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काॅरपोरेट घरानों के नौकर सुप्रीम कोर्ट का डरावना चेहरा

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काॅरपोरेट घरानों के नौकर सुप्रीम कोर्ट का डरावना चेहरा

यह सर्वविदित है कि काॅरपोरेट घरानों की असीम कृपा और धनवर्षा के बदौलत 2014 में देश की सत्ता पर एक ऐसा नरपिशाच काबिज हो गया है, जिसने देश के संविधान और उसके द्वारा स्थापित तमाम संवैधानिक स्तम्भों को धारासायी कर दिया है. यहां तक कि कार्यपालिका, व्यवस्थापिका, न्यायपालिका समेत तमाम मीडिया संस्थानों को पूरी तैयारी के साथ औद्यौगिक घरानों का पालतू कुत्ता बना दिया है, जिसका उपयोग देश की 90 प्रतिशत आबादी पर बिना किसी हिचक के किया जा रहा है. लोगों के खून को खेतों और गटर में अनवरत बहाया जा रहा है. नरभेड़िया बना यह मीडिया घराना तालियां बजा रहा है और न्यायपालिका खासकर सुप्रीम कोर्ट आंखें बंद कर गुनाहगारों की रक्षा में बैठा हुआ है.

अब जबकि मीडिया का खूनख्वांर चेहरा अर्नब गोस्वामी के रूप में देश के सामने आ चुका है कि किस तरह न्यायपालिका के जज चंद टुकड़ों में बिक रहे हैं, चाहे वह सुप्रीम कोर्ट का जज ही क्यों न हो, तब यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो चुकी है कि भारत के आम लोगों के मेेहनत की कमाई पर पल रहे न्यायपालिका खासकर सुप्रीम कोर्ट के जज धन की बोरियों को देखकर किस तरह तमाम तरह के अपराधियों के पक्ष में सीना ठोक कर खड़े हो गये हैं, यह हम अर्नब गोस्वामी को जेल के बाहर निकालने की अफरातफरी में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस को देख चुके हैं. लोकतंत्र के रक्षक के रूप में बनाया गया यह सुप्रीम कोर्ट आज देश के लोकतंत्र को चंद अपराधियों और हत्यारों के चरणधूल में लपेट दिया है. इसकी घोषणा आज के 5 वर्ष पूर्व सुप्रीम कोर्ट के ही चार वरिष्ठ न्यायधीश एक प्रेस वार्ता में कर चुके थे.

न्यायपालिका का यह भयानक खूंख्वार डरावना चेहरा आज लोगों को डरा रहा है. यह समूचा देश देख और महसूस कर भयाक्रांत है कि किस प्रकार यह सुप्रीम कोर्ट दोषियों, गद्दारों और हत्यारों को संरक्षण देकर देश के तमाम सच्चे लोगों विद्वानों, सोशल एक्टिविस्टों, प्रोफेसरों, पत्रकारों, यहां तक कि मृत्यु शैय्या पर पड़े समाजसेवियों तक को जेलों में सड़ाकर मार डालने के घृणित षडयंत्रों में शामिल हो गया है. आज सुप्रीम कोर्ट केवल अपराधियों, गुंडों, बलात्कारियों, हत्यारों को बचाने और उसकी सेवा करने का संस्थान बन गया है. यह केवल मोदी-शाह जैसे हत्यारों-अपराधियों का पालतू पिल्ला है, जिसका हर प्रकार से प्रतिरोध करना ही आज ही सच्ची देशभक्ति और प्रगतिशीलता है.

सुप्रीम कोर्ट में पदस्थापित तीन मुख्य न्यायधीश दीपक मिसरा, गोगोई और बोबड़े हैं, जिनके हर फैसले का समीक्षा किया जाना चाहिए. देश को यह जानना चाहिए कि लोकतंत्र की हत्या में ये तीनों मुख्य न्यायधीश किस तरह हत्यारों को संरक्षण प्रदान किया था, ताकि देश इन हत्यारों के साथ न्याय कर सके. ऐसे में तत्काल सोशल मीडिया पर प्रसारित हो रही सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान मुख्यन्यायधीश बोबड़े के फैसलों का विश्लेषण यहां किया गया है. पाठकों के सामने हम रख रहे हैं –

‘यतो धर्मस्ततो जयः’ यह माननीय सुप्रीम कोर्ट का आदर्श वाक्य (Motto) है जबकि ‘जिसकी लाठी उसके भैंस’ एक प्रचलित लोकोक्ति है. जहां सुप्रीम कोर्ट का आदर्श वाक्य ‘धर्म अर्थात सत्य और न्याय के विजय’ की बात करता है जबकि वास्तव में जिसकी लाठी उसकी भैंस शक्ति के विजय की बात करता है.

