एक शहर में एक जाने-माने होम्योपैथी के डॉक्टर थे, जिन्होंने प्राण पण से लोगों की सेवा की थी. वे मरीज़ों के घर पर भी जाते और कई बार रेलवे अस्पताल भी जाते.
उस समय के लोगों में एक कॉमन सेंस था कि ज़रूरत मरीज़ों को बचाने की है, न कि विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों की मीन मेख करने की.
ख़ैर, एक शाम जब बूढ़े डॉक्टर अपनी क्लिनिक में मरीज़ों को देख रहे थे तो एक मरीज़ के घर से बुलावा आ गया. उन्होंने जाते हुए अपने कंपाउंडर को कहा कि फलाना शशि आने वाले हैं और उनको 12 नंबर की दवा रैक पर से देना है.
कंपाउंड, जिसके पास मूर्खोचित अति आत्मविश्वास की कोई कमी नहीं थी, ने ज़ोर से गर्दन हिलाई और डॉक्टर साहब आश्वस्त हो कर चल लिए.
रात गई बात गई.
दूसरे दिन सुबह दस बजे डॉक्टर साहब क्लिनिक पहुंचे. कंपाउंडर ने साफ़ सफ़ाई कर दी थी. डॉक्टर साहब के बैठते ही रोते दहाड़े मारते हुए शशि पहुंचा.
‘क्या हुआ रे ?’ ये वही मरीज़ था जिसके लिए डॉक्टर साहब ने कंपाउंडर के पास दवा छोड़ गये थे.
‘मर गया डॉक्टर साहब…’ दर्द से छटपटाते हुए मरीज़ ने कहा.
‘बहुत ज़ोर से प्रेशर आ रहा है और पैखाना जाने पर कुछ नहीं निकलता…मर गया सर.’
डॉक्टर साहब चौंक पड़े – ‘अरे ये कैसे !’
फिर कंपाउंडर को पूछा – ‘तूने 12 नंबर की दवा दी थी शशि को ?’
कंपाउंडर ने जिसके चेहरे पर अभी भी आत्मविश्वास का तेज चमक था, धीरे से कहा – ‘हाँ सर ?’
‘फिर ऐसा हो ही नहीं सकता !’ कहते हुए डॉक्टर साहब ने रैक को खंगाला. 12 नंबर की दवा वहीं पड़ी थी.
‘हरामजादे तूने क्या दे दिया शशि को ?’
‘सर, वो 12 नंबर की दवा नहीं मिली तो 5 नंबर और 7 नंबर की दवा मिला कर 12 नंबर बना दिया.’
डॉक्टर बंगाली थे. उन्होंने बंगला में कहा – ‘हे भगवान. साते टान पांचे बेग, तूई हारामजादा दूटो मिशिए 12 बानिये दिली !!’
मतलब, 7 नंबर की दवा पैखाने को रोकने के लिए है और 5 नंबर की दवा पेट साफ़ करने के लिए है, तुम हरामजादे ने दोनों को मिला कर 12 नंबर की दवा बना दी ?
- सुब्रतो चटर्जी
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