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कांग्रेस के आपात काल से किस तरह लड़ा था संघ

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[ देश भर में नफरत और हत्या की राजनीति करने वाला आरएसएस और उसके अनुषांगिक संगठनों ने 2014 में सत्ता काबिज करने के साथ ही देश को भय के माहौल में दफन कर दिया है. परन्तु इतिहास की एक तल्ख सच्चाई है कि नफरत और हत्या की राजनीति करने वाला आरएसएस दरअसल अपने बाजुओं का जोर हमेशा ही गरीब और असहायों पर ही आजमाता है, बड़े हमलावरों से सामना होते ही न केवल घिग्गी बंघ जाती है, बल्कि भय से थरथर कांपता आरएसएस सष्टांग मुद्रा में लेटकर माफी मांगने लगता है. अंग्रेजों की दलाली और माफीनामें का इतिहास तो हम सभी जानते ही है, इसके साथ ही इंदिरा गांधी के द्वारा लगाये गये आपातकाल के दौर में भी यह आरएसएस और इसके संचालक माफीनामें का इतिहास दुहरा चुके हैं. यौं ही नहीं कहा जाता है दीखने में जो जितने भारी-भरकम होते हैं, असल में वे उतने ही ज्यादा डरपोक और बुजदिल होते हैं. आरएसएस का आपताकाल के दौर में माफीनामें की सच्चाई को उकेरती आशुतोष कुमार की 2015 की पोस्ट यह तस्वीर प्रस्तुत है. ]

कांग्रेस के आपात काल से किस तरह लड़ा था संघ

गिरफ्तार मीसाबंदियों में से अनेक ने अपनी रिहाई के लिए माफी मांगी. ऐसे लोगों में जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य बड़ी संख्या में थे. न सिर्फ साधारण स्वयंसेवक वरन् तत्कालीन सरसंघ चालक बालासाहेब देवरस ने भी इंदिरा गांधी को अनेक पत्र लिखकर सहयोग करने का आश्वासन दिया. सरसंघ चालक ने इस मामले में आचार्य विनोबा भावे से भी हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया था.

सेन्ट जार्ज अस्पताल, मुम्बई के जेल वार्ड 14 से देवरस ने विनोबा को लिखे पत्र में अनुरोध किया कि वे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलकर उनके मन में संघ के बारे में जो भ्रान्तियाँ हैं, उन्हें दूर करें और संघ पर लगे प्रतिबंध को हटाने का परामर्श दें. देवरस ने विनोबा जी को यह आश्वासन दिया था कि संघ के कार्यकर्ता रिहा होने के बाद इंदिराजी द्वारा घोषित कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में उनकी मदद करेंगे.

येरवदा जेल से 10.11.1975 लिखे पत्र में देवरस ने इस बात पर प्रसन्नता जाहिर करते हुए इंदिरा गांधी को बधाई दी थी कि सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय बेंच ने उनके चुनाव को वैध ठहराया है. इसके पूर्व 22.8.1975 को लिखे एक और पत्र में देवरस ने लिखा कि ”मैंने आपके 15 अगस्त के भाषण को काफी ध्यान से सुना. आपका भाषण आजकल के हालातों के उपयुक्त था और संतुलित था.” पत्र के अंत में वे पुन: इंदिरा गांधी के भाषण के कुछ वाक्यों का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि “पूरे देश में फैले हुए संघ के कार्यकर्ता निस्वार्थ भाव से काम करते हैं. वह आपके कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में तन-मन से सहयोग करेंगे.”

इन पत्रों से यह स्पष्ट होता है कि देवरस ने इंदिरा गांधी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था.

आपातकाल के दौरान संघ के अनेक कार्यकर्ताओं ने माफी मांगी और सरकार के साथ सहयोग करने का आश्वासन भी दिया. बताया जाता है कि इनमें से कुछ ने संघ से अपना संबंध विच्छेद करने तक का आश्वासन दिया. देवरस द्वारा प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और विनोबा को लिखे पत्रों को ब्रह्मदत्त ने अपनी किताब “फाइव हेडेड मांसटर” में तथा डीआर गोयल ने अपनी किताब ”राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ” में इन पत्रों को शामिल किया है.

अभी हाल में प्रकाशित सुभाष गताड़े की किताब ”सेफरन कनडीशंस”‘ में मीसाबंदियों के बारे में पूरा चैप्टर है. इस चैप्टर में वे कहते हैं कि तथाकथित मीसा काल के इन नायकों में से अनेक ने इंदिरा गांधी का साष्टांग दंडवत करते हुए माफी मांगी और बार-बार यह आश्वासन दिया कि वे अब कोई भी ऐसा काम नहीं करेंगे जो राष्ट्रहितों के विरुद्ध हो.

तपन बसु, प्रदीप दत्त और सुमिता सरकार द्वारा तैयार किए गये मोनोग्राफ में लिखा है ”जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा, संघ सुप्रीमो देवरस को जेल में डालने के तुरंत बाद से देवरस ने इंदिरा गांधी से संपर्क करना प्रारंभ कर दिया था. देवरस ने इंदिरा को पत्र लिखे और विनोबा के अतिरिक्त संजय गांधी से भी संपर्क साधा. उनका मुख्य उद्देश्य संघ से प्रतिबंध हटवाना और संघ के गिरफ्तार सदस्यों की रिहाई करवाना था.”

वैसे यह अनुसंधान का विषय है कि इंदिरा गांधी एवं देवरस में कुछ समझौता हुआ था या नहीं परंतु यह सर्वविदित है कि संघ की ओर से एक माफीनामे का एक प्रारूप प्रसारित किया गया था और गिरफ्तार स्वयंसेवकों से यह कहा गया कि वे इस प्रारूप पर हस्ताक्षर कर शासन को सौंपे.

इस शपथ पत्र में कहा गया “जेल से छूटने पर मैं कोई भी ऐसा काम नहीं करूंगा जिससे देश की सुरक्षा को क्षति पहुंचने की संभावना हो. मैं लागू आपातकाल के विरुद्ध भी कोई काम नहीं करूंगा.”

साभार –https://t.co/haLqmg75z2

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One Comment

  1. Subrato Chatterjee

    July 15, 2018 at 10:10 am

    दक्षिणपंथी ताक़तों का अलग अलग पार्टियों में बँटा रहना देश व समाज के संसाधनों पर शोषणमूलक अधिकार को अक्षुण्ण रखने की कावयाद भर है । जनता उदारवादी, संशोधनवादी, प्रतिक्रिया वादी इत्यादि के बहस में उलझी रहती है और पूँजीपति वर्ग चुपचाप अपना हित साध लेती है। ज़रूरत है उस सोच और संस्कृति को बदलने की जो हमें इस झाँसे को पहचानने नहीं देती । जनता को जागरूक करने का सीधा रास्ता उसे अपने अधिकारों के प्रति सचेत करते रहना है और उसके अंदर प्रतिवाद की क्षमता को बढ़ाना है । चुनाव का वहिष्कार करना है क्यों कि चुनाव जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करने का हथियार पूँजीवादी व्यवस्था में नहीं होता, सिर्फ़ एक लुटेरे गिरोह से दूसरे लूटेरे गिरोह के हाथ में राजनीतिक सत्ता के हस्तांतरण का माध्यम भर है । अवैध शोषण को वैध बनाने के लिए जन सहभागिता के स्वाँग से ज़्यादा कुछ नहीं होता चुनाव ।

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