हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
भले ही देश के अधिकतर लोगों ने इस पर ध्यान नहीं दिया होगा, जिन्होंने ध्यान दिया होगा उनमें भी अधिकतर भूल चुके होंगे, लेकिन प्रधानमंत्री कभी नहीं भूले कि 2014 में सत्ता में आने के बाद अपनी पहली जापान यात्रा में उन्होंने क्या कहा था –
‘…मैं भारत को दुनिया की सर्वाधिक मुक्त अर्थव्यवस्था बना दूंगा…’.
निवेशकों के सम्मेलन में कहा था प्रधानमंत्री ने. यह कोई साधारण वक्तव्य नहीं था और उस नेता के द्वारा कहा जा रहा था जो ढाई दशकों के गठबंधन युग के बाद पहली बार अपने बूते प्रचण्ड बहुमत से सत्ता के शीर्ष पर पहुंचा था.
‘दुनिया की सर्वाधिक मुक्त अर्थव्यवस्था’ यानी ऐसी अर्थव्यवस्था जिसका पूर्णतः ‘कार्पोरेटाइजेशन’ हो जाए. क्या शिक्षा, क्या स्वास्थ्य, क्या बैंक, क्या रेल और…क्या किसानी. हर शै कारपोरेट के चंगुल में.
नरेंद्र मोदी की प्रशंसा होनी चाहिये कि अपने लक्ष्यों के प्रति वे कभी संशय में नहीं रहे. उन्होंने पूरे सिस्टम को ‘कार्पोरेटाइज’ करने की अपनी मुहिम में कभी भी शिथिलता नहीं बरती. हम और आप खुली आंखों से देख सकते हैं कि उनके सत्तासीन होने के बाद निजीकरण का कारवां कितना आगे बढ़ चुका है.
यह अलग बात है कि भारत में इस तरह के आक्रामक आर्थिक सुधारों के अपने राजनीतिक रिस्क हैं. चुनावों में आप इन मुद्दों पर वोट नहीं मांग सकते उल्टे, वोट खोने का डर बना रहता है. तो, वोट लेने के लिये अन्य अनेक मुद्दे हैं, जिनको चुनावों के वक्त उछालने पर जनता झोलियां भर-भर कर वोट दे आती है. हमने ऐसा देखा भी.
भारत का कार्पोरेटाइजेशन तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक किसानी इससे बाहर रहे. तो कृषि बिल आया. अब कारपोरेट फार्मिंग होगी, अन्न के असीमित भंडारण की छूट होगी, अन्न के बाजार पर कारपोरेट का कब्जा होगा. होगा. और अगर आप इसका विरोध करते हैं तो आप भ्रम के शिकार हैं. ऐसा भ्रम…जो आपके मन में ‘देश विरोधी ताकतें’ पैदा कर रही हैं. उसी तरह जिस तरह फीस की अतार्किक वृद्धि और शिक्षा के कार्पोरेटाइजेशन के विरोध में सड़कों पर उतरते विश्वविद्यालयों के छात्र ‘देश विरोधी तत्वों’ के हाथ में ‘खेल’ रहे होते हैं.
‘देश हित’ यह ऐसा शब्द है जिसका अर्थ सिर्फ सत्ताधारी जमात ही जानती है. उसकी जो व्याख्या होती है वही सही है. वाजपेयी सरकार ने कर्मचारियों का पेंशन खत्म कर दिया. जब सरकारीकर्मियों का प्रतिनिधिमंडल उनसे मिलने गया और इस निर्णय पर अपना विरोध व्यक्त किया तो वाजपेयी जी ने सपाट स्वरों में यह कहा, ‘यह फैसला देश हित में लिया गया है.’
अब आप 30-35 वर्ष की सेवा के बाद जब रिटायर होंगे तो देश हित में अपने बुढापे की ऐसी की तैसी करवाने के लिये तैयार रहें. उसी तरह, जिस तरह देश हित में आप निजीकृत हो चुके रेलवे प्लेटफार्मों पर 10 रुपये की जगह 50 रुपये की प्लेटफार्म टिकट लेकर जाते हैं.
दुनिया की सर्वाधिक खुली अर्थव्यवस्था, जिसमें कारपोरेट हित और देश हित आपस में इतने गड्डमड्ड हो जाते हैं कि देशभक्त जनता अपने हित परिभाषित ही नहीं कर पाती. देशभक्ति बलिदान मांगती है. बदलते वक्त के साथ बलिदान के रूप और तरीके भी बदलते हैं.
अब खुदीराम बोस की तरह फांसी पर चढ़ना या गांधी के चेलों की तरह निहत्थे सत्याग्रह में पुलिस की लाठियां खाने की जरूरत नहीं है. अब आप पेट्रोल के वाजिब दाम से ढाई गुनी कीमत देकर और इस पर चुप्पी साध कर अपनी देशभक्ति साबित कर सकते हैं.
भारत की जनता अपनी देशभक्ति और किन-किन तरीकों से साबित कर सकती है, इसका ब्लू प्रिंट मोदी जी द्वारा स्थापित नीति आयोग तैयार कर रहा है.
नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत की मानें तो देश हित में ‘कंप्लीट प्राइवेटाइजेशन ऑफ एलिमेंटरी एडुकेशन’ होना चाहिये. सरकारी जिला अस्पतालों में प्राइवेट पार्टियों की भूमिका बढाने वाला दस्तावेज तो नीति आयोग कब से तैयार करने में लगा है, ताकि आप बीमार होने पर अपने खेत बेचने को मजबूर होकर देश के प्रति अपना बलिदान दे सकते हैं.
कार्पोरेटाइजेशन का विरोध यानी देशभक्ति पर धब्बा. निजीकरण का विरोध यानी लोकतंत्र का दुरुपयोग. तभी तो निजीकरण विरोधियों पर खीझते हुए अमिताभ कांत ने कहा, ‘इस देश में कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र है.’
नरेंद्र मोदी बधाई के पात्र हैं. उनके नेतृत्व में और अमित शाह के ‘सत्प्रयासों’ से उनकी पार्टी का राजनीतिक विस्तार दिन दूनी रात चौगुनी की रफ्तार से हो रहा है. कुछ ही वर्ष पहले कौन कल्पना कर सकता था कि बंगाल में भाजपा सत्ता की दावेदार भी हो सकती है.
लेकिन निर्मम सत्य यही है कि उनका राजनीतिक विस्तार दरअसल कारपोरेट के आर्थिक विस्तार की ही पूर्व पीठिका है. भारत दुनिया की ‘सर्वाधिक खुली अर्थव्यवस्था’ बनने की ओर सफलतापूर्वक कदम आगे बढ़ा रहा है. ‘मां भारती’ कार्पोरेटाइज़ हो रही हैं.
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