वित्तीय वर्ष 2021 भारत की अर्थव्यवस्था के लिए 70 सालों में सबसे अधिक बुरा साल. भारत का कुल घरेलू उत्पादन घटा 7.3 प्रतिशत. इससे पहले 1979-80 में जनता पार्टी की हुकूमत के समय 5 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी. आर्थिक वृद्धि दर के मामले में भारत का नंबर 194 देशों में 142वां पहुंच चुका है.
आम जनता के लिए सबसे खराब गुजरे साल 2021 में गौतम अडानी की दौलत में 2,56,00,00,00,00,00 का इजाफा हो गया है. यानी 75 करोड़ रुपए प्रति घंटा. आपकी आमदनी में कितना इजाफा हुआ है ?
कोरोना पाबंदियों के चलते 97 फ़ीसदी भारतीय पिछले साल से और ज़्यादा ग़रीब हुए. कोरोना बीमारी को महामारी बताते हुए, इस बीमारी की रोकथाम के लिए प्रबंध करने की जगह भारत सरकार ने लॉकडाउन या कई जगह पर आंशिक पाबंदियां लगाई है. कोरोना की तथाकथित पहली लहर के वक़्त भी लगाए गए दमनकारी लॉकडाउन ने मेहनतकश जनता के आर्थिक स्रोतों को बूरी तरह से प्रभावित किया. लोगों के रोज़गार छीने. बंद खुलने के बाद जब एक बार काम की चाल अभी बढ़नी शुरू ही हुई तो कोरोना की तथाकथित दूसरी लहर से निपटने के नाम पर पाबंदियां लगाकर, एक बार फिर से मेहनतकशों के चूल्हे ठंडे कर दिए.
पिछले दिनो सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के चीफ़ कार्यकारी अधिकारी महेश व्यास ने इन पाबंदियों के प्रभावों के बारे में कुछ तथ्य साझा किए. उनके मुताबिक़ निवेश बैंक बर्कले के मुताबिक़ मई महीने के हर हफ़्ते पाबंदियों के चलते भारत 60,000 करोड़ रूपए खो रहा है और अब तक का कुल नुक़सान 8.5 लाख करोड़ तक पहुंच चुका है, जो कुल घरेलू उत्पादन का 3.75 फ़ीसदी बनता है (लाज़िमी ही इस नुक़सान की वसूली भी आम जनता की जेबों में से की जानी है).
बेरोज़गारी की दर 14.73 फ़ीसदी तक पहुंच चुकी है. कुल भारत के शहरी क्षेत्रों में बेरोज़गारी की दर 17 फ़ीसदी और ग्रामीण क्षेत्रों में 14 फ़ीसदी हो गई है. पिछले साल लॉकडाउन के वक़्त अप्रैल से मई 2020 तक श्रम भागीदारी दर में गिरावट आई और बेरोज़गारी की दर शिखरों पर पहुंच गई. इस दौरान करोड़ों लोगों का रोज़गार छिना. मई के बाद जून-जुलाई के महीनों में हालतें थोड़ी आसान होने लगीं और दिसंबर तक पहुंचते पहुंचते बेरोज़गारी की हालतों में गणनीय सुधार होने लगा था लेकिन उसके बाद जनवरी से हालतों ने एक बार फिर करवट बदली और आंकड़े फिर बुरे वक़्त की दस्तक का इशारा देने लगे.
बेरोज़गारी की दर में फिर वृद्धि दर्ज की गई, श्रम भागीदारी की दर में गिरावट आई. यही वह वक़्त था जब कोरोना की तथाकथित दूसरी लहर की रोकथाम के नाम पर पाबंदियां मढ़कर हालतों को और बदतर बना दिया गया. अप्रैल में बेरोज़गारी की दर 8 फ़ीसदी और श्रम भागीदारी की दर 40 फ़ीसदी पर रुकी हुई थी लेकिन मई तक बेरोज़गारी की दर 14.7 फ़ीसदी तक पहुंच चुकी है.
