- मोदी जी को याद दिला दूं कि उन्होंने 1 मार्च को जो कोरोना की वैक्सीन ली थी वह कोवेक्सीन थी. उसका दूसरा डोज 28 दिन बाद लेने की सलाह दी जाती हैं. आज 28 मार्च है इसलिए कायदे से उन्हें आज यह डोज ले लेना चाहिए.
- राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 3 मार्च को कोराना वैक्सीन का पहला डोज लगवाया. राष्ट्रपति को 26 मार्च सीने में दर्द में उठा, हॉस्पिटल ले जाया गया. राष्ट्रपति की 30 मार्च की सुबह बायपास सर्जरी होगी.
- राजकोट (दक्षिण) से विधायक गोविंद पटेल से संवाददाताओं ने सवाल किया कि ‘क्या चुनाव प्रचार के दौरान नेताओं एवं कार्यकर्ताओं द्वारा दिशा-निर्देशों का उल्लंघन किया जाना संक्रमण के मामले बढ़ने का कारण है ?’ इसके जवाब में पटेल ने कहा, ‘जो कड़ी मेहनत करते हैं, उन्हें कोरोना वायरस संक्रमण नहीं होता. भाजपा कार्यकर्ता कड़ी मेहनत करते हैं, इसीलिए एक भी कार्यकर्ता संक्रमित नहीं हुआ है.’
संत समीर
टीकों पर सवालिया निशान लगाने वाली एक रिपोर्ट मेरे हाथ लगी है, इससे एक सवाल उभरता है कि कोरोना का टीका क्या सचमुच पूरी तरह सुरक्षित है ? टीके को आम जनता में स्वीकार्य बनाने के लिए जो कुछ कहा गया है या कहा जा रहा है, क्या वह सब सच है ?
टीका बनाने वाली कम्पनियों और विशेषज्ञों के बयान इतने विरोधाभासी हैं कि कई सन्देह पैदा होते हैं. एम्स के निदेशक रणदीप गुलेरिया ने कुछ दिनों पहले एक चैनल से बात करते हुए कुछ इस आशय की बात कह दी कि टीके पर पूरी तरह निर्भर नहीं रहा जा सकता, बाकी की सावधानियां भी करनी पड़ेंगी. यह भी कि तीन-चार महीने तक टीके का असर रह सकता है. टीका कम्पनियों में खलबली मची तो आपसी गुणा-गणित के बाद दो दिन पहले गुलेरिया जी का बयान आया कि टीका दस महीने प्रभावी रह सकता है. कमाल है, टीका भी बयानों के आधार पर अपना असर घटा-बढ़ा सकता है.
हमें आमतौर पर यही बताया जा रहा है कि कोरोना के टीके पूरी तरह सुरक्षित हैं और हम इन्हें बेहिचक लगवा सकते हैं. यहां तक कहा जा रहा है कि हमारे प्रधानमन्त्री जी ने भी आखिर लगवा ही लिया है, तो अब क्या सन्देह करना ! मतलब यह कि देश का प्रधानमन्त्री टीका लगवा ले तो टीका सुरक्षित हो जाता है ? सवाल यह भी है कि क्या टीका खतरनाक तभी माना जाए, जबकि वह प्राणघातक हो, या दूसरे कुछ और नुकसान भी इसके हो सकते हैं ?
याद रखना चाहिए कि पोलियो के टीके से लगभग साठ हजार बच्चे पोलियोग्रस्त हो गए थे. उसने फायदा ज्यादा पहुंचाया या नुकसान, यह अब भी बहस का विषय है. यह भी हो सकता है कि कृत्रिम टीके के कुछ नुकसान वर्षों बाद दिखाई दें. कई शोधों का निष्कर्ष है कि अपंगता, नर्व की परेशानियां, एनीमिया, कार्डिएक डिसऑर्डर, आंखों की खराबी, आंतों की बीमारी जैसी पचासों दिक्कतें पैदा हो सकती हैं. शोध यह भी कहते हैं कि बनावटी टीके प्राकृतिक रोगप्रतिरोधक क्षमता या कहें शरीर की मूल ‘इम्युनिटी’ को कम कर देते हैं. कभी कुछ बड़े शोध हों, तो हो सकता है यह भी पता चले कि चिकित्सा विज्ञान की ढेर सारी प्रगति के बावजूद नए-नए रोगों को जन्म देने में भांति-भांति के टीकों का भी योगदान है.
