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क्रिकेट का तमाशा : बाजार को तमाशा चाहिए और तमाशा को बाजार

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हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

बचपन में क्रिकेट से जुड़ी एक कहानी पढ़ी थी. एक बार सुनील गावस्कर किसी टेस्ट मैच में ओपनिंग बैटिंग करने गए और दुर्भाग्य से जीरो पर आउट हो गए. स्टेडियम में सन्नाटा छा गया. तब के दौर में गावस्कर भारतीय क्रिकेट की शान थे और उन्हें खेलते देखने के लिए लोग सैकड़ों किलोमीटर दूर की यात्राएं कर स्टेडियम पहुंचते थे. उन्हें इस तरह जीरो पर आउट हुआ देख लोगों को भारी निराशा हुई लेकिन, किया भी क्या जा सकता था ? आखिर, यह क्रिकेट था, जिसमें ऐसा होता ही है.

इधर, गावस्कर भारी मन और धीमे कदमों के साथ पैवेलियन लौटे. बिना किसी से कोई बात किए उन्होंने बल्ला एक तरफ पटका और सोफे पर निढाल होकर पड़ गए. किसी साथी खिलाड़ी को हिम्मत नहीं हुई कि उनके पास जा कर उन्हें ढाढस बंधाए. तभी, पॉली उमरीगर, जो अपने समय के बहुत बड़े बल्लेबाज थे और उस वक्त क्रिकेट प्रशासन में किसी ऊंचे ओहदे पर थे, पानी का एक ग्लास लेकर गावस्कर के पास पहुंचे.

गावस्कर उनका बहुत सम्मान करते थे. उमरीगर को पानी का ग्लास लाता देख वे उठने को हुए लेकिन, जब तक वे उठ पाते, उमरीगर वहां पहुंच गए और गावस्कर के कंधे को दबाते हुए उन्हें बैठे रहने का इशारा किया और पानी का ग्लास पकड़ाया –  ‘…क्रिकेट में ऐसा होता है…’. उमरीगर ने गावस्कर को कहा और उनकी बगल में बैठ कर उन्हें कुछ समझाने लगे. अगली पारी में गावस्कर ने बेहतरीन 73 रन बनाए.

रॉस टेलर न्यूजीलैंड के महान बल्लेबाज थे, जिन्होंने हाल में ही अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से संन्यास लिया है. टेस्ट और वन डे क्रिकेट रिकार्ड में उनकी बेहतरीन पारियां दर्ज हैं. वे आईपीएल खेल रहे थे. एक मैच में वे शून्य पर आउट हो गए. उनकी टीम भी हार गई. मैच खत्म होने के बाद टीम के मालिक ने सबके सामने उन्हें तीन-चार थप्पड़ रसीद कर दिए और कहा, ‘मैं ने तुम्हें करोड़ों रूपये में खरीदा है…जीरो पर आउट होने के लिए नहीं.’

रॉस टेलर ने कुछ दिनों पहले प्रकाशित अपनी आत्मकथा में इस घटना का विवरण देते हुए लिखा, ‘हालांकि उन थप्पड़ों में आक्रामकता नहीं थी और वे बहुत जोर से नहीं मारे गए थे, लेकिन मैं उसका अर्थ समझ रहा था. जो हुआ वह सार्वजनिक रूप से हुआ. मैंने बातों को तूल नहीं दिया और चुप रह गया.’

सुनील गावस्कर अपने देश की टीम में चुने गए थे जैसे कि रॉस टेलर भी अपने देश की टीम में चुने जाते रहे. लेकिन, रॉस टेलर की आईपीएल टीम ने उन्हें चुना नहीं था, बल्कि ‘खरीदा’ था. आईपीएल में खिलाड़ी खरीदे ही जाते हैं और अगर वे मैच जिताऊ खिलाड़ी हैं तो उन्हें भरपूर कीमत भी मिलती है. जब से क्रिकेट का बाजार सजा या कहें, बाजार में क्रिकेट उतरा, खिलाड़ी नायक न हो कर अपने क्लबों के लिए मुर्गे बन गए.

