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कोरोनावायरस की महामारी : लोगों को भयग्रस्त कर श्रम का मनमाना दोहन और शोषण

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कोरोनावायरस की महामारी : लोगों को भयग्रस्त कर श्रम का मनमाना दोहन और शोषण

Ram Ayodhya Singhराम अयोध्या सिंह
इस संदर्भ में यह पुछना लाजिमी है कि क्या दुनिया में इससे पहले जितने भी संक्रामक और मार्क रोग थे, सभी कोरोना के आने से खत्म हो गए ? क्या टीबी, मलेरिया, डेंगू, कैंसर,न्युमोनिया , हेपेटाइटिस बी, एड्स, कालाजार , चिकनगुनिया जैसे लोग एकाएक दुनिया से गायब हो गए ? क्या अब उनसे कोई नहीं मर रहा है ? दुनिया की बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम के कल्याण और उनके बेहतर जीवन के लिए आवश्यक सुविधाओं की उपलब्धता की गारंटी करने में वे असमर्थ हैं. अपनी इस असमर्थतता को छिपाने के लिए ही उनकी ‘नई विश्व व्यवस्था’ की परिकल्पना प्रक्षेपित की गई है, जिसके अनुसार विश्व की आबादी को न्युनतम स्तर पर लाने की बात की जा रही है, ताकि वर्तमान आबादी का वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़ते भार को कम किया जा सके, और उससे होने वाली बचत को विश्व के पूंजीपतियों में वितरित किया जा सके.

वैश्विक आवारा पूंजी का मुख्यालय विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के दिशा-निर्देश और विश्व स्वास्थ्य संगठन के तत्वावधान में दुनिया के सभी पूंजीवादी सरकारों ने न सिर्फ संविधान और लोकतंत्र का अपहरण कर लिया है, बल्कि अपने संवैधानिक और लोकतांत्रिक दायित्वों से भी मुंह मोड़ लिया है. आज दुनिया की तमाम सरकारों ने, कुछेक अपवादों को छोड़कर, वैश्विक पूंजीवाद द्वारा प्रायोजित ‘नई विश्व व्यवस्था’ के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ‘कोरोनावायरस’ को महामारी के रूप में न सिर्फ प्रक्षेपित किया है, बल्कि उसे एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत पूरी दुनिया में प्रचारित-प्रसारित किया गया है, ताकि एक ऐसा विश्वव्यापी माहौल बनाया जाए, जिसके माध्यम से दुनिया की बहुसंख्यक आबादी को भयग्रस्त कर उन्हें न सिर्फ संवैधानिक और लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित किया जा सके, बल्कि उन्हें गुलाम बनाकर उनके श्रम का मनमाना दोहन और शोषण किया जा सके.

पूंजीवादी वैश्विक मिडिया द्वारा कोरोना को एक ऐसी महामारी के तौर पर प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है, जिसका कोई इलाज अभी संभव नहीं, और न ही उससे सुरक्षा का कोई कारगर उपाय ही है. जहां कहीं जो कुछ भी किया जा रहा है वह सिर्फ आम जनता को धोखा देने के लिए ही है. सोशल डिस्टेंस, मास्क, हैंडवाश, टीका , क्वारेंटाइन और विशेष अस्पतालों में विशेष वार्डों में मरीजों की भर्ती और इलाज की जिस व्यवस्था की बात की जा रही है, वह महज खानापूर्ति ही है. वास्तविकता से इसे कुछ लेना-देना नहीं है. झुठी और मनगढ़ंत कहानी बनाकर पूरी दुनिया में इसे लगातार प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है.

इस संदर्भ में यह पुछना लाजिमी है कि क्या दुनिया में इससे पहले जितने भी संक्रामक और मार्क रोग थे, सभी कोरोना के आने से खत्म हो गए ? क्या टीबी, मलेरिया, डेंगू, कैंसर, न्युमोनिया , हेपेटाइटिस बी, एड्स, कालाजार , चिकनगुनिया जैसे लोग एकाएक दुनिया से गायब हो गए ? क्या अब उनसे कोई नहीं मर रहा है ? इन प्रश्नों का जवाब वैश्विक पूंजीवाद के पास नहीं है. संविधान और लोकतंत्र के नाम पर जो कुछ भी वे कर सकते थे, कर चुके.