यह समझना भूल है कि टीका लगने के बाद हम नहीं मरे तो सब कुछ ठीक-ठाक है. हम कह नहीं सकते कि हमारे बच्चों को जो चैदह-पन्द्रह तरह के टीके आजकल लगने लगे हैं, वे पूरी तरह निरापद हैं. हमें बस इतना लगता है कि टीका लगने के बाद हमारा बच्चा जीवित-जाग्रत है, इसका मतलब सही-सलामत है, पर यह भी हो सकता है कि पैदा होने के बाद लगने वाले टीकों ने हमारे बच्चों के स्वाभाविक विकास को कमजोर कर दिया हो. आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में आम चलन है कि यदि कोई दवा किसी बीमारी में कुछ फायदा दिखाए, तो ध्यान बस फायदे पर रहता है. पार्श्वप्रभाव कई वर्षों बाद चर्चा में तभी आते हैं, जब नुकसान ज्यादा गम्भीरता से सामने आने लगते हैं.
अब जरा रिपोर्ट की बात करते हैं. यह रिपोर्ट ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनिका टीके के बारे में है. यही हमारे देश में कोविशील्ड नाम से लगाया जा रहा है. इसके बारे में प्रचारित किया गया है कि यह पूरी तरह सुरक्षित है, लेकिन ब्रिटेन के आंकड़े दर्ज करती यह रिपोर्ट चैंकाती है. इस रिपोर्ट को काफी छिपाने की कोशिश की गई, पर अब यह कुछ लोगों तक पहुंच रही है. मीडिया को तो खैर कोरोना को भयावह दिखाने और टीकाकरण अभियान को आगे बढ़ाने का परोक्ष ठेका मिला हुआ है, सो वह ऐसी रिपोर्टों पर चर्चा नहीं करने वाला, पर सोशल मीडिया के सहारे ही सही, जहां तक बात पहुंचे, पहुंचाई जानी चाहिए. पैंसठ पृष्ठ की पूरी रिपोर्ट यहां दी नहीं जा सकती, पर पहला और अन्तिम पृष्ठ आप देख सकते हैं.
इस रिपोर्ट के हिसाब से सिर्फ ब्रिटेन में एस्ट्राजेनिका टीका लगने के बाद बीती 4 जनवरी से 7 मार्च के बीच, यानी दो महीने में 2,28,337 (दो लाख अट्ठाइस हजार तीन सौ सैंतीस) लोगों में साइडइफेक्ट दिखाई दिए थे. 61304 लोग बाकायदा रिपोर्ट हुए थे. 289 लोग टीका लगने के बाद मौत के शिकार हुए. ध्यान दीजिए कि यह सिर्फ एक देश की बात है.
वैसे, करोड़ों की जनसंख्या में मरने वालों की यह बहुत छोटी संख्या है, इसलिए उम्मीद रखिए कि टीका लगने से आप मरेंगे नहीं, पर दूसरे दूरगामी असर तो हो ही सकते हैं और मेरा मानना है कि टीका बनाने का जो एलोपैथी का तरीका है, उसमें देर-सबेर कुछ-न-कुछ दुष्प्रभाव होंगे ही. जहां तक टीका लगवाने के बाद कोरोना से बचे रहने की बात है तो निर्माता कम्पनियां ही हिदायत दे रही हैं कि टीकाकरण के बाद भी मास्क और हैण्ड-सेनेटाइजर का इस्तेमाल मुस्तैदी से करते रहें. इस हिदायत से जो सवाल पैदा होता है, उसके लिए ज्यादा शब्द खर्च करना बेकार है.
