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कोरोना से नहीं, ज़्यादातर लोग कोरोना के इलाज से मरे या मारे गए

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Sant Sameerसंत समीर

कोरोना के टीके पर जो बात कहने जा रहा हूं, वह इसलिए याद आई कि आजकल मेरे पास जितने फ़ोन नए संक्रमितों के आ रहे हैं, उसके लगभग तिहाई फ़ोन टीका लगवाने के बाद होने वाली परेशानियों के लिए हैं. टीका लगवाने के बाद आमतौर पर लोगों को हल्का-फुल्का बुख़ार हो रहा है, जो स्वाभाविक है, पर कुछ लोगों ने फ़ोन करके बताया है कि टीका लगवाने के दो-तीन दिन बाद से उन्हें बुख़ार आया है और कई अंग्रेज़ी दवाएं खाने के बाद भी जाने का नाम नहीं ले रहा है. दस-बारह दिन से बना हुआ है. कुछ मरीज़ टीके की सभी ख़ुराकें लेने के बाद महीने भर से परेशान हैं. ऐसे कई मरीज़ों के फ़ोन रिकॉर्ड मैं सबूत के तौर पर कभी भी प्रस्तुत कर सकता हूं. टीके के साइड इफेक्ट हटाने के लिए लोगों को मैं होम्योपैथी दवाएं बता रहा हूं. याद रखिए, टीका लगवाने के बाद लम्बे समय तक परेशानी रह जाए, तो एलोपैथी कुछ नहीं कर सकती, पर होम्योपैथी की थूजा-200 या 1एम या लक्षण के हिसाब से अन्य एक-दो दवाओं की बस एक-दो ख़ुराक भी हमेशा के लिए राहत दे सकती है.

बहरहाल, टीके से होने वाली परेशानी गम्भीर बात है. ऐसे गम्भीर मामलों की ख़बरों को दबाने का काम चल रहा है, जो और दुर्भाग्यपूर्ण है. टीका निर्माण के दौरान कम्पनियों के भांति-भांति के बयानों को सुनकर मैं शुरू से ही कहता आ रहा हूं कि कोरोना का टीका काम का कम होगा और जनता को बेवकूफ़ बनाने के काम ज़्यादा आएगा. विज्ञान का युग है, पर आमजन तकनीक के रूप में विज्ञान के चमत्कार देख-देखकर ख़ुश है. विज्ञान के नाम पर कही गई हर बात पर आंख मूंदकर भरोसा कर लेना स्वाभाविक है, लेकिन इसी विश्वास का मुनाफ़े के व्यापारी फ़ायदा उठा रहे हैं, जिस पर हम ध्यान नहीं दे पाते. जनता को मूर्ख कैसे बनाया जा रहा है, इसे आप टीका लगने की शुरुआत से समझने की कोशिश कर सकते हैं.

याद कीजिए कि कई महीने पहले जब टीका लगने की शुरुआत हुई तो हरियाणा के एक मन्त्री अनिल विज टीके की पहली ख़ुराक के बाद कोरोना पॉजिटिव हो गए. ख़बर आई तो हंगामा हुआ और टीके पर सवाल उठे. चिकित्सा विशेषज्ञों ने तार्किक जवाब देकर समझाया कि असल में टीके की दूसरी ख़ुराक के बाद शरीर में एण्टीबॉडी बनना शुरू होती है. विज्ञान की बात थी, भरोसा किया जाना उचित ही था; हालांकि मेरे मन में सवाल ज़रूर उठ रहा था कि पूछूं कि जितने भी टीके आए, उनकी पहली ख़ुराक से ही एण्टीबॉडी बनने लगती थी ? कोरोना में पहली ख़ुराक के बाद क्या ज़रा भी एण्टीबॉडी नहीं बनती या पहली वाली ख़ुराक शरीर में बैठकर इन्तज़ार करती है कि दूसरी ख़ुराक वाली दीदी आएगी, तभी हम दोनों मिलकर स्कूल जाएंगे ?

और अब, जब दूसरी ख़ुराक लेने के कई दिन बाद भी लोग कोरोना पॉजिटिव हो रहे हैं, तो तर्क का तरीक़ा बदल गया है. अब का विशेषज्ञतापूर्ण तर्क यह है कि टीका इस बात की कोई गारण्टी नहीं है कि संक्रमण नहीं होगा. संक्रमण तो टीका लगने के बाद भी हो सकता है, पर यह इतना ख़तरनाक नहीं होगा कि अस्पताल जाना पड़े या मरने की नौबत आ जाए. इस तर्क की जांच ज़रा इस ख़बर से कीजिए कि टीके की दूसरी ख़ुराक लगवा चुके दिल्ली के सर गङ्गाराम अस्पताल के सैंतीस तो एम्स के पैंतीस डॉक्टर कोरोना पॉजिटिव हो गए और कुछ की हालत इतनी ख़राब हुई कि आईसीयू में ले जाना पड़ा.

सवाल यह है कि टीका लगने के बाद संक्रमण गम्भीर नहीं होगा, तो पांच लोगों को आईसीयू में क्यों ले जाना पड़ा ? आईसीयू की छोड़िए, सिर्फ़ अस्पताल जाना पड़ जाए तो भी मतलब यही है कि बात गम्भीर है और मरीज़ को दवा की ज़रूरत है. यानी ऐसे मरीज़ को बिना दवा के छोड़ दिया जाए तो उसकी जान पर आफ़त आ सकती है. आख़िर बीमारी की गम्भीरता और मरने का ख़तरा और क्या होता है ? मैंने टीके की दोनों ख़ुराक के बाद महीने भर से बुख़ार में तप रहे कुछ लोगों का इलाज किया है, तो क्या यह सब देखते हुए भी मान लूं कि हल्का वाला कोरोना संक्रमण ऐसा ही होता है ? बात साफ़ है कि जब मेरे जैसे झोलाछाप के पास दूसरी ख़ुराक के बाद कोरोनाग्रस्त होने के कई फ़ोन आए हैं, तो इसका मतलब संख्या बड़ी है, जिसे ख़बर बनने से रोका जा रहा है.

