सुब्रतो चटर्जी
प्रेमचंद, यशपाल, जैनेंद्र जैन, रागेय राघव, राहुल सांकृत्यायन, कमलेश्वर, धर्मवीर भारती और शैलेश माटियानी सरीखे साहित्यकारों के अवसान के बाद हिंदी साहित्य में एक नयी पीढ़ी का उदय हुआ है. इस नयी पीढ़ी का चरित्र बहुत ही विचित्र रहा है.
किसी भी भाषा और उसके साहित्य की सबसे बड़ी पूंजी उसका व्याकरण होता है, जो भावों और विचारों को सही-सही सम्प्रेषित कर इबारत को सार्थक बनाता है, वर्ना, शब्दों के अनुचित व अशुद्ध प्रयोग से अर्थ का अनर्थ हो जाता है. प्रवाहपूर्ण प्रांजल एवं सुबोध भाषा, ललित वाक्य विन्यास, शब्दों का सही चयन इत्यादि किसी गंभीर साहित्यकार की पहचान बना सकता है, तो इसके विपरीत लेखक की अशुद्धियों भरी, लड़खड़ाती सी, फूहड़ भाषा और उसमें रचा गया उसका साहित्य, उसकी पहचान बिगाड़ भी सकता है.
लेखक साहित्य का ही नहीं, वरन शेक्सपीयर और अन्य साहित्यकारों की तरह तर्क आधारित अनेक सुंदर नये शब्द भी गढ़ता है, जो उसकी रचनात्मक मेधा का परिचय होते हैं. किंतु ऐसे लेखक भी देखे जाते हैं, जो ज़िंदगी भर कलम घिसने के बाद वरिष्ठ हुए, भाषा से जंग लड़ते रहते हैं और भारी शब्दों को तो छोड़िए, वे सरल और सामान्य शब्दों को भी शुद्ध लिखना नहीं जानते हैं. शर्म से गड़ जाने की बात है.
एक उदाहरण देता हूं. हिंदी की एक उम्रदराज़, अनेक ऊंचे-ऊंचे पुरस्कारों से सुसज्जित लेखिका हैं – चित्रा मुद्गल.’ यह वरिष्ठ लेखिका एक भी वाक्य बिना ग़लतियों के लिख नहीं पातीं हैं. फ़ेसबुक पर इनकी पब्लिक पोस्ट अक्सर सामने आ जातीं हैं, तो पढ़ लेता हूं और वर्तनी आदि की तमाम ग़लतियों से भरी पोस्ट को पढ़कर हैरान और विचलित हो उठता हूं.
मोहतरमा को सही हिंदी लिखनी नहीं आती है और सामयिक प्रकाशन इनको छापता रहता है. इतना ही नहीं, ये बड़े-बड़े पुरस्कार मैनेज भी कर लेतीं हैं. इनकी शर्मनाक हिंदी की कुछ बानगी यहां पेश कर रहा हूं, पाठक गण खुद देख लें.
ये कवयित्री को कवित्री, ऋचा को रिचा, बीना को बिना, कहानियां को कहानीयां, सृजन को र्सजन, वनमाली को वनमालि, सिंह को सिंन्ह, पहला को पेहला लिखतीं हैं. इतना ही नहीं, इनकी वाक्य संरचना भी अशुद्धियों से भरी होतीं हैं.
इतना होने पर भी इन देवी जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार कैसे मिल जाता है ? व्यास पुरस्कार भी इनको मिल चुका है. इनके जैसे नाकाबिल लोग प्रतिष्ठित पुरस्कारों की गरिमा भी गिरा देते हैं. भाषा के रूप को बिगाड़ कर ये देवी ‘भाषा के अपमान की अपराधी’ हैं. भाषा को समृद्ध करने से तो रही, भाषा को कुरूप और विकृत तो मत करो, हे देवी !
चित्रा की भाषाई हास्यास्पद और फूहड़ ग़लतियों को देख कर संदेह होता है कि यह महिला कुछ पढ़ी लिखी है भी या नहीं ? याद आया कि हाल में ही इन्होंने अपनी एक पुरानी तस्वीर डालीं थी और शान से लिखा था 1964 में ग्यारहवीं की छात्रा…
अब ज़रा सोचिए कि जो 1943-44 में पैदा हुईं वो 1964 में अगर इंटर की छात्रा रहीं, तो क्या 20-21 साल की बड़ी उम्र में वो इतनी छोटी कक्षा में थीं ? निश्चित ही पढ़ाई में फिसड्डी रहीं होंगी, वर्ना इस उम्र तक तो एम. ए. कर लिया जाता है. रचना छपने की शान बघारने के चक्कर में डाली गई उस पुरानी तस्वीर ने चित्रा की ख़ूब पोल खोली.
अपनी प्यारी मातृभाषा के साथ तोड़ फोड़ कर उसका रूप बिगाड़ते हुए लुग्दी साहित्य लिखने वाली चित्रा मुद्गल जैसी लेखिकाओं से हिंदी साहित्य को बचाए रखने की सख़्त ज़रूरत है.
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