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CPM : बोलने में मार्क्सवादी, कार्य में ब्राह्मणवादी

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‘विश्व साम्राज्यवाद का अंतिम पतन जैसे-जैसे पास आया, दुनिया भर की संशोधनवादी पार्टियों के नेतृत्व ने जन संघर्षों से दगा करना शुरू कर दिया था. स्टालिन की मौत के बाद सोवियत संशोधनवादी गद्दार गुट ने सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व पर कब्ज़ा कर लिया और दुनिया के संशोधनवादी गद्दार गुट संयुक्त रूप से दुनिया के साम्राज्यवाद को नष्ट होने से बचाने के लिए काम करने लगे. भारत के गद्दार, कम्युनिस्ट का नक़ाब लगाये, चीनी क्रांति की विजय से भयानक रूप से डर गए और बिना शर्त तेलंगाना संघर्ष को वापस ले लिया और संसदवाद का रास्ता अपना लिया.’

– चारू मजुमदार, ‘चुनाव का बहिष्कार करो !’ इस नारे के पीछे का अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व

CPM : बोलने में मार्क्सवादी, कार्य में ब्राह्मणवादी
CPM : बोलने में मार्क्सवादी, कार्य में ब्राह्मणवादी

चारू मजुमदार जिन गद्दार गुटों की बात करते हैं उनमें, भारतीय जनता की राजनीति में भाकपा (मार्क्सवादी) का उल्लेखनीय रूप से विशिष्ट स्थान है. पार्टी की 23वीं कांग्रेस के बाद घोषित अपने राजनीतिक प्रस्तावों में पार्टी ने चिन्हित किया कि भाजपा का हिंदुत्व का एक राष्ट्रीय एजेंडा है, जो फ़ासिस्ट आरएसएस के हितों की सेवा करती है. पार्टी यहां तक चिन्हित करती है कि भाजपा की नवउदारवादी सुधार और निजीकरण की नीतियां ‘अमरीकी साम्राज्यवाद के प्रमुख अधीनस्थ सहयोगी’ के रूप में काम कर रही हैं. और यह उनके द्वारा की जाने वाली हिंसा का एक प्रमुख कारण है.

पहले तो वे अपनी स्वतंत्र अवस्थिति और व्यापक ‘वाम ताकतों’ को मजबूत करते हुए ‘हिदुत्व साम्प्रदायिक कॉर्पोरेट’ गठजोड़ से निपटने की बात करते हैं. ये प्रस्ताव पार्टी के व्यवहार से बिलकुल अलग हैं. दिल्ली में माकपा कॉर्पोरेट सांप्रदायिक गठजोड़ में अडानी की भूमिका के ख़िलाफ़ परचा निकालते हैं और केरल में अडानी की विझिन्जम पोर्ट प्रोजेक्ट के ख़िलाफ़ प्रतिरोध कर रहे मछुवारों के ख़िलाफ़ पार्टी व्यापक हिंसा करती है और यहां तक कि भाजपा के साथ पोर्ट प्रोजेक्ट के समर्थन में एक संयुक्त रैली की घोषणा करती है. अपने सामाजिक फासीवादी राजनीति में माकपा का मौखिक कथन बिलकुल उल्टा है, जो सजावटी मार्क्सवाद का अनुसरण करते हैं लेकिन भारत में अपनी सीमित राजनीतिक सत्ता को बनाये रखने के लिए फासीवाद से चिपके रहते हैं.

माकपा भारत में सबसे उल्लेखनीय और सबसे बड़ी संसदीय वाम पार्टी है. भारत की कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन के बाद भाकपा (मार्क्सवादी) का उदय हुआ. माकपा बंगाल में तीन दशकों से ज़्यादा शासकवर्ग पार्टी रही. और अभी केरल में सत्ताधारी पार्टी है. केरल में विकास का जो मॉडल अपनाया गया है उसे शेष भारत के विकास के शोषणकारी मॉडल का विकल्प माना जाता है. विकास के इस विकल्प पर अब सवाल उठ रहे हैं. वस्तुतः, विकास का यह मॉडल जनता के हितों की सेवा नहीं करता, बल्कि यह साम्राज्यवादी पूंजी की सेवा करता है.

