रितेश विद्यार्थी
पहली बार 2010 में प्रोफेसर जी. एन. साईबाबा से बीबीसी के माध्यम से परिचय हुआ था, व्हील चेयर से चलने वाले एक बेबाक माओवादी बुद्धिजीवी के रूप में. जिसने अपने विचारों और सरोकारों की कीमत लगभग 10 वर्षों तक यातना गृह में रहकर चुकाया या यूं कहें कि अंततः अपनी जान देकर चुकाया. एक 90% विकलांग व्यक्ति जिसके दोनों पैर काम नहीं करते, एक हाथ भी काम करना बंद कर दिया हो, अंडा सेल की तन्हाई में अपना नित्य क्रिया कैसे करते होंगे, यह सोच कर भी शरीर में सिहरन हो जाता है.
गढ़चिरौली सेशन कोर्ट के जज ने प्रोफेसर साईबाबा व उनके सह अभियुक्तों को उम्र कैद की सजा सुनाते हुए कहा था कि ‘इनके विचारों से देश में विदेशी निवेश प्रभावित हो रहा है, वो तो कानून से मेरे हाथ बंधे हुए हैं वरना मैं इन्हें फांसी की सजा देता.’ आगे हाई कोर्ट में अपील हुई और सालों तक बिना जमानत दिए हाई कोर्ट में इनका ट्रायल चलता रहा. बाकी बंदी एक बार बरी होने के बाद छूट जाते हैं लेकिन साईबाबा व उनके सहाभियुक्तों को महाराष्ट्र हाईकोर्ट को दो-दो बार बरी करना पड़ा.
पहली बार हाई कोर्ट द्वारा बरी किए जाने के 24 घंटे के भीतर सरकार सुप्रीम कोर्ट में पहुंच जाती है और सुप्रीम कोर्ट यह कहकर इनकी रिहाई पर रोक लगा देता है कि ‘इनका शरीर भले ही काम न कर रहा हो मगर दिमाग खतरनाक है. इनपे लगाए गए आरोप राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े हुए हैं इसलिए इन्हें रिहा नहीं किया जा सकता. इनके मुकदमे का नए सिरे से सुनवाई हो.’
दूसरी बार फिर हाई कोर्ट यह कहते हुए कि सिर्फ विचारधारा मात्र रखने से कोई दोषी नहीं हो जाता, प्रोफेसर साईबाबा और अन्य सह अभियुक्तों को रिहा कर देता है. जहां राम रहीम जैसे अपराधियों को दर्जनों बार पैरोल मिल जाता है, वहीं साईबाबा को उनके मृत मां के विदाई कार्यक्रम में शामिल होने तक की अनुमति नहीं दी जाती है.
साईबाबा एक भूमिहीन दलित परिवार में पैदा हुए थे. उन्होंने अपनी रिहाई के बाद प्रेस वार्ता में बहुत ही भावुक होकर यह बताया कि उनकी मां की एक मात्र इच्छा थी कि उनका बेटा पढ़ लिख जाए. बचपन से पोलियो होने की वजह से उनकी मां उन्हें गोद में उठाकर स्कूल पहुंचाया करती थी. विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बनने का सपना भी उनके मां का ही था. ऐसी मां के विदाई कार्यक्रम में शामिल होने की अनुमति भी दुनिया का सबसे बड़ा ‘लोकतंत्र’ उन्हें नहीं देता है.
जेल में उनको व्हील चेयर से नीचे गिराकर घसीटा जाता है. उन्हें आवश्यक इलाज तक मुहैया नहीं कराया जाता. साईबाबा प्रेस वार्ता में बताते हैं कि जब वो जेल गए तो बचपन से मिले पोलियो के अलावा उन्हें और कोई बीमारी नहीं थी. लेकिन जेल जीवन ने उनके शरीर के तमाम अंगों को निष्क्रिय कर दिया है. जेल में उनके साथ जो क्रूर व्यवहार किया गया, उसकी खबरें उनकी पत्नी के द्वारा लगातार बाहर आती रहीं लेकिन सिस्टम को उससे कोई फर्क नहीं पड़ा. उनके एक आदिवासी सह अभियुक्त पांडू नरोटे की भी जेल में ही मृत्यु हो गई.
कांग्रेस सरकार ने 90% विकलांग प्रोफेसर साईबाबा को जेल में ठूंसा, फर्जी मुकदमे बनाए और भाजपा सरकार ने उनसे उनका जीवन ही छीन लिया. साईबाबा की मौत दरअसल राज्य और उसके तमाम संस्थाओं द्वारा सुनियोजित ढंग से की गई उनकी हत्या है, ठीक वैसे ही जैसे फादर स्टेन स्वामी और पांडू नरोटे की संस्थानिक हत्या की गई.
साईबाबा के साथ इतनी क्रूरता क्यों की गई ? उनका अपराध क्या था ? उनका एक मात्र अपराध था शोषण-उत्पीड़न विहीन समतामूलक समाज का सपना देखने और उस सपने को पूरा करने के लिए वैज्ञानिक व क्रांतिकारी रास्ता बताने का अपराध. देश के विभिन्न आंदोलनों के बीच समन्वय व एकजुटता कायम करने का अपराध.
प्रो. साईबाबा की मौत कोई सामान्य मौत नहीं है, वो शहीद हुए हैं. ठीक वैसे ही जैसे देश के अन्य हिस्सों में क्रांतिकारी एक शोषण-उत्पीड़न विहीन समाज के निर्माण के लिए और जल-जंगल-जमीन की लूट के खिलाफ लड़ते हुए शहीद हो रहे हैं. शहादत कभी व्यर्थ नहीं जाता. शहीद कभी नहीं मरते. वो जिंदा रहते हैं जनता के हृदय में, ठीक वैसे ही जैसे आज भगत सिंह जिंदा हैं. कॉमरेड जी. एन. साईबाबा को लाल सलाम !
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