सुब्रतो चटर्जी
हम आज अपने लोकतांत्रिक इतिहास के एक मज़ेदार मोड़ पर खड़े हैं. बहुत हो गई चुनावी अदावत और हिंसा प्रतिहिंसा. अब आने वाले समय के मज़ेदार पक्ष का आनंद लें. ये तो तय हो गया है कि जिस व्यक्ति को उसकी पार्टी के संसदीय दल ने अपना नेता नहीं चुना है, उसे महामहिम राष्ट्रपति ने सरकार बनाने के लिए न्योता दे दिया है.
संसद में सबसे बड़ा दल होने के नाते तो भाजपा को यह निमंत्रण मिलना ही था, क्योंकि सांविधानिक न सही, यह हमारे लोकतंत्र एक स्वस्थ परंपरा ज़रूर है. बात तो इसके आगे की है. मोदी को बिना भाजपा के संसदीय दल की अनुशंसा से निमंत्रण देने का अर्थ यह है कि महामहिम राष्ट्रपति मोदी को ही भाजपा मानतीं हैं. एक प्राक्तन संघी होने के नाते यह उनकी मंदबुद्धि होने का परिचायक है.
ख़ैर, चूंकि हम किसी को चरित्र, बुद्धि या ज्ञान देने में असमर्थ हैं, इसलिए इस बात पर चर्चा करने का कोई मतलब नहीं है. अब आते हैं नये लोकसभा की संभावित तस्वीर पर.
एक तरफ़ 240 में से 140 चोरी की सीटें लेकर हीन भावना ग्रस्त अनपढ़ प्रधानमंत्री होंगे और दूसरी तरफ़ अकेले दम पर भाजपा को हराने वाले नैतिक बल लिये राहुल गांधी होंगे. संसद के सत्रों में राहुल अपने एजेंडे के तहत रोज़ कॉरपोरेट दलाल मोदी की फ़ज़ीहत करेंगे और मोदी आएं-बाएं बकते रहेंगे.
अग्नि वीर, 30 लाख करोड़ शेयर घोटाले, पूंजीपतियों के क़र्ज़ माफ़ी और भारत को पुलिस स्टेट में बदलने के खिलाफ सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों तरफ़ से हमले होंगे. मोदी के सहयोगी भी पुलिस क़ानूनों में हुए बदलाव के विरूद्ध में रहेंगे, क्योंकि इनका इस्तेमाल उनके ख़िलाफ़ भी देर सबेर होगा ही.
इधर, राहुल गांधी किसानों की क़र्ज़ माफ़ी के लिए लड़ेंगे और मोदी के सहयोगी भी उनके साथ खड़े मिलेंगे, क्योंकि उनकी राजनीतिक ज़मीन ही ख़त्म होने का डर रहेगा. अगर मोदी जी ने तोड़ फोड़ कर बहुमत का जुगाड़ कर भी लिया तो अगले चुनाव में भाजपा की महाराष्ट्र गति हो जाएगी.
दूसरी तरफ़, राहुल गांधी पर अपनी चुनावी वादों को निभाने का कोई दवाब नहीं होगा, क्योंकि वे सत्ता में नहीं हैं. इस तरह से एक मज़ेदार स्थिति बन जाएगी जिसमें राहुल गांधी जनता के लिए लड़ते हुए संसद के भीतर और बाहर दोनों जगह दिखेंगे और मोदी का जनविरोधी चेहरा और ज़्यादा उजागर होगा. इसे कहते हैं बिना ज़िम्मेवारी के विश्वसनीयता.
मुझे नहीं मालूम कि सत्ता पाने पर राहुल अपने कितने वादों को ज़मीन पर उतार सकते थे, लेकिन मुझे यह मालूम है कि विपक्ष में बैठ कर राहुल जनता की आंखों में वे सारे ख़्वाब ज़िंदा रख पाएंगे जो उन्होंने चुनावी भाषणों में दिखाए थे. राजनीति एक दिन का खेल नहीं है. हार की जीत इसे ही कहते हैं.
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