मध्यकाल में सामंत लोग मुर्गे लड़वाया करते थे और आम जन भी उन तमाशों का मजा लेते थे. खुश हो हो कर तालियां बजाते थे. मुर्गों का कोई देश या राज्य या मोहल्ला नहीं होता था, उनके सिर्फ मालिक होते थे. आधुनिक दौर में सामंतों की जगह पैसे वाले मालिकों ने ले ली और मुर्गों की जगह खिलाड़ियों ने ले ली. बाजार ने क्रिकेट को बेशुमार पैसा दिया लेकिन क्रिकेट से उसकी आत्मा और खिलाड़ियों से उनकी गरिमा छीन ली.

आईपीएल में जब पहली बार विभिन्न शहरों पर आधारित टीमें बनीं तो उनका स्वरूप नितांत व्यावसायिक था लेकिन, भारतीय क्रिकेट प्रेमियों की भावनाओं और टॉप के कुछेक भारतीय क्रिकेटरों के उनके शहरों से जुड़ाव को देखते हुए ‘आइकन प्लेयर’ की परिकल्पना की गई. यानी जो खिलाड़ी अपने शहर में किसी आइकन की तरह लोकप्रिय हैं उन्हें नीलामी की प्रक्रिया में न डाल कर उनके शहर की टीम से जोड़ दिया गया और नियम बनाया गया कि वह टीम नीलामी में किसी खिलाड़ी को जिस अधिकतम कीमत पर खरीदेगी, अपने आइकन प्लेयर को उससे 15 प्रतिशत अधिक पैसे देगी.

पहले सीजन में इन आइकन खिलाड़ियों को खूब सम्मान दिया गया. खूब पैसा भी. कोलकाता की टीम में सौरव गांगुली, बैंगलोर की टीम में राहुल द्रविड़, हैदराबाद में वी. वी. एस. लक्ष्मण, पंजाब में युवराज सिंह, मुंबई में सचिन तेंदुलकर आइकन प्लेयर बने. शायद, एकाध कोई और भी बने हों. लेकिन, जीत, मुनाफा, ब्रांड वैल्यू आदि बाजारवादी मानकों पर गठित उन आईपीएल टीमों के लिए स्थानीयता और भावुकता पर आधारित आइकन प्लेयर की परिकल्पना पहले दूसरे साल से ही बोझ बनने लगी. कोई टीम मालिक भावुक नहीं हुआ, न उन्हें किसी खिलाड़ी की गरिमा का बोध रहा. साल दो साल बीतते बीतते एक सचिन को छोड़ बाकी सारे के सारे आइकन साहब बाकायदा धकिया कर, लतिया कर अपने अपने शहरों की टीमों से बाहर कर दिए गए.

अब ‘प्रिंस ऑफ कोलकाता’ कोलकाता टीम से बाहर थे, ‘पंजाब दा पुत्तर’ युवराज सिंह पंजाब से बाहर हुए, नजफगढ़ के नवाब अंततः दिल्ली के नहीं रह सके, जबकि महान राहुल द्रविड़ और वेरी वेरी स्पेशल लक्ष्मण की तो बुरी गत हो गई. साबित हुआ कि बाजार की गला काट प्रतिस्पर्धा में, जहां ब्रांड वैल्यू के लिए तमाम ‘वैल्यूज’ दरकिनार कर दिए जाएं, न भावुकता का कोई स्थान है, न महानता की गरिमा का.

20 ओवरों के मैच एक्साइटिंग होते हैं लेकिन क्रिकेट की शास्त्रीयता को मैदानों से बाहर धकेल कर ही ये मैच खेले जाते हैं. इनकी पद्धति ही यही है. अब, द वॉल द्रविड़ की तो फजीहत हो गई क्योंकि कोई टीम उन्हें बल्ला थमाने को तैयार नहीं रह गई, लक्ष्मण बेचारे बना दिए गए, गांगुली ‘अनसोल्ड’ रह गए, संगकारा, जयवर्धने आदि क्लासिक बल्लेबाज इस नई दुनिया में बेहद साधारण नजर आने लगे.

