गिरीश मालवीय
नोवेल कोरोना वायरस की उत्पत्ति के बारे में दो सिद्धांत है – पहला यह कि यह एक प्राकृतिक वायरस है जो एक संक्रमित जानवर के संपर्क के माध्यम से इंसानों तक फैला. दूसरा यह कि लैब में इस वायरस पर प्रयोग किये जा रहे थे और उसी क्रम में यह एक दुर्घटना से यह लीक हुआ है.
कल अमेरिका में एक बड़ा खुलासा हुआ है. इंटरसेप्ट न्यूज़ वेबसाइट ने नए कागजात के आधार पर यह बताया है कि वुहान इंस्टीट्यूट में कोरोना वायरस के लिए किए जा रहे टेस्ट के लिए अमेरिका की ओर से आर्थिक सहायता की गई.
इस रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि अमेरिकी सरकार ने 3.1 मिलियन डालर स्वास्थ्य संगठन ‘EcoHealth Alliance’ को दिया ताकि चीन के वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (WIV) में कोरोना वायरस संबंधित तमाम रिसर्च के लिए फंडिंग हो सके.
इस अध्ययन का नाम था ‘अंडरस्टैंडिंग द रिस्क ऑफ बैट कोरोनावायरस इमर्जेंस.’ इसके लिए 599,00 अमरीकी डॉलर दिए गए, जिसका उपयोग वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी ने मनुष्यों को संक्रमित करने वाले बैट कोरोना वायरस की पहचान करने और उन्हें बदलने के लिए किया था.
‘द इंटरसेप्ट’ द्वारा किये गए इस खुलासे से यह स्पष्ट हो गया है कि यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इंफेक्शियस डिजीज (एनआईएआईडी) के प्रमुख डॉ. एंथनी फौसी अब तक झूठ बोल रहे थे. अमेरिकी सीनेटर रैंड पॉल ने कहा कि इन नए सार्वजनिक दस्तावेजों से पता चलता है कि वुहान में कोरोनोवायरस अनुसंधान के लिए अमेरिकी फंडिंग की सीमा बताती है कि यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इंफेक्शियस डिजीज (एनआईएआईडी) के प्रमुख डॉ एंथनी फौसी ने कांग्रेस को अपनी पिछली गवाही के दौरान झूठ बोला था.
एंथनी फौसी ने पहले अमेरिकी एजेंसी द्वारा इस तरह की किसी भी फंडिंग से इनकार किया था. नए जारी किए गए दस्तावेज़ उनके इस दावों का खंडन करते हैं कि नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ ने चीन के वुहान लैब में गेन-ऑफ-फंक्शन रिसर्च को फंड नहीं किया था.
अब आप यह समझ लीजिए कि Gain-of-function क्या होता है. अमेरिका एक विशिष्ट अध्ययन प्रोग्राम चलाता है जिसे Gain-of-function (GOF) कहा जाता है. यानी वो अध्ययन, या शोध जो Pathogen की रोग पैदा करने की क्षमता में सुधार करता है, यह अध्ययन, या शोध मानव-रोगज़नक़ इंटरैक्शन की मूल प्रकृति को परिभाषित करने में मदद करता है, जिससे उभरते संक्रामक एजेंटों की महामारी क्षमता का आंकलन किया जाता है.
यह बात पहले भी सामने आ चुकी है कि अमेरिका वुहान के लैब को पिछले पांच सालों से फंड दे रहा है. 2015 से अब तक अमेरिका वुहान की इस लैब को 3.7 मीलियन डॉलर फंड दे चुका है. इतना ही नहीं 2014 तक खुद अमेरिका कोरोना पर रिसर्च करना चाहता था. मगर फिर सुरक्षा कारणों से इसे अमेरिका के बाहर वुहान की लैब में कराने का फैसला लिया गया.
अगर लैब लीक थ्योरी सही है और यह प्राकृतिक वायरस नहीं है या इसमें कुछ जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से सुधार किए गए हैं तो सबसे पहला शक अमेरिका पर ही सामने आता है.
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अमेरिका में की गयी स्टडी पर कई मित्र सोशल मीडिया पर आश्चर्य प्रकट कर रहे हैं कि फाइजर की कोरोना वैक्सीन लगाने के बाद कोविड-19 एंटीबॉडी छह महीने बाद ही 80 प्रतिशत से अधिक कम हो जाती है. तो आप क्या सोच रहे थे कि दो डोज ले ली तो कोरोना खत्म ?
