फरीदी अल हसन तनवीर
एक रूसी वैज्ञानिक थे पावलोव. शरीर क्रिया विज्ञान पर एक रिसर्च कर रहे थे. उन्होंने अपने कुत्ते पर अपने प्रयोग किये. उन्होंने कुत्ते को प्रयोगशाला की नियंत्रित (controlled) परिस्थितियों में रखा और उसके मुंह में नलियों के द्वारा एक ऐसा यंत्र और नलियां फिट की कि उसके मुख में उत्पन्न होने वाली लार (saliva) की मात्रा को मापा जा सके. दरअसल वे जीव विज्ञान के क्षेत्र में शरीर की आंतरिक क्रियायों से संबंधित किसी प्रयोग पर काम करना चाहते थे.
पावलोव के प्रयोग को समझने से पूर्व कुछ स्थापनाएं समझ लीजिए जिससे उनका प्रयोग आपको रोचक और समझने में आसान रहेगा. जीवधारियों के अनेक गुणों में से एक गुण है – Living organisms are sensitive to stimulus. They react against stimulus. जीवधारी प्राकृतिक उद्दीपन के विरुद्ध प्रतिक्रिया करते पाए जाते हैं. ये जीवधारियों का एक प्राकृतिक गुण है.
जैसे आप सड़क पर पैदल जा रहे हों और आपके पैर में कोई कांटा चुभ जाए तो आपका पैर मस्तिष्क के बिना सोचे समझे ऊपर उठ जाएगा. यहां कांटा उद्दीपन है और पैर का उठ जाना प्राकृतिक प्रतिक्रिया. जैसे किसी बच्चे का हाथ गर्म तवे पर पड़ जाए तो वह फौरन प्रतिक्रिया स्वरूप अपने हाथ को उस गर्म तवे से दूर खींच लेगा. यहां गर्म तवा (stimule) उद्दीपन है और हाथ खींच लेना प्राकृतिक प्रतिक्रिया (natural reaction) है.
जैसे आप किसी अच्छे रेस्तरा के पास से गुज़रें या किसी अच्छे चाट वाले की दुकान के पास से गुज़रें और उसके भोज्य पदार्थों की उड़ती खुशबू को आपकी नाक ग्रहण करे और आपके मुंह में (saliva) लार के कारण पानी आ जाये तो यहां भोजन की खुशबू (natural stimule) प्राकृतिक उद्दीपन है और मुंह में पानी आ जाना प्राकृतिक प्रतिक्रिया (natural reaction) है. हमारे रोज़मर्रा का जीवन ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है.
पावलोव का प्रयोग जीवधारी के इसी natural stimulate के अगेंस्ट natural रिएक्शन करने की प्राकतिक क्षमता पर आधारित था. आइये प्रयोग को समझते हैं. प्रयोग के दौरान पावलोव अपने कुत्ते के सम्मुख natural stimules के रूप में भोजन लाते थे, फलस्वरूप भोजन सामने आते ही कुत्ते के मुंह में saliva लार natural रिएक्शन के रूप में आ जाती थी. पावलोव ने काफी दिनों तक ये प्रयोग जारी रखा. अब कुत्ता भूखा न होने पर भी सामने भोजन को देखते ही लार निकालने की प्रतिक्रिया देने में अभ्यस्त हो गया था.
कुछ दिनों के बाद पावलोव ने एक मैनीपुलेशन किया. अब खाना दिखाने के साथ एक घंटी भी बजानी शुरू कर दी. यानी अब वे एक प्राकृतिक उद्दीपन भोजन के साथ एक अप्राकृतिक उद्दीपन घंटी बजाना भी करते थे और कुत्ते के मुंह में नेचुरल प्रतिक्रियास्वरूप लार आ जाती थी. धीरे धीरे पावलोव ने कुत्ते को भोजन दिखाना बन्द कर दिया, बस यथावत घंटी बजा देते थे जो कि मात्र एक अप्राकृतिक उद्दीपन (unnatural stimule) था, और उन्होंने चमत्कार देखा कि घंटी बजने से ही कुत्ते के मुंह में (saliva) लार आ जाती थी.
उन्होंने इस प्रयोग को घंटी की जगह एक बिजली के बल्ब को जला कर बदल कर देखा. ऑब्जरवेशन फिर वैसे ही आये. उनके इस प्रयोग से ये निर्णय प्राप्त हुए कि यदि जीवधारियों को प्राकृतिक उद्दीपन के साथ एक अप्राकृतिक उद्दीपन दिया जाए तो जीवधारी प्राकृतिक प्रतिक्रिया करते हैं. इस दौरान अप्राकृतिक उद्दीपन के साथ प्रकृतिक प्रतिक्रिया की ऐसी कंडीशनिंग, बॉन्डिंग हो जाती है कि अगर अगर धीरे धीरे प्राकृतिक उद्दीपन को हटा लिया जाए और मात्र आर्टिफीसियल उद्दीपन ही जीवधारी को दिया जाए तो वह उस आर्टिफीसियल उद्दीपन के प्रति भी प्राकृतिक प्रतिक्रिया करता दिखाई देता है.