आने वाले दिनों में टीके के पक्ष में कुछ और तर्क भी दिए जाएंगे. अभी एक-दो दिन पहले ही एनडीटीवी पर एक दो डॉक्टरों के आप्त-वचन सुनाए जा रहे थे कि टीके के बाद रोग की गम्भीरता में कमी आई है. ज़रा सोचिए, टीका अभी बहुत कम लोगों को लग पाया है और संक्रमित लोग, चाहे गम्भीर हों या कम गम्भीर, ज़्यादातर वे हैं, जिन्हें टीका लगा ही नहीं है. टीका न लगने के बावजूद ज़्यादातर लोगों का संक्रमण कम गम्भीर है, तो भला इसमें टीके का क्या योगदान ? क्या ये विद्वान् डॉक्टर यह कहना चाहते हैं कि टीके की आहट से ही कोरोना डर गया और संक्रमण की गम्भीरता को कम करने पर मजबूर हो गया ?

देखते रहिए, आने वाले दिनों में सबसे बड़ा तर्क यही होगा कि टीके की वजह से ही दूसरी लहर में तेज़ संक्रमण के बावजूद कम मौतें हुईं, जबकि सच्चाई यही है कि बिना टीका लगे भी तेज़ संक्रमण के बावजूद मौतें कम हो रही हैं.

दुर्भाग्यपूर्ण होगा कि लोग तथाकथित विशेषज्ञों के बार-बार चिल्लाने पर भरोसा कर ही लेंगे. असलियत की जांच वे ही कर पाएंगे, जिन्हें दूसरी लहर के शुरू हो जाने के बाद की ख़बरें याद रहेंगी. यहीं पर यह भी समझना चाहिए कि कम मौतों का कारण क्या है. सीधा-सा कारण है कि लोगों के मन में कोरोना के ख़तरे का डर तो है, पर पहले जैसा बहुत ज़्यादा भयभीत कर देने वाला आतंक नहीं है.

पहले का हाल यह था कि कोरोना पॉजिटिव सुनते ही कई लोगों को लगा कि इस बीमारी से बेहतर तो आत्महत्या है और अस्पताल की छत से कूदकर जान दे दी. आज की तारीख़ में कोई इस तरह से आत्महत्या करने की सोचेगा भी नहीं. पहले कोरोना के इलाज में जान बचाने के नाम पर हड़बड़ाहट में अनाप-शनाप ख़तरनाक दवाएं ख़ूब दी गईं, जिनकी वजह से तमाम लोगों की जानें गईं. आपको याद होगा कि कोरोना के मरीज़ों को एड्स तक की दवाएं दी गईं और अजब-ग़ज़ब दावे किए गए, जो बाद में सरासर झूठ निकले.

वास्तव में कोरोना से नहीं, ज़्यादातर लोग कोरोना के इलाज से मरे या मारे गए. एक भी व्यक्ति मुझे ऐसा नहीं मिला है, जिसने कोरोना के लिए दवा न खाई हो और मर गया हो. मरे वे ही हैं, जिनका कुछ ज़्यादा ही इलाज कर दिया गया. डर इतना था कि अस्पताल जाने की ज़रूरत न होते हुए भी लोग अस्पतालों की ओर भागे. अस्पतालों ने जो किया, उसकी कहानियां दुबारा बताने की ज़रूरत नहीं है. एक तरफ़ कहा जा रहा था कि इस बीमारी की अभी तक कोई दवा नहीं बनी है और दूसरी तरफ़ दस-पन्द्रह लाख तक या इससे भी ज़्यादा का बिल मरीज़ को पकड़ाया गया, जाने कौन-सी दवाएं खिलाकर ?

मैं बार-बार कहता रहा हूं कि यह मारक वायरस नहीं है. ग़ैरज़रूरी दवाएं खिलाकर इसे मारक बनाया जा रहा है. ग़ैरज़रूरी दवाएं खिलाने का एक ही उदाहरण पर्याप्त है. शुरू में कोरोना का आतङ्क ऐसा फैलाया गया कि एलोपैथी के डॉक्टर, जो ख़ुद को सबसे ज़्यादा समझदार और वैज्ञानिक सोच वाला समझते हैं, उन्होंने महीने-महीने भर तक हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन जैसी ख़तरनाक दवा उस कोरोना से बचने के लिए खाई, जो उनके पास फटका तक नहीं था. इम्युनिटी बढ़ाने के नाम पर और उस ख़तरे से बचने के लिए, जो कहीं भविष्य में था. इन मूर्खों ने इतना तक सोचने की ज़रूरत नहीं समझी कि रसायनों से बनी दवाओं से कभी इम्युनिटी नहीं बढ़ती. इम्युनिटी हमेशा शरीर की प्रकृति के अनूकूल आहार से बनती और बढ़ती है.

बहरहाल, हाइड्रॉक्सी खाने वाले कुछ डॉक्टर जब हृदयाघात की चपेट में आए तब कहीं इस पर पाबन्दी लगाने जैसी बात हुई और गाइडलाइन जारी की गई. कुछ को तो ऐसा साइड इफेक्ट झेलना पड़ा कि हाथ-पैर कांपने की अब उनको बीमारी हो गई है.

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