दुनिया की बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम के कल्याण और उनके बेहतर जीवन के लिए आवश्यक सुविधाओं की उपलब्धता की गारंटी करने में वे असमर्थ हैं. अपनी इस असमर्थतता को छिपाने के लिए ही उनकी ‘नई विश्व व्यवस्था’ की परिकल्पना प्रक्षेपित की गई है, जिसके अनुसार विश्व की आबादी को न्युनतम स्तर पर लाने की बात की जा रही है, ताकि वर्तमान आबादी का वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़ते भार को कम किया जा सके, और उससे होने वाली बचत को विश्व के पूंजीपतियों में वितरित किया जा सके. इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ही पहले पूरी दुनिया में एक मनोवैज्ञानिक वातावरण तैयार करने की कवायद शुरू की गई है, ताकि लोगों के मनो-मष्तिस्क में यह बात गहरे बैठाई जा सके कि सरकार कोरोना के नाम पर जो कुछ भी कर रही हैं, वे उनके फायदे के लिए ही है.

कोरोना की महामारी से लड़ने और उसके इलाज की समुचित व्यवस्था करने की अपेक्षा यह कौन-सी व्यवस्था है कि बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम को ही उनके संविधानिक और लोकतांत्रिक अधिकारों से ही वंचित कर दिया जाए ? क्या यही कोरोना से बचने और कोरोना को खत्म करने का उपाय है कि आम जनता को उनके अधिकारों से वंचित कर दिया जाए. यह कौन-सा इलाज है ? क्या कोरोना से बचाव के लिए बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम को गुलाम बनाना जरूरी है ?

आज तक दुनिया में कभी भी ऐसी कोई दवा तो नहीं बनी थी. सच तो यह है कि विश्व पूंजीवाद अपने स्वास्थ्य को सुधारने के लिए ही बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम को अधिकारों से वंचित कर उन्हें गुलाम बनाने की साज़िश कर रहा है, जिसके तहत मजदूरों के प्रति सरकार का कोई दायित्व नहीं होगा, और न ही उनकी गरीबी, भूखमरी, भिखमंगी, लाचारी, जलालत और त्रासदी के लिए सरकार जिम्मेदार होगी. सरकार का कार्यक्षेत्र सिर्फ पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों के हितों की रक्षा और उनकी वर्तमान पूंजी में अभिवृद्धि करने के लिए पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों के निर्देश पर नीतियों का निर्माण करना और तत्संबंधी नियमों को लागू करने तक ही सीमित होगा.

विश्व के बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम के अधिकारों को छीनने और उन्हें गुलाम बनाने के बाद एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देशों की निचले तबके के बहुसंख्यक आबादी को खत्म करने का अगला चरण शुरू होगा. अमेरिका, यूरोप, चीन, जापान जैसे विकसित देशों की आबादी पहले से ही नियंत्रित है, इसलिए उनके मजदूरों को इस संत्रास से नहीं गुजरना पड़ेगा. आबादी का सबसे अधिक भार एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देशों में ही है, इसलिए आबादी का खात्मा करने की योजना भी उन्हीं देशों में शुरू होगी. इस क्रम में कम-से-कम तीन-चौथाई आबादी को खत्म किया जा सकेगा. पूरी दुनिया में मजदूर शब्द को घृणित बनाने की साज़िश तो पहले से ही चल रही है, इसलिए मजदूरों की इतनी बड़ी आबादी की मौत पर भी कोई आंसू बहाने वाला नहीं होगा. इसके लिए पूरी दुनिया का लंपटीकरण किया जा चुका है, और लंपटवादी संस्कृति आज अपने सैलाब पर है.

इसी वैश्विक परिदृश्य के परिप्रेक्ष्य में भारतीय पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों के इशारे पर नाचने वाली कठपुतली सरकार के कारनामों और कारगुज़ारियों का विश्लेषण किया जा सकता है. विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के साथ-साथ विकसित देशों से लिए गए कर्ज की जाल में भारत इस बुरी तरह फंस चुका है कि उससे निकलने का कोई भी रास्ता इसके पास नहीं है. हालत ऐसी हो गई है कि भारत सरकार आज विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, चीन और जापान जैसे देशों के साथ ही विश्व व्यापार संगठन, गैट, डंकल ड्राफ्ट और वैश्विक पूंजीवाद के दूसरी संस्थाओं के दिशा-निर्देशों में काम करने और अपने देश के लिए वैसे ही कानून बनाने के लिए बाध्य है.

