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चीन एक नयी सामाजिक-साम्राज्यवादी शक्ति है !

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[ विश्व राजनीति को समझने के लिए चीन को समझना आज बेहद जरूरी है. अनेक कारणों में एक प्रमुख कारण यह है कि चीन आज विश्व राजनीति और अर्थव्यवस्था की मुख्य धुरी बनती जा रही है. दुनिया के तमाम क्रांतिकारियों और प्रतिक्रियावादियों पर समान रूप से अपनी अमिट छाप छोड़ा है चीन ने, इसीलिए चीन को समझना विश्व राजनीति को समझने के लिए जरूरी है. चीन को समझने के लिए देश-विदेश के तमाम व्यक्तियों, समूहों, संगठनों, पार्टियों ने अपनी अलग-अलग समझ प्रस्तुत किया है. भारत समेत विश्व के राजनीतिक पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले समूहों में से एक सीपीआई (माओवादी) ने भी चीन पर अपनी एक समझ प्रस्तुत की है. पाठकों के लिए पेश है उनके द्वारा देशवासियों के समक्ष प्रस्तुत की जाने वाली एक समझ – ‘चीन एक नयी सामाजिक-साम्राज्यवादी शक्ति है ! वह विश्व पूंजीवाद-साम्राज्यवादी व्यवस्था का अभिन्न अंग है !’, जो अपनी विषय वस्तु (लगभग 28,000 शब्दों) के अनुरूप पाठकों से गंभीरता की मांग करती है. ]

चीन एक नयी सामाजिक-साम्राज्यवादी शक्ति है !

संशोधनवादी-पूंजीवादी चीन में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामरिक तौर पर हो रही बदलावों के बारे में ठोस रूप से अध्ययन करने का निर्णय जनवरी 2007 में सम्पन्न भाकपा (माओवादी) की एकता कांग्रेस-9वीं कांग्रेस में लिया गया था. इस निर्णय को कार्यान्वित करने का जिम्मा केन्द्रीय कमेटी को सौंप दिया गया था. चौथी सीसी बैठक के निर्णय के मुताबिक इस को अध्ययन का विषय के रूप में लिया गया है कि चीन के अंदर क्या-क्या बदलाव हुए और वह एक नयी सामाजिक-साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में तब्दील हुई है या नहीं, इसपर अध्ययन करने के बाद, केंद्रीय कमेटी की 5वीं बैठक ने इस विषय पर चर्चा किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि ‘‘आज चीन एक नयी सामाजिक-साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में उभरी है, वह विश्व पूंजीवाद-साम्राज्यवादी व्यवस्था का अभिन्न अंग है, मजदूर वर्ग, विश्व के उत्पीडि़त राष्ट्रीयताओं और जनता के दुश्मन के रूप में वह उभर कर आयी है.’’

विश्व समाजवादी क्रांति को सफल बनाने के लक्ष्य से मार्क्सवादी-लेनिनवादी-माओवादी पार्टियों, ग्रुपों व शक्तियों को आज विश्वभर में संशोधनवाद और साम्राज्यवाद, वर्तमान में विश्व के जनता की दुश्मन बनी चीनी सामाजिक-साम्राज्यवाद व प्रतिक्रियावादी तत्वों को उखाड़ने के लिए मजदूर-किसान आदि सभी  उत्पीडि़त जनता और राष्ट्रीयताओं को संगठित कर क्रांतिकारी आंदोलन को आगे बढ़ाना होगा. ये दोनों कर्तव्य सर्वहारा की क्रांतिकारी अंतरराष्ट्रीयता से लैस कम्युनिस्ट पार्टियों व संगठनों के प्रधान कर्तव्य के रूप में रहेंगे. इन कर्तव्यों को पूरा करने के लिए चीनी सामाजिक-साम्राज्यवादी चरित्र का स्पष्ट रूप से भण्डाफोड़ करना होगा. विश्वभर में वर्ग-ध्रुवीकरण के मुताबिक असली दुश्मनों व मित्रें को अलग करने के लिए साम्राज्यवादी व्यवस्था में एक प्रधान प्रतिद्वंद्वी साम्राज्यवादी ताकत के रूप में चीन का उद्भव और उसकी विकास पर समझ बनाना होगा. विश्व में सभी मौलिक अंतरविरोध तीखे होने की क्रम और उनके ठोस परिस्थितियों को सही रूप से विश्लेषण करना होगा. इन विषयों को अध्ययन किये बिना वर्तमान साम्राज्यवादी व्यवस्था के अंदर अंतरविरोधों और आधुनिक संशोधनवादी राजनीति और आधुनिक युद्धों पर समझ नहीं बना सकते हैं और इनका सही रूप से आकलन नहीं कर सकते हैं.

लेनिन के यह सिद्धांत को 20वीं सदी ने साबित कर दिखाया कि साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था है, साम्राज्यवाद का मतलब ही है युद्ध,  वह मरणावस्था में चटपटा रही है, साम्राज्यवाद, समाजवादी क्रांति की पूर्वसंध्या है. साम्राज्यवाद का अपने मुनाफें के लिए दुनिया को विभाजन-पुनरविभाजन करने का उच्चतम रूप है युद्ध. वह विश्व-आधिपत्य के लिए संघर्षों में उतरते है. युद्ध के जरिए अधिक इजारेदारी मुनाफें कमाती है. जब तक साम्राज्यवाद अस्तित्व में रहेंगे तब तक युद्ध अनिवार्य है. वह नयी औपनिवेशिक तरीकों से अपने शोषण और उत्पीड़न को जारी रखने के लिए पिछडे़ इलाकों में विस्तार करता है. वह आज विश्व के उत्पीडि़त राष्ट्रीयताओं और जनता के लिए खून पूने वाला शैतान है. वह उन्हें गंभीर मुसीबतों में धकेल देता है. लेनिन ने बार-बार बताया है कि ‘‘आधुनिक युद्ध साम्राज्यवाद की ही देन है.’’ 20वीं सदी की पहली अर्धभाग में हुई दो विश्व युद्धों – विश्व पर अपने प्रभुत्व को कायम रखने और विश्व का विभाजन व पुनरविभाजन करने के लिए साम्राज्यवादियों के बीच हुए युद्ध ही हैं. माओ ने बताया है कि ‘‘साम्राज्यवादी विश्व युद्ध छिड़ जाना नयी आर्थिक व राजनीतिक संकटों से बाहर आने के लिए साम्राज्यवादी देशों की कोशिशों का ही परिणाम है.’’

अमेरीकी साम्राज्यवाद ने युद्धों के जरिए ही विश्व भर में सम्पदाओं को लूटा है. दो विश्व युद्धों में अमरीकी इजारेदार संस्थाओं ने बडे़ पैमाने पर फौजी साजो-सामान बेचकर अप्रत्याशित मुनाफें (wind-fall gains) कमायी थीं. इसके दौरान ही पूंजीवादी दुनिया में अमेरीका एक साम्राज्यवादी महाशक्ति आधिपत्यशाली-शक्ति के रूप में उभरी है. अमेरीकी साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था एक युद्ध अर्थव्यवस्था के रूप में तब्दील होने के कारण उसकी केन्द्रीकरण ज्यादातर युद्धों पर ही रही है इसलिए वह लगातार दुराक्रमणकारी युद्ध लड़ रही है. कोरिया, वियतनाम से लेकर अफगानिस्तान, इराक, लिबिया और सिरिया तक हम इसे देख सकते हैं इसलिए जब तक साम्राज्यवाद अस्तित्व में रहेगा तब तक आधुनिक युद्धों के लिए स्रोत भी बना रहेगा. युद्धों को उखाड़ने के लिए समूचे पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था को ही उखाड़ना होगा.

दूसरी विश्व युद्ध के बाद दो महाशक्तियों (अमरीका और तत्कालीन  सोवियत संघ) के बीच जारी शीत युद्ध (Cold War) के तहत विकसित और पिछडे़ देशों में हुई ज्यादातर युद्धों में उन्होंने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में हिस्सा लिए थे. इस तरह 1945-1990 के बीच एशिया, अफ्रीका और लातीन अमेरीकी देशों में कम से कम 125 स्थानीय युद्धों, गृहयुद्धों और हथियारबंद संघर्षों में चार करोड़ जनता मारे गये और करोड़ों जनता घायल हो गये. इसमें हुई आर्थिक नुकसान की आंकडे़ निकालने से वह दूसरी विश्व युद्ध के कुल आंकडे़ से बहुत अधिक होगी.

1990 की दशक से इस तरह की युद्ध बड़ी संख्या में हुई हैं. इस 21वीं सदी में अमेरीकी सेना द्वारा साजिशपूर्ण तरीके से हण्डूरस, युक्रेइन और मिस्र में संचालित तख्ता-पलटों में ब्राजिल में संसदीय षड़यंत्र, अमेरीकी गठजोड़ द्वारा 20 देशों में संचालित फौजी हस्तक्षेपों के कारण प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से 3 करोड़ 20 लाख मुसलमानों की मृत्यु हुई अफ्रीका में धर्मनिरपेक्ष व धनी देश लिबिया को ध्वस्त कर, एक समय में दुनिया में प्रवासियों को अधिकतम आश्रय देने वाली इस देश के आधे से ज्यादा आबादी को विस्थापित कर दिया गया. दुनिया भर में 100 करोड़ आबादी बहुत ही गरीबी और लम्बे समय से पौष्टिक आहार की कमी से जूझ रही है. साल में एक करोड़ 70 लाख लोग गरीबी से मर रही है, इसमें से आधा हिस्सा बच्चों की है. अमरीका अपनी देश में जनकल्याण को भी बाजू में रखकर, बढ़ती इज्रायल की खर्चों को पाटने के लिए लम्बी अवधि में 40 ट्रिलियन डालर की राशि देने, मुसलमानों के सफाया के लिए ट्रिलियनों (सैकड़ों हजार करोड़) डालर ‘आतंकवाद पर युद्ध’ (‘War on Terror’) के नाम पर खर्च करने के कारण प्रत्येक साल 17 लाख अमेरीकी जनता को मरना पड़ रहा है.

सिरिया में बशर अल असद सरकार को उखाड़ने के लिए पांच से ज्यादा वर्षों से अमेरीकी साम्राज्यवादियों के नेतृत्व में किये जा रहे हमलों के कारण पांच लाख लोग मारे गये. लगभग 20 लाख घायल हो गये. एक करोड़ 20 लाख जनता इस युद्ध के कारण विस्थापित होकर पड़ोसी देशों और यूरोप के देशों में शरण लिये हैं. शांति-सौहार्द तथा कई प्रचीन विश्वासों के साथ जी रही कबिलाई जनसमूहों और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व से लैस उस धर्मनिरपेक्ष समाज को तहस-नहस कर दिया गया है. पिछले डेढ़ दशक के दौरान अफगानिस्तान, इराक, लिबिया और सिरिया आदि देशों में जारी साम्राज्यवादी दुराक्रमणकारी युद्धों के कारण लाखों लोगों का मरना, घायल होना और पड़ोसी देशों तथा यूरोप के देशों में प्रवासियों के रूप में शरण लेना बढ़ रहा है.

