14 जनवरी 2022 को, एक प्रमुख अर्थशास्त्री सी.पी. चंद्रशेखर का एक लेख अंग्रेज़ी पत्रिका फ़्रंटलाइन में प्रकाशित हुआ, जिसका शीर्षक था, ‘सह-उधार : निजी पूंजी को एक और बड़ा तोहफ़ा.’ इसमें अडानी कैपिटल नाम की ग़ैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी और भारतीय स्टेट बैंक के साथ साझेदारी में शुरू की जाने वाली सह-उधार योजना की विस्तार से जानकारी दी गई है.
योजना का उद्देश्य किसानों को ट्रैक्टर और खेतीबाड़ी के दूसरे उपकरणों की ख़रीद के लिए ऋण प्रदान करना है. ‘मुंह में राम-राम, बग़ल में छुरी’ की कहावत यहां बिल्कुल फिट बैठती है. जनकल्याण के नाम पर यह बड़ी इजारेदार पूंजी द्वारा बैंकों से मोटी रक़म हड़पने की साजि़श है, बल्कि बैंकों को ही हड़पने की शुरुआत है. बड़े पूंजीपतियों की इस नंगी-सफे़द लूट में भारत में सत्ता में बैठे फासीवादी शासक अडानी-अंबानी के पीछे खड़े हैं.
भारतीय स्टेट बैंक के अधिकारी, जो वास्तव में भारत सरकार का प्रतिनिधित्व करते हैं, कहते हैं कि साझेदारी हमारे ग्राहकों की पहुंच का विस्तार करेगी और देश की अर्थव्यवस्था के विकास में योगदान करेगी. जनता को धोखा देकर सार्वजनिक संस्थाओं को देशी-विदेशी पूंजी के घड़ियालों के सामने फेंकने का यह कृत्य पिछली सदी के नब्बे के दशक की नव-उदारवादी नीतियों को लागू करने की प्रक्रिया का हिस्सा है.
अडानी कैपिटल और स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के बीच साझेदारी को समझने के लिए, आइए हम बैंक के मौजूदा ढांचे पर एक नज़र डालते हैं. मौजूदा समय में भारतीय स्टेट बैंक की देश-भर में 22,000 से अधिक शाखाएं फैली हुई हैं. पैसे निकालने के लिए 64,000 से अधिक एटीएम मशीनें लगी हुई हैं. 7,00,000 से अधिक कारोबारी पत्रकार (बिज़नेस कॉरस्पांडेंट) हैं. यदि कारोबार की ज़रूरतें मांग करती हैं तो कारोबारी पत्रकारों को छोटी शाखाओं के रूप में तरक़्क़ी दी जा सकती है.
एक तरफ़ यह जनता के पैसे से बनी एक विशाल प्रणाली है और दूसरी तरफ़ अडानी कैपिटल नामक ग़ैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों की केवल 60 शाखाएं हैं. अडानी की कंपनी 13,000 करोड़ रुपए की संपत्ति के साथ भारतीय स्टेट बैंक के 48,000 करोड़ रुपए का नियंत्रण अपने हाथ में लेगी. बैंक अधिकारियों का कहना है कि इस साझेदारी से हमारे ग्राहक आधार का विस्तार होगा.
इस समय भारतीय स्टेट बैंक के पास 20,000 करोड़ रुपए की राशि के साथ लगभग 1 करोड़ 40 लाख उधार खाते हैं. दूसरी ओर, अडानी कैपिटल के 22,000 ग्राहक हैं और केवल 1,300 करोड़ रुपए उधार राशि है. कहानी यह बनाई जा रही है कि अडानी कैपिटल के साथ भारतीय स्टेट बैंक का ग्राहक आधार बढ़ेगा. पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप स्कीम के तहत भारत के और सरकारी बैंकों और ग़ैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के साथ 2018 से समझौतों का सिलसिला चल रहा है.
कृषि क्षेत्र में क़र्ज़ के अलावा छोटे और मंझोले उद्यमों को 10 लाख रुपए से लेकर 100 लाख रुपए तक का क़र्ज़ देने की योजनाएं भी हैं. उधार दी जाने वाली राशियों में 20 प्रतिशत हिस्सा ग़ैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी का और 80 प्रतिशत हिस्सा बैंक का होगा. ब्याज़ दरें भी बैंकों और निजी कंपनियों के लिए अलग-अलग होंगी. बैंक दरों का ढांचा ऐसा है कि निजी कंपनियां ज़्यादा-से-ज़्यादा लाभ कमा सकें. ज़्यादा लाभ कमाने और चोर-दरवाज़ों के विवरण में यहां नहीं जाएंगे.
कुल मिलाकर इन समझौतों का मुख्य मक़सद यह है कि पहले 20 फ़ीसदी का योगदान देकर पूरी प्रणाली का प्रबंधन अपने हाथ में लेना और फिर अगले चरण में बैंकों को पूरी तरह से निगल लेना. निजीकरण की मुहिम में इस्तेमाल किया जाने वाला यह तरीक़ा भारतीय शासकों और पूंजीपतियों के लिए सबसे सुरक्षित और अदृश्य तरीक़ा है. थोड़ी-सी पूंजी लगाकर विशाल सार्वजनिक पूंजी का नियंत्रण संभालो. ख़ुद मुनाफ़ा कमाओ और घाटा जनता के सिर मढ़ दो. भारत की मेहनतकश जनता द्वारा पैदा किए जाने वाले अतिरिक्त मूल्य के भंडार, बैंकों या अन्य पब्लिक सेक्टर की संस्थाओं के रूप में जमा हैं, यह उन्हें बड़े पूंजीपतियों को लुटाने की कार्रवाई है.
