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‘पुनरभियान सांस्कृतिक मंच’ का सांस्कृतिक अभियान

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प्रस्तुत आलेख ‘पुनरभियान सांस्कृतिक मंच के द्वारा जारी किया गया एक पर्चा है, जो हमलावर पूंजीवादी-साम्राज्यवादी संस्कृति के खिलाफ एक वैकल्पिक संस्कृति के निर्माण के लिए प्रयासरत है. कहना न होगा, पूंजीवादी-साम्राज्यवादी संस्कृति के विरुद्ध एक मात्र अति उन्नत और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित मजदूर वर्ग द्वारा निर्मित संस्कृति ही एकमात्र विकल्प है. इस आलेख के अंत में हम इस मंच द्वारा प्रस्तुत बातचीत और उनके सांस्कृतिक कार्यक्रमों का एक वीडियो भी दिया है, ताकि पाठक बेहतर समझ सके. – सम्पादक
'पुनरभियान सांस्कृतिक मंच' का सांस्कृतिक अभियान
‘पुनरभियान सांस्कृतिक मंच’ का सांस्कृतिक अभियान

हम जिस समाज में रह रहे हैं, वह वर्गों में विभाजित पूंजीवादी समाज है. यहां मुख्यतः दो विरोधी वर्ग हैं; जिनमें एक ओर उत्पादन के साधनों व अकूत संपत्ति के मालिकों का वर्ग-पूंजीपति वर्ग है तो दूसरी ओर, जिंदा रहने के लिए मजदूरी की गुलामी खटने को विवश विशाल मजदूर  वर्ग है. एक तरफ मुट्ठीभर परजीवी थैलीशाहों के पास लगातार बेशुमार धन-संपदा संचित होती जा रही है तो दूसरी तरफ, विशाल मजदूर-मेहनतकश समुदाय की गरीबी व बदहाली लगातार बढ़ती जा रही है. शोषण पर टिके इस समाज का मुख्य अंतर्विरोध पूंजी और श्रम के बीच का अंतर्विरोध है.

वर्ग-विभाजित समाज में सत्ताधारी वर्ग का आर्थिक उत्पादन के साथ ही वैचारिक उत्पादन पर, भौतिक मूल्यों के साथ-साथ आत्मिक मूल्यों के उत्पादन पर भी प्रभुत्व होता है; इसलिए उसी की संस्कृति का बोलबाला होता है. विद्यमान पूंजीवादी समाज में शासक-शोषक पूंजीपति वर्ग की प्रतिक्रियावादी संस्कृति प्रभावी है. पूंजीपति वर्ग का मूल ध्येय होता है- ज्यादा से ज्यादा मुनाफा और निजी संपत्ति का विस्तार, जिसे वह मजदूर वर्ग द्वारा उत्पादित भौतिक मूल्यों को निजी रूप में हड़प कर हासिल करता है. विचार-निर्माण के संस्थानों और प्रचार-प्रसार के साधनों पर अपने वर्चस्व का इस्तेमाल वह अपने वर्गहित में जनमानस तैयार करने तथा अपने शोषण-शासन का औचित्य सिद्ध करने में करता है.

पूंजीवादी संस्कृति पूंजी के प्रभुत्व और श्रम की गुलामी की संस्कृति

पूंजीवादी राजनीतिक, कानूनी, न्यायिक व शैक्षणिक संस्थाएं व विचार तथा पूंजीवादी कला, साहित्य, फिल्म व गीत-संगीत, आदि पूंजीपति वर्ग का ही हित-साधन करते हैं. शासक पूंजीपति वर्ग के चिंतक-बुद्धिजीवी अपने विचारों को तत्कालीन समाज के हित के विचारों के रूप में स्थापित करते हैं, जबकि असल में ये विचार पूंजीपति वर्ग को सत्ता में बनाए रखनेवाले विचार होते हैं. इस तरह पूंजीवादी संस्कृति पूंजीपति वर्ग के शासन को कायम रखने और उसे मजबूत करने की संस्कृति होती है. क्रांतिकारी मजदूर वर्ग आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक व सांस्कृतिक गुलामी से जूझते हुए शोषण-दमन के तमाम रूपों से समाज को मुक्त करने हेतु प्रगतिशील संस्कृति का वाहक होता है.