साम्राज्यवादी व्यवस्था को बचाने और विश्व के जनता को धोखा देने के लिए साम्राज्यवादियों और संशोधनवादियों ने बदलती परिस्थितियों के मुताबिक सभी तरीकों से झूठी कहानियां सुनाते हैं ताकि लोगों को भ्रम में डाल सके. इन्हें जब का तब उजागर करते हुए हराना होगा. साम्राज्यवाद की आम राजनीतिक विश्वासघाती चरित्र इजारेदार पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था की स्वाभाविक राजनीति को ही प्रतिबिम्बित करती है. फासीवादी तानाशाही को लागू कर लोगों को दबाने के लिए साम्राज्यवाद अपने राज्ययन्त्र को असीमित ढंग से विस्तारित करती है. दमन जितनी अधिक होगी उतना ही प्रतिरोध मजबूत होगा. दिन ब दिन सचेत होने वाली उत्पीडि़त राष्ट्रीयताओं, मजदूर-किसान, निम्नपूंजीपति, आदि उत्पीडि़त लोगों ने साम्राज्यवाद के खिलाफ थके बिना क्रांतिकारी संघर्षें जारी रखे हुए हैं.

साम्राज्यवाद को इस दुनिया से उखाड़ कर समूचे विश्व में समाजवाद-साम्यवाद की स्थापना करने के लक्ष्य से हमारी पार्टी भाकपा (माओवादी) अपनी पूरी ताकत को झोंककर दुनिया के उत्पीडि़त राष्ट्रीयताओं और जनता को एकजुट करने के लिए प्रयास करती है और उन्हें नेतृत्व प्रदान करती है तथा उनसे कंधे से कंधे मिलाकर लड़ती है.

वर्तमान में चीन सामाजिक-साम्राज्यवाद के रूप में सामने आने की इन परिस्थितियों में समूचे विश्व में सर्वहारा वर्ग की पार्टियों को उसके मुताबिक  अपनी कार्यनीतियों को विकसित करने की जरूरत है. उनके आधार पर विश्व समाजवादी क्रांति में सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में उत्पीडि़त राष्ट्रीयताओं और जनता  को गोलबंद करने की जरूरत है इसलिए, एक समय की समाजवादी चीन किस तरह से पूंजीवादी देश के रूप में और साम्राज्यवादी ताकत के रूप में तब्दील हुई है – इसपर विवरण देते हुए, इसके खिलाफ लिए जाने वाले कार्यनीतियों को उल्लेख करते हुए हमारी पार्टी की केन्द्रीय कमेटी इस दस्तवेज को जारी कर रही है. इसे गहराई से अध्ययन करेंगे. मार्क्सवादी महान शिक्षक लेनिन द्वारा साम्राज्यवाद के विशेष चरित्र के बारे में सिखाये गये तीन विषयों और पांच मौलिक स्वाभाविक लक्षणों की रोशनी में चीनी सामाजिक-साम्राज्यवाद के विकास को विश्लेषण व संश्लेषण करने तथा मालेमा के सिद्धांत की रोशनी में सही वैज्ञानिक समझदारी बढ़ाने के लिए प्रयास करेंगे.

1. 1949-1976 के बीच समाजवादी क्रांति

1949 में चीन में नवजनवादी क्रांति संपन्न होने के बाद, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने माओ के मार्गदर्शन में ‘‘तीन सालों की तैयारी, दस सालों की योजनाबद्ध आर्थिक निर्माण’’ की नीति को अपनाया था. परिणामस्वरूप 1956 तक कृषि, हस्तशिल्प, पूंजीवादी उद्योग, व्यापार और उत्पादन साधनों पर निजी मालिकाना मौलिक रूप से खत्म किया गया था. कृषि में सहकारी पद्धति देशभर में अमल में आयी. चीन में प्राथमिक रूप से समाजवादी परिवर्तन पूरी हो गयी और समाजवादी समाज स्थापित हुई. चीनी नवजनवादी राज्य समाजवादी राज्य के रूप में तब्दील हो गयी. समाजवाद में मुनाफें के लिए नहीं, बल्कि समाज के जरूरतों को पूरा करने के लिए उत्पादन की योजनाएं बनाने की पद्धति जारी रही. इस दौरान समाजवादी चीन की कोई गृह व विदेश ऋण नहीं थी. यह विश्व समाजवादी क्रांति के विकास के लिए एक क्रांतिकारी मुक्तांचल की भूमिका निभा रही थी. सोवियत संघ में ख्रुश्चेव गुट द्वारा पूंजीवाद की पुनःस्थापना के बाद विश्व पूंजीवाद-साम्राज्यवादी बाजार व्यवस्था और दो महाशक्तियों (अमरीका और सोवियत संघ) के अधीन क्षेत्र से बाहर अकेली चीन ही स्वतंत्र रूप से बची हुई एकमात्र समाजवादी देश थी.

समाजवादी चीन में ‘‘स्वावलम्बन’’ की नीति पर आधारित होकर ‘‘महान अग्रवर्ती छलांग (Great Leap Forward),’’ ‘‘क्रांति पर पकड़ बनाएं, उत्पादन को बढ़ाएं’’ के आंदोलनें चलायी गयी थी. इसने इस समझदारी को सामने लाया कि कृषि और उद्योग (दोनों पर चलना) पर आधारित होकर समन्वय के साथ वर्ग संघर्ष, उत्पादन के लिए संघर्ष और वैज्ञानिक प्रयोगों के जरिए स्वतंत्र टेकनोलोजी और घरेलु स्रोतों पर निर्भर होकर आगे बढे़ं. कृषि और उद्योग क्षेत्रों में क्रांतिकारी बदलाव आया. मजदूरों और किसानों का जीवन स्तर उल्लेखनीय स्तर पर ऊंचा हुआ. बेरोजगारी को खत्म कर दिया गया. सभी के लिए काम गारंटी कर दिया गया.

एक दशक से अधिक समय तक चली महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति (जीपीसीआर) के दौरान चीनी औद्योगिक उत्पादन एक साल में औसतन 13-5 फीसदी बढ़ी. इस दौरान हुई औद्योगिकीकरण की गति बाकी किसी भी देश से अधिक थी. जर्मनी, जापान और सोवियत संघ के औद्योगिक विकास के दर को पार किया था. जीपीसीआर के दौरान संशोधनवादियों से आंशिक अवरोधों का सामना करने के बावजूद उत्पादन में विकास जारी रही. कोयला, रसायनों और बिजली उत्पादन में एक साल में औसतन 9-2 फीसदी वृद्धि दर जारी थी.

पूंजीवादी पथगामी ली शाओ-ची, लिन पियाओ और देघ जियाओ पिघ द्वारा सामने लायी गयी प्रतिक्रांतिकारी लाइन ‘उत्पादन शक्तियों’ की संशोधनवादी सिद्धांत[1] के खिलाफ भीषण वर्ग संघर्ष हुई. सैद्धांतिक क्षेत्र में मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद और संशोधनवाद के बीच संघर्ष ने धारदार और जटिल रूप ले लिया था. जीपीसीआर के दौरान शिक्षा, (समाज की) जनवादीकरण, उद्योग और कृषि क्षेत्रों में, पितृसत्तात्मक प्रभुत्व के खिलाफ लड़ने में, महिला-पुरुषों के बीच असमानताओं को हटाने में, स्वास्थ्य सेवा, संस्कृति और सैन्य क्षेत्रें में ‘‘नयी समाजवादी’’ पहलू समाने आयी थीं. इस तरह जीपीसीआर ने ली शाओ-ची और लिन पियाओं के दो बुर्जुआ मुख्यालयों को ध्वस्त किया था. 10 साल तक पूंजीवाद की पुनःस्थापना को रोक कर रखा था.

मार्क्सवादी महान शिक्षक माओ के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने समाजवाद के जरिए चीन में तीन दशकों के अंदर ही विश्व में उल्लेखनीय असमानता-विहीन समाज को निर्मित किया था. चीन के मजदूर, किसान, सैनिक, महिला, छात्र, बुद्धिजीवी, आदि उत्पीडि़त जनता मेहनत के साथ काम कर अपनी मातृभूमि को एक आधुनिक औद्योगिक देश के रूप में, प्रत्येक व्यक्ति को मुफ्त स्वास्थ्य सुविधा, मुफ्त शिक्षा मिलने वाली अत्यंत विकसित राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था के रूप में परिवर्तित कर दिया था. उसे विश्व में छठवीं सबसे बड़ी औद्योगिक उत्पादक शक्ति के रूप में विकसित किया था लेकिन बुर्जुआ वर्ग और प्रतिक्रियावादियों के अस्तित्व जारी रहने और उस तरह के तत्व उभरने का अवसर समाजवादी राज्य में भी मौजूद रहेंगे. इसके तहत चीन में उस समय माल का उत्पादन, पैसों द्वारा विनिमय, काम के मुताबिक वितरण यानी 8 श्रेणियों की वेतन असमानताएं अस्तित्व में रही थी. उखाड़े गये वर्गों के पास पैसे, कुछ उत्पादन के साधन भी रह गये थें. किसान और मध्यम वर्ग के पास लघु सम्पत्ति रही थी. यही अनिवार्य रूप से छोटे किस्म के उत्पादन का आधार है. यह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और पूंजीपति वर्ग को बडे़ पैमाने पर उभरने का अवसर देता है. शारीरिक श्रम और बौद्धिक श्रम के बीच, मजदूरों और किसानों के बीच, शहरों और गांवों के बीच, कृषि और उद्योग के बीच, विभिन्न इलाकों के बीच, राष्ट्रीयताओं के बीच असमानाएं रहेगी.

समाजवादी आर्थिक बुनियाद को तोड़ने का अवसर देने वाली पुरानी समाज की शोषणकारी संस्कृति, रीति-रिवाज और आदतें अधिरचना में जारी रहेगी. बाहर से साम्राज्यवादियों, प्रतिक्रियावादियों, विश्वासघातियों और संशोधनवादियों के बीच एक ‘पवित्र गठजोड़’ बनती है और इससे भी उक्त चीजों के लिए सभी तरह के समर्थन मिलती है. इन पूंजीवादी पहलुओं की वृद्धि के कारण नए पूंजीवादी तत्व उभर कर आती हैं इसलिए समाजवादी आर्थिक बुनियाद के मुताबिक अधिरचना और उत्पादन शक्तियों को विकसित करने के लिए उत्पादन संबंधों का लगातार क्रांतिकारीकरण करने की जरूरत है. इसके जरिए बुर्जुआ वर्ग के लिए अपनी अस्तित्व जारी रखने का अवसर व नए बुर्जुआ वर्ग उभरने का अवसर नहीं मिल पाने की परिस्थितियों को पैदा करना सर्वहारा अधिनायकत्व के बहुत ही महत्वपूर्ण कर्तव्यों में से एक है. एक लम्बे ऐतिहासिक चरण में समाज की क्रम विकास के नियमों के मुताबिक समाज की परिवर्तन के बाद ही इस तरह की परिस्थितियां अस्तित्व में आएगी. यह कोई व्यक्ति की इच्छा-अनिच्छाओं पर निर्भर नहीं होगी.