पी.पी.पी. क्या है ?
अंग्रेज़ी के पी.पी.पी. यानी पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप का मतलब सार्वजनिक-निजी-भागीदारी है. यह चोर दरवाज़े से निजीकरण की कार्यवाही है. प्रसिद्ध चिंतक मीराफ़ताब कहती हैं, ‘सार्वजनिक-निजी-भागीदारी नव-उदारवादी विकास का ट्रोज़न घोड़ा है.’ यानी इस तरीक़े से सार्वजनिक क्षेत्र में निजी पूंजी को दाख़िल करवाकर इसे भीतर से ख़त्म किया जाता है.
बीसवीं शताब्दी के 7वें-8वें दशक में, जब पूंजीवाद के कल्याणकारी राज्य के कींसवादी मॉडल की संभावनाएं संतृप्त होने पर, नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों, वैश्वीकरण, निजीकरण और कंट्रोल मुक्ति का दौर शुरू हुआ. उल्लेखनीय है कि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कींस 1929-30 की महामंदी के बाद मर रही पूंजीवादी व्यवस्था को बचाने के लिए आगे आया था.
उसने कल्याणकारी राज्य के जिस मॉडल का सुझाव दिया, उसे पूंजीवाद का कींसवादी मॉडल कहा जाता है. उस संकट के समय में पूंजीवाद को जीवनदान देने वाले इस मॉडल के अप्रासंगिक होने के बाद, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक जैसी प्रमुख विश्व पूंजी एजेंसियों के इशारे पर नव-उदारवादी नीतियों को लागू करने की नीति के हिस्से के रूप में, सार्वजनिक-निजी-साझेदारी की नीतियां सामने आईं. विकसित पूंजीवादी देशों में, 1980 के दशक में रीगन और थैचर के दौर में सार्वजनिक-निजी-भागीदारी की नीतियों की शुरुआत हुई. आगे चलकर दुनिया के विभिन्न देशों में ये नीतियां लागू की गईं.
1991 के बाद, नरसिम्हा राव के दौर में भारत में नवउदारवादी नीतियों की शुरुआत हुई. उस समय मनमोहन सिंह भारत का वित्त मंत्री थे. आगे चलकर मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही नवउदारवादी नीतियों को बड़े पैमाने पर लागू करने का काम शुरू होता है.
सच तो यह है कि घरेलू और विदेशी पूंजी के दबाव में भारत में बनी सभी सरकारों ने इन नीतियों को ख़ुशी से लागू किया, चाहे वामपंथी संसदीय दलों के समर्थन से बनी सरकारें हों या यू.ए.पी.ए. और एनडीए गठबंधन सरकारें, किसी ने भी नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के माध्यम से पूंजी के हमले का विरोध नहीं किया. बल्कि पूरी वफ़ादारी से उन्होंने देश में उन नीतियों को लागू किया.
सार्वजनिक-निजी-भागीदारी की नीति नवउदारवादी आर्थिक मॉडल का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. शुरू में इसे सीवरेज़, जलापूर्ति, शहरी विकास, सड़क विकास, प्रमुख राजमार्गों, बंदरगाहों, बिजली वितरण क्षेत्रों और शहरी परिवहन के क्षेत्रों में लागू किया जाता रहा है. 2014 से मोदी युग के दौरान इन नीतियों को पहले से कहीं ज़्यादा तेज़ गति से लागू किया गया है. जीवन बीमा निगम और बैंकिंग क्षेत्र में निजी भागीदारी की योजनाएं तेज़ी से सामने आ रही हैं.
आजकल, बेशक जनविरोधी नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का विरोध बढ़ रहा है. दूसरी ओर, पूंजीवाद का हमला भी तेज़ होता जा रहा है. विचाराधीन सार्वजनिक-निजी-भागीदारी जैसी नीतियों के माध्यम से देश के प्रमुख सार्वजनिक संस्थानों में प्रवेश करके, घरेलू और विदेशी पूंजी उन्हें निगल रही है. शासक वर्ग पूरी तरह से पूंजीपतियों की सेवा में मौजूद है. हवाई अड्डे, बंदरगाह, सड़कें, रेलवे और देश की सबसे बड़ी सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाएं, कई बिक चुकी हैं और बाक़ी बिकने के लिए तैयार हैं.
इस लेख में हमने केवल बैंकों पर पूंजी के हमले का उल्लेख किया है लेकिन हक़ीक़त में यह हमला चौतरफ़ा है. शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों का इसी तरह निजीकरण किया जा रहा है. मरते हुए पूंजीवाद का संकट गंभीर है. लाभ की लगातार घटती दर के कारण व्यवस्था को चालू रखने के लिए उसे पहले से कहीं अधिक धन की आवश्यकता है. मेहनतकश जनता के ख़ून से ही पूंजीवादी व्यवस्था की धड़कन जारी रह सकती है.
श्रम और पूंजी के इस महान संघर्ष में, मज़दूरों, ग़रीब किसानों, दुकानदारों और समाज के अन्य मेहनती मध्यमवर्गीय हिस्से के लिए एक ही रास्ता बचा है कि इस दुष्ट पूंजीवादी व्यवस्था को रौंदकर, जनता के हितों वाली एक समाजवादी व्यवस्था का निर्माण करें, जिसमें हर कोई अपनी मेहनत का फल प्राप्त कर सके.
- सुखदेव
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