डेमोक्रेटिक यूथ फेडरेशन ऑफ इंडिया (DYFI), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) (CPM) की युवा शाखा ने हिंदू भगवान गणेश की छाया में कम्युनिस्ट भगत सिंह और चे ग्वेरा के साथ एक पोस्टर प्रकाशित किया.

कम्युनिस्ट पार्टी या ब्राह्मणवादी पार्टी ?

माकपा में एक चर्चा हुई कि श्री कृष्ण को कम्युनिस्ट पार्टी का प्रतीक बनाया जाये. वे इस पौराणिक चरित्र में कम्युनिज्म को तलाशने का प्रयास कर रहे थे, जो वर्णाश्रम धर्म का संरक्षक और पक्षधर है. फ़ासिस्ट हिंदुत्व का प्रमुख प्रतीक है. श्रीकृष्ण में मार्क्सवाद की तलाश की यह घटना ब्राह्मणवाद में मार्क्सवाद को पाने की प्रवृत्ति को दर्शाती है. वे केरल में रामायण महीने को भी मानते हैं. पार्टी को दिशा निर्देश देने वाला दर्शन अपनी प्रकृति में ब्राह्मणवादी है. उन्होंने मार्क्सवाद को भ्रष्ट करके इसे एक जातिवादी विचारधारा में बदल दिया है. जो जनता की क्रन्तिकारी चेतना को नष्ट करने का काम करती है.

केरल के पहले मुख्यमंत्री और सीपीएम के एक प्रमुख सिद्धांतकार ईएमएस नम्बूदरीपाद, अद्वैत दर्शन के निरपेक्ष एकात्मवाद की प्रशंसा करते हैं. विभिन्न परिघटनाओं के बीच जुड़ाव के कारण द्वंदात्मक भौतिकवाद में एकात्मवाद लाया गया. अद्वैत वेदांत का निरपेक्ष एकात्मवाद वस्तुतः द्वंदात्मक भौतिकवाद के एकात्मवाद के बिलकुल विपरीत है. इस दर्शन द्वारा द्वैत अथवा विभिन्नता को नकार दिया जाता है. यह अस्वीकरण द्वंदात्मक भौतिकवाद के मूलभूत सिद्धांतों का नकार है. जो इस बात पर ज़ोर देता है कि दुनिया की हर चीज़ में अंतर्विरोध निहित होते हैं. यही कारण है कि क्यों माकपा ‘विभिन्नता में एकता’ जैसे ब्राह्मणवादी नारे देती है.

अद्वैत वेदांत, जाति विरोधी श्रमण दर्शन के ख़िलाफ़ शंकर द्वारा सूत्रित एक प्रति क्रांतिकारी विचारधारा है. कर्म का सिद्धांत अद्वैत वेदांत का हिस्सा है, जो जाति व्यवस्था को वैधता देता है. इस सिद्धांत के अनुसार अगर कोई अपनी जाति के अनुसार दिए गए कर्म को करता है तो उसे ‘मोक्ष’ मिलेगा. इस तरह, हम देख सकते हैं कि माकपा में ब्राह्मणवाद के गहरे विचारधारात्मक कारण निहित हैं. यह एक यांत्रिक भौतिकवादी दृष्टिकोण के साथ एक मनुवादी पार्टी है. न कि द्वंदात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण के साथ एक सर्वहारा पार्टी.