ठीक इन परिस्थितियों को ही इस्तेमाल कर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में सत्ता पर काबिज मुठ्ठीभर पूंजीवादी पथगामी पूंजीवाद की पुनःस्थापना के लिए योजनाबद्ध तरीके से उतरे थे. उन्होंने ‘उत्पादन शक्तियों’ का संशोधनवादी सिद्धांत को गुप्त और खुले तौर पर लागू किया. इनकी साजिशों को भण्डाफोड़ करते हुए, समाजवाद में वर्ग संघर्ष को जारी रखने, कम्युनिस्ट लक्ष्य हासिल करने तक क्रांति को जारी रखने की माओ की शिक्षा और ‘‘पूंजीवादी मुख्यालय को ध्वस्त करो’’ की उनका आह्वान के मुताबिक 1966-76 के बीच 10 साल तक सीपीसी के नेतृत्व में महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति जारी रहा. इसके बावजूद कामरेड माओ के निधन के बाद हुआ-देघ के नेतृत्व में पूंजीवादी पथगामियों ने प्रतिक्रांतिकारी तख्ता-पलट के दौरान सत्ता हथिया लिया और सांस्कृतिक क्रांति के सफलाओं को पलटने में सफल हुए. इस तरीके से सैद्धांतिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में पूंजीवाद को पुनःस्थापित किया. इन्होंने तीन सालों में ही कम्युनिस्ट पार्टी को संशोधानवादी पार्टी के रूप में, सर्वहारा अधिनायकत्व को बुर्जुआ तानाशाही के रूप में, समाजवादी देश को पूंजीवादी देश के रूप में पुनःस्थापित कर अपने लक्ष्य को हासिल करने में कामयाब हुए. इस तरह चीन में पूंजीवाद पुनःस्थापित होने से विश्व सर्वहारा वर्ग को फिर एक बार ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा.

2. संशोधनवादी चीन में पूंजीवाद को पुनःस्थापित करने के बाद की स्थिति

माओ के निधन के बाद संशोधनवादी और गद्दार हुआ-देघ के विश्वासघाती गुट ने प्रतिक्रांतिकारी साजिश के द्वारा लाल झण्डा को लहराते हुए ही कुटिलता से पार्टी में अपनी स्थिति को मजबूत किया. वे अपने घिनौना साजिश को अमल करने के लिए योजनाबद्ध ढंग से सीढ़ी दर सीढ़ी आगे बढे़ थे. ली शाओ-ची  और लिन पियाओ के द्वारा सामने लायी गयी प्रतिक्रांतिकारी लाइन का ही निरंतरता है हुआ-देघ का लाइन. इस तरह उन्होंने खुद को पार्टी में छिपे कट्टर पूंजीवादी पथगामियों के रूप में साबित कर दिखाया. कामरेड माओ त्से तुघ ने कहा : ‘‘संशोधनवाद सत्ता पर बैठने का मतलब ही है बुर्जुआ वर्ग सत्ता पर काबिज होना.’’ ‘‘वर्तमान में सोवियत संघ बड़े बुर्जुआ वर्ग की तानाशाही, जर्मन फासीवादी तरह की तानाशाही, हिटलर तरह की तानाशाही जैसे बुर्जुआ वर्ग की तानाशाही के मातहत है.’’ इन गद्दारों को ध्यान में रखकर ही जीपीसीआर के समय में माओ ने कहा, ‘‘पार्टी, सरकार, सेना और विभिन्न सांस्कृतिक क्षेत्रों में घुसे बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधि हैं प्रतिक्रांतिकारी संशोधनवादी. परस्थितियां परिपक्व होने के बाद वे सर्वहारा अधिनायकत्व को बुर्जुआ तानाशाही के रूप में तब्दील कर देते हैं.’’

इन संशोधनवादियों ने पहले जनता को सैद्धांतिक/वैचारिक तौर पर निरस्त्र करने के लिए क्रांतिकारी विचार के नकाब पहने थे. कपट मार्ग से पूंजीवाद की पुनःस्थापना के मुताबिक जनता को वैचारिक तौर पर ढालने के कर्तव्य लिये थे. इसके लिए देघ गुट ने साम्राज्यवादियों और सोवियत सामाजिक-साम्राज्यवादियों तथा देशी-विदेशी प्रतिक्रियावादियों को इस्तेमाल किये थे. माओ के निर्देशन में सीपीसी के नेतृत्व में जनता के दिमाग में जड़ जमाए हुए सभी क्रांतिकारी मूल्यों का खुले तौर पर निंदा करते हुए, वैचारिक, सैद्धांतिक और राजनीतिक रूप से दिवालिया होने वाली संशोधनवादी गुट ने सिलसिलेवार कई निबंध (लेख) प्रकाशित किया. इन्होंने जीपीसीआर को ऐसा कहकर उसकी प्रत्येक पहलू को पूरी तौर पर नकार दिया कि वह दुस्साहसिक थी. राजनीति, क्रांति, वर्ग संघर्ष, सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक समानता, समाज का जनवादीकरण करना, स्वावलम्बन, सर्वहारा अधिनायकत्व – इन सभी मूल्यों को पूरे तौर पर नकार कर मौजूदा समाजवादी समाज को ध्वस्त किया था. इन विश्वासघातियों ने माओ पर कई गलत इल्जाम लगाये थे. उक्त निबंधों में देघ संशोधनवादी गुट ने मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद के विकल्प के रूप में व्यवहारिकतावाद (pragmatism)[2] को सामने लाये थे. देघ के नेतृत्व में पूंजीवादी पथगामियों ने माओ अनुयायियों के प्रतिष्ठा पर चोट पहुंचाते हुए, साजिश कर उन्हें हिरासत में लेने, कुचलने, मारने, फांसी पर लटकाने द्वारा रुकावटों को हटाते हुए अपनी स्थिति को मजबूत की थी.

राजनीतिक स्थिरता, अनुशासन, आर्थिक विकास, प्रोत्साहन, निपुणता के बारे में, सुधारों की जरूरत के बारे में, जिसके लिए विदेशी टेकनोलोजी और पूंजी लाने हेतु दरवाजा खोलने के बारे प्रचार करते हुए देघ गुट ने कई निबंध प्रकाशित किये थे. इससे बडे़ पैमाने पर पूंजीवाद की पुनःस्थापना के लिए रास्ता  सुगम हो गया था. देघ गुट उत्पादन संबंधों से संबंधित सभी पहलुओं में बुर्जुआ अधिकारों का विस्तारित करने द्वारा पूंजीवाद को पुनःस्थापित की थी. देघ के शब्दों में कहना है तो, ‘‘सुधारीकरण हो या दरवाजा खोलने की नीति हो, कोई गलत काम नहीं है. चीन फिर से कभी दरवाजा बंद करने वाली देश के रूप में बदलना नहीं चाहिए. नेतृत्व की कोशिश इतना तक सीमित होना चाहिए कि योजनाबद्ध तरीके से समाजवादी अर्थव्यवस्था और बाजार अर्थव्यवस्था के बीच समन्वय हासिल हो सके. इस नीति में कोई बदलाव नहीं होगी.’’ इससे उत्पादन की सामाजिकीकरण करने, निजी उत्पादन करने और इस्तेमाल करने संबंधित व्यवस्था के बीच अंतरविरोध फिर से प्रधान अंतरविरोध के रूप में सामने आ सकता है. इस अंतरविरोध निम्नांकित परिणामों की ओर ले जाती है :

1) इस अंतरविरोध के कारण निजी निर्माताओं के बीच अंतरविरोध और प्रतिस्पर्धा अस्तित्व में रहेगी. इसके साथ गरीब और भी गरीब, धनी और भी धनी हो जायेंगे. यह समाज को और ध्रुवीकरण की ओर ले जाएगी. धनी लोग पूंजीपतियों का रूप लेंगे. वे जनता की मेहनत को लूटने द्वारा मुनाफें कमाएंगे. गरीब लोग उजड़ती मजदूरों के रूप में बेइज्जत होकर अपनी गुजर-बसर के लिए अपनी श्रम-शक्ति को बेचने पर मजबूर होंगे. इस तरह बाजार अर्थव्यवस्था के अंदर ही पूंजीवाद के रूप में परिवर्तित होने की रूझान कार्यान्वित होंगे.

2) उत्पादन को सामाजिकीकरण करने (पूंजीवाद को विकसित करने) के लिए वस्तुगत तौर पर श्रम-शक्ति और उत्पादन साधन बाधाहीन रूप से मिलना होगा. बाजार अर्थव्यवस्था को निर्माण करने का मतलब ही है श्रम-शक्ति को खरीदना-बेचना. ‘‘पूंजी’’ लगाने द्वारा ही उत्पादन साधन को खरीद सकेंगे. इस तरह, उत्पादन की सामाजिकीकरण द्वारा खड़ा करने वाली बाजार व्यवस्था अनिवार्य रूप से पूंजीवादी बाजार अर्थव्यवस्था ही होगी. यह कभी भी ‘‘समाजवादी अर्थव्यवस्था’’ नहीं है और नहीं होगी.

इसलिए, ‘‘बाजार अर्थव्यवस्था’’ का निर्माण के लिए ‘‘सुधारीकरण’’ करने के बारे में कहने का मतलब ही है पूंजीवाद को विकसित करने के लिए  ‘‘सुधारीकरण’’ करने के बारे में कहना. इन ‘‘सुधारों’’ का लक्ष्य ‘‘पूंजीवाद को चीनी विशेषताओं के साथ’’ विकसित करने के सिवा और कुछ नहीं है. चीन में 1978 से 1989 तक समय-समय पर सुधारों को लागू किया गया. इन्हें पहली पीढ़ी की उदारवादी आर्थिक सुधार कहा गया था. 1990 दशक के बाद लागू किये गये सुधारों को दूसरी पीढ़ी की उदारवादी आर्थिक सुधार कहा जाता हैं.

पहली पीढ़ी के उदारवादी आर्थिक सुधार :

चीन में 1979 में कृषि सुधारों को शुरू किया गया था. 1984 में शहरी सुधारों को प्रारम्भ किया गया. विदेशी पूंजी का ‘‘रास्ता खोल दिया गया.’’ चीन 1980 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई-एम-एफ-) और विश्व बैंक में शामिल हुई. चीनी संशोधनवादी अपने वर्ग हितों के लिए विश्व पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था में शामिल हुए. चीन में सरकारी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को समय-समय पर निजी इजारेदार पूंजीवादी तरीकों में सुधार लिया गया. परिणामस्वरूप, निजीकरणों की उभार, बडे़ पैमाने पर मजदूरों को कंपनियों से निकाल देना (ले-ऑफ करना), निजी पूंजी का उभार हुआ. संशोधनवादी चीन में फिर से मार्क्स द्वारा विश्लेषित पूंजीवादी ‘‘मूल्य नियम’’ को लागू किया था. यानी, देश की अर्थव्यवस्था बाजार में उपलब्ध श्रम-शक्ति को बेचे जाने पर निभर्र व्यवस्था के रूप में तब्दील हो गयी. यह मजदूरों के शोषण, पूंजी का संचयन, उसके द्वारा होने वाले अन्य प्रभावों और परिणामों की ओर धकेल दिया था. विदेशी कंपनियां  चीन में बेरोकटोक प्रवेश किये. 1982 में 26,00,000 निजी संस्थाएं मौजूद थी, जबकि 1983 तक उसकी संख्या 58,00,000 तक पहुंच गयी. 20 साल की अवधि में विश्व बैंक ने चीन को रेल मार्गों के विस्तार के लिए 220 मिलीयन डालर3 की ऋण दी थी.

