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कांग्रेस को हटा कर भाजपा को सत्ता क्यों सौंपी थी ?

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कांग्रेस को हटा कर भाजपा को सत्ता क्यों सौंपी थी ?

 Vinay Oswal

विनय ओसवाल, वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक

कुछ ट्रोलरों से बात करने का मौका मिला. यह विश्वास दिलाने के बाद कि उनकी पहचान गुप्त रखी जाएगी, उन्होंने बताया कि – ‘‘अच्छा तो उन्हें भी नहीं लगता पर क्या करें, जब कोई रोजगार नहीं है तो परिवार पालने को यही सब कर रहे हैं. हर शहर कस्बे के कई शिक्षित बेरोजगार इसी काम पर लगे हुए है.’’ कौन-सा संगठन या कौन लोग उन्हें पैसा देते है ? के जवाब में वे कहते है, :ःबस हमसे ये मत पूछिये, खुद सोचिये किस पार्टी के पास अफरात खर्च करने के लिए पैसा है ?’

आरएसएस खुद को सदस्य संख्या के आधार पर विश्व का सबसे बडा गैर सरकारी संगठन बताती है. भाजपा भी सदस्य संख्या के आधार पर खुद को विश्व के राजनैतिक संगठनों की लिस्ट के शीर्ष पर बैठी बताती है. दोनों मिल कर अपनी संयुक्त ताकत के बूते यदि भारत को विश्व की आर्थिक और सामरिक महाशक्तियों के समक्ष बिठाना चाहते हैं तो ऐसे प्रयासों की उपेक्षा तो निश्चित ही नहीं की जानी चाहिए. यह भारत के लिए, उसके नागरिकों के लिए गर्व करने की बात है लेकिन यदि ये दोनों मिलकर कांग्रेस पर यह आरोप लगाए कि उसने 70 सालों में अपने शासनकाल में कोई विकास नहीं बल्कि इसके उलट सिर्फ गड्डे ही खोदे हैं तो इस बात का मुंहतोड़ जबाब तो देना ही पड़ेगा.

राजनैतिक पार्टी भाजपा और बतौर उसके राजनीति शिक्षक (प्लेटो, चाणक्य, कौटिल्य आदि) आरएसएस को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उसने खुद का विकास कांग्रेस के शासन काल में उपलब्ध अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व अन्य संवैधानिक और लोकतांत्रिक प्रावधानों के वातावरण में ही किया है, जिन पर आज तरह-तरह के पहरे बिठा दिए गए हैं.

पहरे ही नही भाजपा के युवा कार्यकर्ता तो सड़कों, चौराहों, गलियों, नुक्कड़-नुक्कड़, अपनी सरकारों और नेताओं की आलोचना करने वालों के साथ अभद्र व्यवहार तो करते ही है, कभी-कभी तो हाथापाई करने पर भी आमादा फिसाद हो जाते हैं. सोशल मीडिया पर भी इतने ट्रोलर बैठे हैं, कि एक पोस्ट डालने वाले के कई कई ट्रोलर पीछे पड़ जाते है. ये इतने निडर है कि निम्न स्तर की गाली-गलौच करने में भी इन्हें न सामाजिक लज्जा का भान रहता है, न कानून का.

कुछ ट्रोलरों से बात करने का मौका मिला. यह विश्वास दिलाने के बाद कि उनकी पहचान गुप्त रखी जाएगी, उन्होंने बताया कि – ‘‘अच्छा तो उन्हें भी नहीं लगता पर क्या करें, जब कोई रोजगार नहीं है तो परिवार पालने को यही सब कर रहे हैं. हर शहर कस्बे के कई शिक्षित बेरोजगार इसी काम पर लगे हुए है.’’ कौन-सा संगठन या कौन लोग उन्हें पैसा देते है ? के जवाब में वे कहते है, “बस हमसे ये मत पूछिये, खुद सोचिये किस पार्टी के पास अफरात खर्च करने के लिए पैसा है ?’’




भाजपा के जिम्मेदार नेता विचार करें कि देश में नौकरियों के अवसर बढ़ाने और प्रति वर्ष दो करोड़ बेरोजगार युवकों को रोजगार देने का सपना जिन युवाओं को दिखाया था, उन्हें रोजगार देने में विफल सरकार की वादाखिलाफी की आलोचना करने वाले युवकों और उनके अभिवावकों के साथ तीसरे दर्जे का व्यवहार करने पर क्या वे भाजपा को वोट देंगे ? नहीं देंगे.

