प्रो. (डॉ.) प्रमीला
कोरोना तेरे नाम पर लोगों को मरते देखा.
नदियां, हवा, शहर, आसमान, चांद-सितारे को
स्वच्छ होते भी देखा.
लाखों लाख लोगों को सड़कों पर चलते देखा.
पांव में छाले, फफोले, पसीना से लथपथ
भूख-प्यास से तड़पते इंसानों को देखा.
मजदूरों के पांव के खून से रंगे सड़कों को देखा.
एक्सीडेंट में मरे मजदूरों के लाशों को देखा.
सरकार के किए गए झूठे वादों को देखा.
जनता के नाम पर लाखों करोड़ रुपैया को
हड़पते देखा.
सरकारी अधिकारी, पदाधिकारी और
चमचों की चमक बढ़ते देखा.
कोरोना तेरे नाम पर,
पूरे संसार में दहशत फैलते देखा.
चलते-चलते भरी दोपहरी में
बीच सड़क पर
बच्चे को जन्म देकर फिर तुरंत
उस बच्चे को गोद में उठाकर,
महिला को सैकड़ों मील चलते भी देखा.
15 साल की ज्योति को
अपने घायल पिता को
साइकिल पर बिठाकर.
12 दिन का सफर तय कर
हरियाणा से दरभंगा आते भी देखा.
इस देश में ट्रेन और बस के नाम पर
राजनीति होते देखा.
ताली, ताली, बाल्टी, शंख बजाकर
मोबाइल, मोमबत्ती, अगरबत्ती, टॉर्च और दिया जलाकर
जनता में अंधविश्वास फैला कर
नरबलि और कोरोना माई के अंधविश्वास से
मोदी के द्वारा लोगों को ठगते भी देखा.
एयरपोर्ट पहुंचने पर एरोप्लेन को
कैंसिल होते और
टिकट का रुपैया न लौटाने का खेल
होते भी देखा.
लाखों रुपया को किसान मजदूरों के नाम पर
बंदरबांट होते भी देखा.
छोटे बच्चों को सूटकेस, ब्रीफकेस,
गोदी, कांधों पर बिठा कर
बेबस मां-बाप को खाली पैर
लाखों लोगों को तपती दोपहरी में
पैदल चलते भी देखा.
एक प्लेट खाना में चार लोगों को खाते देखा और
उसी खाने से दिन-रात गुजारते भी देखा.
क्वारंटाईन सेंटर में एक वक्त का खाना
मिलते भी देखा.
सेंटर के लोगों का समुचित इलाज न होने पर
सड़कों पर नारा लगाते देखा.
‘हम क्या करें ?’ कलेक्टर, वीडियो, सीईओ,
मुखिया को कहते भी देखा.
क्वॉरेंटाइन सेंटर के तैयार भोजन में
कीड़ा-बिच्छू निकलते भी देखा.
फिर भी लाचारी में,
उस खाना को खाते लोगों को देखा.
‘जो बाप तुम को जन्म दिया
रोजगार नहीं दिया, तो हम क्यों दें ?’
बिहार के एक विधायक को
मजदूरों से कहते भी देखा.
शराब को पहली प्राथमिकता देते
सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ाते
लोगों को शराब पिलाते पीएम, पीएम,
डीएम के आदेशों को भी देखा.
मजदूरों को रेल में कटकर
हजारों हजार किलोमीटर चलकर घर पहुंचते
यमुना में कूदकर नदी पार करते भी देखा.
कितनी लंबी है सड़क तुम्हारी,
देश के मजदूरों को नंगे पांव
नापते भी देखा.
गला सूखे, भूख से तड़पते
धूप से छटपटाते फिर भी चलते
बच्चे, नौजवान, बुढ़े औरत, मर्दों को देखा.
जानवरों से भी बदतर हालत में
ठूस-ठूस कर भरे ट्रक ट्रैक्टर पर
मजदूरों को आते देखा.
अनाप-शनाप भाड़ा, घर पहुंचाने के नाम पर
वसूलते बिचैलियों को देखा.
लॉकडाउन के नाम पर नौकरी जाते,
बैंक में रुपए खत्म होते,
बूढ़े मां-बाप परिवार के लिए,
दो वक्त की रोटी ना जुटा पाते,
विवश होकर आत्महत्या कर लेते,
भानु प्रताप गुप्त जैसे आदमी को देखा.
सड़कों पर रोड़ा-पत्थर खाते
फिर भी सेवा करते
डॉक्टर, नर्स, आशा कार्यकर्ताओं को देखा.
हॉस्पिटल में न वेंटिलेंटर, ना उचित इलाज होते
दवाओं के अभाव में मरीजों को दम तोड़ते
पड़े पड़ेे लाशों को सड़ते देखा.
कब तक हम सब देंखेंगे ?
चुप रहना ही मरना होगा
कदम-कदम पर लड़ना होगा.
सिर कफन हाथ-हथौड़ा
करके मन में कड़ी प्रतिज्ञा
बढ़ते हैं जो क्रांति पथ पे
जीत उसी की होते देखा.
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