समाजवादी चीन में कम्यून व्यवस्था बहुत मजबूत थी. इसको जड़ से उखाड़ने के लिए संशोधनवादी नेतृत्व ने पहले राजनीतिक तौर पर मौलिक बदलावें लाये थे. इसके जरिए पूंजीवाद के विकास में छलांग हासिल करने के लिए ये आधार सिद्ध हुई. कृषि में सुधारों को लागू करने के तहत समाजवाद की दौर में उच्चतम स्तर तक पहुंची सामूहिकीकरण को उलट कर दिया गया. इसके तहत जमीन पर, इसके साथ-साथ मवेशों और कृषि उपकरणों पर सामूहिक मालिकाना रद्द कर ठेका पद्धति शुरू कर दिया गया. क्रमशः जमीन को निजी सम्पत्ति के रूप में तब्दील कर कृषि क्षेत्र में पूंजीवाद को पुनःस्थापित कर दिया गया. कम्यूनों की सामूहिक मालिकाना के मातहत रहे उद्योग, व्यापार, खनन संचालन- शिक्षा, स्वास्थ्य, बच्चों-वृद्धों की कल्याण, मनोरंजन, आदि के संचालन में भी समाजवाद की स्थान पर पूंजीवादी तरीकों को अमल में लाया गया.

कृषि में मुख्य रूप से निम्नलिखित आर्थिक सुधारों को घोषित किया गया था :

1) कृषि कम्यूनों और कृषि सहकारी संगठनों को रद्द करना. हर एक किसान परिवार से कृषि उत्पादनों को खरीदने के लिए खुद राज्य ही ठेकें लेती है। गांव/बस्ती के आधार पर ठेका जिम्मेदारी लेने वाली व्यवस्था के नाम पर निजी कृषि को फिर से लाया गया.

2) किसान परिवार अपने ठेकों में खुद अनुमोदित निश्चित उत्पादन के कोटें (हिस्सें) छोड़कर, अतिरिक्त उत्पादन जो भी हो उसे स्थानीय बाजारों में बेरोकटोक बेच सकते हैं. सरकार ने धान-दलहन-तिलहनों के विषय में मुक्त व्यापार पर व्यापक प्रचार किया, जिसके कारण निजी धान व्यापारी उभर कर आये.

3) कम्यूनों के कर्तव्यों में से – सरकार के सेवाओं के लिए (मुक्त) श्रमिकों को उपलब्ध कराने की अधिकार सहित उनके कई अधिकारों को हटा दिया गया. बस्ती या गांव सत्ता का नाम बदल दिया गया. इससे, उत्पादन को बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन उपलब्ध कराने हेतु, कृषि उत्पादों का समर्थन मूल्य 20 फीसदी तक बढ़ा दिया गया. इन सभी कारणों से, ग्रामीण इलाकों में जमीन के इस्तेमाल में, प्राप्त मवेशियों और कृषि उपकरणों पर मालिकाना में असमानताएं बढ़ी है. अप्रैल 1988 में सुधार किये गये कानून के मुताबिक जमीन को इस्तेमाल करने के अधिकार को बदला जा सकता है किसानों को बाजार के उठा-पटक के सामने छोड़ दिया गया है. इसके कारण लाखों किसानों की रोजगार चली गयी है. बेरोजगार ‘स्वेच्छा’ से मजदूर बन गये हैं. एक आकलन के मुताबिक, उस समय ग्रामीण इलाकों में 15 करोड़ से ज्यादा अतिरिक्त ‘मुक्त’ श्रमिक थे. इन शक्तियों को ग्रामीण कंपनियों, निजी कंपनियों और देश-विदेशों के साझा उपक्रमों को विकसित करने के लिए इस्तेमाल किया गया है. चीनी स्थानीय सरकारें पूंजी संचयन करने के लिए किसानों पर कर लगाती हैं.

जहां तक शहरी सुधारों का सवाल है, इसमें तीन प्रधान नीतियां शामिल हैं :

1) दक्षिण चीन में कई समुद्र तटीय राज्यों (province) और शहरों को ‘विशेष औद्योगिक जोनों’ (Special Enterprise Zones-SEZs) के रूप में अधीकृत किया गया. इन जोनों के अंदर छोटे और मझौले किस्म के निजी व्यापारों पर, विदेश व्यापार और वाणिज्यों पर जारी प्रतिबंधों को हटा दिया गया.

2) राज्य के जरिए एकीकृत आर्थिक योजना बनाना बंद हो गया। कंपनियों को संचालन करने में प्रधान लक्ष्य मुनाफा ही है. कंपनियों के बीच संबंध एकीकृत सरकार की योजना के मुताबिक आपस में मदद देने और समन्वय के साथ समाजवादी संबंधों के रूप में नहीं, बल्कि मुक्त बाजार में प्रतिस्पर्धा और वैषम्य सहित पूंजीवादी संबंध के रूप में तब्दील हो गयी है.

3) सबसे बहुत महत्वपूर्ण पहलू है, मुख्य रूप से सरकारी वित्त और योजना को पुनःस्थापित किया गया है.

देघ संशोधनवादी सरकार द्वारा निजी क्षेत्र को इस्तेमाल करने, उस पर प्रतिबंध लगाने, उसे परिवर्तित करने और क्रमशः उखाड़ने की नीति को नहीं, बल्कि बिना किसी नियम-उसूल की नीति को लागू की गयी है. राज्य के मालिकाना में (यानी समूचे चीनी जनता के मालिकाना में) आर्थिक व्यवस्था में लम्बे समय तक बहुत ही निर्णायक भूमिका निभानवाले उद्योगों का विघटन कर दिया गया. मालिकाना को प्रबंधन से (प्रबंध करने की अधिकार से) अलग कर दिया गया. प्रतिस्पर्धा में योग्य प्रबंधकों को चयनित किए गए. उन्हीं को पूरी जिम्मेदारियां दी गयी. इनकी आर्थिक कार्य-प्रदर्शन पर आधारित होकर उन्हें या तो पुरस्कृत करते हैं या उनकी सम्पत्ति को बढ़ाने-घटाने सहित जुर्माना भी लगाते हैं. समूची जनता को मालिकाना अधिकारों से वंचित किया गया. राज्य के मालिकाना के अंदर होने वाले छोटे कंपनियों को समूहों और व्यक्तियों को बेचना शुरू कर दिया गया है. कुछ कंपनियों को पुराने मालिकों को भी सौंप दिया गया है. चीनी बाजार व्यवस्था में जैसे कि देघ ने बताया, ‘‘विनिमय माल के लिए एक माल बाजार, उत्पादन नीति ही नहीं, बल्कि उत्पादन के लिए जरूरी चीजों – उदाहरण के लिए, वित्त, श्रमिक, टेकनोलोजी, सूचना, रियल एस्टेट (भूमि भवन बिक्री व्यापार) के लिए बाजारें रहेगी.’’ संशोधनवादियों ने पहली पीढ़ी की सुधारों के दौरान ही (1979-89) निम्नलिखित वितरण तरीकों को लागू किए थेः जिन लोग बॉण्ड (ऋण-पत्र) खरीदते हैं उनको सूद मिलेगी- शेयर के हिस्सेदारों को डिविडेंड्स मिलेंगे जोखिम उठानेवाले प्रबंधकों को अतिरिक्त आय मिलेगी- काम में निश्चित संख्या में मजदूरों को लगाने वाले निजी कंपनियों के मालिकों को कुछ भी मेहनत किये बिना आमदनी होती है.

इन पहली पीढ़ी के सुधारों के दौरान चीन को लूटने के लिए साम्राज्यवादियों को आह्वान करने हेतु ‘‘बाहरी दुनिया के लिए (चीन का) दरवाजा पूरी तरह खोल देने’’ की नीति अपनाई गयी. विदेशी कंपनियां अपनी मर्जी से सुविधाएं प्राप्त कर पायी है. विदेशी वाणिज्य पर राज्य की इजारेदारी खत्म कर दिया गया है. विदेशी व्यापार को बेरोकटोक संचालित करने हेतु कंपनियों के लिए राज्य द्वारा अनुमति दी गयी है. चीन, साम्राज्यवादियों के माल के लिए बाजार के रूप में बदल जाने, उनके पूंजी के लिए दरवाजा खोलने द्वारा वह विश्व साम्राज्यवादी बाजार के अभिन्न अंग के रूप में तब्दील हो गयी है. विदेशी कंपनियों को अपने मुनाफें बढ़ाने के लिए उन्हें विशेष अधिकार दिया गया है. उदाहरण के लिए, अपनी मर्जी से वेतन और तनख्वाह को निर्णय करने का अधिकार तथा मजदूरों की छंटनी का (retrench) अधिकार. 1994 तक 1,86,000 कंपनियों में 150 अरब डालर 4 विदेशी पूंजी लगाने के लिए अनुमति दी गयी.

मुनाफे में हिस्सेदारी समझौते[5] मुनाफें के लिए स्थानीय सरकारी अधिकारियों और कंपनी प्रबंधकों के तलाश को बढ़ावा दिया है. उदाहरण के लिए ‘‘विशेष औद्योगिक जोनों (SEZ)’’ के बारे में यही हुआ है। एस-ई-जेडों में व्यापार-वाणिज्य पर प्रतिबंधों को हटाने के वजह से ताइवान, हांगकांग, अन्य पूर्वी एशिया इलाकों के चीनी व्यापारी वर्ग छोटे रकम में पूंजी को स्वदेश भेजने के वजह से निजी क्षेत्र में छोटे स्तर पर व्यापार और उद्योग तेजी से वृद्धि हुई है. इससे निजी क्षेत्र में मजदूरों के लिए मांग बढ़ी है. इस मांग को – केन्द्रीय सरकारी क्षेत्र द्वारा उत्पादित विनिर्माण माल के वजह से और कृषि सुधारों के वजह से बेरोजगार हुए किसानों से बने श्रमिकों द्वारा पूरा कर लिया गया है. इससे चीनी व्यापारी वर्ग द्वारा आर्जित मुनाफें को इस्तेमाल करने का रास्ता और अवसर – दोनों मिलने के कारण पूंजीवादी उत्पादन की विस्तार के लिए सहयोग मिला है. परिणामस्वरूप, शहरी सहकारिता संगठनों, बस्ती और गांव के कंपनियों (Town
and Village Enterprises-TVE) के उत्पादन में बडे़ पैमाने पर वृद्धि हुई है और पूंजीवादी आर्थिक विकास के लिए रास्ता सुगम बनाया है लेकिन यह तेजी से नियंत्रण से बाहर हो जाना शुरू हुआ है.

