भारतीयों का जीवन दर्शन, जीवन-पद्धति और जीवन दृष्टिकोण विरोधाभासी और अंतर्विरोधी तत्त्वों का एक अजूबा और असंगत सामंजन है, जिसमें एक साथ ही प्राचीनता के प्रति अतिशय मोहग्रस्तता, उनका महिमा मंडन और उनसे उत्पन्न काल्पनिक दृष्टिकोण से ही प्राचीन मान्यताओं और अवधारणाओं के संदर्भ में आधुनिक भारतीय समाज का विश्लेषण हमें एक अजीब चौराहे पर खड़ा कर देता है. इन सबका सम्मिलित परिणाम यह होता कि उन्हें हम एक जगह ही खड़े होकर कदमताल तो करते रहे सकते हैं, पर आगे बढ़ने की सारी संभावनाओं को समाप्त भी कर देता है.
अधिकतर भारतीय यह मानकर चलते हैं कि हम पुरातनकाल में विश्वगुरु और विश्वशक्ति थे, और तब से हम पिछड़ते चले आ रहे हैं. मतलब अधिकांश भारतीयों की नजर में हमारा विकास ऊपर से नीचे या बेहतर से खराब या उच्च स्तर से निम्न स्तर की ओर जारी है, और इस पतनशीलता की प्रक्रिया को रोकने का एक ही रास्ता है कि हमें पुनः अपने प्राचीन भारतीय समाज, धर्म, राजनीति और संस्कृति की पुनर्वापसी करनी होगी.
अधिकतर भारतीयों, खासकर हिन्दुओं की यह स्पष्ट मान्यता है कि भारत को प्राचीन उच्चतम भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति से पतन के गर्त में धकेलने वाले मुसलमान और ईसाई शासक वर्ग ही है और इसीलिए वे भारत के स्थायी शत्रु हैं. आधुनिकता, वैज्ञानिकता, बौद्धिकता, प्रगतिशीलता, विवेकशीलता और तार्किकता की सतही एवं साकारात्मक योगदान के कारण ब्रिटिश सरकार, यूरोप और ईसाईयों को तो फिर भी माफ किया जा सकता है, पर भारतीयों को पतनशीलता के गर्त में धकेलने वाले वास्तव में मुसलमान ही हैं, जिन्हें माफ नहीं किया जा सकता. वे ही हमारे राष्ट्र, धर्म और सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पतन के लिए जिम्मेवार हैं.
यह दृष्टिकोण और मान्यताएं ही आज भारतीय सामाजिक और राजनीतिक विमर्श का मुख्य विषय और धारा बन गई हैं. अपने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक अंतर्विरोधों और विरोधाभासों को स्वीकार करने के बदले यह एक शुतुरमुर्गी चाल है. अपनी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक समस्याओं से आंख चुराने की यह प्रवृत्ति समस्याओं को यूं ही अधर में लटका कर छोड़ देने का प्रयास है.
वास्तव में, उनकी सारी बौद्धिक और राजनीतिक कवायदें समस्याओं का समाधान खोजने की न होकर उन्हें स्थायित्व प्रदान करना है, ताकि उन समस्याओं की आड़ में सामाजिक वैमनस्यता और सांप्रदायिक तनाव की आग में अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकी जा सकें. सामान्य भारतीयों की मूर्खता और आज्ञानता का फायदा उठाते हुए आज भारत का सत्ताधारी वर्ग इसे ही अपनी राजनीतिक सफलता की गारंटी मान लिया है, और उसकी सारी राजनीतिक कवायदें इसी एक बिंदु के इर्द-गिर्द घूम रही है. आखिर हमें एक जगह घूमते हुए चक्कर खाकर गिरना ही होगा, ऊपर उठने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता.
स्वामी विवेकानंद और हमारा समाज
विवेक उमराव लिखते हैं – मैंने पांच वर्ष से भी कम आयु से स्वामी विवेकानंद को पढ़ना शुरू कर दिया था. 15-16 वर्ष का होते-होते स्वामी विवेकानंद का बहुत सारा साहित्य का अध्ययन कर चुका था. कम आयु में ही उनका देहांत होने के कारण बहुत सारा साहित्य लिख भी नहीं पाए, फिर भी जितना लिखा उसमें से अधिकतर में समझने वालों के लिए बहुत कुछ है.
दुनिया के अनेक देशों के हजारों लेखकों की चालीस-पचास हजार किताबों (स्कूली व यूनिवर्सिटी इत्यादि की पढ़ाई लिखाई की पुस्तकों से इतर) का अध्ययन करने के बाद मैंने यही महसूस किया कि जब तक लेखक को महसूस न किया जाए, मतलब लेखक के माइंडसेट से तालमेल नहीं बने तब तक लेखक की पुस्तक को आत्मसात कर पाना असंभव रहता है. माइंडसेट से तालमेल की क्षमता व दक्षता विभिन्न आयामों की पुस्तकों का अध्ययन करने व अपनी विचारशीलता को व्यापक करते हुए ही आ पाती है.