कोरोना को भगाने का सबसे बढ़िया उपाय है कि कुछ दिनों के लिए देश को चुनाव मोड पर डाल दिया जाय. मेरे कहे पर मत जाइए, आपने देखा ही होगा कि जहां-जहां चुनाव की घोषणा हुई, वहां-वहां पूरे चुनाव के दौरान कोरोना कहां भाग गया, पता ही नहीं चला. लोग बिन्दास रैली-जुलूस करते नजर आए. बिहार में चुनाव हुआ, कोरोना गायब, मध्य प्रदेश में उप चुनाव हुए, कोरोना गायब. पश्चिम बंगाल, असम, पुडुचेरी, और तमिलनाडु में चुनाव की आहट मिलने लगी है तो वहां कोरोना की कमर में जोर-जोर से दर्द उठने लगा है.
लगता है, कोरोना मानवी मजमे से डरता है. संक्रमणग्रस्त दिल्ली की सीमा पर महीनों से किसानों ने तम्बू-कनात तान मजमा लगाया हुआ है तो बार-बार दिल की घण्टियां बजने के बावजूद कोरोना ने वहां इण्ट्री मारनी ठीक नहीं समझी. देश के मुखिया ने प. बंगाल में हाल में मजमा लगाया तो आपने भी देखा ही कि कोरोना की कितनी हृदयविदारक कराह निकल रही थी.
असल में कोरोना वारियरों का जोश बढ़ाने के लिए ताली और थाली बजाने का उपाय बढ़िया था, इससे तमाम लोगों को चने की झाड़ पर चढ़ने के अथक पुरुषार्थ की प्रेरणा मिली. अब जरूरत महामारी को एकदम से भगा देने की है तो मजमा वाला नुस्खा अपनाया ही जाना चाहिए. चुनाव सबसे बढ़िया उपाय है मजमा लगवाने का. चुनाव की घोषणा होते ही चैराहे-चैराहे डरपोक से डरपोक आदमी भी मजमा लगाने को आतुर होने लगता है.
नेता नाम का प्राणी मजमा लगवाने में माहिर सबसे बड़ा मदारी है. दिन का उल्लू जैसे रात में समझदार हो जाता है और अपनी असली उड़ानों पर निकल पड़ता है, वैसे ही नेता भी चुनाव की घोषणा होते ही अपनी कन्दरा से बाहर निकल मजमेबाजी के महान् प्रतिभा-प्रदर्शन में लग जाता है. चुनावी मौसम बन जाए तो मानिए कि- गली-गली घूमे घर-घर जीमे, नेता बेईमान कभी इस गांव में कभी उस गांव में…और फिर, कोरोना कहां किस ठांव में !
दिल्ली और मुम्बई देश को कोरोना से डराने में सबसे आगे हैं. सो, यहाँ पर बिन मौसम चुनाव की घोषणा कर देनी चाहिए. दिल्ली में नेता रहते हैं और मुम्बई में अभिनेताय और, मजमा लगवाने में गुरुओं के गुरु ये ही दो प्राणी हैं.
सोचिए सरकार, सोचिए ! अकसीर उपाय है.
Read Also –
क्या आपके मुहल्ले में कोरोना का असर सचमुच बढ़ता हुआ दिख रहा है ?
वैक्सीन की विश्वसनीयता पर सवाल और सरकार की रहस्यमय चुप्पी
गोबर चेतना का विकास
कोरोना वेक्सीन ‘कोवेक्सीन कोविशील्ड’ : स्वास्थ्य मंत्रालय का गजब का मजाक
कोरोना महामारी से लड़ने का बिहारी मॉडल – ‘हकूना मटाटा’
कोरोना एक बीमारी होगी, पर महामारी राजनीतिक है
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर पर फॉलो करे…]