निजी व्यापारी वर्ग के लिए अप्रात्याशित मुनाफें और राजस्व हिस्से के समझौतें के कारण केन्द्रीय सरकार का बजट में भारी घाटा हुआ है. सरकारी बजट घाटा बढ़ने के साथ-साथ सुधारों की मार नहीं झेलने वाली बैंकिंग क्षेत्र के जरिए आसानी से कर्ज मिलने के वजह से मुद्रास्फिती में वृद्धि और विदेशी व्यापार में घाटा हुआ है. इस बढ़ती मुद्रास्फिती की संकट के जवाब में सरकार ने केन्द्रीय सरकारी क्षेत्र में पूंजी को वापस लेने के जरिए संतुलन रखने की कोशिश की है. इसने सरकारी पूंजी की बचत के लिए ही नहीं, बल्कि बजट घाटा को कम करने के लिए भी सहयोग दिया है. इसके कारण केन्द्रीय सरकारी कंपनियों में योजनाबद्ध उत्पादन के कोटें (भाग) कम हो गये है. इसके बाद उनके उत्पादन का अधिक हिस्सा बाजार में बेचने के लिए अनुमति दे दिया है.  इसके कारण गैरसरकारी क्षेत्रों को बेचे जाने वाली भारी उद्योगों के उत्पादों का बाजार मूल्य घट गया है. इन आर्थिक असमतुल्यताओं को ठीक करने के लिए और कुछ उदारवादी सुधारें लागू की गयी हैं.

सर्वप्रथम, केन्द्रीय सरकारी संस्थानों को अधिक मुनाफाखोर ((profit oriented) व्यापार संस्थानों के रूप में तब्दील करने के लिए उनकी व्यवस्थापना में सुधारें लागू की गयी हैं. अपने कंपनियां संचालित करने में कंपनी प्रबंधकों और निर्देशकों के अधिकारों को बढ़ाया गया है. कंपनियों को संचालित करने में पार्टी सचिवों की राजनीतिक हस्तक्षेप कम किया गया है. मुनाफें के हिस्सेदारी समझौतों को शुरू कर उत्पादन और पूंजी पर संबंधित मालिकों द्वारा निर्णय लेने के अधिकार को बढ़ाया गया है. ठोस रूप से चयनित कुछ केन्द्रीय सरकारी संस्थानों के प्रबंधकों ने राष्ट्रीय वेतन प्रणाली को रद्द कर, उत्पादन के मुताबिक वेतन देने की पद्धति को प्रारंभ किया हैं. आजीवन रोजगार गारंटी को आधिकारिक तौर पर रद्द कर, उसके स्थान पर समयबद्ध ठेके में रोजगार देने की पद्धति को आरंभ किए हैं. दूसरा विषय, सरकारी कोषों पर नियंत्रण कम करने की कोशिशें की गयी है. उसके स्थान पर प्रत्येक निर्दिष्ट स्थानीय सरकारी अंग के साथ उसके राजस्व और मुनाफें के हिस्से के बारे में बातचीत कर, एक मानक (standard) विश्वसनीय कर व्यवस्था लागू किया गया है. कुल राजस्व और मुनाफें के हिस्से को निश्चित मात्र में नहीं, बल्कि मुनाफें के अनुपात में वसूल करते हैं. अंत में बैंकिंग व्यवस्था को और केन्द्रीकृत आधार पर पुनरव्यवस्थित किया गया है.

सर्वहारा अधिनायकत्व के मातहत समाजवादी चीन एक माल अर्थव्यवस्था और आठ स्तर पर वर्गीकृत वेतन व्यवस्था को अमल करती थी. आठ स्तर पर वर्गीकृत वेतनों में असमानताएं उल्लेखनीय स्तर पर नहीं था। इसके बावजूद, तत्कालीन समाजवादी सरकार की नीति क्रमशः उन असमानताओं को घटाने की तरफ रही थी. वेतनों में उक्त असमानताएं होने के बावजूद, मजदूरों के लिए रोजगार सुरक्षा, सस्ते किराये में निवास, मुफ्रत स्वास्थ्य सुरक्षा, गर्भवती माताओं -प्रसूतियों के लिए आर्थिक सहायता, मजदूरों के लिए हरजाना, विभिन्न तरह के बीमा सुविधा, पेन्शन, मनोरंजन सुविधाएं, स्कूल आदि कई सुविधाएं होते थे. समाजवादी चीन (1949-76) में बेरोजगार, भिखारी, झोपड़पट्टियां नहीं थे. उसके बाद सत्ता हथियाने वाले प्रतिक्रांतिकारी तत्वों द्वारा ‘चीनी लक्षणों के साथ विशेष समाजवादी व्यवस्था’ के नाम पर गलत सुधारों को लागू किये. इससे पूंजीवादी व्यवस्था से संबंधित जनता को हानि पहुंचाने वाली सभी गलत पहलू चीनी समाज के अंदर बहुत हद तक घुस गयी हैं. इस तरह पूंजीवाद की पुनःस्थापना के बाद मजदूरों के लिए मौजूदा सामाजिक सुविधाओं को क्रमशः रद्द किया गया है. ये हानिकारक पहलू जीवन से संबंधित प्रत्येक क्षेत्र में स्पष्ट रूप से दिखाई दिया हैं. गरीबी, बेरोजगारी, अवैध गोदमों, भ्रष्टाचार, तस्करी, वेश्यावृत्ति, कन्या-भ्रूणहत्या, मादकद्रव्यों की तस्करी, महिलाओं और बच्चों की खरीद-फरोख्त और तस्करी, चोरी, महिलाओं पर अत्याचार और हत्याएं, सौंदर्य प्रतियोगिता – इस तरह सभी तरह के हानिकारक पहलू उभर कर आयी है.

अधिक कृषि उत्पादन हेतु प्रोत्साहन देने के लिए समर्थन मूल्य बढ़ाने की कोशिशें की गयी, लेकिन इससे शहरी इलाकों में मुद्रास्फीति से सामने आने वाली समस्याएं और गंभीर हुई. सरकार द्वारा खाद्य सब्सिडी देने पर सरकारी घाटा और अधिक होता है या खाद्य पदार्थों का मूल्य बढ़ने से, रोजमर्रा के चीजों की कीमतें भी बढ़ कर पहले से ही मुश्किलों का सामना कर रहे मजदूर वर्ग में असंतुष्टि बढ़ाती है. 1980 के दशक के अंत तक ही बढ़ती आर्थिक, राजनीतिक समस्याओं के कारण उदारवादी सुधारों का ज्वार कम होता गया.

चीन में पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के विकास के साथ-साथ, एक छोटी निजी पूंजीपति वर्ग का उद्भव शुरू हुआ है। 1990 में चीन में 98,000 निजी संस्थान थे. उनकी कुल पूंजी 4-5 अरब युवान6 थी। यह निजी पूंजीपति वर्ग शासक वर्ग का हिस्सा नहीं है। उसके पास राजसत्ता नहीं है. वह अपने द्वारा नियुक्त किए गए श्रमिकों का शोषण कर मुनाफें कमाती है. नौकरशाही सरकारी पूंजीपति वर्ग और निजी पूंजीपति वर्ग के बीच अंतरविरोध के वजह से निजी पूंजीपति वर्ग सभी के लिए ‘मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था’ की ओर परिवर्तन हासिल करने के लक्ष्य से राजनीतिक तौर पर ‘जनवाद को लागू करो’ का नारा सामने लाये हैं. यानी, ‘मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था’ के लिए कानूनी व्यवस्था और तानाशाही सरकार से सुरक्षा, निजी सम्पत्ति पर स्पष्ट अधिकार और बहु-दलीय व्यवस्था जरूरी होती हैं.

नौकरशाही सरकारी पूंजीपति वर्ग सैकड़ों अरब युवान की निजी सम्पत्ति जमा कर रखे हैं. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी शासक वर्ग के तौर पर सरकारी सम्पत्ति पर सभी तरह के नियंत्रण उनके पास रखे हैं. नौकरशाही सरकारी पूंजीपति वर्ग इजारेदार मुनाफा हासिल करने के लिए अपनी राजसत्ता का इस्तेमाल कर रहा है. वह निजी पूंजीपति वर्ग के हितों को नियंत्रण कर रहा है इसलिए निजी पूंजीपति वर्ग ने जनवाद की मांग को सामने लाया है. संशोधनवादी चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के एक छोटे (अल्पसंख्यक) समूह ने इस आंदोलन को समर्थन दिया है. देघ के बहुमत वाली नेतृत्व ने इस आंदोलन का विरोध कर कुचल दिया. इसका परिणाम ही है 1989 के तियनानमेन स्क्वेयर (चौराहा) की घटना.[7] उसके उपरान्त उन सुधारों को सामने लाने में प्रधान भूमिका निभाने वाले जाओ जियाघ को पद से हटा दिया गया. सुधारों की प्रक्रिया अचानक ढीली पड़ गयी.

संशोधनवादी देघ के नेतृत्व में पूंजीवाद में चीन परिवर्तित होने के बाद सभी उद्योग पहले राज्य (सरकारी) के मालिकाना में ही रही थीं इसलिए चीनी अर्थव्यवस्था पूरी तरह राज्य की (सरकारी) पूंजीवाद के रूप में ही रह गयी थी. चीन में लागू किए गए ‘सुधारों’ के तहत राज्य के इजारेदार पूंजीवाद आंशिक तौर पर निजी इजारेदार पूंजीवाद के रूप में परिर्तित हुई है. यानी चीन आंशिक तौर पर पश्चिमी शैली8 की निजी इजारेदार पूंजीवाद में तब्दील होने के वजह से वहां के पूंजीवादी-साम्राज्यवाद एक हद तक अमेरीका, यूरोप और जापान के तरह दिखाई देती है. सोवियत संघ में पूंजीवाद की पुनःस्थापना के बाद राज्य के इजारेदार पूंजीवाद को ही लागू किया गया था.

सोवियत संघ में ख्रुश्चेव और ब्रेजनेव के विश्वासघाती गुट ने षड्यंत्रकारी तरीके से पार्टी और सरकार के सभी अधिकारों को कब्जा करने के बाद रूसी पूंजीपति वर्ग का विशेषाधिकारप्राप्त तबका (bourgeois privileged stratum) अपने राजनीतिक और आर्थिक अधिकार को बडे़ पैमाने पर विस्तारित किया था. पूंजीपति वर्ग के विशेषाधिकारप्राप्त इस तबके ने पार्टी, सरकार और सेना में, आर्थिक, सांस्कृतिक क्षेत्रें में अपना प्रभुत्व मजबूत किया था. पूंजीपति वर्ग का विशेषाधिकारप्राप्त तबका पूरी तौर पर राज्ययंत्र पर और सामाजिक सम्पदा पर अपना-अपना दबदबा कायम रखने वाला नौकरशाही व इजारेदार पूंजीपति वर्ग के रूप में परिवर्तित हुआ. समाजवादी मालिकाना को पूंजीवादी पथगामियों के मालिकाना के रूप में, समाजवादी अर्थव्यवस्था को पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के रूप में, सरकारी इजारेदारी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के रूप में परिवर्तित करने के लिए, इस नये नौकरशाही व इजारेदार पूंजीपति वर्ग अपने अधीनस्थ राजसत्ता को इस्तेमाल किया.