माकपा केरल के राज्य सचिव एम.वी. गोविंदन के हाल के भाषण में यह स्पष्ट दिखता है कि इस पार्टी का कम्युनिज्म महज सजावटी है. उनका कहना है कि द्वंदात्मक भौतिकवाद भारत जैसे सामंती समाज को परखने का औजार नहीं हो सकता. द्वंदात्मक भौतिकवाद समाज का विश्लेषण करने का और समाज में बदलाव लाने का औजार है. माओ ने चीनी समाज का विश्लेषण करने के लिए और उसमे बदलाव लाने के लिए द्वंदात्मक भौतिकवाद का प्रयोग किया. गोविंदन के वक्तव्य से पता चलता है कि इस कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो सदस्यों को भी मार्क्सवाद की समझ नहीं है. और मार्क्सवाद उनके लिए महज़ एक आवरण है.

सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी चुनावी प्रदर्शन के लिए तेलंगाना में देवी महाकाली की पूजा करते हुए.

बिना इच्छा के भूमिसुधार : बदलाव कहां है ?

माकपा का ब्राह्मणवाद केवल विचारधारात्मक क्षेत्र तक ही नहीं सीमित है. केरल में यह सामंतवाद समर्थक पार्टी बन गई. केरल में भूमि सुधार इस तरह किया गया किया कि जाति सोपानक्रम को बनाये रखा जा सके. केरल में भूमि पुनर्वितरण इस तरह किया गया जिससे जाति सोपानक्रम जारी रहा. सवर्ण जातियों (नायर, नम्बूदरी) के पास अधिक ज़मीन थीं. अवर्ण ओबीसी (इझावा समुदाय) के पास ज़मीन का हिस्सा कम रहा. और दलितों के पास लगभग नहीं के बराबर ज़मीन है. जाति सोपानक्रम इसी तरह बनाये रखा गया. कृषि समाज में ज़मीन उत्पादन का साधन होता है, और इस तरह दलितों को उत्पादन के साधन से वंचित रखा गया. केरल का भूमि सुधार यह सुनिश्चित करता है कि ज़मीन उन किरायेदार जोत वालों (tenants) को दी गई लेकिन दलित समुदाय से आने वाले कृषि मजदूरों को कोई ज़मीन नहीं मिली.

अतः केरल में जाति की निरंतरता बनी रही. इसके अलावा भूमि सुधार में प्लांटेशन क्षेत्र को शामिल नहीं किया गया. इस क्षेत्र में सामंतवाद बरक़रार रहा. अतः, ज़्यादातर उत्पादन वाला प्लांटेशन क्षेत्र ज़मींदारों के नियंत्रण में ही बना रहा. प्लांटेशन क्षेत्र में श्रम का मुख्य स्रोत केरल के आदिवासी हैं. अतः वे अपनी ज़मीन खो कर झुग्गी बस्तियों में रहने के लिए बाध्य हैं, जहाँ उनके पास एक या दो सेंट की ही ज़मीन होती है. आदिवासियों और दलितों के बीच जब कोई मरता है तो ज़्यादातर उन्हें अपनी ही ज़मीन के नीचे दफनाना पड़ता है क्योंकि उनके पास बहुत कम ज़मीन होती है. इतनी कम कि लगातार अपना जीवन चलाने के लिए भी पर्याप्त नहीं होती.

जातिवार भूमि वितरण

विजय प्रसाद जैसे बुद्धिजीवियों का यह दावा है कि वाम मोर्चे की सरकार ने 11.3 लाख एकड़ ज़मीन किसानों में बांटी है. यह दावा पूरी तरह से गलत है. 11.3 लाख एकड़ में से 3.76 लाख एकड़ कांग्रेस के दौर में बांटी गयी और 2.5 लाख एकड़ यूनाइटेड फ्रंट सरकार के द्वारा बांटी गई है. इस तरह से पिछले 34 सालों में वाम मोर्चे की सरकार ने केवल 5 लाख एकड़ ज़मीन किसानों में बांटी है. वाम मोर्चे की सरकार के दौरान 2001 में भूमिहीन किसानों की संख्या दुगुनी होकर 33 लाख से 78 लाख हो गयी. वास्तव में इस दौरान भूमि सुधार उलटी पटरी पर चला गया. क्योंकि वाम मोर्चे की नीतियों के कारण खेती लाभदायक नहीं रही.

