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गाय : भारतीय अदालती-व्यवस्था का ग़ैर-जनवादी रवैया

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गाय : भारतीय अदालती-व्यवस्था का ग़ैर-जनवादी रवैया

कहा जाता है कि भारतीय न्याय-व्यवस्था भारत के तथाकथित जनतंत्र के चार स्तंभों में से एक है. अब इसका जनवादी मखौटा लगातार उतरता जा रहा है. 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद पर्दे के पीछे से धीमे-धीमे संघ परिवार के सुर में सुर मिलाने से लेकर अब यह सरेआम गाय के मामले में संघ की बाँसुरी बजाने लगा है.

2014 से ही यह न्याय व्यवस्था गौ हत्या, गौ तस्करी, बीफ़ पाबंदी पर वक़्त-वक़्त पर नए-नए क़ानून बनाती आ रही है, इसकी ताज़ा मिसाल 1 सितंबर 2021 को इलाहाबाद में उच्च न्यायालय द्वारा गौ हत्या से संबंधित एक ज़मानत की अर्ज़ी रद्द करने के फ़ैसले में प्रकट हुई है. इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक जज – जस्टिस शेखर कुमार वाले बेंच द्वारा जावेद नाम के व्यक्ति की ज़मानत की अर्ज़ी रद्द करते हुए गाय के ‘ऐतिहासिक महत्व’ के बारे में अपने ‘क़ीमती’ विचार पेश किए हैं.

जावेद 8 मार्च 2021 से गौ रक्षा के मामले में जेल में बंद है और इलाहाबाद हाईकोर्ट में उसका केस चल रहा है. उसके वकील ने उसे बेकसूर बताते हुऐ उसकी ज़मानत के लिए अर्ज़ी लगाई थी, जिसे रद्द करते हुए जस्टिस शेखर कुमार ने संघ का रटन मंत्र दोहराया है. बारह पन्नों के ज़मानत रद्द करने के इस आदेश में तक़रीबन 10 पन्नों में गाय के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और ‘वैज्ञानिक’ महत्व के बारे में बताया गया है.

यह कोई नई बात नहीं, बल्कि गाय के बारे में संघी ‘ज्ञानधारा’ का एक नमूना है क्योंकि संघ के अनुसार भारत में सबसे अधिक पीड़ित यदि कोई जीव धरती पर है, तो वह गाय है, जिसकी रक्षा करना हर हिंदू का फ़र्ज़ है. यानी इन परजीवियों के लिए बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी, कमरतोड़ महँगाई, औरतों, दलितों, अल्पसंख्यकों की समस्याएँ कोई मुद्दा ही नहीं.

1 सितंबर के इस फ़ैसले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तो यहाँ तक कहा कि गाय को देश का राष्ट्रीय पशु घोषित किया जाना चाहिए और गौ रक्षा हर हिंदू का बुनियादी हक़ होना चाहिए. ज़मानत की अर्ज़ी रद्द करते हुए जस्टिस शेखर कुमार ने गाय के बारे में संघ का वही घिसा-पिटा रटन मंत्र दोहराया है. वह गाय को भारतीय संस्कृति और धर्म का महत्वपूर्ण जीव मानता है, जिसके लिए वह पुरातन भारतीय वेदों-ग्रथों, शास्त्रों और महाभारत, रामायण आदि में गाय के महत्व और उसकी महिमा का गुणगान करता है.

उसके बाद आदि काल से लेकर मौजूदा दौर की न्याय-प्रणाली द्वारा गौ रक्षा के बारे में नए-नए नियम-क़ानूनों के हवाले देकर गौ हत्या के संघ के एजंडे पर फूल चढ़ाए हैं. गाय के गुणगान में मस्त हुई हाईकोर्ट ने तो यहाँ तक कह दिया, ‘वैज्ञानिकों का यह मानना है कि एक ही पशु गाय है जो ऑक्सीजन लेती और छोड़ती है.’

हम जानते हैं कि संघी ‘वैज्ञानिकों’ के अलावा ऐसी प्रतापी ‘खोज’ और कौन कर सकता है ! अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के हवाले के ज़रिए अदालत यह कहती है कि जब भारतीय लोग अपनी संस्कृति को भूले, तो विदेशियों ने उन्हें ग़ुलाम बना लिया है. यह इतिहास को सिर के बल खड़ा करने के समान है.