अकेली पार्टी की सरकारी आधिपत्य जारी :

चीनी ‘लाल’ नौकरशाही पूंजीपति वर्ग की एकता और विशिष्टता – दोनों ने 1989 के तियनानमेन स्क्वेयर की उभार को कुचलने में केन्द्रीय भूमिका निभायी है. इससे यह फिर एक बार साबित हुआ कि पूंजीवाद स्वाभाविक तौर पर ही जनवाद के खिलाफ है, वह सामाजिक दमनकारी व्यवस्था के रूप में ही रहेगी. क्रूर हिंसा, बल प्रयोग के जरिए जन आंदोलनों को कुचल कर ही श्रमजीवी जनता पर पूंजीवादी फासीवादी दमनकारी व्यवस्था को थोप दिया और पूंजीवादी विकास के लिए रास्ता सुगम बना दिया.

दूसरी पीढ़ी के सुधार :

तियनानमेन स्क्वेयर की घटनाएं और पूर्वी ब्लॉक (समूह) (पूर्वी यूरोप और सोवियत संघ में सभी पूंजीपतियों के लिए मुक्त बाजार व्यवस्था खोलने के लिए येल्तसिन द्वारा सुधारें लागू की गयी थी) के विघटन हो जाने के कारण संशोधनवादी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को धक्का लगा. इससे वह पहली पीढ़ी के सुधारों के वजह से ढीले पडे़ पार्टी-सरकारी व्यवस्था पर केन्द्रीय नियंत्रण को पुनःस्थापित की. सीपीसी की नेतृत्व ने सरकारी बजट वितरण पर अपनी नियंत्रण फिर से हासिल की. वित्तीय और आर्थिक स्थिरता पुनःस्थापित की गयी. देघ ने 1992 की गर्मियों में दक्षिण चीन में मौजूद एसईजेडों का भ्रमण करने के बाद दूसरी पीढ़ी के ‘सुधारों’ को लागू किया था. इन सुधारों में पहला प्रधान पहलू है एसईजेडों को और कुछ शहरों और राज्यों में यथासंभव विस्तारित करना. इन सुधारों ने चीन से बाहर (पूर्वी यूरोप और सोवियत संघ में) आये परिणामों का मौका न देकर, उनसे अलग तरीके से, चीनी विशेषताओं के साथ नयी दिशा अपनायी हैं.

1990 के शुरूआत तक, चीन में सस्ती और अनुकूल श्रम-शक्ति को इस्तेमाल करने का मौका मिलने पर मिलने वाले व्यापक मुनाफें के अवसर के लिए विदेशी पूंजी इंतजार में थी. यानी, चीनी सरकारी क्षेत्र के कंपनियों में घुसने के अवसर के लिए एमएनसीयां आस लगाकर बैठी थीं. इसके साथ-साथ चीन न सिर्फ उजड़ती-श्रम में निपुणता हासिल कर पायी है, बल्कि समाजवादी अर्थव्यवस्था में, पहली पीढ़ी के सुधारों के दौरान पूंजी संचयित होने के परिणामस्वरूप, वह पूर्वी एशिया के अन्य अर्थव्यवस्थाओं से सापेक्षिक तौर पर मजबूत रही है. व्यापक औद्योगिक बुनियाद होने के कारण चीन के पास महत्वपूर्ण स्थानीय इनपूट[9] और सेवाएं उपलब्ध कराने की अनुकूलताएं हैं. औद्योगिक उत्पादन हेतु सहयोग देने के लिए सापेक्षिक तौर पर विकसित हुई सामाजिक और आर्थिक मौलिक सुविधाएं (infrastructure) भी चीन के पास है.

लेकिन इन दूसरी पीढ़ी के सुधारों के दौरान चीन में नियमों के अंदर और बाहर रहने वाली व्यापार व्यवस्था पार्टी और सरकार व्यवस्था के साथ नजदीकी संबंध रखती थी. विदेशी पूंजी के लिए अवसर कम ही थी. विदेशी पूंजी को बडे़ पैमाने पर मुनाफें कमाना है तो, चीनी सरकार के साथ समझौतें करना पड़ता था. अपनी अर्थव्यवस्था मजबूत होने के कारण चीनी सरकार प्रमुख बहुराष्ट्रीय कार्पोरेटों के साथ मजबूती से सौदे करने की स्थिति में रहती है. उनपर शर्तें लगाती है. जब विदेशी पूंजी सीधा वास्तविक उत्पादक पूंजी का रूप लेती है, यानी, मुख्य रूप से प्लैंटें, यंत्र सामग्री उत्पादन करने की कंपनियां जैसे निर्दिष्ट रूपों में होने से ही चीन में विदेशी पूंजी को प्रवेश करने की अनुमति देते हैं.

भारी स्तर के पूंजी के संबध में आम तौर पर सरकारी कार्पोरेटों और बहुराष्ट्रीय कार्पोरेटों के बीच साझा उपक्रमों का तरीका लागू किया जाता है. आम तौर पर सरकार इन्हें नियंत्रण कर अपना हित हासिल करता है. इस तरह के साझा उपक्रमों में बहुराष्ट्रीय कंपनियां आधुनिक प्लैंटों और यंत्र सामग्री बनाने की कंपनियों में आधुनिक टेकनोलोजी, उसे इस्तेमाल करने की तकनीकी अनुभव और प्रबंधन के कुशलताएं उपलब्ध करवाती हैं. वे उसमें उत्पादित माल को विश्व बाजारों में बेचने के लिए जरूरी बाजार की सुविधा, बेचने की सुविधा और वितरण तंत्र भी उपलब्ध करवाती है. इसके बदले चीनी सरकार मजदूरों के  आवास, रोड, कम्युनिकेशन सुविधा, चीनी सरकार के रोजगार कार्यालय द्वारा अक्सर भेजी जाने वाली सस्ती और अनुकूल श्रम-शक्ति आदि सामाजिक, आर्थिक मौलिक सुविधाएं उपलब्ध करवाती है. वही इन साझा उपक्रमों से मिलने वाले मुनाफें सरकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियां आपस में बांटती हैं.

1992 तक, चीन में विदेशी पूंजी मुख्य रूप से छोटे और मंझौले स्तर के पूंजी के रूप में हांगकांग और ताइवानों से, कुछ कम मात्र में जापान से मिलती थी. इन दूसरे पीढ़ी के सुधारों के तहत सरकार ने पूंजी के लिए नयी पद्धति से अवसर उपलब्ध कराने का दृष्टिकोण अपनाया और एक से अधिक क्षेत्रें में भारी स्तर पर पूंजी के लिए अनुमति देना शुरू हुआ. इसके परिणामस्वरूप, 1992 में एक अरब अमेरीकी डालर से कुछ अधिक मात्र में पहुंची विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई-) 1994 तक 50 अरब अमेरीकी डालर से अधिक हो गयी. एफडीआई के इस उभार के साथ निर्यात-आधारित (export orientated) कारखाना (manufacturing) उद्योगों की भी वृद्धि हुई.

इस एफडीआई की बाढ़ ने चीनी सरकार के कई हितों को फौरन सिद्ध किया. पहला विषय, सरकारी खजाने में साझा उपक्रमों से मुनाफें का प्रवाह बढ़ने के क्रम में सरकार के लिए अपने बजट के घाटे को पाटना संभव हो पाया. दूसरा विषय, एफडीआई के कारण निर्यातों में बढ़ोत्तरी होने के क्रम में चीनी विदेशी व्यापार घाटा व्यापार बचत के रूप में परिवर्तित हुआ. इस बचत ने सरकार को विदेशी मुद्रा भण्डार उपलब्ध करवाया. तीसरा विषय, इन साझा उपक्रमों के जरिए रोजगार उपलब्ध करवाया गया और सरकारी तंत्र के उच्च स्तर पर व्यापार गतिविधियों को विस्तारित करवाया गया. इससे केन्द्रीय सरकार के मालिकाना में संचालित और दिन ब दिन पतन की ओर अग्रसर उद्योगों को पुनःस्थापित किया गया, उनके लिए और भी अनुकूल परिस्थितियां पैदा की गयी.

केन्द्रीय सरकारी उद्योगों की पुनःस्थापना :

1980 के दशक में पहली पीढ़ी के सुधारों के द्वारा छोटे और मझौले स्तर के उद्योगों और कृषि पर ध्यान केन्द्रित किया गया. शहरी सहकारी संगठनों, बस्ती और गांव के कंपनियां (TVEs), निजी व्यापार और उद्योग विस्तारित होते जाने से केन्द्रीय सरकारी मालिकाना में मौजूद बड़ी-भारी स्तर के उद्योगों के लिए पूंजी कम होने लगी. इससे उनके विकास में कमी आयी. दूसरी पीढ़ी के सुधारों में इस केन्द्रीय सरकारी क्षेत्र पर ध्यान दिया गया. 1997 में सीपीसी की 15वीं कांग्रेस में घोषणा की गयी कि समूचे केन्द्रीय सरकारी क्षेत्र को पुनरव्यवस्थित किया जाय. इस का लक्ष्य था सरकारी क्षेत्र के प्रसिद्ध संस्थानों (State Owned
Enterprises-SOEs) को, विशेषकर, मुनाफाखोर (profit-oriented) कार्पोरेशनों के रूप में परिवर्तित करवाना.

इस पुनरव्यवस्थीकरण कार्यक्रम में पहली कार्रवाई थी, सरकारी मालिकाना के अंदर मौजूद छोटे संस्थानों को मुख्य रूप से प्रबंधन को या मजदूरों के श्रम-शक्ति को खरीदने के रूप में निजीकरण करना. दूसरी कार्रवाई थी, सरकार द्वारा संचालित बाकी संस्थानों को पश्चिमी शैली के साझा उपक्रम (ज्वाइंट स्टॉक) कंपनियों के रूप में परिवर्तित करवाना. लेकिन कुछ शेयरों को चीन में नए तौर पर स्थापित किये गये स्टॉक मार्केट में निजी निवेशकों के लिए बेचने के बावजूद, अधिकतर शेयरें ‘बेच नहीं सकने वाली’ (non-tradable) शेयरों के रूप में थी. आम तौर पर विभिन्न सरकारी विभाग के पास ही ये शेयरें रहती थी.

इसके परिणामस्वरूप, चीन में लगभग सभी भारी स्तर के उद्योगों में अधिकतर शेयरें सरकारी कंपनियों के पास होने वाली शेयरों के रूप में ही परिवर्तित हुई. पश्चिमी कार्पोरेशनों के तरह मालिकाना और प्रबंधन को अलग-अलग करने की उक्त संस्थागत सुधारों द्वारा विदेशी पूंजी के जरिए साझा उपक्रमों को स्थापित करना बहुत आसान कर दिया गया है. इसके द्वारा टेकनोलोजी को विकसित करने में, कंपनियों का आधुनिकीकरण करने का अवसर मिला है. इन सब ने तीसरी कार्रवाई के रूप में लागू किए गए कार्पोरेटीकरण प्रक्रिया के लिए रास्ता सुगम बनाया है. इसके तहत सरकारी क्षेत्र के संस्थान (कंपनियां), विशेषकर, मुनाफाखोर संस्थानों के रूप में परिवर्तित हुई हैं. इसके परिणामस्वरूप, मजदूर वर्ग के लिए मिलने वाली सामाजिक सुविधाओं को तिलांजलि दिया गया है. यानी, सरकार ने चीन में श्रमिक जनता (मजूदर-किसान) द्वारा क्रांति और समाजवादी निर्माण के जरिए हासिल किए गए/विकसित किए गए सामाजिक सुविधाओं को रद्द की है. एक शब्द में कहा जाए तो, चीन में व्यापक मजदूर वर्ग पर यह पूंजीपतियों का प्रत्यक्ष हमला है.