इसके कारण गरीब किसानों ने अपनी ज़मीन मध्यम और बड़े किसानों को बेच दी. ये मध्यम और बड़े किसान माकपा के वोट के आधार बन गए. वे सिंचाई, पीडीएस दुकानों और कोल्ड स्टोरेज आदि सुविधाओं पर नियंत्रण करके ग्रामीण इलाकों के कृषि को नियंत्रित करते हैं. इस तरह, खेती के लिए ज़रूरी हरेक चीज़ गरीब किसानो की पहुच से दूर हो गई. इसके अतिरिक्त पश्चिम बंगाल में सरकार ने उत्पादक शक्तियों का विकास नहीं किया और इसलिए उनकी कृषि के लिए आवश्यक संसाधनों तक पहुच ही नहीं है. अतः, वे ज़मीन बेचने के लिए बाध्य हो गए.

पार्टी का सामंतवाद पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों में साफ़ तौर पर देखा जा सकता है जहाँ वे भूमि सुधार का इस्तेमाल गरीब किसानो पर नियंत्रण के एक ज़रिये के रूप में करते हैं. जिन्हें ज़मीने दी जाती हैं, उनके पास ज़मीन का पट्टा नहीं होता और इस तरह वे माकपा के स्थानीय पार्टी दफ्तरों के नियंत्रण में हो जाते हैं. वे इसका इस्तेमाल विद्रोही किसानों को सबक सिखाने के लिए करते हैं. बुद्धदेव भट्टाचार्य के नेतृत्व में वाम मोर्चे की सरकार ने किसानों से साम्राज्यवादी हितों के लिए ज़मीने छीनी भी हैं. उद्योगों के लिए इन ज़मीनों के इस्तेमाल के लिए नवउदारवादी नीतियों को लागू किया गया है.

पार्टी ने केरल शेड्यूल ट्राइब एक्ट में संशोधन करके उन सभी ज़मीनों के स्थानान्तरण को कानूनी जामा पहनाया जो आदिवासियों ने ऊंची जाति के लोगों को स्थानांतरित हुई थी. इसका मतलब यह है कि जो ज़मीन ज़ोर ज़बरदस्ती से ऊंची जाति के लोगों को हस्तांतरित हुई है वह अब ऊंची जाति के लोगों में ही बनी रहेगी. ऐसी पार्टी जो मार्क्सवादी (ऐसी विचारधारा जो शोषितों की मुक्ति के लिए काम करती है) होने का दावा करती है वास्तव में शोषकों का समर्थन करती है. इस पार्टी को मार्क्सवादी कहना भारत में सभी क्रान्तिकारी मार्क्सवादियों का अपमान है.

पश्चिम बंगाल में तत्कालीन सत्तारूढ़ सीपीएम के निर्देश पर पुलिस ने लालगढ़ में स्कूली बच्चों पर लाठीचार्ज किया.

माकपा की ब्राह्मणवादी नीतियां

पश्चिम बंगाल में कुख्यात मारीचझापी जनसंहार माकपा की जातिवादी राजनीति का एक और स्पष्ट उदाहरण है. दक्षिण एशिया में ब्रिटिश राज के विभाजन के परिणाम स्वरुप दो नए दलाल (comprador) राज्य पैदा हुए – भारत और पाकिस्तान. इस विभाजन के फलस्वरूप बंगाल दो भागों में बंट गया. भारत में पश्चिम बंगाल और पूर्वी पाकिस्तान (अब उसे बंगला देश कहा जाता है). हज़ारों प्रवासी जो पूर्वी हिस्से से विस्थापित हुए. वे भारत की ओर इस आशा में आये कि उन्हें पश्चिम बंगाल में बसाया जायेगा. लेकिन उन्हें इसकी इजाज़त नहीं दी गयी और उन्हें भारत भर में फैले शरणार्थी शिविरों में रहने को मजबूर होना पड़ा.

