कोरोना के शुरुआती दिनों में ही हमने संसार के अनेकों स्वास्थ्य विशेषज्ञों के विचारों को आधार बनाकर यह नतीजा निकाला था कि कोरोना अन्य मौसमी वायरल बीमारियों जैसी ही बीमारी है. यह कोई ऐसी महामारी नहीं है, जिसके लिए लॉकडाउन और अन्य पाबंदियां थोपी जाएं. भारत में हर साल 97.78 लाख मौतें होती हैं, जो कि 7300 मौतें प्रति 10 लाख बनता है. अब इन 7300 मौतों में 212 कोरोना से हो रही हैं, तो यह किसी भी तरह महामारी नहीं बनती. कोरोना उसी तरह ही एक बीमारी है, जैसे मौसमी बदलाव से फैलने वाली अन्य वायरल बीमारियां. यह मौसमी फ़्लू वाले परिवार की बीमारियों में से एक है. कोरोना के नाम पर फैलाई जा रही दहशत का विरोध करते हुए हमें हुकूमत के हथकंडों को समझना चाहिए और लोगों पर थोपी जा रही पाबंदियों का विरोध करते हुए स्वास्थ्य ढांचे को सुधारने की मांग करनी चाहिए.
कोरोना की दूसरी लहर का शोर शिखर पर है. पूरा सरकारी तंत्र और गोदी मीडिया लोगों में इसकी दहशत फैलाने में लगा हुआ है. शहरों के कई शमशान घाटों पर पाबंदियां लगाकर सिर्फ़ कुछ शमशान घाटों को खुला रखा जा रहा है (जैसे दिल्ली में सिर्फ़ तीन शमशान घाट खुले हैं) और फिर विभिन्न इलाक़ों की लाशें इनमें इकट्ठा आने से इसे मौतों में गुणात्मक वृद्धि के तौर पर पेश किया गया. इसी तरह ऑक्सीजन की कमी का मुद्दा खड़ा किया गया और दहशत के माहौल में अस्पतालों में ग़ैर-ज़रूरी भीड़ बढ़ी, जिसने इस कमी को और भी बढ़ा दिया.
सरकारें और इनके दलाल गोदी मीडिया द्वारा फैलाई दहशत के कारण लोगों के एक हिस्से द्वारा ऑक्सीजन की जमाखोरी ने भी हालत को और बिगाड़ दिया. इसके बारे में पीजीआई चंडीगढ़ के निदेशक जगत राम ने कहा है कि 90 प्रतिशत से अधिक लोगों को अस्पताल आने की ज़रूरत नहीं है, सिर्फ़ 5-10 प्रतिशत को ही ज़रूरत है.
इस डर के माहौल में कई तरह की पाबंदियां लोगों पर थोपी जा चुकी हैं और कई जगहों पर दिन-ब-दिन और बढ़ाई भी जा रही हैं. कोरोना की दूसरी लहर के नाम पर बनाए गए इस माहौल का असल निशाना केंद्र के कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ जारी जनांदोलन है. सरकार संघर्ष कर रहे लोगों और इनके समर्थक दायरों में कोरोना की दहशत फैलाकर संघर्ष बिखराने की कोशिश कर रही है. लोगों को अपील की जा रही है कि वे संघर्ष ख़त्म करके अपनी जान की सुरक्षा करें, लेकिन क़ानून वापिस लेने की कोई बात नहीं की जा रही. पश्चिम बंगाल समेत अन्य राज्यों के चुनावों और कुंभ मेले के विशाल जुटान में कोरोना का कोई कहर नहीं बरपा. दिल्ली बाॅर्डर पर बैठे लोगों में भी कोरोना नहीं दिखाई दे रहा. यह सब लोगों के मनों में कई प्रकार की शंकाएं खड़ी करती है.