उ0प्र0 में चुनाव से पहले किसानों का कर्ज माफ करने का वादा करने से पहले मोदी जी ने यह नहीं बताया था कि कर्ज माफी के मानदण्ड क्या होंगे ? जीतने के बाद जिन किसानों को कर्ज माफी के प्रमाण पत्र बांटे गए, उनमें वो किसान भी शामिल हैं जिनका मात्र एक रुपये का कर्ज माफ हुआ. ऐसा मजाक देश के अन्नदाता के साथ मत करिए. किसान देश के किस हिस्से का है, इससे फर्क नहीं पड़ता. जैसे देश के सब हिन्दू एक है वैसे ही देश के सब किसान एक हैं.




उस वर्ण के लोग जिनकी आर्थिक स्थिति दयनीय है पर जो दलित वर्ण के नहीं हैं, वो भी पीड़ित हैं. परिवार को पालने की जिम्मेदारी उतनी ही उनकी भी है, आकांक्षाएं उनकी भी उतनी ही हैं, अपने नौनिहालों को पढ़ा-लिखा कर अफसर बनाने के सपने उन्होंने भी पाले हैं, पर क्या उन्हें सामाजिक बराबरी और न्याय मिल पा रहा है ? नहीं मिल पा रहा.

हर वर्ग की अपनी-अपनी पीड़ाओं की अलग-अलग कहानी है. पर उन्हें इन चार वर्षों के भाजपा शासन में कोई उम्मीद भी जगती नहीं दिखी. वो निराश हैं, हताश हैं. शायद भाजपा शासित तीन राज्यों के मतदाताओं ने कांग्रेस को अपने कंधों पर बिठा कर, उसे सत्ता से बेदखल कर यही संदेश दिया है. यदि भारत के हृदय स्थल में बसे लोग, अपने कंधों पर कांग्रेस को बिठा कर इन दोनों के चंगुल से, खुद को मुक्त करने की लड़ाई लड़ें और जीत ले, तो उसे आप क्या नाम देंगे ?




मैं तो इस लड़ाई को राजनैतिक ओलंपियाड नाम दूंगा और उन लोगों को स्वर्ण पदक दिए जाने की सिफारिश करूंगा, जिन्होंने यह लड़ाई लड़ी और जीती.क्यों मुक्त होना चाहते थे ये लोग ? इस प्रश्न का उत्तर मानव-शास्त्री, समाज-शास्त्री, राजनीति-शास्त्र के पुराधा दें. मुझे तो बस ये याद है कि देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को राष्ट्रपति भवन जेल-सा लगता था और वो उससे मुक्त होना चाहते थे. क्यों ? क्या दुःख था वहां उन्हें ?

यानी बहस क्यों पर नहीं. उस “ऊब औऱ घुटन“ पर हो, जिसके वशीभूत वो इन दोनों के चंगुल से बस मुक्त होना चाहते हैं. मीठा पसंद हो तो क्या मीठे से पेट भरेंगे लोग ? नहीं. शायद सबसे ज्यादा मीठा डॉ. रमन सिंह ने 15 साल खिलाया. राजस्थान को वर्ष 1998 से, गहलोत और वसुंधरा राजे के मीठे और नमकीन से बारी-बारी पेट भरने की लत लग गयी है. मध्य प्रदेश के शिवराज ने भी घर के बंटवारे में अपने से अलग हुए डॉ. रमनसिंह की तरह, परन्तु उनसे कम मीठा परोसा होगा और बीच-बीच में स्वाद बदलते रहे होंगे, इसलिए लोग तो ऊबे, पर छतीसगढ़ से बहुत कम.




खैर छोड़िये इस बहस को यहीं, और देखें आने वाले चार महीनों में देश को विश्व के पटल पर आर्थिक महाशक्तियों की कतार में खड़ा करने का जो सपना हमारे प्रधानमन्त्री ने अपने पहले कार्यकाल में देखा है, रिजर्व बैंक से उर्जित पटेल की बिदाई के बाद वह कितनी गति पकड़ेगा ? फिक्की और आईसीसीआई का उत्साह यदि पैमाना है तो शशिकांत दास का केंद्रीय बैंक का गवर्नर बनना एक शुभ संकेत है. खजाने की रखवाली करने के लिए तैनात व्यक्ति खुद को उसका मालिक या देश के करदाताओं का प्रतिनिधि समझने लगे तो सरकार को अपनी मनवांछित कामना की पूर्ति में अड़ंगा लगता दिखना स्वाभाविक है. शशिकांत दास के कुर्सी सम्भालने के साथ वह खतरा अब नहीं रहा. दिवालिया होने के कगार पर पहुंच चुकी बैंकों के खाली खजाने रिजर्व बैंक, सरकार के इशारे पर फिर से भर देगी.