इनमें से जो ऊंची जाति के थे उन्हें वैध हाऊसिंग कालोनियों में बसाया गया और अन्य सुविधायें दी गईं वहीं दलितों और दूसरी शोषित जातियों को बुरी स्थितियों में दंडकारण्य के जंगलों में उन शरणार्थी शिविरों में भेजा गया जहां न तो बिजली थी, और न ही खेती योग्य ज़मीन. वे बहुत वंचना में जीने को बाध्य थे. चूंकि उन्हें आदिवासियों की ज़मीन पर बसाया गया था इसलिए इन दोनों शोषित समूहों में अपने अस्तित्व के लिए एक दूसरे से लड़ना पड़ता था क्योंकि उस क्षेत्र में संसाधन बहुत कम थे.

माकपा के नेतृत्व में बंगाल में ‘वाम’ मोर्चे ने एक धोखाधड़ी पूर्ण चुनावी अभियान शुरू किया जिसमें उन्होंने इन शरणार्थी बंगालियों से वादा किया कि उन्हें बंगाल में बसायेंगे और इस जनादेश के कारण वे सत्ता में आ गए. इस जीत से पहले माकपा के राम चटर्जी व्यक्तिगत रूप से इन शरणार्थी कैम्पों में गए और उन्होंने इन परिवारों को बंगाल आने का आह्वान किया. और कहा कि उन्हें पश्चिम बंगाल के सुंदरबन डेल्टा क्षेत्र में अच्छी ज़मीन पर बसाया जायेगा.

क़रीब 15000 परिवारों ने अपनी रही सही चीज़ों को दंडकारण्य में ही बेच दिया और नए घर की आशा में हज़ारों किमी की यात्रा की. लेकिन अब माकपा सत्ता में थी और उसने अपने वादे से मुकरते हुए उन्हें ज़बरदस्ती वापस भेज दिया. बहुत से लोग इस यात्रा में ही मर चुके थे. दूसरे लोगों को बंगाल के विभिन्न हिस्सों में गुंडों और पुलिस ने मार दिया. बड़े पैमाने पर महिलाएं पुलिस के बलात्कार और यौन हिंसा का शिकार हुईं.

अब माकपा ने शरणार्थी विरोधी चुनाव अभियान भी शुरू किया. उन्होंने जनता के बीच पूर्व के बंगालियों के प्रति पश्चिम के बंगालियों की घृणा को हवा दी. उन्होंने पश्चिम की उच्च जातियों के बीच पूर्व के दलित शरणार्थियों के ख़िलाफ़ एक वोट बैंक का निर्माण किया जिसकी विरासत आज तक जारी है. जब उनके पास कोई घर नहीं बचा और जहां उनका घर होने की सम्भावना थी वहां वे भयानक स्थितियों में फंस गए, तब सतीश मंडल के नेतृत्व में सुन्दर वन के एक द्वीप मारिचझापी पर जाने का फैसला किया. यहां आने पर माकपा के नेतृत्व में सशस्त्र पुलिस ने उनका जनसंहार किया.

आर्थिक आधार पर आरक्षण (EWS) की जातिवादी नीति का समर्थन करने वाली पहली पार्टी भी माकपा ही है. संघ परिवार द्वारा इस मांग को उठाये जाने से भी पहले ईएमएस नम्बूदरीपाद जैसे माकपा के नेताओं ने घोषणा की थी कि जाति आधारित आरक्षण को आर्थिक आधार पर आरक्षण से बदला जाना चाहिए. माकपा के तहत केरल उन पहले राज्यों में से एक है जिन्होंने भारत में आर्थिक आधार पर आरक्षण को लागू किया. आरक्षण को यह सुनिश्चित करने के लिए संस्थाबद्ध किया गया था कि शोषक जातियों का जो जाति आधारित एकाधिकार है वह कम हो.