सीएमआईई के आंकड़ों के मुताबिक़ अप्रैल 2020 में 12 करोड़ 60 लाख लोगों का रोज़गार छिना (जबकि वास्तविक आंकड़े इससे कहीं ज़्यादा हैं), जिनमें से 9 करोड़ लोग दिहाड़ीदार थे. जब पहला लॉकडाउन लगा तब दिहाड़ीदार मज़दूरों का रोज़गार एकदम छिन गया. लॉकडाउन खुलने के बाद भले ही बेरोज़गार हुए मज़दूरों में से कुछ को रोज़गार वापिस मिल गया, लेकिन सबको नहीं. और जिन्हें रोज़गार वापिस मिला भी, उनमें से भी एक हिस्से को पक्के की जगह कच्चा रोज़गार मिला, ठेका भर्ती का रुझान बढ़ा है, ग़ैर-रस्मी भर्ती बढ़ी है.
पाबंदियों की वजह से कच्चे मज़दूरों में गणनीय वृद्धि देखने को मिलती है. इससे रोज़गार वापिस आ जाने की हालत के बावजूद भी मज़दूरों की रोज़गार सुरक्षा को ख़तरा खड़ा हुआ है, बचतों में कमी आयी है, मज़दूरों को कम वेतन पर काम करने के लिए मज़बूर होना पड़ा और मज़दूरों के क़ानूनी अधिकारों पर गाजी गिरी.
आंकड़े जुटाने वाली इस संस्था का कहना है कि तनख्वाहशुदा नौकरियों में कोरोना पाबंदियों की वजह से बड़ी कमी आयी है. कोरोना से पहले हमारे पास 40 करोड़ 35 लाख के क़रीब नौकरियां थी. जनवरी 2021 में यह संख्या 40 करोड़ रह गई और आज (मई 2021) में 39 करोड़ संख्या है और दिनों दिन यह आंकड़ा और ज़्यादा नीचे आता जा रहा है. जिनकी नौकरियाँ लॉकडाउन के दौरान छिन गईं, बाद में बड़े हिस्से को वही नौकरी नहीं मिली, तनख्वाहशुदा नौकरियों में कट लगा, जो अब भी जारी है. पहले कुल नौकरियों में से 8.5 करोड़ तनख्वाहशुदा नौकरियां थीं, जो अब 7.3-7.4 करोड़ ही रह गई हैं.
इसी संस्था के एक सर्वेक्षण के मुताबिक़ सिर्फ़ 3 फ़ीसदी लोग ही ऐसे हैं, जिनकी आमदनी पहले के मुक़ाबले बढ़ी है. 55 फ़ीसदी की आमदनी में पिछले साल की तुलना में गुणात्मक कमी आयी है और 42 फ़ीसदी की हालत जैसे-तैसे है. मतलब कि 97 फ़ीसदी आबादी पिछले साल के मुक़ाबले ज़्यादा ग़रीबी की दलदल में धकेली गई है.
इस हालत की बहाली के बारे में बात करते हुए श्रीमान व्यास ने बताया कि आर्थिकता के और बिगड़ते जाने के संकेत मिल रहे हैं, फिलहाल बहाली की गुजांइश कम है. इसलिए आने वाली हालतों में मेहनतकश लोगों की जान को कोई राहत की उम्मीद नहीं की जा सकती. कोरोना पाबंदियों ने ग़रीबी, बेरोज़गारी की तक़लीफें झेल रही मेहनतकश आबादी के दुखों में गुणात्मक वृद्धि कर दी है, उनकी जीवन हालतों को और भी बदतर बना दिया है. यदि कोरोना पाबंदियों को जल्दी ही ना हटाया गया तो लाज़िमी ही ग़रीबी और भूख की महामारी हमारे दरवाज़ों पर दस्तक देगी.
(स्रोत – मुक्ति संग्राम)
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