पूंजीवादी संस्कृति पूंजी के प्रभुत्व और श्रम की गुलामी की संस्कृति है. यह ‘अधिकांश जनता के लिए महज मशीन की तरह काम करने की प्रशिक्षा मात्र है.’ हम पाते हैं कि वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था का मकसद जनसामान्य को ज्ञान-विज्ञान से लैस करना नहीं बल्कि शिक्षार्थियों को ऐसे तोतारटंत कूपमंडूकों में ढालना है, जो पूंजीपति वर्ग के विनीत चाकर बन सकें. वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में किताबी ज्ञान और जीवन की वास्तविकता में कोई तालमेल नहीं मिलता; सैद्धांतिक पढ़ाई और व्यावहारिक जीवन में पूरी तरह अलगाव दिखाई देता है.

ऐसी शिक्षा अनुर्वर तथा दिमाग को जकड़नेवाली होती है. लोगों के मस्तिष्क में बस यही भाव भरा जाता है- ‘लूटो या लुटते जाओ, दूसरों के लिए मेहनत करो या दूसरों से मेहनत कराओ, गुलाम रखो या दूसरों के गुलाम बनो. …या तो आप गुलामों के मालिक बन सकते हैं या गुलाम,या फिर छोटे-छोटे मालिक, छोटे-मोटे कर्मचारी, छोटे-मोटे अधिकारी,या बुद्धिजीवी ..’पूंजीवादी संस्कृति मालिकों और अधीनस्थों के पद-सोपान की संस्कृति है. निजी संपत्ति की इस व्यवस्था में कूपमंडूकतापूर्ण व्यक्तिवाद हावी  है; सामाजिक समस्याओं से नजरें बचाते हुए दूसरे की चिंता किए बगैर, बल्कि गलाकाट प्रतियोगिता में दूसरों को रौंदकर किसी भी तरह से निजी लाभ हासिल कर लेना ही जीवन का मकसद बना हुआ है.

पूंजीपति वर्ग के लिए वैज्ञानिक और तकनीकी विकास का उतना ही महत्व है, जितना वह उसे ‘मालदार बनाने में सहायक’ होता है. सस्ते श्रम के फेर में तो वह तकनीकी विकास के रास्ते में अवरोध बनकर खड़ा हो जाता है. उसे आम जनता के ज्ञानवर्धन, उसकी तार्किक-बौद्धिक क्षमता के विकास एवं अब तक की वैज्ञानिक प्रगति की उपलब्धियों को पूरे समाज के हित में उपयोग करने में कोई दिलचस्पी नहीं.

प्रतिक्रियावादी पूंजीवादी संस्कृति

खास ऐतिहासिक युग में जब तत्कालीन पूंजीपति वर्ग प्रतिक्रियावादी सामंत वर्ग से लड़ रहा था और धर्म की आलोचना कर रहा था, तब वह क्रांतिकारी था, लेकिन आज जनता की समस्याओं को हल करने में अपनी अक्षमता के चलते एवं मजदूर-मेहनतकश जनता से डरकर, उन्हें मतिमूढ़ बनाने के मकसद से उनके बीच धार्मिक अंधविश्वास व कठमुल्लापन के साथ-साथ तमाम जनवादविरोधी मध्ययुगीन विश्वासों का जाल फैला रहा है. भारतीय पूंजीवादी राज्य तो हिन्दू धार्मिक कर्मकांडों को सम्पन्न करने में पिला हुआ है.

शासक वर्ग मिथ्या विज्ञान व ‘मरे से मरे और अत्यंत घृणित प्रतिक्रियावादी विचारों को बढ़ावा’ देकर आम जनों को जानबूझकर अज्ञानता की अवस्था में रखना चाहता है. सामाजिक प्रगति में सहायक वैज्ञानिक चिंतन को कुंद करने के उद्देश्य से पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकार शिक्षण व शोध-संस्थानों में धर्म और विज्ञान के घालमेल की चासनी तैयार करवाते हैं. यहां के विद्यालयों की कक्षाएं तो ईश-प्रार्थना के बाद ही शुरू होती है.