आरक्षण गरीबी हटाने की योजना नहीं है. आर्थिक आधार पर आरक्षण इस एकाधिकार को हटाने को सुनिश्चित नहीं कर सकता. आर्थिक आधार पर आरक्षण संघ परिवार की योजना है ताकि जाति आधारित आरक्षण को कमज़ोर किया जा सके और वर्णाश्रम धर्म को वापस लाने को सुनिश्चित किया जा सके. मनुवादी ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़ माकपा का नारा महज वोट बटोरने का एक सजावटी नारा है.

केरलम में मछुआरा समुदाय का विरोध पुलिस के खिलाफ लड़ाई में बदल गया। यहां तिरुवनंतपुरम में एक पुलिस थाने पर हमले के बाद पलटा हुआ वाहन का चित्र है.

एक ऐसी कम्युनिस्ट पार्टी जो साम्राज्यवाद के पक्ष में खड़ी है

माकपा एक ऐसी पार्टी भी है जो साम्राज्यवाद के हितों के लिए जनता के ख़िलाफ़ खड़ी है. इसे नंदीग्राम और सिंगूर में देखा जा सकता है. सिंगूर में एक सेज की स्थापना के दौरान साम्राज्यवादी पूँजी के दलाल टाटा के लिए गांव में ज़मीन अधिगृहीत की गई जिस पर फैक्ट्री खड़ी की जानी थी. माकपा की सरकार ने विदेशी पूंजीपति इंडोनेशिया के सलीम समूह के लिए भी ज़मीन अधिग्रहण की. पूंजीपतियों को फायदा पहुचाने वाले इस अलोकतांत्रिक कदम के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर विरोध हुआ.

सिंगूर और नंदीग्राम के आन्दोलन को हिंसात्मक फासीवादी दमन का सामना करना पड़ा. पुलिस ने गांव के लोगों पर गोलियां चलाई. यह गांव के लोगों को मारने के लिए निशाना लेकर चलाई गई गोलियां थीं. सरकारी आकड़ों के अनुसार इसमे कम से कम 15 लोग मारे गए. स्थानीय लोगों के अनुसार यह संख्या कहीं अधिक थी. मरने वाले बहुत से लोगों का शव मलबे के भीतर दबा दिया गया. माकपा के सशस्त्र किराये के गुंडे हर्मद वाहिनी ने भी अपना हमला शुरू किया.

गांव के निवासियों के ऊपर हर्मद वाहिनी के लोगों ने बम फेंके और गोलियां चलाई. घरों को लूटा गया और कई घरों को पूरी तरह से नष्ट कर दिया गया. जब यह सब कुछ हो रहा था तो पुलिस ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया. महिलाओ और बच्चों को भीषण हिंसा का सामना करना पड़ा. हर्मद वाहिनी के द्वारा बहुत से महिलाओ के साथ यौन दुर्व्यवहार किया गया और उनका बलात्कार भी किया गया. वे माकपा के फासीवादियों के रूप में काम कर रहे थे. गांव के गरीब लोगों पर बर्बर हिंसा की गई ताकि पूंजीपतियों द्वारा ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा कमाना सुनिश्चित हो सके.

नंदीग्राम और सिंगूर ने पश्चिम बंगाल में विश्वासघाती संसदीय वाम का राजनीतिक विध्वंस कर दिया. लेकिन केरल में उन्होंने इन नीतियों को जारी रखा. केरल में विझिन्जम में एक बंदरगाह बनाने के लिए ज़मीन अधिगृहीत की गयी. इस योजना से विस्थापित होने वाले मछुवारों के पुनर्वास को सही तरीके से लागू नहीं किया गया.