टी20 के नए नायकों का उदय हुआ. नई पीढ़ी के खिलाड़ियों ने अपने खेल को इस तरह ढालने का अभ्यास किया कि वे हर तरह की क्रिकेट में प्रासंगिक बन सकें लेकिन, तब भी, आज की क्रिकेट में दुनिया के टॉप तीन बल्लेबाजों में शुमार स्टीव स्मिथ आईपीएल में अनबिके रह गए. यह कैसी क्रिकेट है जिसमें स्टीव स्मिथ, द्रविड़, गांगुली, लक्ष्मण, माहेला जयवर्धने जैसे क्रिकेट के इतिहास पुरुष ‘अनसोल्ड’ रह जाते हैं ?

महान सुनील गावस्कर अगर आज खेलते रहते तो इस बात का पूरा खतरा था कि वे नीलामी में अपनी कीमत की तख्ती लगा कर बाजार किनारे बैठे रह जाते और उन्हें कोई कुछ भाव नहीं देता और शून्य पर आउट होने पर पानी का ग्लास लेकर कोई सीनियर क्रिकेट अधिकारी सहानुभूति दर्शाने तो नहीं ही आता. टीम के खुर्राट सीइओ या मालिक के बेटे की चुभती निगाहें उन्हें जलील करती.

रॉस टेलर ने रिटायरमेंट के बाद साफगोई से अपनी कहानी कह डाली, लेकिन न जाने कितने खिलाड़ी होंगे जो मालिकों और उनके अधिकारियों के द्वारा बेइज्जत किए जाते होंगे और लाज के मारे किसी को कुछ कहते नहीं होंगे. आईपीएल के लीग मैचों में भी खिलाड़ियों पर इतना दबाव रहता है जितना अपने देश के लिए किसी फाइनल या सेमी फाइनल खेलते वक्त भी नहीं होता.

बाजार ने क्रिकेट को मुर्गा लड़ाई और क्रिकेटरों को मुर्गा बना कर अकल्पनीय पैसा दिया है. जाहिर है, पैसा महत्वपूर्ण है. देखते ही देखते किसी छोटे शहर का क्रिकेटर करोड़पति बन जाता है, फिर जल्दी ही गुम भी हो जाता है. बाजार ने क्रिकेट से उसकी आत्मा छीन ली है, उसकी शास्त्रीयता को धकिया कर किनारे लगा दिया है. हर देश में लीग क्रिकेट का बोलबाला बढ़ रहा है. यह सब टेस्ट क्रिकेट के टेंपरामेंट को भी प्रभावित कर रहा है.

क्रिकेट बदल रहा है. इतना बदल रहा है कि भले ही बैट और बॉल से ही इसे खेला जाता रहे, लेकिन एक दिन यह क्रिकेट नहीं रह जाएगा. टी20 से टी10 तक आते यह सिक्स बाई सिक्स तक पहुंच रहा है. बाजार को तमाशा चाहिए और तमाशा को बाजार चाहिए और पैसा…? वह तो सबको चाहिए. समय आएगा कि एक दिन क्रिकेट का स्वरूप दो सांडों की लड़ाई का हो जाएगा. हम सब खूब तालियां बजाएंगे.

क्रिकेट अगर जिंदा रहेगा तो टेस्ट क्रिकेट में रहेगा. लोग बाग कहेंगे, जैसा कि कह भी रहे हैं, क्रिकेट तो टेस्ट क्रिकेट ही है. जिस दिन टेस्ट खेलना बंद हो जाएगा, क्रिकेट की कब्र पर फूल चढ़ा कर परंपराओं से प्रेम करने वाले लोग उदास भाव से उसे याद किया करेंगे.

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