स्वामी विवेकानंद व शहीद भगत सिंह को देखने समझने का मेरा नजरिया भारत के अधिकतर लोगों से बहुत अलग है. भारत में बहुत लोग स्वामी विवेकानंद व शहीद भगत सिंह के भगत लोग हैं, लेकिन इनमें से शायद ही कोई स्वामी विवेकानंद व शहीद भगत सिंह को रत्ती भर भी समझता हो, जबकि इनके लिखे साहित्यों या बोली गई बातों को अनेक लोग शब्दशः रटे रहते हैं. शब्दों को खोखलाहट के साथ रट लेना, दोहरा देना इत्यादि बिलकुल अलग बात है, जबकि लेखक ने जो कहा है उसको उसी के फ्रेम से देखना समझना आत्मसात करना बिलकुल ही अलग बात है.
स्वामी विवेकानंद के संदर्भ में मेरा मानना है कि यदि वे आज होते तो वेदांत की बात कतई नहीं करते. आज वे लोकतंत्र को परिष्कृत करने वाली बातें करते, आज वे पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन की बात करते, आज वे सामाजिक अर्थशास्त्र की बार करते, आज वे सामाजिक भ्रष्टाचार की बात करते, आज वे लोगों की मानसिकता के भ्रष्टाचार की बात करते. धार्मिक आधार पर नफरत के विरुद्ध बात करते. संस्कृति जीवन-मूल्यों के आधार पर महान बनती है, स्वामी विवेकानंद जीवन-मूल्यों की बात करते.
दरअसल उस समय जरूरत थी वेदांत की बात करने की. वेदांत के संदर्भ में बात करने का भी अपना विशिष्ट कारण था विवेकानंद जी का. वेदांत की बात करने के पीछे धार्मिक एजेंडा नहीं था.
उस समय दुनिया में हिंसा का बोलबाला था, दुनिया को जरूरत थी अहिंसा के विचारों की, एक अलग दृष्टि की, जो स्वामी विवेकानंद ने सनातन व वेदांत इत्यादि के माध्यम से दुनिया को बताने का प्रयास किया ताकि दुनिया के समाजों का मूल्यांकन हिंसा या सत्ता-प्राप्ति के आधार पर ही तय नहीं हो (जैसे आज सबकुछ पैसे व संपत्ति के आधार पर तय होता है).
एक समय था जब पूरी दुनिया ईसाई आतंकवाद से त्रस्त थी, तब स्वामी विवेकानंद ने दुनिया को जीवन व सामाजिक मूल्यों के आधार पर नई दुनिया बनाने की ओर प्रेरित करने की बात की. पाश्चात्य दुनिया ने उनको हाथों-हाथ लिया और समय के साथ हिंसा, युद्ध इत्यादि से बाहर निकलने के लिए प्रयासरत होकर शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक समाज बनाने की जद्दोजहद में जुट गए.
वहीं हम भारतीय लोग हिंदू आतंकवाद की ओर बढ़ने में फक्र महसूस कर रहे हैं. अपनी नफरत को जस्टिफाई करते हैं. एक समय भारत व हिंदू को दुनिया में आदर की दृष्टि से देखा जाता था, आज हमने यह स्थिति पैदा कर दी है कि — हमारे देश के लोगों को दूसरे देश आतंकी मानसिकता का बताते हुए बैन कर रहे हैं. गोडसे भगत लोग विदेशों में गांधी की मूर्तियों का गला काट रहे हैं. दुनिया की बेहतरीन यूनिवर्सिटियों के प्रोफेसर लोगों व उनके परिवारों व मित्रों को हिंदू लोग जानलेवा धमकी दे रहे हैं.
हम धार्मिक आतंकवादी बनने की ओर बढ़ रहे हैं. सबसे खतरनाक यह है कि हम ऐसा होने में गर्व महसूस करते हैं. हम ऐसा होने को अपनी संस्कृति कहते हैं, खुद को संस्कारवान होना कहते हैं.
आज ऐसे लोग भरे पड़े हैं जो संस्कृति की बात करते हैं, संस्कार की बात करते हैं, वेद की बात करते हैं, सामाजिकता की बात करते हैं, सनातनी धर्म की बात करते हैं, स्वामी विवेकानंद से खुद को प्रभावित बताते नहीं अघाते हैं. लेकिन खुद अपने जीवन में इनमें से अधिकतर लोग आकंठ विभिन्न प्रकार के भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं. सामाजिक संवेदनशीलता का ढोंग करते हैं, परिवारवाद में पूरी तरह से लिप्त हैं. बेईमानी व भ्रष्टाचार से की गई कमाई को अपनी विद्वता व योग्यता का परिणाम मानते हुए दंभ व अहंकार में जीते हैं.