फिर अदालत आगे कहती है कि ‘कुछ लोगों के जीभ के स्वाद के लिए किसी के जीने का हक़ नहीं छीना जा सकता, ज़िंदगी का हक़ क़त्ल के हक़ से ऊपर है और गाय का मांस खाने का हक़ कभी भी बुनियादी हक़ नहीं हो सकता.’ इस पर पहली बात तो यह है कि यहाँ अदालत 2017 के अपने ही फ़ैसले के विपरीत बात कर रही है, जब उसने कहा था कि, ‘संविधान की धारा 21 के तहत भोजन और भोजन की आदतें बिना किसी झगड़े के जीने के हक़ मे शामिल हैं.’

केवल यही नहीं कि अकेली इलाहाबाद हाईकोर्ट ही अपने फ़ैसले से पलटी मारी है, बल्कि पूरे देश की अदालतें समय-समय पर शासक वर्ग के हितों के हिसाब से अपने पुराने फ़ैसलों से पलट रही हैं, जिसकी मिसाल देश के सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले में भी देखी जा सकती है. 1958 में सुप्रीम कोर्ट ने गाय और भैंस के मांस को भोजन की कुल कि़स्मों में से एक कि़स्म बताया था और गाय के मांस को ख़ास कर ‘ग़रीबों का भोजन’ कहा था.

लेकिन 2005 में इसी अदालत ने कहा था कि गाय का मांस कुल मांस खपत का 1.3 प्रतिशत है और पोष्टिक तत्व ज़रूरी नहीं कि गाय समेत मांसाहारी भोजन में ही है. लेकिन 2014 के बाद तो भारतीय अदालतों ने लव जिहाद, घर वापसी, गौ हत्या आदि मामलों पर पता नहीं कितने फ़ैसले बदलकर जनता के खाने-पीने, पहरावे, जीवन-साथी के चुनाव जैसे जनवादी और निजी मामलों में घुसपैठ करके नए-नए काले क़ानून जनता पर थोपे हैं.

संघ परिवार और इलाहाबाद हाई-कोर्ट द्वारा गाय के सांस्कृतिक, धार्मिक पशु होने और पुरातन युग में गाय के मांस पर पाबंदी जैसे दावों में कितनी सच्चाई है ? भारत के मशहूर इतिहासकार डी.एन. झा ने पुरातन ग्रंथों (वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों आदि) और पुरातन इतिहास लेखन के स्थापित इतिहासकारों के हवालों से भरपूर इस विषय पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण किताब लिखी है, जिसमें पुरातन भारतीय इतिहास के वैज्ञानिक अध्ययन के आधार पर साबित किया गया है कि गाय भारत में कभी भी सांस्कृतिक, राष्ट्रीय या धार्मिक पशु नहीं रहा, हालाँकि शासक वर्गों के बौद्धिक नौकरों द्वारा गाय को काफ़ी समय से भारत का राष्ट्रीय, सांस्कृतिक, धार्मिक पशु घोषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

‘पवित्र गाय का मिथक’ नामक इस किताब की भूमिका में ही डी.एन. झा लिखते हैं, ‘भारतीय गाय की ‘पवित्रता’ के बारे में पिछले सौ सालों से भी अधिक समय तक बहस होती रही. उनमें से कुछ तो इस विचार से चिपटे रहे कि ऐसे परम पवित्र पशु को पुरातन भारतीय और ख़ास तौर पर वैदिक लोग नहीं खाते होंगे. उन्होंने यह भी किया कि भारत में गाय का मांस खाने का संबंध इस्लाम के आगमन से जोड़ दिया और उसे मुसलमान समुदाय की पहचान के रूप में दिखाया.

लेकिन इस किताब में यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि गाय की ‘पवित्रता’ एक भ्रम है और उसका मांस प्राचीन भारतीय मांसाहारी पद्धति और भोजन की परंपरा का एक अंग था. यह किताब लिखने का मुख्य उद्देश्य स्पष्ट रूप से यह दिखाना है कि गाय का मांस खाना भारत को इस्लाम द्वारा मिली ‘विनाशकारी विरासत’ नहीं थी और गाय के मांस से परहेज़ ‘हिंदू’ पहचान की निशानी नहीं हो सकती, हालाँकि हिंदुत्व के अज्ञानी ध्वज वाहक कुछ भी कहें, जिन्होंने इस्लाम के पैरोकारों को ‘पराया’ मानने की झूठी भावना भड़काने का पूरा ज़ोर लगाया.’ (पन्ना 11)

डा. झा ने यह भी बताया है कि ”पवित्र’ गाय को हिंदुओं की सामूहिक पहचान और धार्मिक विरासत मानने वाले और मुसलमानों को हिंदुओं की सांस्कृतिक विरासत के लिए ख़तरा मानने वाले अधिकतर लोग गाय की पवित्रता की धारणा का मूल ठीक उसी काल में बताते हैं, जब उसकी बलि दी जाती थी और उसका मांस खाया जाता था.’