आजादी के बाद देश में धर्म का विजय सुनिश्चित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय का गठन किया गया ताकि देश का हर एक नागरिक खुद को सशक्त और समान महसूस कर सके, देश में न्याय के राज को स्थापित किया जा सके. भारत का संविधान/भारतीय संविधान के अनुसार उच्चतम न्यायालय की भूमिका संघीय न्यायालय, भारत का संविधान/भारतीय संविधान के संरक्षक और मौलिक अधिकारों के रक्षक की है.

अतः देश में न्याय व्यवस्था सुनिश्चित करने के साथ-साथ नागरिक अधिकारों के रक्षा और विधायिका व कार्यपालिका को निरंकुश होने से बचाने की भी जिम्मेदारी है. ऐसे में देश के मुख्य न्यायाधीश की भूमिका अहम हो जाती है, उनके दिए गए फैसले, फैसलों पर की गई टिप्पणी काफी अहम हो जाते हैं. सबसे महत्वपूर्ण कोर्ट के प्रथमिकता तय करने में मुख्य न्यायाधीश की भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो जाता है.

भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश एस. ए. बोबडे का कार्यकाल एक साल से अधिक हो गया है और इसी अप्रैल में वे सेवानिवृत्त भी होने वाले हैं. आज जस्टिस बोबडे के मुख्य न्यायाधीश बनने से लेकर आज तक के कुछ महत्वपूर्ण फैसलों का संकलन, उनके टिप्पणियों और न्यायालय द्वारा तरजीह दिए गए और ठंडे बस्ते में डाल दिए गए विषयों को साझा कर रहा हूं. बाकी आपको सब समझ आ जाएगा कि सुप्रीम कोर्ट संविधान का संरक्षक है या सरकार का ? माननीय न्यायालय मौलिक अधिकारों का रक्षक है या सरकार के ? देश का सर्वोच्च न्यायिक संस्था नागरिकों को सशक्त करता है या सरकार को ?

जस्टिस बोबडे के कुछ महत्वपूर्ण फैसले

1. प्रवासी मजदूर संकट : देशभर में 25 मार्च से तालाबंदी कर दी गयी जिससे हज़ारों प्रवासी मजदूर सड़कों पर आ गए. हजारों किलोमीटर पैदल चलकर अपने घर पहुंचे. कई लोगों ने थकान से दम तोड़ दिए तो कई लोगों की मौत सड़क दुर्घटना या ट्रेन दुर्घटना से हो गई. इस पर कई याचिकाएं दायर हुई जिस पर हाई कोर्टों ने राज्य सरकारों और केंद्र सरकार को आदेश पारित किए. पर मामला जैसे ही सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, देश का सर्वोच्च न्यायालय ने यह मानने से ही इन्कार कर दिया कि लोग सड़कों पर है. माननीय मुख्य न्यायाधीश ने यह कर कर खारिज कर दिया कि मिडिया में आ रहे रिपोर्ट को आधार नहीं माना जा सकता.

अलख आलोक श्रीवास्तव बनाम भारतीय संघ मामले में केन्द्र सरकार ने यह दलील दी कि कोई भी प्रवासी मजदूर सड़क पर नहीं है, सभी को सरकारी शिविर में रखा गया है और उन्हें मुफ्त भोजन दिया जा रहा है, जिसे मुख्य न्यायाधीश एस. ए. बोबडे महोदय ने स्वीकार कर लिया और इसके संबंध में कोई भी आदेश पारित करने से इंकार कर दिया.

2. ऐसे ही एक जनहित याचिका जो कोविड-19 से ही संबंधित था, जिसमें प्रवासी मजदूरों को न्युनतम मजदूरी देने से संबंधित था, उसका भी वहीं हश्र हुआ. इस याचिका की सुनवाई करते हुए जस्टिस बोबडे ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि
“If they are being provided meals why do they need money for meals?” (यदि उन्हें भोजन उपलब्ध कराया जा रहा है तो उन्हें भोजन के लिए धन की आवश्यकता क्यों है ?)

3. बाद में प्रवासी मजदूरों के मुफ्त परिवहन के संबंधित याचिका दायर की गई थी, इस मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप करने से मना कर दिया. माननीय न्यायालय के शब्द – ‘How can we stop people from walking? It is impossible for this Court to monitor who is walking and who is not walking.’ (हम लोगों को चलने से कैसे रोक सकते हैं ? इस न्यायालय के लिए यह निगरानी करना असंभव है कि कौन चल रहा है और कौन नहीं चल रहा है.)

हालांकि कुछ समाचार पत्रों और कुछ पूर्व जजों तथा वकीलों के लेख से प्रभावित होकर बाद में माननीय न्यायालय ने स्वतः संज्ञान जरूर लिया पर तबतक बहुत देर हो चुका था.