कोरोना के शुरुआती दिनों में ही हमने संसार के अनेकों स्वास्थ्य विशेषज्ञों के विचारों को आधार बनाकर यह नतीजा निकाला था कि कोरोना अन्य मौसमी वायरल बीमारियों जैसी ही बीमारी है. यह कोई ऐसी महामारी नहीं है, जिसके लिए लॉकडाउन और अन्य पाबंदियां थोपी जाएं. केंद्र सरकार ने श्रम क़ानूनों में मज़दूर विरोधी संशोधन किए, तीन कृषि क़ानून पारित किए, बिजली संशोधन क़ानून का प्रस्ताव लाया गया, कई अहम सार्वजनिक संस्थानों का निजीकरण किया, नई शिक्षा नीति लाई गई और अन्य भी कई बड़े जनविरोधी काम किए, इससे छोटे काम-धंधों, कारोबारियों का काफ़ी उजाड़ा हुआ है, जिसका सीधा फ़ायदा बड़े पूंजीपतियों को हो रहा है. लॉकडाउन के 2-3 महीनों में ही लोगों में यह आम राय बन गई थी कि कोरोना के नाम पर उन्हें भ्रमित किया जा रहा है और अत्यधिक दहशत फैलाई जा रही है. अब दुबारा वही माहौल तैयार करके और नए भ्रम फैलाकर लोगों को फिर से भ्रमित करने की कोशिश की जा रही है.
कोरोना बीमारी है, महामारी नहीं
कोरोना उसी तरह ही एक बीमारी है, जैसे मौसमी बदलाव से फैलने वाली अन्य वायरल बीमारियां. यह मौसमी फ़्लू वाले परिवार की बीमारियों में से एक है. विषाणुओं के संक्रमण से होने वाली अन्य बीमारियों की तरह इसके विषाणुओं का संक्रमण बड़े हिस्से को बीमार करता है और उनमें से भी एक अन्य छोटे हिस्से की मौत का कारण बन सकता है. सभी विशेषज्ञ इस बात पर एकमत है कि कोरोना विषाणुओं के कारण करीब 90 प्रतिशत लोगों को कोई लक्षण नहीं आते, यानी वे बीमार नहीं होते. करीब 10 प्रतिशत को ही लक्षण आते हैं और उनमें से अधिकतर घर पर आराम करने से ही ठीक हो जाते हैं और सिर्फ़ 2-3 प्रतिशत को ही डॉक्टरी इलाज की ज़रूरत पड़ती है.
इन 2-3 प्रतिशत में से अधिक गंभीर मामलों में मौत हो सकती है. इन मौतों में भी अधिकतर मौतों का मुख्य कारण कोरोना नहीं होता, बल्कि सहायक कारण ही होता है. जो लोग पहले ही किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त होते हैं, उनकी कोरोना संक्रमण से मौत की अधिक संभावना होती है. अधिकतर बुजुर्ग आबादी इसके अंतर्गत आती है. यही वह आबादी है, जिसे कोरोना संक्रमण से बचाने की कोशिशें की जानी चाहिए.
फिर कोरोना महामारी कैसे हुआ ?
कोरोना को महामारी कहने का पहला कारण मृत्यु दर का अधिक होना बताया जाता है लेकिन इसकी मृत्यु दर बहुत ज़्यादा नहीं है. 28 मई 2021 तक भारत में 2.77 करोड़ कोरोना संक्रमण के मामले सामने आए और 3.23 लाख मौतें हुईं, जो कि कुल सामने आए कोरोना केसों का 1.1 प्रतिशत बनता है. लेकिन यह दर कोरोना के कारण बीमार हुए लोगों में से है, कुल आबादी में या कोरोना संक्रमण के शिकार हुए कुल लोगों में से नहीं है, क्योंकि 90 प्रतिशत लोगों को तो कोई लक्षण ही नहीं आते.
विशेषज्ञों के मुताबिक़ कोरोना वायरस के हवा के ज़रिए फैलने की दर के मुताबिक़ यह मान लेना चाहिए कि कोरोना वायरस पूरी आबादी में फैल चुके हैं और उसी के मुताबिक़ मरीजों और मौतों की गिनती होनी चाहिए. इस लिहाज़ से भारत में 10 लाख आबादी में कोरोना के कारण मौतों की संख्या सिर्फ़ 212 बनती है, जोकि 0.021 प्रतिशत बनता है. भारत में हर साल 97.78 लाख मौतें होती हैं, जो कि 7300 मौतें प्रति 10 लाख बनता है. अब इन 7300 मौतों में 212 कोरोना से हो रही हैं, तो यह किसी भी तरह महामारी नहीं बनती.
