकर टब के फोटो लेने की हिम्मत नहीं. इसे बनाने के पैसे कौन सी मनरेगा की मजदूरी से आये, कोई पूछता नहीं.

500 करोड़ पर कपड़ा फाड़कर नाचने वालो से, डेढ़ लाख करोड़ के अमरावती राजधानी प्रोजेक्ट की स्क्रूटनी कभी सुनी नही गयी लेकिन ऋषिकोंडा की स्टेट टूरिज्म बोर्ड की प्रॉपर्टी पर प्रायोजित हल्ला मचा रहे हैं. ये पूरा विषय इसलिए लिख रहा हूं कि आप कुछ भी देखें- पढ़े, तो पहले अपने सरसो बराबर दिमाग पर जोर लगायें. आज जो भी न्यूज टीवी पर आपको दिखाई दे रही है, उसमें झोल है. कोई न कोई झूठ है, चालाकी है. समाचार, सिर्फ बेईमानी की बारिश है.

  • मनीष सिंह 

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