दरअसल हम लोगों के लिए यह आश्चर्य की बात इसलिए है क्योंकि हम वेक्सीन के बारे में यही जानते हैं जो हमारे बाप दादा को पता था कि एक बार वेक्सीन लगा ली तो जीवन भर की छुट्टी ! जैसे चेचक की वेक्सीन, पोलियो की वेक्सीन या BCG के टीके, एक बार लग गए तो जीवन भर वह रोग नहीं होगा और हुआ तो बहुत हल्का-सा असर होगा.
यह 21 शताब्दी है जब पूंजी विज्ञान पर इतनी हावी हो चुकी है कि जैसा पूंजी नचाती है, वैसे ही विज्ञान नाचता है.
अब 21 शताब्दी में पोलियो वेक्सीन के आविष्कारकर्ता जोनास साल्क जैसे लोग नहीं मिलेंगे. एक बार जोनास साल्क से पत्रकार ने पूछा कि ‘इस पोलियो वैक्सीन का पेटेंट किसके पास है ?’ साल्क ने इस सवाल के जवाब में कहा, ‘मैं तो यही कहूंगा कि इसका पेटेंट लोगों के पास है. इस वैक्सीन का कोई पेटेंट नहीं है. क्या आप सूरज को पेटेंट करा सकते हैं ?’
अब कुछ बड़ी फार्मा कम्पनियों ने विज्ञान को अपनी बांदी बना लिया है. जो वो चाहते हैं वही होता है उनके पास कोरोना वेक्सीन के पेटेंट राइट है वो ही अगला बूस्टर डोज बना पाएंगे कोई जेनेरिक वेक्सीन डोज नही बनने वाली
पश्चिम जगत में लोग इस बात को बहुत अच्छी तरह से समझ गए हैं इसलिए वहाँ पर इन बातों का भयंकर विरोध हो रहा है लेकिन यहाँ भारत मे लोग वेक्सीन की उसी लेगेसी में विश्वास करते हैं जो चेचक ओर पोलियो वेक्सीन से बनी है
अगर अपनी स्टडी में फार्मा कम्पनिया यह नही बताएगी कि उनकी वेक्सीन के डोज का असर 6 महीने में।खत्म हो रहा है तो कोई पागल है जो अगला उस कम्पनी का बूस्टर डोज लगवाएगा !….
यह सब शुरू से तय है कोरोना वायरस के बारे में शुरू से यह मालूम था कि यह तेजी से म्युटेट होता है, तब भी इसकी वेक्सीन बनाई गई ……वायरस का विकास होना और बदलना कोरोना वायरस सहित अन्य वायरस के आरएनए की सामान्य प्रवृत्ति है। वायरस का म्यूटेट होना कोई नई बात नहीं है, फ्लू कोल्ड सहित अन्य वायरस भी समय समय पर म्यूटेट होते रहते हैं। इसलिए विशेषज्ञों द्वारा वायरस के नए वेरियंट से बचने के लिए हर साल फ्लू शॉट लेने की सलाह दी जाती है।
दुनिया में अब जो कोरोना वैक्सीन दी जा रही हैं, उनके दो डोज कुछ समय के अंतराल पर मिल रहे हैं. ये दोनों डोज अब मिलकर प्राइम डोज कहलाएंगे. इसके बाद अगर जो डोज छह महीने सालभर या उससे भी ज्यादा समय के बाद लगवाने को कहा जाए तो उसे बूस्टर कहा जाएगा.
अब आपको जैसे अमेरिका में इन्फ्लूएंजा के फ्लू शॉट दिए जाते हैं उसी प्रकार से हर साल कोरोना वेक्सीन के अपग्रेड शॉट लेने ही होंगे,
हम जैसे लोग शुरू से यही चेता रहे हैं कि जैसे कम्प्यूटर में हर साल नया एंटीवायरस डलवाना होता है वैसे ही हर साल आपको जिंदा रहने के लिए अपने आपको बूस्टर डोज लेकर रिचार्ज कराना होगा, नही तो आपकी भी वैलिडिटी खत्म हो जाएगी….इस बात में कोई कांस्पिरेसी न खोजे !…यही सच है !….इस हकीकत को जितना जल्दी मान ले उतना अच्छा है
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