विश्व स्तर पर रोज़ाना 1.5 लाख मौतें होती हैं. इनमें से अधिकतर मौतें ग़ैर-संक्रमण बीमारियों जैसे दिल के रोग (48,742), कैंसर (26,181), सांस की बीमारियां (10,724) आदि से होती हैं. इन 1.5 लाख में से सिर्फ़ 28,730 मौतें संक्रमण से फैलने वाली बीमारियों से होती हैं. इनमें से इंफ़्लुएंजा जैसी सांस की बीमारियों से 7010, डायरिया से 4300, टीबी से 3243, एड्ज से 2615 मौतें होती हैं और कोरोना से 2205 मौतें हो रही हैं.
भारत में 1990 के दशक से मानसिक तनाव, मधुमेह, कैंसर जैसी ग़ैर-संक्रामक बीमारियों से सालाना सबसे अधिक मौतें होती हैं. सन् 2017 में भारत में इन मौतों की संख्या 63 लाख थी यानी कोरोना से भारत में होने वाली सालाना मौतें 30 गुणा अधिक. इस तरह बात की जाए, तो ग़ैर-संक्रामक बीमारियों को महामारी घोषित किया जाना चाहिए. अगर फैलने के पक्ष से सिर्फ़ संक्रामक बीमारियों की बात करें तो इंफ़्लुएंजा और टीबी जैसी बीमारियों को कोरोना से पहले महामारी घोषित किया जाना चाहिए.
जो मौतें कोरोना के कारण हो रही हैं, उनमें अधिकतर मौतों का मुख्य कारण कोरोना नहीं बल्कि अन्य गंभीर बीमारियां हैं. कैंसर, दिल और साँस के रोगों से मरने वालों में अगर उस समय कोरोना का संक्रमण भी हो, तो उन्हें भी कोरोना के कारण हुई मौत माना जा रहा है. इसलिए कोरोना के बारे में सही जानकारी पेश होनी ज़रूरी है.
साल-भर के भारत और संसार के तजुर्बे ने सिद्ध कर दिया है कि कोरोना एक ऐसी संक्रामक बीमारी है जो उसके जैसी अन्य बीमारियों से अधिक घातक नहीं है. यह कमजोर रोग-प्रतिरोधक क्षमता और अन्य गंभीर बीमारियों वाले लोगों के लिए घातक हो सकती हैं। इसलिए आबादी के इस हिस्से को अधिक सावधान रहने की ज़रूरत है और उसका पुख्ता इलाज होना चाहिए. इसके विपरीत जो पूरी आबादी को ही डराने, पाबंदियां थोपने का काम किया जा रहा है, वह किसी भी तरह जायज़ नहीं है.
कोरोना के बारे में अन्य कई बातें भी विवादपूर्ण हैं, जिनके बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन, विभिन्न देशों की स्वास्थ्य संस्थाओं और सरकारों के हर तीसरे दिन विचार बदल जाते हैं. कोरोना के टीकाकरण की बात करें तो ख़ुद सरकार मान रही है कि टीकाकरण से कोरोना नहीं रोका जा सकता. कई स्वास्थ्य संस्थाएं कह रही हैं कि मौजूदा टीका कोरोना की पुरानी कि़स्म के लिए है और अब यह कि़स्म बदल चुकी है.
इसी तरह कोरोना के टेस्ट भी सवालों के घेरे में हैं. ख़ुद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पीसीआर टेस्ट की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किए हैं. उसका कहना है कि इस टेस्ट के लिए ज़रूरी हालातों और विधि का ख़याल नहीं रखा जा रहा है, जिसके चलते यह टेस्ट पूरी तरह विश्वसनीय नहीं है.
कोरोना के संक्रमण के बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन कह चुका है कि यह हवा से फैलता है, यानी मास्क लगाने या दूरी रखने, हाथ न मिलाने जैसे परहेज रखने का कोई अर्थ नहीं है. इस हालत में इसके फैलाव को रोका नहीं जा सकता. वैसे तो अगर हवा से न भी फैलता हो और सिर्फ़ छूने से फैलता हो, तो भी आज जि़ंदंगी में ऐसी रोकथाम संभव नहीं है. यानी कोरोना के संक्रमण ने पूरी आबादी में फैलना है और फैल चुका है.
