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कोरोना काल : घुटनों पर मोदी का गुजरात मॉडल

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कोरोना काल : घुटनों पर मोदी का गुजरात मॉडल

हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
जिस ‘गुजरात मॉडल’ का जोर-शोर से प्रचार करते उनका विजय रथ दिल्ली तक पहुंचा था, वह खुद गुजरात में ही घुटनों के बल गिरा है.

जैसे-जैसे कोविड-19 संकट गहराता जा रहा है, नरेंद्र मोदी की राजनीति का वैचारिक आधार भी दरकता जा रहा है. इसकी दरारों में हम सिर्फ देश भर के मजदूरों की दुर्दशा ही नहीं देख रहे, गुजरात सहित अनेक राज्यों में संकट से निपटने में सरकार की विफलताएं भी नजर आ रही हैं. जिस ‘गुजरात मॉडल’ का जोर-शोर से प्रचार करते उनका विजय रथ दिल्ली तक पहुंचा था, वह खुद गुजरात में ही घुटनों के बल गिरा है.

प्रधानमंत्री बनने के बाद अपनी जापान यात्रा में नरेंद्र मोदी ने निवेशकों की एक मीटिंग में कहा था, ‘मैं भारत को दुनिया की सर्वाधिक मुक्त अर्थव्यवस्था बना दूंगा.’ यह एक साहसिक वक्तव्य था जो नवउदारवादी शक्तियों के राजनीतिक ध्वजवाहक के रूप में मोदी की छवि को और मजबूत बना रहा था.

लेकिन, बीतते हुए बरसों में अर्थव्यवस्था के साथ मोदी सरकार के प्रयोगों ने विभीषिकाओं के जिन अध्यायों का सृजन किया, उनमें हमें सकारात्मकता की झलकों से अधिक नकारात्मक निष्कर्षों का ही सामना करना पड़ा.

याद करें कोरोना संकट के उभरने के ठीक पहले के आर्थिक आंकड़ों को. बेरोजगारी की दर बीते 45 वर्षों में अधिकतम थी, असंगठित क्षेत्र की लचर हो चुकी हालत पर देश-विदेश के अर्थशास्त्री चिन्ताएं व्यक्त कर रहे थे, छोटे और मंझोले स्तर के व्यापारी अपना अलग रोना रो रहे थे, जबकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों सहित अन्य अनेक वित्तीय संस्थानों का स्वास्थ्य जर्जर हालत में पहुंचता जा रहा था.

फिर, कोरोना की विभीषिका सामने आई जिसने समस्याओं और विमर्श के अन्य मुद्दों को पीछे धकेल दिया. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पूरा देश इस संकट का सामना करने को एकजुट हुआ. बतौर प्रधानमंत्री, यह मोदी का करिश्मा ही था कि ताली-थाली बजाने से लेकर दीया-बत्ती जलाने, बैंड बजाने आदि की उनकी अपीलों को देश की अधिसंख्य जनता का समर्थन मिला.

यह जनसमर्थन तब और महत्वपूर्ण नजर आता है जब इन टोटकों के दौरान ही ऐसी खबरें भी सामने आती रहीं कि महामारी की गंभीरता को देखते हुए इससे निपटने की सरकारी तैयारी बेहद लचर थी. कि स्वास्थ्य तंत्र की ध्वस्त आधारभूत संरचना, जिसे अपने छह वर्षों के कार्यकाल में मोदी ने और बर्बाद हो जाने दिया, संकट को और बढ़ा रही है. कि डॉक्टरों और सहयोगी स्टाफ की सुरक्षा के लिये मेडिकल किट्स का घोर अभाव है. कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की चेतावनियों और भारत में संक्रमण के बढ़ते मामलों के बावजूद अनेक राज्यों में 20 मार्च तक एक भी कोरोना टेस्ट सेंटर स्थापित नहीं हो पाया था.

जनसमर्थन किसी नेता की लोकप्रियता का पैमाना तो हो सकता है लेकिन यह सार्वजनिक समस्याओं से निपटने की उसकी प्रभावी कुशलता का द्योतक कदापि नहीं हो सकता. लोकतंत्र में नेताओं के जनप्रिय होने के ऐसे आधार भी हो सकते हैं जो जनता की वास्तविक समस्याओं से सीधे सरोकार न रखते हों. नरेंद्र मोदी इसके खास उदाहरण हैं.

बहरहाल, गुजरात में कोरोना संकट जितना ही गहराता जा रहा है, बहुचर्चित गुजरात मॉडल की कलई भी उतरती जा रही है. इसी के साथ मोदी के आभामंडल का क्षरण भी होता जा रहा है क्योंकि, प्रचार तंत्र की कुशलता से ही सही, गुजरात मॉडल उनके राजनीतिक व्यक्तित्व की विराटता का एक महत्वपूर्ण आयाम बन गया था.

निजी निवेश की प्रचुरता, बिना अधिक सरकारी दखलंदाजी के औद्योगिक विकास के पहिये का तेज घूमना, शहरों की बढ़ती चमक, मध्यवर्ग के लोगों की बढ़ती आमदनी, अरबपतियों की बढ़ती संख्या, ये गुजरात मॉडल के विशिष्ट अध्याय थे.