वैसे भी भारत की सामाजिक व्यवस्था में मजदूरों की स्थिति सबसे दयनीय और उपेक्षित है. साथ ही, भारत में ‘मजदूर’ शब्द जितना घिनौना बना दिया गया है, उतना गरीब और भिखमंगा शब्द छोड़कर और कोई भी शब्द नहीं है. इसीलिए मजदूरों के शोषण, दमन, उत्पीड़न और प्रताड़ना पर भारत का उच्च वर्ग की तो बात ही छोड़िए, मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग भी उल्लसित और प्रफुल्लित होता है. मोदी सरकार के अब तक के कार्यकाल में भारत के मजदूरों और किसानों के साथ जितना क्रुर मज़ाक किया गया है, वह अमानवीयता की सारी सीमाएं तोड़ देता है.

लाकडाउन के दौरान लाखों-करोड़ों मजदूरों को रोजगार मुहैया कराने की तो बात ही छोड़िए, उन्हें हजारों किलोमीटर दूर से जेठ की तपती धूप में तारकोल की सड़कों पर पैदल सपरिवार चलने को मजबूर किया गया, पुलिस की लाठियों से पिटवाया गया, और लोगों ने रास्ते में गालियां भी दी. भारत सरकार के साथ-साथ राज्यों कि सरकारें भी अपने दायित्वबोध से परे होकर न सिर्फ मजदूरों के प्रति उदासीन बनी रहीं, बल्कि उन्हें प्रताड़ित करने के लिए जितना भी बन पड़ा, उन्होंने किया. संविधान और लोकतंत्र के साथ-साथ सारी संवैधानिक संस्थाओं और स्वायत्त संस्थाओं को वाहियात और अनर्गल बना दिया गया है, न्यायपालिका और शासन-प्रशासन का भगवाकरण किया जा चुका है, और आत्मकेंद्रित, आत्ममुग्ध और आत्मतुष्ट मध्यम वर्ग न सिर्फ सरकार की हां में हां मिला रहा है, बल्कि मोदी सरकार की जय-जयकार करते हुए सरकारी ताल पर नाच भी रहा है.

शिक्षा, स्वास्थ्य, देश की सारी संपत्ति, संपदा और प्राकृतिक संसाधनों, सरकारी उद्योगों और लोक उपक्रमों, कल-कारखानों, कंपनियों और निगमों, आवागमन के साधनों को पूंजीपतियों के हाथों कौड़ियों के मोल धड़ाधड़ बेचा जा रहा है. अबतक बची कृषि भूमि पर भी सरकार की टेढ़ी नजर है, और उसे भी हड़पने के लिए तीन कृषि कानून भी बनाए जा चुके हैं, और जिनके खिलाफ चार महीनों से किसानों का आंदोलन चल रहा है, जिसमें करीब चार सौ किसानों की बलि चढ़ चुकी है. पर, मजाल है कि सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगी.

तुर्रा यह कि कृषि उत्पादन में लगने वाले साधनों के दाम लगातार बढ़ रहे हैं. पेट्रोल और डीजल की तो जाने ही दीजिए, बीज, रासायनिक खाद, कीटनाशक दवाओं और अन्य उत्पादों के दाम एक साल के भीतर ही डेढ़ गुना तक बढ़ गए हैं. ऊपर से किसानों को कृषि उत्पादों का न्युनतम समर्थन मूल्य मिलने की भी कोई गारंटी नहीं है. अस्सी प्रतिशत किसानों के लिए कृषि घाटे का सौदा हो गया है लेकिन, जीने के लिए कुछ नहीं से कुछ तो बेहतर है. लघु और सीमांत किसान और मजदूर कैसे जीवन यापन कर रहे हैं, इसकी चिंता न तो केन्द्र सरकार को है, और न ही राज्य सरकारों को.

बेरोजगार युवाओं, छोटे दुकानदारों, व्यापारियों, दैनिक मजदूरी करने वाले मजदूरों, दूकानों और छोटे-छोटे प्रतिष्ठानों , फेरीवाले, फुटपाथ पर दूकान चलाने वाले और इसी तरह जीवनयापन करने वाले करोड़ों-करोड़ों भारतीयों की स्थिति से बेखबर भारत सरकार और राज्य सरकारें अपने दल और पूंजीपतियों के तलवे चाटने में व्यस्त हैं. पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों के साथ-साथ नेताओं, नौकरशाहों, दलालों, ठेकेदारों, माफियाओं, तस्करों, जालसाजों, घोटालेबाजों और गैर-कानूनी तरीके से कमाई करने वाले अनार्य पेशेवरों को देश की जनता को लूटने की खुली छूट ही नहीं, उन्हें सरकारी संरक्षण भी पर्याप्त है.