महामारी विशेषज्ञ यह मानते हैं कि इसके फैलने में ही इसका इलाज है क्योंकि बहुसंख्या में इसके संक्रमण से कोई बीमारी नहीं होती तो शरीर में कोरोना के प्रति रोग-प्रतिरोधक क्षमता विकसित होती है. इससे वायरस आगे नहीं फैलता. इस आबादी के बड़े हिस्से में पैदा हुई यह सामूहिक रोग प्रतिरोधकता ही इसका इलाज है. इसलिए सबसे पहले इसके ग़ैर-ज़रूरी डर को क़ाबू करना चाहिए और बहुत गंभीर रोगों वालों का ख़याल रखना चाहिए.
इस भयानक दहशत और पाबंदियों ने जहां लोगों को आर्थिक रूप से उजाड़ दिया है और उनकी जि़ंदंगी को बहुत मुश्किल बना दिया है, वहीं यह कोरोना के अलावा अन्य मौतों में वृद्धि का भी कारण बन रही है. अस्पतालों में कई बीमारियों के इलाज आंशिक या पूर्ण तौर पर रुके हुए हैं. मिसाल के तौर पर भारत दुनिया-भर में सबसे अधिक कैंसर मरीजों (22 लाख) वाला देश है और हर साल 11 लाख के करीब नए मरीज दर्ज हो रहे हैं. सन् 2018 में भारत में 7.84 लाख कैंसर मरीजों की मौत हुई थी.
पिछले साल नवंबर महीने में भारत के कैंसर विशेषज्ञों ने अध्य्यन के आधार पर यह अंदाज़ा लगाया कि मार्च से मई 2020 के दो महीनों के ही कोरोना लॉकडाउन के दौरान 51,000 अति-गंभीर कैंसर सर्ज़रियां रद्द की गईं, क्योंकि अस्पतालों में ओपीडी सेवाओं को बंद कर दिया गया था और परिवहन पर प्रतिबंधों और कोरोना डर के माहौल के कारण दसियों हज़ार कैंसर मरीज अस्पतालों तक पहुंच ही नहीं पाए थे. देश-भर के कैंसर मरीजों में से 70 प्रतिशत मरीजों को कैंसर के लिए आवश्यक बेहद ज़रूरी सेवाएं प्राप्त करने में रुकावट बना और 2019 के मुक़ाबले सिर्फ़ 20 प्रतिशत सर्ज़रियाँ की गईं, जिसके चलते बड़ी संख्या में कैंसर मरीज बेमौत मारे गए.
इसी तरह मार्च-मई 2020 में 2019 के इन ही महीनों के मुक़ाबले खसरे आदि-आदि के टीकाकरण में 69 प्रतिशत गिरावट, दिल के मरीजों को सेवाएं में 50 प्रतिशत गिरावट और फेफड़ों की कमज़ोरी के मरीजों की संख्या में 32 प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई थी. यानी भारत में सिर्फ़ दो महीनों में अन्य बीमारियों के दसियों लाख मरीज स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित हो गए और इनमें से पता नहीं कितने ही बेमौत मारे गए.
अगर कोरोना सचमुच में कोई महामारी होती, तो इससे आबादी के एक उल्लेखनीय हिस्से को मौत का ख़तरा होता, अगर इससे मौत दर काफ़ी अधिक होती तो रोज़ाना औसतन होने वाली मौतों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई होती तो फिर कोरोना से बचाव के लिए पाबंदियों को जायज़ माना जा सकता था. लेकिन कई गुणा वृद्धि के इसके फैलाए जा रहे डर को अगर हम महामारी कह देते हैं तो इसका अर्थ सरकार द्वारा फैलाए जा रहे डर और पाबंदियों को समर्थन देना है.
अफ़सोस की बात यह है कि हमारे क्रांतिकारी आंदोलन का एक हिस्सा वैज्ञानिक विचारधारा से संबंध रखने के बावजूद कोरोना के बारे में सरकारी प्रचार का शिकार है. अगर कोई कोरोना को महामारी मानता है और घरों में सुरक्षित रहने की सलाह देता है, तो वह सरकार की पाबंदियों को नाजायज़ ठहराएगा ? क्यों उनका विरोध करेगा और इस विरोध के लिए लोगों को संगठित करेगा ?
