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चुनावों में क्यों नहीं मुद्दा बन पाता काॅरपोरेट-संचालित उपनिवेशवाद

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चुनावों में क्यों नहीं मुद्दा बन पाता काॅरपोरेट-संचालित उपनिवेशवाद

लोकतन्त्र में चुनावों का स्थान केन्द्रीय महत्त्व का होना चाहिए. उन्हें लोकतन्त्र के महान् पर्व के रूप में देखा जाना चाहिए. लोकतन्त्र में लोक या जनगण (People) को सम्प्रभु, स्वामी या नियन्ता माना गया है. ऐसी कल्पना की गयी है कि लोक चुनावों के दौरान तन्त्र या व्यवस्था पर अपनी सत्ता का इजहार करेगा और उसे अपने एकच्छत्र होने का अहसास करायेगा.

विडम्बना है कि चुनाव अपनी अर्थवत्ता खोते गये हैं. चुनावों से सरकारें भले ही बदल जाती हों, लेकिन व्यवस्था जस की तस चलती रहती है; नीतियों एवं कार्यक्रमों की एकरूपता व निरन्तरता पर कोई आंंच नहीं आती; तथा द्रुत विकास, भारी औद्योगीकरण व निस्सीम पूंंजी-निवेश के नाम पर देश के पुनरौपनिवेशीकरण (Recolonization) को मुस्तकिल या मुकम्मल करने की दुरभिसन्धि के साथ वैश्विक काॅरपोरेट-समूह यहांं अपने कारोबारी साम्राज्य का विस्तार करते जा रहे हैं.

चुनावों में सत्ता-प्रतिष्ठान या दलतन्त्र से जुड़े चोटी के नेता रोड-शो करते नजर आते हैं लेकिन इस बात की चर्चा नहीं होती कि देश के बेशकीमती प्राकृतिक संसाधनों व खनिज पदार्थों तथा सार्वजनिक प्रतिष्ठानों व परिसम्पत्तियों को औने-पौने दामों पर नीलाम करने के लिए केन्द्र व राज्य सरकारें दुनिया-भर के कारॅपोरेट-संचालित अग्रणी केन्द्रों व बाज़ारों में रोडशो कर रही हैं. विदेशी निवेशकों और बहुराष्ट्रीय कारॅपोरेट-समूहों के थोक के थोक को अपने-अपने प्रदेश में इन्फ्रास्ट्रक्चर-विकास-प्रकल्पों, मेगा औद्योगिक संयन्त्रों, कारोबारी अड्डों, विनिर्माण-संकुलों, हाइ-टेक् टाउनशिपों, प्रौद्योगिकी-पार्कों आदि को सगुण रूप देने के लिए राज्य सरकारें केन्द्र सरकार के साथ कदमताल करते हुए ‘वैश्विक निवेशक शिखर सम्मेलन’ (Global Investors’ Summits) कर रही हैं. राज्य सरकारों के बीच विदेशी कम्पनियों और कारोबारियों को लुभाने के लिए जबर्दस्त मुकाबला चल रहा है. ‘कारोबार करने की सुगमता’ (Ease of Doing Business) में अच्छी रैंक पाने के लिए केन्द्र ही नहीं, राज्य सरकारें भी द्राविड प्राणायाम कर रही हैं.

देश में विकास के नाम पर चुनाव लड़े जाते हैं. विकास के लिए काॅरपोरेट-केन्द्रित (Corporate-centric) माॅडल को अंगीकृत किया गया है. सरकारों के पास पूंंजी का टोटा है, पैसे-टके की किल्लत है और विकास को अंजाम देने के लिए देश में विश्वस्तरीय आधारभूत ढांंचे का अभाव है – ऐसा डंके की चोट पर कहा जा रहा है इसलिए सरकारें ‘पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप‘ (पीपीपी) का नारा बुलन्द कर रही हैं और ‘काॅरपोरेटशरणं गच्छामि‘ का मन्त्रोच्चार कर रही हैं. सब्जबाग़ दिखायें जा रहे हैं कि काॅरपोरेट-जगत् के पास पूंंजी की अतिरेकता है, उम्दा किस्म की प्रौद्योगिकी है, आला दर्जे का प्रबन्धन है, बेहतरीन पेशेवराना अन्दाज़ है जबकि शासन-तन्त्र अपने ही शाही साज-सरंजाम को येन केन प्रकारेण बरकरार रखे हुए है.