इधर मेडिकल व इंजीनियरिंग कॉलेजों में ‘रैगिंग’ एवं जन्मदिन मनाने के दौरान ‘बर्थ डे ब्वाय’ की पिटाई करने के रिवाज से मनुष्य के अपमान व मानवीय गरिमा के हनन में आनंद लेने की संस्कृति जन्म ले चुकी है. महाकाव्यात्मक मिथकों को ऐतिहासिक व वैज्ञानिक तथ्य के रूप में प्रचारित करके, शोषण व विषमताओं से छुटकारा पाने से संबंधित विचारों को पनपने से रोकने की कोशिशें की जाती हैं.

असामाजिक हो चुके पूंजीपति वर्ग  को अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए प्राचीन और मध्यकालीन शोषक-शासक वर्गों की प्रतिक्रियावादी संस्कृति के तत्वों को आज ढाल के रूप में इस्तेमाल करना पड़ रहा है. आज पूंजीवाद साम्राज्यवाद की अवस्था में, यानी मरणासन्न स्थिति में पहुंचकर सड़ रहा है और बदबू फैला रहा है.
शातिर पूंजीपति वर्ग, उसका राजनीतिक नेतृत्व, उसके विचारक, उसके धर्माचार्य लोगों के बीच धर्म व जाति के आधार पर विद्वेष, नफरत, धर्मभीरुता, भाग्यवाद, अस्मितावादी (पहचानवादी)  प्रवृत्तियों के घातक विषाणु फैलाने में दिन-रात लगे रहते हैं.

भारत में धर्म और जाति की राजनीति को पतनोन्मुख पूंजीवाद की बैसाखी के रूप आज देखा जा सकता है. परजीवी शासक वर्ग और उसके लगुए-भगुए का उपरोक्त प्रचारों के पीछे यही उद्देश्य है कि पूंजीवाद की अंधी शक्तियों से त्रस्त मजदूर-मेहनतकश समुदाय अपनी असह्य, नारकीय जिंदगी के वास्तविक कारणों से अनभिज्ञ रहे, मजदूरों में वर्गीय चेतना जागृत न हो सके और वह आपस में बंटा रहे, उलझता रहे ताकि वह अपनी गुलामी से मुक्ति हेतु उठ न सके और वित्त पूंजी का शासन अक्षुण्ण बना रहे.

पूँजीवाद ने ‘भौतिक या नैतिक’ हर चीज को बिक्री के लिए बाजार में प्रस्तुत कर दिया है और रक्त-संबंध व अन्य संबंधों को रुपए-पैसे के संबंधों में तब्दील कर दिया है. निजी संपत्ति पर आधारित पूंजीवादी परिवार पतनोन्मुख है, जहां कलह का कोलाहल है ! खेल को भी रुपए की सत्ता ने नहीं छोड़ा. क्रिकेट या अन्य खेलों में सट्टेबाजी से सभी परिचित हैं. पूंजीवादी नेताओं द्वारा वोट खरीदना और अवसर आने पर करोड़ों रुपए में रातोंरात पार्टी बदल लेना तो आजकल अक्सर देखने को मिलता है.

पूंजीवादी संस्कृति में नारियों की घोर दुर्दशा और सांस्कृतिक पतन

पूंजीपति वर्ग नारी को भोग-विलास की वस्तु तथा निजी संपत्ति की विरासत संभालने के लिए बच्चे पैदा करने की मशीन समझता है. मुनाफे के लिए विज्ञापन से लेकर खेल की दुनिया तक में नारी-शरीर का उपयोग सेक्स-वस्तु के रूप में किया जा रहा है. ‘बलात्कार गेम’, ब्लू फिल्में, अश्लील व फूहड़ गीत-संगीत, सबके केंद्र में नारी-शरीर है. धार्मिक आयोजनों में भी पुरुषों की कौन कहे, नारियों के अश्लील नृत्य देखने को मिल जाते हैं.