इस निर्णय के कारण निजीकरण का उभार, बडे़ पैमाने पर मजदूरों की छंटनी, निजी पूंजी में वृद्धि हुई है. चीनी सरकार द्वारा संचालित आर्थिक संस्थानों में मूल्य सूत्र को लागू करने के तहत निर्दयता से बडे़ पैमाने पर चटनी को लागू की है. सीपीसी के आधिकारिक आंकडे़ के मुताबिक, 1998 से 2002 के बीच सरकार द्वारा संचालित आर्थिक संस्थानों/कंपनियों से 2 करोड़ 60 लाख से ज्यादा संख्या में मजदूरों को नौकरी से निकाल दिया गया. विश्व बाजार में होने वाली स्पर्धा में बराबर मुकाबला करने के लायक निर्यात करने के लिए कंपनियों की आधुनिकीकरण यानी पुराने यंत्र को निकालकर आधुनिक यंत्र लगाने द्वारा बडे़ पैमाने पर मजदूरों की छंटनी की गयी है.

चीनी मजदूर वर्ग पर और एक हमला यह हुआ कि सरकारी क्षेत्र के संस्थानों में आजीवन नौकरी पाने की अधिकार को रद्द कर, ठेका मजदूर व्यवस्था[10] को लाया गया है. इससे मजदूरों को अपने ठेके के बारे में व्यक्तिगत तौर पर प्रबंधन के पास जाकर प्रत्येक वर्ष नवीनीकरण करना पड़ता है. इसके विरोध में लम्बे समय तक मजदूरों ने प्रतिरोध किया, इसके बावजूद सरकारी नौकरशाही तंत्र फासीवादी दमन के साथ-साथ मजदूरों के बीच फूट डालकर इस नीति को लागू करने में कामयाब हुई है. चीनी मजदूरों पर सरकारी हमले का और एक उदाहरण – पीस-रेट वेतन को लागू करना. इसके मुताबिक मजदूर उनके द्वारा किये गये काम पर निर्भर होकर अलग-अलग वेतन पाते हैं.

इस पुनरव्यवस्थीकरण कार्यक्रम के तहत चीनी सरकारी क्षेत्र को उल्लेखनीय स्तर पर नियंत्रित किया गया है. इससे चीनी उत्पादन अधिकतर निजी क्षेत्र में ही होना शुरू हो गया है. निजी क्षेत्र ने देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में लगभग 70 फीसदी कब्जा किया है. 1998-2010 के बीच पूरे औद्योगिक सम्पत्ति में सरकारी क्षेत्र के संस्थानों का हिस्सा 68.8 से 42.4 फीसदी तक घटा दिया गया.

उसी दौरान उन कंपनियों में कर्मचारियों की संख्या 60.5 फीसदी से 19.4 फीसदी तक घटा दिया गया था. चीनी निर्यातों में सरकारी क्षेत्र के संस्थानों का हिस्सा भी 1997 से 2010 तक 57 फीसदी से 15 फीसदी तक घटा दिया गया था. 1990 के दशक में हजारों सरकारी क्षेत्र के कंपनियों को दिवालिया करवाने, कई संस्थानों को मिलाकर बडे़ इकाइयों के रूप में जोड़ने द्वारा समूचे देश में इन कंपनियों की संख्या कम हो गयी थी. इस बदलाव को प्रोत्साहन देते हुए विश्व बैंक ने व्याख्या की कि ‘‘कई सरकारी क्षेत्र के संस्थानों का कार्पोरेटीकरण किया गया, पूरी तरह पुनरव्यवस्थित किया गया (श्रम वर्गीकरण के साथ). हम आशा करते हैं कि वे मुनाफे के आधार पर काम करेंगे … परिणामस्वरूप, चीनी सरकारी क्षेत्र के संस्थानों के मुनाफें में वृद्धि आई.’’ इस परिवर्तन के कारण सरकारी पूंजीवादी क्षेत्र और निजी पूंजीवादी क्षेत्र – दोनों ने उल्लेखनीय तौर पर अपने मुनाफें के दर का इजाफा किया था.

चीनी अर्थव्यवस्था में सरकारी पूंजीवादी क्षेत्र का हिस्सा कम हो जाने के बावजूद, वह अभी भी एक मुख्य भूमिका निभा रही है. सरकारी क्षेत्र के संस्थानों में निजी संस्थानों द्वारा लगायी गयी स्थिर संपत्ति की पूंजी लगभग 35 फीसदी तक रहती है. विश्व में 500 प्रमुख कंपनियों में दो तिहाई हिस्सा सरकारी क्षेत्र के चीनी कंपनियों का ही है. बैंकों, बीमा कंपनियों सहित सरकारी क्षेत्र के बहुत बड़े संस्थानों के शेयर (shares) सरकारी संपत्ति का प्रबंधन और प्रशासन आयोग (State-owned Assets Supervision and Administration Commission- SASAC) नामक एक केन्द्रीय आयोग के देखरेख में नियंत्रित किया जा रहा है.

नये पूंजीपति वर्ग :

चीन में पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के विकास के साथ-साथ, पूंजीवादी तरीके से श्रमिकों के शोषण-उत्पीड़िन पर आधारित होकर संशोधनवादी शासक वर्गों की शासन जारी रही. यह सरकारी नौकरशाही वर्ग क्रमशः नौकरशाही इजारेदार पूंजीपति वर्ग और निजी इजारेदार पूंजीपति वर्ग के रूप में परिवर्तित हुई है. पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के विकास के लिए सरकारी संपत्ति या जनता की सामूहिक संपत्ति, विशेषकर, निजी संपत्ति के रूप में अवश्य परिवर्तन होना जरूरी नहीं है क्योंकि, पूंजीवाद के विकास के क्रम में शासक वर्गों के सदस्य सरकारी संपत्ति (जनता की सामूहिक संपत्ति) को कपटतापूर्ण तरीकों से हड़पने द्वारा निजी संपत्ति इकट्ठा करते हैं. इस तरह इकट्ठा करने में उन्हें रुकावट पैदा करने वाले कोई नहीं है.

संशोधनवादी चीन में पहली और दूसरी पीढ़ी के ‘‘सुधारों’’ के दौरान शासक वर्गों के सदस्य सरकारी संपत्ति (जनता की मालिकाना में रही संपत्ति) को कपटतापूर्ण तरीके से हड़पकर निजी संपत्ति इकट्ठा करने की मुख्य पद्धति निम्न प्रकार थी (चीन में पूंजीवाद का विकास-वर्ग संघर्ष – ली मिघक्वी) :

1) नौकरशाही तरीके से बेचना-खरीदना : चीनी आधिकारिक जानकारियों के आंकड़ों के मुताबिक, ‘‘मूल्यों में असमानता,’’ ‘‘सूद में असमानता,’’ ‘‘विनिमय मूल्यों में असमानता’’ (यानी आधिकारिक और बाजार के मूल्यों, सूद और विनिमय मूल्यों के बीच असमानता) और अन्य चीज सब मिलकर प्रत्येक वर्ष 400 बिलियन युवान से ज्यादा राशि होगी. इसमें से 40 फीसदी शासक वर्ग में शामिल लोगों और उनसे विभिन्न संबंध रखने वालों के जेबों में जाती है.

2) नौकरशाही सट्टेबाजी : ‘‘नौकरशाही सट्टेबाजी (speculation)’’ में मामूली माल या सेवाओं के बजाय, रियल एस्टेट शेयरों और स्टॉक शेयरों के बिक्री-खरीददारी होती है. स्टॉक शेयर काल्पनिक पूंजी के समान है. दरअसल, इसका मूल्य उत्पादन द्वारा होने वाले मूल्य से कई गुणा ज्यादा रहता है. आम तौर पर जमीन का कोई मूल्य नहीं होता है, बावजूद वह माल के रूप में तब्दील होने के कारण जमीन पर करने वाले सौदों में उसकी मूल्य लाखों या अरबों युवानों तक पहुंचती है. इस तरह, नौकरशाही बिक्री और खरीददारी से नौकरशाही सट्टेबाजी द्वारा संपत्ति को इकट्ठा करने की गति और स्तर ज्यादा होती है.

3) नौकरशाही संस्थानों द्वारा संचालित व्यापार : 1992 में देश में नयी कंपनियों की कुल संख्या 2,20,000 तक पहुंची थी. यह 1991 से 88.9 फीसदी ज्यादा थी. नयी कंपनियां अधिकतर सरकारी संस्थानों द्वारा संचालित होती है. सरकारी संस्थान अपने व्यापारों में 60 फीसदी से अधिक खुद संचालित करती थी.

जनमुक्ति सेना (पीएलए) भी विलासी होटलें खोली है. पीएलए के मातहत कंपनियां बाजार के लिए बडे़ पैमाने पर रिफ्रिजेरेटरों, पियानों, टीवी सेटों और यात्री विमानों का उत्पादन करती हैं. शेनजेन एसईजेड (Special Enterprises Zone) में सेना द्वारा संचालित लगभग 400 कंपनियों का बिक्री कार्यालय होता था.

इस तरह नौकरशाही इजारेदार व्यापार के जरिए मामूली से कहीं ज्यादा इजारेदार मुनाफें हासिल करती हैं.

4) दलाल पूंजी : चीनी शासक वर्ग में से कुछ लोगों का सीधा विदेशी पूंजी के साथ सांठगांठ है. उन्होंने चीनी जनता का शोषण करने के लिए विदेशी पूंजी का साथ दिये हैं. विदेशी पूंजी के जरिए इकट्ठे किये गये अत्याधिक मुनाफें में हिस्से हासिल किये हैं. चीन में व्यापार पर नियंत्रण और पूंजी पर विभिन्न प्रतिबंधों से बचाने के खातिर विदेशी पूंजीपतियों ने कर से दूर रहने वाले रास्तें ढू़ंढ़ते हैं. सस्ती या मुफ्त जमीन और अन्य हितों को हासिल करना चाहते हैं. इसके लिए शासक वर्ग की सत्ता को इस्तेमाल करने के काबिल कुछ लोगों का मदद उन्हें चाहिए इसलिए, वे शासक वर्ग के कुछ लोगों को दलाल पूंजीपतियों के रूप में तब्दील करना चाहते हैं. सरकारी संस्थानों के उच्च पद सीपीसी में उच्च स्तर (प्रमुखों) के नेताओं के बेटे और बेटियों के आधिपत्य में होते हैं. इनका अमेरीका, यूरोप और जापान के बहुत बडे़ बैंकों और बहुराष्ट्रीय कार्पोरेशनों के साथ गुप्त रूप से सांठगांठ होता हैं. पार्टी, सरकार और सरकारी संस्थानों से बिना कोई अंतर के बहुत ही घनिष्ठता से जुड़े रहते हैं.