जो प्रयोग शरीर क्रिया विज्ञान के लिए किया जा रहा था उसने मनोविज्ञान के लिए अपनी जगत प्रिसिद्ध ‘थ्योरी ऑफ लर्निंग ऑफ क्लासिकल कंडीशनिंग’ उपलब्ध कराई. पावलोव को अपनी इस थ्योरी पर नोबल पुरस्कार भी मिला.
हम शिक्षक अपने छात्रों को अच्छी आदतें सिखाने, और बुरी आदतें छुड़ाने के लिए इस थ्योरी का रोज़ प्रयोग करते हैं. कभी बिस्तर पर छोटे बच्चे को सुलाने से पूर्व मां को कि कहीं बच्चा सोते में बिस्तर पर पेशाब न कर दे की आशंका से उसे पहले ही पेशाब कराते देखा है ?
मायें बच्चों को सीटी की आवाज़ के साथ पेशाब कर देने के लिए कंडिशन्ड कर देती हैं. सुलाने से पूर्व वे उसे सीटी बजा कर पेशाब कराती हैं. सीटी का पेशाब से कोई प्राकृतिक संबंध नहीं है लेकिन बार बार करने से बच्चा सीटी की आवाज़ जो कि आर्टिफीसियल उद्दीपन है, के विरुद्ध मूत्र विसर्जन करना जो कि प्राकृतिक प्रतिक्रिया है करना सीख जाता है. ये क्लासिकल कंडीशनिंग का साधारण सा बेहतरीन उदाहरण है.
अब मुख्य मुद्दे पर आते हैं. मानव विकास के क्रम में हमारे पूर्वजों ने करीब 5000 साल पूर्व धर्म, देवता, ईश्वर आदि की परिकल्पना करना प्रारंभ की. तब से अब तक अनेक धर्म निर्मित किये. 300-400 वर्ष पूर्व का सिखिसम को सबसे नवीन मान सकते हैं. धर्म मनुष्य को 5000 साल से आर्टिफीसियल स्टिमुलस के प्रति प्राकृतिक रिएक्शन करने के लिए कंडिशन्ड करते रहे हैं. हमारे धर्मों के प्रति हमारी आस्था, सम्मान, विश्वास, धैर्य, शांति प्राप्ति जैसी सभी प्रतिक्रियाएं एक आर्टिफीसियल स्टिमुलस के प्रति नेचुरल रिएक्शन मात्र हैं.
जब मंदिर की घंटी की आवाज़ सुन किसी हिन्दू का मन श्रद्धा से भर जाता है. जब किसी फजिर की अज़ान के साथ किसी मुस्लिम का सब दर्द, नींद, मौसम के साथ लड़ाई सब कुछ मिट जाता है और वह वुज़ू कर श्रद्धा से नमाज़ हेतु तैयार हो जाता है. जब कोई कैथोलिक क्रिस्चियन pain avoidance की अपनी नेचुरल प्रतक्रिया के विपरीत जीसस की तरह खुद को crusified कर सुख और संतोष प्राप्त करता है तो ये सब आर्टिफीसियल स्टिमुलस के प्रति नेचुरल प्रतिक्रियाएं करता दिखाई देता है.
ये क्लासिकल कंडीशनिंग है. ये क्लासिकल कंडीशनिंग थ्योरी के तहत एक अप्राकृतिक स्टिमुलस के विरुद्ध प्राकृतिक प्रतिक्रिया सीखने के फलस्वरूप संभव हो रहा है. हमारे धार्मिक समूह, समाज, परिवार, समुदाय, धार्मिक साहित्य, ग्रंथ, संस्कृतियां, पर्यावरण, माता पिता, शिक्षा व्यवस्था ऐसे डिज़ाइन की गई है कि हम छोटे छोटे बालकों को जाने अनजाने इस आर्टिफीसियल स्टिमुलस के प्रति प्राकृतिक रिएक्शन करने के लिए कंडिशन्ड कर देते हैं.
मानव सभ्यता में ये काम 5000 साल से मुताबतिर हो रहा है. बस कुछ लोग ही इस कंडीशनिंग से अपने प्रयासों से बाहर निकल पाते हैं. ऐसे बाहर निकले लोगों ने या तो कोई नया धर्म ईजाद कर दिया और वे खुद नए पैगम्बर बन गए या वे नवीन सत्यों को उजागर करने वाले अन्वेषणकर्ता बने, वैज्ञानिक बने.
आज ऐसे व्यक्ति को दुनिया नास्तिक, काफ़िर, धर्म विरोधी और पागल समझती है. आप इतिहास पर नज़र डालिये चार्वाकों, बुद्ध, महावीर,मूसा, ईसा, मोहम्मद के साथ तत्कालीन स्थापित धर्मों, यथास्थितिवादियों और परंपराओं ने कैसा सुलूक किया था. गैलीलियो और कोपरनिकस के साथ भी तत्कालीन धार्मिक लोगों के व्यवहार को याद कीजिये.
दरअसल हमारे धार्मिक समूह मात्र पावलोव के कंडिशन्ड कुत्ते के समान ही हैं जो 5000 साल की कंडीशनिंग के चलते बनावटी उद्दीपन के विरुद्ध एक प्राकृतिक प्रतिक्रिया करने का अभ्यस्त हो गया है।
अब ये अभिशप्त है, और कुछ अधिक नहीं सीखना चाहता और न खोजना चाहता है. न आगे बढ़ना चाहता है. वह सीटी की आवाज़ पर आज भी मूत रहा है.
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