मैं जिस बसंती का हाथ थामे
एक रंग बिरंगे जंगल में
समाना चाहता हूं
वहां तुम्हारी चाहतों का एक
चिपचिपा सा लेप
मौसम की पहली मंजरी सा
आम के डंठल पर टिकने को बेक़रार है
आम के गाल पर टपके हुए आंसू
प्रेम के अतिरेक से उपजे हुए स्वेद हैं
यह और बात है कि
किसान की भूख और
आम के स्वाद के बीच दूरियां
बढ़तीं जा रहीं हैं
इस निष्क्रिय मौसम में
क्षणिक लाभ के लोभ में रचीं गईं
मेरी कविताएं
कब तक इस मरुस्थल में
तुम्हारे प्यासे होंठों को
बारिश की बूंदों सा चूमेंगी
कहना मुश्किल है लेकिन
अविधा में कविता लिखने की सीमा पर
कीलों के पहरे हैं
तुम आओ
निर्वस्त्र
निर्वस्त्र हो आकांक्षाएं तुम्हारी
लाज तुम्हारा
संसार तुम्हारा
मिट्टी के दीये की छाया
मिट्टी की दीवार पर नाचती हुई
जीवन और मृत्यु की
निःशब्द परिभाषा गढ़ते हुए
तुम आओ
और गढ़ जाओ मुझे
किसी जंगल की तरह अनगढ़
एक विशाल शून्य की परिधि
निर्धारित करने का असंभव कार्य
मेरे ज़िम्मे छोड़ कर
तुम चली गई हो प्रियतमा
लौट आओ इस जंगल में एक बार और
बांस के अंतर में फूंक की तरह
बांसुरी ही कृष्ण का पर्याय है
लता की तरह लिपटते हुए
मेरे वास्तव और अवास्तव के चारों तरफ़
जैसे नदी घेर लेती है सहरा को निःशब्द
- सुब्रतो चटर्जी
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