नारियों की घोर दुर्दशा और सांस्कृतिक पतन की इससे बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है, जब बलात्कारियों के समर्थन में प्रदर्शन होते हों, उन्हें माला पहनाया जाता हो और औरतों को निर्वस्त्र कर सड़क पर दौड़ाया जाता हो. आज नारी पूंजीवाद और घरेलू दासता की दोहरी गुलामी झेलने को अभिशप्त है. वह जहां सदियों से चली आ रही पितृसत्ता की जकड़न तोड़ने के लिए अब भी छटपटा रही है वहां पुरुष-विशेषाधिकार से युक्त पूंजीवादी संबंधों के प्रहार से आज भी त्रस्त है.

आधुनिक संचार-माध्यमों, मीडिया वाहक बना पूंजीवाद की सड़ांध संस्कृति का

आधुनिक संचार-माध्यमों, मीडिया के जरिए पूंजी के मालिकों व पूंजीवादी संस्कृति की पहुंच घर-घर तक है और बच्चे तक इसकी गिरफ्त में हैं. मुनाफे के उद्देश्य से अश्लील नाच-गानों से भरपूर जो फिल्में जनता को परोसी जाती हैं, उनमें जहां सच्चाई का गला घोंटा जाता है, वहीं कुरुचिपूर्ण  मनोरंजन, क्रूरता में आनंद लेने की प्रवृत्ति को और व्यक्तित्व की क्षुद्रता को बढ़ावा मिलता है. पूंजीपति वर्ग के हीरो के रूप में फिल्मों में बलात्कारी, ठग, चोर, हत्यारे, मनोरोगी, आदि स्थापित किए जा रहे हैं.

टी.वी. के धारावाहिक जीवन के यथार्थ से दूर, अतार्किक व सतही भावुकतापूर्ण होते हैं जो जीवन के प्रति अगंभीर, व्यक्तिवादी व कूपमंडूक बनाते हैं. समाचार-चैनलों की चिंता जनजीवन की वास्तविकता दिखाना नहीं बल्कि झूठ व सनसनी फैलाकर लोगों को दिग्भ्रमित करना है. आज टी.वी. चैनलों पर धार्मिक कुपमंडूकता को बढ़ावा देने हेतु धर्माचार्यों, ज्योतिषियों व राशिफल बतानेवालों को सम्मान के साथ आमंत्रित किया जा रहा है, ताकि वे विज्ञान के खिलाफ विष-वमन कर सकें.

पूंजीवादी साहित्य और पत्रकारिता ऐसे ‘परजीवी पौधे’ की तरह हैं, जिनका काम हकीकत को ढकना है. पूंजीवादी साहित्यकार अराजकता के माहौल में जीवन की वास्तविकता का सामना करने से पलायन करके बौद्धिक रूप से दिवालिया हो गए हैं तथा नकारात्मक रूमानवादी, क्रांतिकारी परिवर्तन के प्रति निराशावादी, कामोत्तेजक, रहस्यवादी रचनाओं के द्वारा आत्मा को कलुषित कर रहे हैं.

प्रचुरता के बीच अभाव का भयावह दृश्य

अति-उत्पादन के अफारे से ग्रस्त अस्तित्वमान पूंजीवादी व्यवस्था में प्रचुरता के बीच अभाव का भयावह दृश्य है ! अमानवीय एवं दमघोंटू कार्य-दशाओं, बेकारी-कंगाली  व भुखमरी के हालात में व्यापक मजदूर-मेहनतकश आबादी घोर निराशा, हताशा, कुंठा, आत्महत्या व अवसाद, आदि का शिकार हो रही है तथा मानवोचित गरिमा  से च्युत होकर वेश्यावृत्ति, भीखमंगी व आवारागर्दी के गलीज नाले में धकेली  जा रही है. झूठ, पाखंड, अपराध, लूट, ठगी, भ्रष्टाचार, सट्टेबाजी एवं जनवादी-समाजवादी मूल्यों के विरुद्ध कुकृत्यों में डूबा विश्व-पूंजीपति वर्ग धार्मिक-नस्लीय दंगों, युद्धों के द्वारा भयानक नरसंहार कर रहा है.