4. अनुच्छेद 32 से संबंधित मामले : जिसे बाबा साहब ने भारतीय संविधान का आत्मा कहा है, जो नागरिकों को उनके मौलिक अधिकार के हनन के स्थिति में यह देता है कि सीधे सर्वोच्च न्यायालय के शरण में जाने का अधिकार देता है. उसे लेकर माननीय मुख्य न्यायाधीश ने केरल के पत्रकार सिद्धिकी कप्पन के रिहाई के मामले की सुनवाई करते हुए कहा था –

‘We are not commenting on the merits of the case. We are aware of similar orders in the past and the vast powers that this Court possesses under Article 32. We want to discourage this trend.’ (हम मामले की खूबियों पर टिप्पणी नहीं कर रहे हैं. हम अतीत में समान आदेशों और विशाल शक्तियों के बारे में जानते हैं जो इस न्यायालय के पास अनुच्छेद 32 के तहत हैं. हम इस प्रवृत्ति को हतोत्साहित करना चाहते हैं.)

जबकि सुप्रीम कोर्ट के ही एक अलग बेंच ने अर्बन गोस्वामी के मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस डी वाई चन्द्रचूड़ ने कहा था –

“If we as a Constitutional Court do not protect liberty, then who will?” यदि हम एक संवैधानिक न्यायालय के रूप में स्वतंत्रता की रक्षा नहीं करते हैं, तो कौन करेगा ?)

5. हाल ही में कृषि कानून को लेकर बनाई कमेटी, जिस पर कुछ बोलने की जरूरत नहीं है. सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश बोबडे ने कहा कि किसान आंदोलन में महिलाएं और बूढ़े लोग क्या कर रहे हैं ? जज साहब ने कहा कि इन्हें वापिस भेजिए वरना हम आदेश पारित कर देंगे. शुक्र है यह जज साहब आज़ादी की लड़ाई के वक़्त मौजूद नहीं थे वरना ये गांधी को बूढ़ा होने की वजह से आंदोलन से बाहर निकाल देते. जज साहब मानते हैं कि आंदोलन करना या सरकार का विरोध करना औरतों का काम नहीं है.

हिमांशु कुमार लिखते हैं –

जज साहब भारत के स्वर्णिम अतीत की वापसी करने पर आमादा लगते हैं, जिसमें औरतों का काम घर के भीतर रहना और मर्दों की सेवा करना था. वैसे जज साहब को मालूम हो जाना चाहिए कि अगर वे किसान महिलाओं के आंदोलन करने के अधिकार के खिलाफ आदेश पारित कर भी देते तो औरतें उस आदेश को फ़ाड़ कर हवा में उड़ा देती.

यह अंबेडकर सावित्री बाई फुले फातिमा शेख गांधी मार्क्स भगत सिंह और सैकड़ों चिंतकों की चेतना से लैस आधुनिक महिलाएं है. जज साहब यह प्राचीन भारत की पुरुषों से दबने वाली औरतें नहीं है. अपनी इज़्ज़त अपने हाथ होती है जज साहब. अब आप की हर बार बेइज्जती हो तो आप बार बार एक एक रुपया मांगते हुए अच्छे नहीं लगते.

माननीय मुख्य न्यायाधीश के फैसले और टिप्पणियां यह बताने के लिए काफी है कि न्यायालय ‘दिया के साथ है या हवा के साथ.’ अब यह आप खुद तय करें माननीय सुप्रीम कोर्ट किस दिशा में अग्रसर है ? सरकार के संरक्षक के रूप में या संविधान के संरक्षक के रूप में ?

अब एक नजर कोर्ट की प्राथमिकताओं और लंबित महत्वपूर्ण मामलों की सूची पर

हालांकि जस्टिस बोबडे के मुख्य न्यायाधीश बनते ही कोविड-19 महामारी के कारण कोर्ट बाधित रहा, इसके बावजूद कोर्ट में जिन मामलों की त्वरित सुनवाई हुई, उनमें कई धार्मिक मामले थे जैसे धार्मिक स्थलों को खोलना, धार्मिक रैलियों की अनुमति इत्यादि शामिल है. जबकि न्यायालय में कई ऐसे मामले हैं, जो काफी महत्वपूर्ण और संवेदनशील है जिन पर कोर्ट ने अब तक तत्परता नहीं दिखाया है जबकि मेरे हिसाब से इन मामलों की सुनवाई तीव्र गति से होनी चाहिए थी.

1. इलेक्ट्राॅल बॉण्ड : यह एक बेहद संवेदनशील मामला है, अगर एक वाक्य में कहा जाए तो इसने राजनीतिक दलों के भ्रष्टाचार को वैध बना दिया है. राजनीतिक दलों की फंडिंग का अपारदर्शी होना लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा है, पर शायद माननीय सुप्रीम कोर्ट अन्य ज्यादा महत्वपूर्ण मुद्दों मे उलझा है.