मछुआरों का समुदाय उन पर्यावरणीय मुद्दों से भी चिंतित है, जिसके कारण समुद्र तट और ज़्यादा नष्ट होगा और इससे इस क्षेत्र में मछली पकड़ने का काम प्रभावित होगा. इस बंदरगाह के ख़िलाफ़ विझिन्जम में भारी विरोध प्रदर्शन हुआ. तथाकथित ‘कम्युनिस्टों’ ने फासीवादियों के साथ कदमताल करते हुए मछुआरों पर हमले किये. यहां पर उन्होंने प्रगतिशीलता का अपना झीना आवरण भी फाड़ दिया और ब्राह्मणवादी फासीवादियों के साथ संश्रय कायम कर लिया ताकि वे दलाल बुर्जुआ की सेवा बेहतर तरीके से कर सकें.

माकपा प्रायः ज़्यादा से ज़्यादा निवेश के लिए मोदी के लगातार विदेश भ्रमण की आलोचना करती है. वह कहती है कि प्रधानमंत्री अपने देश को चलाने की बजाय विदेशी दौरे करने में ज़्यादा रुचि रखते हैं ताकि वह बाहरी लोगों को यह बता सकें कि कैसे भारत साम्राज्यवादी लूट के लिए एक आदर्श जगह है. लेकिन केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन भी प्रधानमंत्री के पदचिन्हों का ही अनुसरण कर रहे हैं.

पिछले 6 सालों में मुख्यमंत्री ने 50 विदेशी दौरे किये हैं और 300 करोड़ रुपये का निवेश लाने में सफ़ल हुए हैं. भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश साम्राज्यवादी लूट को पोषित करने का सबसे अच्छा रास्ता है. केरल सरकार ने नार्वे की नामी कंपनियों की एक निवेश बैठक आयोजित की ताकि ज़्यादा से ज़्यादा निवेश हासिल किया जा सके. वह पार्टी जो नव उदारवाद के ख़िलाफ़ ज़ोर शोर से नारे लगाती है वह साम्राज्यवादियों द्वारा नवउदारवादी लूट को सुनिश्चित कर रही है.

केरल पर्यावरण की दृष्टि से बहुत संवेदनशील क्षेत्र है जहां बाढ़ का खतरा लगातार बना रहता है. हाल ही में केरल में यह पर्यावरणीय विनाश कई बार घटित हो चुका है. सीपीएम सरकार पर्यावरण विरोधी साम्राज्यवादी विकास समर्थित मॉडल द्वारा केरल में इस खतरे को कई गुना बढ़ा रही है. केरल सरकार ने सबरीमाला एअरपोर्ट प्रोजेक्ट को मंजूरी दे दी है जो पर्यावरण की दृष्टि से बहुत ही संवेदनशील क्षेत्र में स्थित है. माकपा ने बहुत से ग्रीन फील्ड प्रोजेक्ट को भी मंज़ूरी दे दी है जो पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ नहीं है क्योंकि पश्चिमी घाट की पर्यावरणीय परिस्थिति इसके ख़िलाफ़ है.

वास्तव में ये प्रोजेक्ट साम्राज्यवादी पूंजी के हितों की सेवा करने के लिए ही लाये गए हैं. सिल्वर लाइन प्रोजेक्ट के तहत सरकार की योजना पूरे भारत में सुपरफास्ट ‘के-रेल’ की स्थापना करने की है. यह योजना जापानी पूँजी द्वारा फंड की जा रही है. केरल में इस प्रोजेक्ट के ख़िलाफ़ काफी विरोध हो रहा है. यहां इस बात की भी चिंता की जा रही है कि इस प्रोजेक्ट से पर्यावरण को काफी नुकसान होगा. यह ‘मार्क्सवादी-लेनिनवादी’ पार्टी अपने ‘मार्क्सवाद-लेनिनवाद’ का इस्तेमाल वित्तीय पूंजी से लड़ने की बजाय पूरे केरल में इसकी गिरफ़्त को मजबूत बनाने में इसकी सहायता कर रही है.