इस तरह ऋग्वेद के हवाले से वे लिखते हैं कि ऋग्वेद में देवताओं के लिए बैल का मांस पकाने का वर्णन बार-बार मिलता है. (पन्ना 22) ऋग्वेद में एक जगह इंद्र कहता है कि ‘वह मेरे लिए 15 या 20 बैल पकाते हैं.’ (पन्ना 22) आगे वह लिखते हैं, ‘महत्व के नज़रीए से इंद्र के बाद अग्नि देवता की जगह है, जिसे ऋग्वेद में कोई 200 स्तोत्र संबोधित हैं. इस देवता के बारे में इस वेद में कहा गया है कि ‘उसका भोजन बैल और बाँझ गाय है.’ (पन्ना 22) इससे भी अधिक स्पष्ट अथर्ववेद का गोपथ ब्राह्मण है, जिसके अनुसार समितार देवता द्वारा बलि दिए गए जानवर, जो बलि वाले जीव को गला घोटकर मारता था, कि मुर्दा शरीर को 36 भागों में बाँटा जाता था.’ (पन्ना 24) शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि ‘मांस में उच्च कोटि का भोजन है.’ (पन्ना 24)

लेकिन 5वीं-6वीं सदी के बाद अचानक गाय का मांस खाने वाले ब्राह्मण ही गौ हत्या के विरोध में आ गए. हालाँकि सबसे पहले बौद्ध और जैन दार्शनिकों ने मांसाहार का विरोध शुरू किया. इस विचार की जड़ें भी उस दौर की आर्थिक व्यवस्था में पाई जाती हैं, जब पशु-पालन और कृषि का प्रचलन बढ़ा और सामंती युग में ब्राह्मण ही गौ हत्या का विरोध करने लगे क्योंकि भूमिदान अधिकतर ब्राह्मणों को ही दिए जाते थे. कृषि विकास में बैलों की बढ़ी हुई भूमिका ने गौ हत्या के विरोध का वस्तुगत आधार तैयार किया, जिसके बाद मध्यकाल की हिंदू परंपराओं में गौ हत्या को पाप माना जाने लगा.

उसके बाद विभिन्न दौरों के शासकों ने भी गौ हत्या के ख़िलाफ़ क़ानून पास किए, जो उस वक़्त के शासक वर्गों के वर्गीय हितों से प्रेरित थे. भारत में अंग्रेज़ों के आगमन के बाद भी उपनिवेशवादी शासकों को भारत का धार्मिक विभाजन रास आया और उन्होंने इसे हवा देने में कोई क़सर बाक़ी नहीं रखी.

1870-75 में गौ रक्षा समिति बनने से लेकर हिंदुत्वी कट्टरपंथियों ने अपना सांप्रदायिक ऐजंडा आगे बढ़ाया, जो 1925 में संघ की स्थापना से तेज़ हुआ. जिन्होंने इतिहास को तोड़-मरोड़कर अंधाधुंध मुसलमान विरोध का प्रचार किया, जो आज भी जारी है. अब तक भारत में गाय और धर्म के नाम पर अनेकों सांप्रदायिक दंगे हो चुके हैं, जिनका सिलसिला डी. एन. झा के अनुसार 1870 से शुरू हो गया था लेकिन 2014 में संघ के सत्ता में आने से संघी प्रचार बहुत तेज़ी से बढ़ा है.

भारतीय न्याय-व्यवस्था द्वारा सरेआम छाती ठोककर संघ के सुर में सुर मिलाना भी भारत के पोर-पोर में पनप रही संघ की सांप्रदायिक, धार्मिक अल्पसंख्यक विरोधी, औरत विरोधी, दलित विरोधी विचारधारा का इज़हार है. जब भारत के तथाकथित जनवाद के चारों स्तंभ – विधानपालिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया संघ की बोली बोल रहे हैं. ऐसे समय में सच, विज्ञान और मेहनतकशों की एकता का झंडा बुलंद करना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि इनसे संघ-फासीवादी डरते हैं, अपने पूँजीवादी आकाओं समेत.

  • कुलदीप बठिंडा

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