संवेदनशीलता व सामाजिकता का ढोंग करते हैं लेकिन बहुत अधिक असंवेदनशील हैं. इच्छाओं व महात्वाकांक्षाओं की लिप्साओं के ही इर्द-गिर्द अपने जीवन की धुरी घुमाते रहते हैं. दिखावा कुछ भी करें, ढोंग कुछ भी करें लेकिन संपत्ति व शोषण व झूठ व धोखा इत्यादि के ही इर्द-गिर्द घूमते हैं.
आज यदि स्वामी विवेकानंद होते तो ऐसे लोगों से ही समाज को बचाने का काम करते होते और जो लोग खुद को स्वामी विवेकानंद से प्रभावित बताते हैं, स्वामी विवेकानंद के सबसे बड़े दुश्मन-वर्ग में आते होते.
टीपू सुल्तान और हमारा समाज
यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि भारत में अंग्रेजों के खिलाफ अगर कोई अपने अंतिम दम तक लड़ते हुए शहीद हुआ था तो वह टीपू सुल्तान ही था, और कोई नहीं. टीपू सुल्तान की हार ने ही भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना का आधार बना.
टीपू सुल्तान को भी एक सम्मानित हिन्दू मंत्री ने ही धोखा दिया था और मराठाओं एवं निजाम ने टीपू सुल्तान के खिलाफ अंग्रेजों का साथ दिया था. षड्यंत्र और दूरभिसंधि की यही रणनीति प्लासी, चौसा, पंजाब और 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के दौरान दिल्ली में अपनाकर अंग्रेज अपनी जीत पक्की करते रहे, और भारतीय दलाली, जी-हुजूरी और प्रशस्ति-गान करते रहे. अंग्रेजों से भीख में मिली राजगद्दी पर आसीन होकर एक संप्रभु राजा का ख्याली पुलाव पकाते रहे.
बहादुर शाह जफर ने अपना न सिर्फ राज गंवाया, बल्कि अपने बेटों, परिवार और रिश्तेदारों की भी आजादी की लड़ाई के हवन कुंड में आहुति दे दी. पूरे देश में ब्रिटिश हुकूमत के दौरान हिंदुओं ने अंग्रेजों की कृपादृष्टि पाने के लिए अपने जमीर के साथ-साथ अपनी अस्मत तक नीलाम कर दिया, फिर भी तेवर ऐसा दिखलाते हैं कि इनकी मर्जी से भारत में शासन कर रहे थे.
प्रशासनिक अधिकार, सामाजिक प्रतिष्ठा, जमींदारी, व्यापार और दलाली के लिए दिए जाने वाले राजा, रायबहादुर, रायसाहब , महामहोपाध्याय जैसे बहुतेरी उपाधियां प्राप्त करने के लिए न जाने इन्होंने कितने पापड़ बेले, कहना मुश्किल है. किसी तरह जिंदगी जीने के लिए ये लोग अंग्रेजों के सामने गिड़गिड़ाते रहे, मनुहार करते रहे, और अपनी इस हीनता-ग्रंथि और कुंठाग्रस्त मानसिकता को दूर करने के लिए अपने ही देश के पिछड़ों, अतिपिछड़ों, दलितों और आदिवासियों का न सिर्फ दमन करते रहे बल्कि उन्हें इंसान मानने से भी इंकार करते रहे.
आज के भारत में उन्हीं हिजड़ों की संतानें अपने आप को भारत भाग्यविधाता समझने का भ्रम पाले हुए हैं और संघ, भाजपा और मोदी सरकार के इशारों पर भारत की बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम के खिलाफ न सिर्फ आग उगल रहे हैं, अपितु उनके शोषण, दमन, उत्पीड़न और हासियाकरण के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं, जैसे भारत उनके ही बाप की संपत्ति हो, और भारत के बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम उनका गुलाम हो.
सच्चाई यही है कि हिन्दू और मुसलमान भारत के दो भाईयों के चार हाथ हैं, और जब तक ये चारों हाथ आपस में मिले रहेंगे, भारत को कोई भी बिगाड़ नहीं सकता. अंधभक्तों की स्थिति कुत्ते के उस अंखमूंदे बच्चे की तरह है, जो कुछ भी देख तो सकते नहीं, सिर्फ आवाज सुनकर अर्थहीन शब्दों का उच्चारण करते रहते हैं.
इतिहास गवाह है कि हर शोषक, उत्पीड़क और जुल्मी का अंत एक न एक दिन अवश्य होता है. वह दिन दूर नहीं जब तुम्हारा भी हस्र वैसा ही होगा.
- राम अयोध्या सिंह
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