चेंगारा भूमि संघर्ष एक अन्य घटना है जो यह दिखाती है कि माकपा कैसे हमेशा ही साम्राज्यवादी पूंजी और उनके दलालों तथा दलाल पूंजी के हितों को समर्थन देने के लिए तैयार रहती है. दलाल बुर्जुआ गोयनका समूह से जुड़ी हरिसन मलयालम को जो ज़मीन (estate) लीज़ पर दी गई थी उस पर भूमिहीन दलितों और आदिवासियों ने कब्ज़ा कर लिया था. इस तरह की बहुत सारी ज़मीनों की लीज़ ख़त्म हो चुकी थी और हरिसन मलयालम ने अपनी बहुत सी ज़मीनों के लिए लीज़ का पैसा नहीं चुकाया था.

इनमें से बहुत से एस्टेट ऐसे हैं जिनमें हरिसन मलयालम ने ग़ैरकानूनी तरीके से ज़मीन कब्जाई है. हरिसन मलयालम के अधीन ऐसी भी ज़मीने हैं जो उन्हें लीज़ पर नहीं दी गई हैं. चेंगारा भूमि संघर्ष ऐसी ही ज़मीनों पर कब्ज़ा करने के लिए लड़ा गया था. माकपा की सरकार ने सक्रिय रूप से गोयनका समूह का समर्थन किया और भूमिहीन दलितों और आदिवासियों के हितों के साथ खड़ी नहीं रही. वे साम्राज्यवादी गोद में बैठा आदर्श कुत्ते हैं जो उनकी रक्षा में परस्पर विरोधी तर्क देते रहते हैं.

चेंगरा की दीवारों पर एक कलाकार का काम

निष्कर्ष

माकपा और मार्क्सवाद स्पष्ट तौर पर परस्पर विरोधी हैं. पार्टी सिर्फ़ नाम के लिए मार्क्सवाद का जाप करती है और यह अपने सभी व्यवहारिक उद्देश्यों के लिए शासक वर्ग का हिस्सा है और ब्राह्मणवादी फासीवादी राज्य के हितों की सेवा करती है. ऐसी भ्रष्ट पार्टी को मार्क्सवादी कहना मार्क्स का अपमान है. माकपा की नीतियों और खुले रूप से बुर्जुआ और सामंती पार्टियों भाजपा व कांग्रेस की नीतियों के बीच कोई अंतर नहीं है. इस ब्राह्मणवादी फासीवादी पार्टी का लाल चोला अब हट रहा है. और वे ज़्यादा समय तक बने नहीं रह सकेंगे.

यह पार्टी एक समय भारत में दूसरी सबसे बड़ी संसदीय पार्टी थी. और अब संसद में इनके सीटों की संख्या इकाई में पहुंच चुकी है. इनका प्रभाव केरल तक सिमट कर रह गया है. और यहां भी ‘सिल्वर लाइन प्रतिरोध’ और विझिन्जम आन्दोलन यह दिखाता है कि यहां की जनता भी जनता के हितों से विश्वासघात करने वाली साम्राज्यवाद की गोद में बैठी इस पार्टी से कितनी असंतुष्ट हैं. इस पार्टी के विभिन्न अंगों के लिए जो उत्साही प्रगतिशील लोग दीर्घकालिक काम करने के लिए प्रतिबद्ध हैं, उन्हें इस पार्टी के नेतृत्व की प्रकृति और इसके व्यवहार का गंभीर मूल्यांकन ज़रूर करना चाहिए.

  • रमनित कौर
    ओ.पी.जिंदल यूनिवर्सिटी में विधि की छात्रा
    अनुवाद – अमिता शीरीं

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