सरकार की इन अक्षमताओं, जनविरोधी नीतियों, निर्णयों और कार्ययोजनाओं, असफलताओं और अमानवीय कारगुज़ारियों के खिलाफ जनाक्रोश न उभरे, जनता, विवेकशील और चेतनाशील लोग सरकार से प्रश्न न पूछें, आलोचना न करें, जनांदोलन और हड़ताल न करें और जनप्रतिरोध के दूसरे साधनों का इस्तेमाल न करें, इसलिए वैश्विक पूंजीवाद के पिछलग्गू की हैसियत से भारत सरकार द्वारा कोरोना महामारी का दुष्प्रचार किया गया, और उसके माध्यम से जनप्रतिरोध की संभावनाओं को खत्म करने की कवायद भी शुरू हो चुका है.

सरकारी अस्पतालों की स्थिति तो ऐसी दयनीय है कि अच्छे लोग भी वहां बीमार हो जाएं. इसी बहाने निजी अस्पतालों को मरीजों को लूटने का सरकारी लाइसेंस मिल गया है. जिस तरह से निजी अस्पताल मरीजों से मनमाना इलाज खर्च वसूल कर रहे हैं, उसे देखने वाला भी कोई नहीं है. कोरोना के हल्ला में सब कुछ खो गया है. सारे काम से आंख मूंदकर सरकार कोरोना में लगी हुई है. फिर भी, अपनी सारी ताकत लगाने के बावजूद भी सरकार कोरोना मरीजों के लिए आवश्यक सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित नहीं कर सकी है. आखिर यह तमाशा क्यों ? कोरोना अगर महामारी होता, तो आमलोगों को भी तो पता चलता. ऐसा करता है कि आमलोगों को इसके बारे में तभी पता चलता है, जब सरकार हाय तौबा मचाने लगती है. लगता है कि सरकार के लिए देश की सारी समस्याओं का समाधान हो गया है, और अब सिर्फ कोरोना को खत्म करना ही उसके लिए बचा है, और उसे भी यह सरकार नियंत्रित कर ही लेगी.

कोरोना का हल्ला होते ही पता नहीं सारे लोग कहां लापता हो जाते हैं ? सच तो यह है कि सारे लोग ज्यों का त्यों जैसे थे, वैसे ही अब भी हैं. हां, सरकार उन बीमारियों के इलाज की व्यवस्था करने के लिए तैयार नहीं हैं. सारे सरकारी अस्पतालों का निजीकरण होनेवाला है, जिसमें इलाज इतना महंगा होगा कि सामान्य लोग तो बिना इलाज के ही दम तोड़ देंगे. पैसे वालों से इतना खर्च वसूल किया जाएगा कि अगली बार इलाज के लिए आने के पहले सौ बार सोचेंगे.

कोरोना के इसी आपाधापी में सरकार अपने दल, अपने लोगों, अन्य नेताओं, नौकरशाहों, अफसरों, प्रशासनिक अधिकारियों, न्यायाधीशों, दलालों, ठेकेदारों, माफियाओं, तस्करों, अपराधियों और सबसे ऊपर अपने आका पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों की तिजोरियों को भरने में लगी हुई है, मानो सरकार का यही एक काम रह गया है. देश की अर्थव्यवस्था जाए भांड़ में, बेरोजगार मरें तो मरें, किसान-मजदूर आत्महत्या करें तो करें, लोग अनपढ़ और मूर्ख रहें तो रहें, आमजन रोग से मरें तो मरें, सरकार इसके लिए जिम्मेदार नहीं है.

सरकार सिर्फ कानून और व्यवस्था के लिए है, बाकी सारे काम निजी कंपनियों के जिम्मे होगा, जहां पैसे दो, और काम कराओ. अगर पैसे नहीं हैं तो मुंह ताकते रहो. आत्मनिर्भर बनो. अपने भरोसे जीना सीखो, सरकार के भरोसे कब तक जीना चाहते हो ? सरकार का एकमात्र काम यही रह गया है कि बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम को अधिकार से वंचित कर उन्हें गुलाम बनाकर रखा जाए, और जो अपना श्रम मालिक की मर्जी से बेचने के लिए मजबूर हो, ताकि भारत के पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों को इतना मुनाफा हो कि वे दुनिया में सबसे धनी लोगों में शुमार किए जा सकें.

अगर कोई काम-धाम नहीं है तो रामधुन गाओ, भजन-कीर्तन गाओ, ढोल और नगाड़ा बजाओ , जय श्रीराम का नारा लगाओ और समय बचे तो राममंदिर के दरवाजे पर भीख भी मांग सकते हो. क्या जीने के लिए इतना काफी नहीं है ?

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ROHIT SHARMA

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