यह भी ध्यान में रहे कि कोरोना की तीसरी लहर की बातें भी होने लगी हैं. सरकार के तरकश में पड़ा यह तीसरी लहर का तीर तब चलेगा, जब दुबारा किसी राजनीतिक गिनती-मिनती के लिए सरकार को ज़रूरत रहेगी और दूसरी, तीसरी और चौथी आदि लहर के तीर तब तक चलते रहेंगे, जब तक कि कोरोना को महामारी मानते हुए सरकारी दहशत पर फूल चढ़ाए जाते रहेंगे.
अंत में पूरी बात को समेटते हुए कहें तो संसार का एक साल का अनुभव दिखाता है कि कोरोना एक बीमारी है जिससे मौतें हो रही हैं, लेकिन यह कोई महामारी नहीं है जिससे मौतों में कोई उल्लेखनीय वृद्धि हुई हो. यह बीमारी समाज के एक बड़े हिस्से पर बिल्कुल भी प्रभावी नहीं है बल्कि एक छोटे हिस्से के लिए ही यह ख़तरे का कारण बन सकती है. इस हालत में कोरोना के नाम पर लोगों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक जीवन पर लगाई जा रही पाबंदियां पूरी तरह ग़ैर-ज़रूरी, दमनकारी और ग़ैर-जनवादी हैं, इनका विरोध होना चाहिए.
कोरोना की दहशत को सरकारें राजनीतिक हथकंडे के तौर पर इस्तेमाल कर रही हैं. भारत की बात करें तो पिछले साल नागरिकता संशोधन क़ानूनों के ख़िलाफ़ संघर्ष कुचलने के बाद कोरोना के बहाने थोपी गई पाबंदियों का फ़ायदा उठाते हुए सरकार ने कई जनविरोधी क़ानून पारित किए हैं और निजीकरण की नीतियों को तेज़ किया है. अब दूसरी लहर के ज़रिए खड़ी की जा रही दहशत का मुख्य निशाना कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ जारी संघर्ष है.
चुनावों और अन्य राजनीतिक गतिविधियों पर कोई रोक नहीं, बड़े कारोबारों पर कोई रोक नहीं, सिर्फ़ छोटे दुकानदारों और लोगों के सामाजिक तौर पर जुटने और संघर्ष करने को ही निशाना बनाया जा रहा है. इस बात की पड़ताल करनी चाहिए कि कोरोना संसार के किन देशों में और देश के कौन-से हिस्से में फैल रहा है. भारत के पड़ोसी देशों समेत संसार के किसी अन्य हिस्से में कोरोना का इतना शोर नहीं, भारत के अनेकों राज्यों में कोरोना का कोई शोर नहीं है. कोरोना इस तरह पक्षपात नहीं कर सकता, हां, सरकार कर सकती है.
आख़िरी बात, कोरोना करके पैदा हुए माहौल ने सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था की नाकामी को एक बार फिर उभार दिया है. कोरोना के नाम पर जो दहशत खड़ी की गई, उससे न सिर्फ़ कोरोना के इलाज योग्य मरीजों की समस्या आई, बल्कि अन्य बीमारियों के मरीजों को भी गंभीर मुश्किलें सहनी पड़ रही हैं. पंजाब की बात करें तो यहां सिर्फ़ पांच जि़लों में ही आई.सी.यू. की सहूलत है. अधिकतर अस्पतालों में ओपीडी बंद पड़ी हैं निजी अस्पताल इस दहशत का फ़ायदा उठाकर लोगों की चमड़ी उतार रहे हैं.
इस स्थिति ने यह सिद्ध कर दिया है कि न सिर्फ़ सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था को सुधारने की ज़रूरत है, बल्कि स्वास्थ्य सहूलतों का निजीकरण ख़त्म करके सभी निजी अस्पतालों, क्लीनिकों और स्वास्थ्य संस्थाओं का सरकारीकरण किया जाना चाहिए. कोरोना के नाम पर फैलाई जा रही दहशत का विरोध करते हुए हमें हुकूमत के हथकंडों को समझना चाहिए और लोगों पर थोपी जा रही पाबंदियों का विरोध करते हुए स्वास्थ्य ढांचे को सुधारने की मांग करनी चाहिए.
(स्रोत : मुक्ति संग्राम – बुलेटिन 7, मई-जून (संयुक्तांक) 2021 में प्रकाशित)
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