माना छोटे और मध्यम उद्योगपतियों की बड़ी संख्या को 2019 चुनावों से पूर्व खुश करने के लिए थोड़ी रकम की जरूरत होगी. परन्तु देश को आर्थिक महाशक्ति बनाने में सक्षम, मुठ्ठी भर उद्योगपतियों को बहुत मोटी रकम चाहिए. उर्जित पटेल उसी में सबसे बडी बाधा थे.




मोदी सरकार बताती है कि उसके हाथ बहुत लम्बे हैं. बैकों को लूटने की घटनाएं यदि फिर होगी तो लुटेरों की गर्दन तक उसके हाथ पहुंच जाएंगे. पूर्व में बैंकों को लूट कर जो विदेश भाग गए हैं, सरकार ने उनकी भी गर्दन पकड़ने के पुख्ता इंतजाम कर लिए हैं. 2019 से पहले एकाद जैसे माल्या को पकड़ कर लाया भी जा सकता है.

इसे भी छोड़िये. सत्ता में दुबारा आने के लिए 100 में से जिन 40 वोटरों के वोटों की जरूरत है, उनमें से कितने अंतरराष्ट्रीय मसलों की समझ रखते हैं
? अंतरराष्ट्रीय मुद्दों की छोड़िये, राष्ट्रीय मुद्दों की समझ रखते हैं ? मैं समझता हूं (मेरे पास कोई आंकड़े नहीं है) 5 से ज्यादा संख्या नहीं होगी उनकी यानी बचे 35 वोटरों के सामने गम्भीर मुद्दे परोसने से ज्यादा राजनेताओं के लिए जरूरी है कि वे उनके सामने सॉफ्ट मुद्दे परोसें.




वर्तमान में श्रोताओं की भीड़ को सम्मोहित करने वाले मुद्दों में शीर्ष पर आर्थिक रूप से विपन्न सवर्णों की दशा सुधारने के लिए आयोग का गठन, आरक्षित वर्ग के मुकाबले पिछड़ों की क्षेत्रवार पहचान कर उनकी लिस्ट को भारी-भरकम बनाना और आरक्षण का लाभ देना, अयोध्या में मन्दिर के शिलान्यास के लिए ऐसी युक्ति की तलाश करना, जो “वहीं मन्दिर बनाने“ की इच्छापूर्ति करता दिखे, किसानों के लिए हर ऐसे उपाय जैसे कृषि उपज आधारित उद्योग से जुड़े बड़े उद्योग घरानों और कृषि अनुसंधान से जुड़े संस्थानों के बीच आपसी समझ आधारित नीतियों का निर्माण जो किसानों से, उन्हीं फसलों का उत्पादन कराएं, जिनको खेत से ही उन्हें लाभकारी मूल्य दे कर खरीदा जा सकें. इस कार्य के लिए बैंके किसानों के बजाय उद्योगपतियों को ऋण देने में खुद को सुरक्षित समझेंगी और सरकार के खजाने पर बड़ा बोझ भी नहीं पड़ेगा, वगैरह-वगैरह.




हां, मोदी जी के सामने बडी राजनैतिक चुनौती पेश है, वो यह कि वे “सत्ता दिलाने में जितने कुशल हैं, उस सत्ता को कायम रखने में उतने नहीं“, ऐसी भ्रान्ति फैल रही है और मजबूती पकड़ रही है, ऐसी भ्रान्तियों का जड़ से उन्मूलन करना भी जरूरी है. 2019 का इंतजार कीजिये, 2014 की जीत से मुकाबला होगा. 2014 में बनी साख बचती है या गिरती है.

हर विफलता के लिए कांग्रेस को रात-दिन, सुबह-शाम, चारां पहर कोसने को शायद भाजपा अपने लिए संजीवनी समझती हो, पर इसने कांग्रेस के लिए ही संजीवनी का काम किया है. लोग पूछते हैं, कांग्रेस को हटा कर भाजपा को सत्ता क्यों सौंपी थी ? क्या सिर्फ उसे कोसने के लिए ?

सम्पर्क नं. : +91 7017339966

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