विकास होगा पूंंजी-निवेश से. पूंंजी निवेश करने का माद्दा सिर्फ काॅरपोरेट-धनकुबेरों के पास है, सरकारों के पास नहीं. इसलिए जनगण का, देश का या समाज का विकास काॅरपोरेट-महाबली ही कर सकते है. इसी खोखले तर्क के चलते सरकारों की इच्छाशक्ति, क्रियाशीलता और जनपक्षधरता मरती गयी है. वे दरअसल काॅरपोरेटों के लिए और काॅरपोरेटों के द्वारा संचालित हो रही हैं. वे शनैः शनैः वैश्विक काॅरपोरेटों की सांंझी सब्सिडिरियों की शक्ल अख्तियार करती जा रही हैं. सरकारें अब लोगों की नहीं रह गयी हैं, बल्कि वे काॅरपोरेटों की चेरी-भर बनकर रह गयी हैं.

काॅरपोरेट-नीत औपनिवेशिक तन्त्र में आम लोग अधिकारवंचित हो रहे हैं. उनकी बदहाली, लाचारी, बेकारी, बीमारी और विपन्नता बढ़ रही है. तृणमूल पर अवस्थित लोग अपनी आबादी, आजीविका, लोकसंस्कृति, खेतीबाड़ी, प्राकृतिक सम्पदा, सामुदायिकता, सामूहिकता, सामाजिकता, सहकारिता और सहभागिता से जब़रन बेदख़ल किये जा रहे हैं. जहांं-जहांं लोग उजाड़े जा रहे हैं, वहांं-वहांं काॅरपोरेटों की परियोजनाएंं या मायापुरियांं परवान चढ़ रही हैं. देश में न्यस्त स्वार्थाें का मकड़जाल फैलता गया है जिनका नाभिनाल (Umbilical Cord) वैश्विक काॅरपोरेट- व्यवस्था के गर्भ से जुड़ा हुआ है. देश में काॅरपोरेट-नियन्त्रित उपनिवेशवाद की व्यवस्था इन्हीं के बलबूते फलफूल रही है. ये पैरोकार, बिचैलिये, दलाल या एजेण्ट काॅरपोरेट-व्यवस्था के वाहक या तारणहार बने हुए हैं.

सरकारें काॅरपोरेटों के चंगुल में फंसती गयी है. जिस विकास-माॅडल को अपनाने और आगे बढ़ाने के लिए उन्हें मज़बूर किया गया है, उसके असली आका व प्रवर्तक वैश्विक काॅरपोरेट-महाबली हैं. इस माॅडल के चलते काॅरपोरेटों की बीसों अंंगुलियांं घी में हैं और उनका औपनिवेशिक प्रभाव, वर्चस्व, दबाव या प्रभुत्व परवान चढ़ रहा है. इतना ही नहीं, इस व्यवस्था में उनके साजिन्दे-कारिन्दे, बिचैलिये-दलाल, क्लर्क-कारकुन, नौकर-चाकर और चारण-भांंट भी मलाई चाट रहे हैं. इसके एकदम उलट अधिसंख्य अवाम भीषण गरीबी, भुखमरी, बेकारी, बदहाली, गन्दगी और बीमारी में जीने को विवश है. घोर विषमता, विपन्नता और विपदा के महासिन्धु में अतिशय समृद्धि, विलासिता और सम्पन्नता के कुछ टापू ज़रूर उभरे हैं.

राजनैतिक दलों द्वारा सत्ता में आने पर आगे चलकर व्यवस्था की मार खाये लोगों को कुछ दान-दक्षिणा, मरहम-पट्टी, रियायत-राहत या भोजन-भात का आकर्षक चारा फेंककर चुनावों के दौरान उन्हें अपनी ओर खींचने की साजिश रची जाती है. अंग्रेजों के ज़माने का ‘बांंटो और राज करो’ (Divide and Rule) का पुराना नुस्ख़ा आज भी अचूक बना हुआ है. बस ध्यान सिर्फ इस बात का रखा जाता है कि काॅरपोरेट-नीत औपनिवेशिक तन्त्र को कहीं कोई खरोंच न लगने पाये, वह बेरोकटोक चलता रहे और हमेशा आगे बढ़ता रहे.

जिस तरह आज़ादी की लड़ाई में ब्रितानी साम्राज्य द्वारा प्रवर्तित उपनिवेशवाद का ख़ात्मा केन्द्रीय मुद्दा बन चुका था, उसी प्रकार आज आज़ादी की नयी लड़ाई में काॅरपोरेट-नीत बहुराष्ट्रीय उपनिवेशवाद का ख़ात्मा केन्द्रीय मुद्दा बन चुका है. इस नये उपनिवेशवाद के विर्सजन के साथ ही, जनगण-नीत पूर्ण स्वराज की स्थापना का पथ प्रशस्त होगा.

  • डाॅ. कृष्णस्वरूप आनन्दी
    राष्ट्रीय संयोजक, आज़ादी बचाओ आन्दोलन

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