लूट-मुनाफा के लिए पूंजीपति वर्ग धरती को तहस-नहस कर पर्यावरण को भारी क्षति पहुंचा रहा है, जिससे मानव-जीवन पर संकट बढ़ता जा रहा है. श्रम संस्कृति का आधार है लेकिन श्रम पर पूंजी के शासन के अंतर्गत जब बेकार लोग भटक रहे हों और लोगों पर आफत टूट पड़ा हो, तो हम कह सकते हैं कि पूंजीपति वर्ग की संस्कृति मनुष्य के विरोध में ही खड़ी हो गई है. प्रतिक्रियावादी पूंजीवादी संस्कृति घृणित फासीवाद का सांस्कृतिक आधार तैयार करने में जुटी हुई है.

लेकिन, हमें भूलना नहीं चाहिए कि वर्ग-विभाजित युगों, समाजों एवं राष्ट्रीयताओं में शोषक वर्गों की प्रतिक्रियावादी संस्कृति के साथ-साथ शोषित-उत्पीड़ित वर्गों की प्रगतिशील संस्कृति भी रही है, जिसने जनमानस में शक्ति का संचार किया है एवं बौद्धिक-सांस्कृतिक विकास में उल्लेखनीय योगदान किया है.

मजदूर वर्ग सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक सांस्कृतिक थाती का सर्जक है

मजदूर वर्ग मूल्य का सर्जक है. क्रांतिकारी मजदूर वर्ग ने अब तक के मानव-ज्ञान को, विभिन्न युगों के प्रगतिशील, जनवादी-समाजवादी बेशकीमती तत्वों को सिर्फ संजोकर ही नहीं रखा है, बल्कि उन्हें नया रूप प्रदान किया है तथा सर्वहारा संस्कृति को स्थापित किया है. इस वर्ग ने कला-साहित्य संबंधी उत्कृष्ट रचनाओं से अपने को समृद्ध करते हुए समाजवादी यथार्थवाद तक का सफर तय कर लिया है. सिर्फ रोटी का सवाल उसके सामने नहीं है, उसके कंधे पर मानवजाति का भविष्य टिका है. शोषणविहीन दुनिया के निर्माण के लिए उसे सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक, क्रांतिकारी विचारों-सिद्धांतों एवं सांस्कृतिक थाती चाहिए, जिनसे क्रांतिकारी मजदूर वर्ग लैस है.

समाज की चिंता करनेवाले बुद्धिजीवियों-संस्कृतिकर्मियो, आज के सांस्कृतिक संकट के कठिन समय में आपको तय करना होगा कि आप किसके पक्ष में खड़े हैं. आप शासक-शोषक पूंजीपति वर्ग की तरफ हैं या शोषित-उत्पीड़ित व्यापक मेहनतकश समुदाय का प्रतिनिधित्व करनेवाले मजदूर वर्ग की तरफ हैं ? तटस्थ रहने का मतलब है, परजीवी पूंजीपति वर्ग के सामने घुटने टेक देना. समाज के वास्तविक उत्पादकों, यानी मजदूर वर्ग के शोषक वर्गों के खिलाफ संघर्षों की समृद्ध परंपरा को सामने लाने, संस्कृति की सर्वोत्तम उपलब्धियों-धरोहरों की रक्षा करने और उसे आगे ले जाने का कार्यभार मजदूर वर्ग के संस्कृतिकर्मियों के ऊपर है.

जन-जीवन से जुड़ना, आलोचनात्मक होकर सीखना-सिखाना और इस क्रम में मजदूर-मेहनतकश जनता को सांस्कृतिक रूप से उन्नत करनातथा जीवन-संघर्षों में उन्हें आत्मबल प्रदान करना; जड़ता, निराशा व गुलामी से मुक्ति के संघर्षों में उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ना–यह है हम संस्कृतिकर्मियों का काम. आत्मा के शिल्पियो, उठो, नए जागरण के झंडे के अलमबरदार बनो ! आओ, मजदूरों-मेहनतकशों के सांस्कृतिक पुनरभियान में सहभागी बनो !!

  • संपर्क : 9576035916, 9939499494

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ROHIT SHARMA

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