लेकिन, इन मामलों में तो गुजरात पहले से ही समृद्ध था. मोदी के प्रचार तंत्र की सफलता इसमें निहित है कि उन्हें गुजरात के आर्थिक विकास का पुरोधा साबित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी गई. तकनीकी तौर पर यह अधिक गलत भी नहीं था. आखिर, नरेंद्र मोदी लगातार 12 वर्षों तक वहां के मुख्यमंत्री रहे, तो श्रेय लेने का उनका हक बनता ही था.

लेकिन, चमकते कंगूरों की तलहटी में छाए अंधेरों को छुपाने में उनका प्रचार तंत्र तब तक ही सफल रह सका, जब तक कि कोविड-19 संकट से गुजरात, खास कर अहमदाबाद में त्राहि-त्राहि नहीं मच गई.

यह अलग विवाद का विषय है कि अहमदाबाद में संक्रमण की सघनता के लिये ‘केम छो ट्रंप’ का आयोजन कितना जिम्मेवार है, लेकिन, नरेंद्र मोदी गुजरात के सरकारी स्वास्थ्य ढांचे के खुद बुरी तरह रुग्ण रहने की जिम्मेवारी से मुंह नहीं मोड़ सकते. आखिर, वे 12 वर्षों से वहां के मुख्यमंत्री थे जिस दौरान उन्होंने हेल्थ सेक्टर में निजी पूंजी के निवेश को तो भरपूर बढ़ावा दिया, किन्तु सरकारी ढांचे को अपनी मौत मरने दिया.

अभी कल एक खबर आ रही थी, गुजरात में सरकारी अस्पतालों और संबंधित संस्थानों में 65 प्रतिशत से अधिक पद रिक्त हैं. यानी, बढ़ती जरूरतों, बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में नए पदों के सृजन की बात तो दूर, जो वर्त्तमान स्वीकृत पद थे, उन पर भी बहालियों को रोक दिया गया था.

यही था मोदी का गुजरात मॉडल, जिसमें सरकारी संस्थानों की कब्र पर निजी अट्टालिकाओं की बढ़ती चमक की चकाचौंध में पूरे देश को भरमाने का मसाला था. क्या गुजरात सरकार के पास इतने संसाधन नहीं थे कि वे सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर और सहयोगी कर्मियों के पद भर सकते थे ?

नहीं, संसाधन तो थे, किन्तु दृष्टि नहीं थी. जो अफोर्ड कर सकते थे वे निजी अस्पतालों में इलाज करवाते मोदी का जयकारा लगाते रहे, जबकि विपन्न लोग अपनी मौत मरते रहे.

आज जब कोई महामारी फैल चुकी है तो क्या संपन्न, क्या विपन्न, तमाम लोग सरकारी संस्थानों के भरोसे ही हैं लेकिन, इस जर्जर तंत्र में इतनी क्षमता नहीं कि विभीषिका का सामना कर सके और अपने लोगों को बचा सके. स्वीकृत पदों का दो तिहाई जब खाली हो तो कौन सा संस्थान ठीक से काम कर सकता है ?

जिस निजी तंत्र को बढ़ावा देने में मोदी आगे रहे, वह इस संकट काल में कहांं है ? मुख्यमंत्रियों को तो छोड़िये, क्या वह प्रधानमंत्री मोदी की अपीलों और निर्देशों को भी कोई तवज्जो दे रहा है ?

आज के ‘दैनिक हिंदुस्तान’ में खबर है कि सरकारी निर्देशों के बावजूद 80 प्रतिशत निजी अस्पतालों ने अपने मुख्य गेट पर लगे ताले नहीं खोले हैं. अधिकतर निजी क्लिनिक बंद पड़े हैं. जबकि, अपने बेहद सीमित संसाधनों और विकलांग तंत्र के सहारे सरकारी संस्थान कोरोना विभीषिका से संघर्ष कर रहे हैं और लोगों के अंतिम आसरे के रूप में अपनी प्रासंगिकता सिद्ध कर रहे हैं.

सवाल यह है कि भारत को दुनिया की सर्वाधिक मुक्त अर्थव्यवस्था बना देने का दम भरने वाले प्रधानमंत्री की वैचारिक प्रासंगिकता इस कोविड संकट के बाद कितनी रह गई है ? गुजरात मॉडल का बुलबुला फूटने के बाद उनका प्रचार तंत्र अब किन पहलुओं को लेकर आगे बढ़ेगा ? ‘वाइब्रेंट गुजरात’ की जगह ‘बिलखता गुजरात’ आज हमारे सामने है, जहां संक्रमण और मौतों का अनुपात देश में सर्वाधिक है.

निस्संदेह, उनके प्रचार तंत्र की महिमा अपरंपार है. हम टीवी चैनलों पर पीओके को नए सिरे से चर्चा का विषय बनते देख रहे हैं. आखिर, नफरत और उन्माद का मॉडल कभी अप्रासंगिक नहीं होता.

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