2. अनुच्छेद 370 : अनुच्छेद 370 के संवैधानिक वैधता के जांच के लिए एक संवैधानिक खण्डपीठ बनाने की बात कही गई, पर आगे का कुछ पता नहीं चला जबकि मामला संवैधानिक और सामरिक दोनों रूप से संवेदनशील है. अगर गौतम भाटिया जैसे कानूनविदों की मानें या जरा-सा खुद के दिमाग का उपयोग करें तो पता चलेगा देश के संविधान की खुलेआम धज्जियां उड़ाई गई जबकि यह मामला भी माननीय सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.

3. नागरिकता कानून (CAA) : इस कानून को लेकर पूरे भारत में प्रदर्शन हुए, कई लोगों की जाने गई, यह कानून भारत के सेकुलर छवि के सामने एक बड़ा प्रश्न चिन्ह है पर यह मामला भी एक तरह से ठंडे बस्ते में चला गया है.

4. सूचना के अधिकार संशोधन विधेयक-2019 : आम नागरिक को सशक्त करने वाला और विधायिका एवं कार्यपालिका को जवाबदेह बनाने वाले इस कानून को संशोधन करके कमज़ोर बनाने की कोशिश की गई है, यह मामला माननीय सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.

5. आस्था बनाम अधिकार : सबरीमला और अन्य मामले…., महिलाओं के समानता के अधिकार से संबंधित यह मामला भी माननीय न्यायालय के विचाराधीन है, जिस पर अभी सुनवाई होना बाकी है.

मैने विभिन्न स्त्रोतों जैसे मीडिया रिपोर्ट (खासकर Bar & Bench) और कानूनविदों के लेख के आधार पर तथ्य आपके सामने रख दिया है. अब यह तय आपको करना है कि माननीय सुप्रीम कोर्ट अपने आदर्श वाक्य ‘यतो धर्मस्ततो जयः’ को चरितार्थ करता है या ‘जिसकी लाठी उसके भैंस’ को यह मैं आप सब के विवेक पर छोड़ता हूं. बाकी आप तथ्यात्मक सवाल खड़े करते रहिए चाहे वह विधायिका हो या फिर कार्यपालिका या न्यायापालिका. न्यायालय के फैसलों पर सवाल करना अवमानना नहीं होता, न्यायालय के आदेश को नहीं मानना अवमानना होता है. अतः उम्मीद है देश का सर्वोच्च न्यायालय अभिव्यक्ति के आजादी का सम्मान करता रहेगा. ‘यतो धर्मस्ततो जयः’.

सोशल मीडिया पर प्रसारित टिपण्णी यहां समाप्त होती है. हमें अन्य दो जस्टिस दीपक मिसरा और अरूण गोगोई के फैसलों की समीक्षा करना चाहिए कि आखिर वह किस तरह केन्द्र की हत्यारिन सरकारों से मिलीभगत कर किस तरह देश में लोकतंत्र को कमजोर कर देश की आम आवाम को गुलामी की नई परिभाषा के अनुकूल ढ़ालने मेें मदद की. अरूण गोगोई ने किस प्रकार देश की आम आवाम के खिलाफ संवैधानिक ताकतों का इस्तेमाल कर राज्यसभा की सीट हासिल की. इससे भी बढ़कर अर्नब के ह्वाट्सएप चैट के खुलासे के बाद सुप्रीम कोर्ट समेत देश के पूरे न्यायतंत्र की समीक्षा होनी चाहिए कि आखिर यह किस तरह देश के लोकतंत्र की नींव को खोखला करने में अहम भूमिका निभाई है, अन्यथा देश एक बार फिर से गुलामी के दलदल में धंसने के लिए तैयार है.

शायद यह इस वक्त की मांग हो सकती है कि लोकतंत्र को न्यायपालिका, खासकर सुप्रीम कोर्ट जैसी व्यवस्था पर पुर्नविचार कर एक नई व्यवस्था की रचना की ओर बढ़ा जाय. सुप्रीम कोर्ट की वर्तमान व्यवस्था एक नकारा, हत्यारों और लूटेरों का संरक्षक बनकर अपनी उपयोगिता खो चुकी है. वह अंबानी-अदानी जैसे काॅरपोरेट घरानों का पंचायत बनकर रह गई है. ऐसे में देश की जनता को एक नई न्याय व्यवस्था की जरूरत पर बल देना होगा, वरना सुप्रीम कोर्ट का यह डरावना चेहरा न जाने कितने वरवर राव, स्टेन स्वामी जैसों को निगल जायेगा.

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ROHIT SHARMA

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