शासक वर्ग बडे़ पैमाने पर सरकारी संपत्ति को कपटतापूर्ण तरीके से हड़पने के कारण सरकारी आमदनी (आय) और संपदा को गंभीर नुकसान हुई है. यह सरकारी वित्तीय संकट के मुख्य कारणों में से एक है. वित्तीय संकट से उभरने के लिए जरूर आय को बढ़ाना होगा और खर्च घटाना होगा. आय को कैसे बढ़ाना है ? विनिमय माल के मूल्यों को बढ़ाने के द्वारा. खर्च कैसे घटाना है ? सामाजिक कल्याणकारी कार्यों में कटौती करने के सिवा और कोई चारा नहीं है.

सरकारी संपत्ति को कपटतापूर्ण तरीके से हड़प कर, यानी अंतिम विश्लेषण में, व्यापक श्रमिक जनता को लूट कर मुट्ठीभर लोगों ने असाधारण संपदाओं को इकट्ठा किया हैं. 1993 तक चीनी लोगों में से तीन फीसदी लोग (तीन करोड़ लोग) धनी वर्ग से संबंधित थे. 1986 से 1993 तक प्रत्येक वर्ष 100 अरब युवानों की सरकारी संपत्ति शासक वर्गों की निजी संपत्ति के रूप में तब्दील हुई. यानी उन्होंने 1986-1993 के बीच 800 अरब युवान की निजी संपत्ति इकट्ठा किया हैं. वे सभी नौकरशाही पूंजीपति वर्ग के सदस्य हैं. इस तरह चीनी लुटेरे शासक वर्ग ने एक नयी नौकरशाही इजारेदार पूंजीपति वर्ग और निजी इजारेदार पूंजीपति वर्ग को पैदा किया है. यानी नौकरशाही इजारेदार पूंजी और निजी इजारेदार पूंजी चीनी समाज में आधिपत्य में रही है.

व्यापार की उदारीकरण – डब्ल्युटीओ में भर्ती :

चीन में सरकारी क्षेत्र का पुनरव्यवस्थीकरण करने के दौरान 1990 के अंत में उभरी पूर्वी एशिया संकट सिंगापुर, मलेशिया, इंडोनेशिया और थाईलैंड देशों को नष्ट कर रही थी. यानी 1990 के शुरूआत में अमेरीका, यूरोप और जापानी साम्राज्यवादी शक्तियां अपने वर्ग हितों के मुताबिक ‘कम्युनिज्म’ के खिलाफ दीवार खडे़ करने के लिए पूर्वी एशियाई टाइगरों के रूप में जाने जानेवाले देशों में पूंजीवाद को लागू करने का प्रयोग किए थे. पूर्वी एशियाई टाइगरों ने अपने देशों में ऋण के रूप में आने वाली पूंजी को अनुमति देने के लिए पूंजी पर अपने प्रतिबंधों को ढीला किया. पश्चिमी बैंकों और निवेश निधियों ने पूर्वी एशिया के ‘अद्भुत अर्थव्यवस्थाओं’ में व्यापक तौर पर मुनाफें कमाने की आशा के साथ पूर्वी एशिया के उपक्रमों में शेयरों को खरीदने के लिए होड़ में शामिल हुए. शुरूआत में इस विदेशी वित्तीय पूंजी की बाढ़ ने पूर्वी एशियाई टाइगरों में असली पूंजी की संचयन को तेज करने में मदद दी. पूर्वी एशिया में आकस्मिक वृद्धि का रास्ता खोला.

लेकिन श्रम-शक्ति की कमी, वृद्धि में गिरावट के साथ-साथ असली पूंजी के संचयन के दर में मंदी शुरू हो गयी. उस तरह के निवेशों ने धीरे-धीरे सट्टा का स्वभाव हासिल कर लिया. 1997 में इन सट्टे निवेशों पर प्रत्याशित मुनाफें नहीं आये. इससे विदेशी वित्तीय पूंजी उन देशों से बाहर चली गयी. अपनी निवेश पूंजी को वापस फिर अमेरीकी डालरों में बदलने की होड़ के साथ-साथ पूंजी एशियाई टाइगरों की राष्ट्रीय मुद्राएं अमेरीकी डालर के सामने किसी भी सूरत पर टिक नहीं पायी और एक के बाद एक पतन होती चली गयी. 1997-98 की पूर्वी एशिया संकट का प्रभाव समूचे विश्व में फैल गया. विश्व वित्तीय पूंजी इस तरह की अर्थव्यवस्थाओं में निवेश करने के लिए डरने के समय में ही दक्षिणी अमेरीका और रूस में गंभीर वित्तीय संकटें पैदा हो गयी थी.

पूर्वी एशियाई टाइगरों के पूंजी संचयन के साथ घनिष्ट संबंध होने के बावजूद चीन बड़ी मुश्किलों का सामना किए बिना इस आर्थिक बाढ़ से बाहर आ पायी. सरकार द्वारा अपनी अर्थव्यवस्था को नियंत्रण में रखना ही इसका प्रधान कारण है. यानी, चीनी सरकार अपनी मजबूत आर्थिक आधार के असली उत्पादक पूंजी निवेश के साथ विदेश निवेश को बांधकर रखने में सफल हुई है. चीनी अधिकारियों ने पूंजी प्रवाह का देश के अंदर आने-बाहर जाने पर मजबूत नियंत्रण लागू किए हैं. जब वित्तीय संबंधित गंभीर घबराहट पैदा हुई तब विदेशी पूंजीपति अपने निवेशों को वापस ले जाने की स्थिति, यानी चीन से बाहर ले जाने की स्थिति नहीं पैदा हुई. इस तरह चीनी सरकार पूर्वी एशिया संकट से पैदा हुई वित्तीय संबंधित घबराहट को नियंत्रण करने में सफल हुई.

लेकिन पूर्वी एशिया संकट के तुरंत बाद चीन के अंदर आने वाली विदेशी पूंजी में कमी आई. इससे निर्यात-आधारित पूंजी संचयन संबंधित समस्या पैदा हुई. चीन 2000 में ‘‘विश्व में प्रवेश करो’’ (गो ग्लोबल) नीति की शुरूआत करने के साथ-साथ इसने अपनी एफ-डी-आई- निवेशों को वृद्धि करने में मदद दी. इसीलिए चीन कुछ नुकसानदेह (अनुकूलताओं से ज्यादा प्रतिकूलताएं होने वाली) शर्तों से भी सहमति जताते हुए चीन दिसम्बर 2001 में डब्ल्युटीओ (World Trade Organisation) में शामिल हुई. इसके परिणास्वरूप, उससे आयात किए गए चीजों पर लगने वाले शुल्क (tariff) विश्व में, मुख्य तौर पर किसी अन्य ‘विकासशील’ देशों से बहुत कम, औसतन 40 फीसदी से 6 फीसदी कटौती कर 34 फीसदी कर दी. इसी दौरान निर्यात सब्सिडियों को रद्द की गयी. इस आर्थिक उदारीकरण नीति के जरिए चीन में पिछड़ी हुई कृषि क्षेत्र में समस्याएं पैदा हुई.

इसके बावजूद चीन अपने निर्यातों के खिलाफ अमेरीका द्वारा लिये जाने वाले कार्रवाइयों को सीमित करने के लिए डब्ल्युटीओ की सदस्यता ने उसे (चीन को) मदद दी इसलिए व्यापार और उद्योगों के उदारीकरण और नियंत्रण से बाहर कर देने संबंधी कई विषयों में डब्ल्युटीओ के समझौतों में अनुमोदित विषयों और आपसी समझदारियों को चीनी सरकार ने ज्यादातर लागू किया है. डब्ल्युटीओ की व्यवस्था में शामिल होने द्वारा ऐसा लगता है कि एक तरह से अमेरीकी आधिपत्य वाली नयी विश्व व्यवस्था को चीन ने अनुमोदन की. अमेरीकी अर्थव्यवस्था डॉटकाम पतन11 के बाद विदेशी पूंजी चीन में प्रवेश कर उसके निर्यात-आधारित (export-led) वृद्धि को तेज किया.

2004 में चीन विश्व में सबसे अधिक मात्र में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश पाने वाली देश बन गयी. ये सब चीन शासक वर्ग ने एक सोची-समझी योजना के तहत अमेरीका और अन्य मुख्य साम्राज्यवादी शक्तियों को पार करने की समझदारी से ही किया है. खेल में नियमों पर सहमति जताने के बाद, चीन उन्हें अपने अनुकूल बनाते हुए आगे बढ़ता रहा. चीनी सरकार और पूंजी संचयन के बीच अनुकूल रूप में तब्दील हुआ यह संबंध चीन को एक विश्व आर्थिक शक्ति के रूप में परिवर्तित करवाने की एक आवश्यक पहली शर्त है. यह परिवर्तन चीनी सरकारी नियंत्रण को बढ़ाता है. चीन में मौजूद व्यापक श्रमिकों के श्रम-शक्ति को बाहर निकालने और विश्व पूंजी संचयन में उसे जोड़ने के लिए विदेशी पूंजी को निर्देशित करती है. इस तरह विश्व पूंजीवाद के अंदर चीन शामिल होने से पूंजी संचयन को बड़ा प्रोत्साहन मिला है.

3. चीन विश्व में एक मुख्य आर्थिक शक्ति के रूप में उभरी है

1990 के शुरूआत में लागू किए गए दूसरी पीढ़ी के सुधारों के तहत चीनी सरकार ने पूंजीवाद को तेज किया है. इसके साथ चीनी अर्थव्यवस्था में तेजी से वृद्धि हुई है. चीनी अर्थव्यवस्था तेजी से वृद्धि होने में मुख्य रूप से एक पहलू से सहयोग मिला कि संपदाओं पर सरकारी मालिकाना होना. इसलिए वह अपने मुनाफें सरकारी पूंजी या एफडीआई या निर्यातकों के लिए सब्सिडियां उपलब्ध कराने हेतु इस्तेमाल करती है, ताकि परोक्ष रूप से निवेश करने के लिए प्रोत्साहन मिल सके.

एफडीआई की निर्यात-आधारित वृद्धि को ज्यादातर बढ़ाने की सफल चीनी रणनीति के लिए सरकारी पूंजी, एफडीआई और निर्यात – तीनों तीन खम्भें साबित हुई है. जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) के आधार पर दुनिया के कुल उत्पादन में चीनी हिस्सा विगत दो दशकों में व्यापक तौर पर वृद्धि हुई है. चीन ने 1991 में विश्व उत्पादन का 4.1 फीसदी उत्पादन किया है. 2011 में यह 14.3 फीसदी तक वृद्धि हुई है. इसने चीन को विश्व में दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में तब्दील कर दिया है. उसी समय में यानी 2011 में अमेरीकी हिस्सा 24.1 से 19.1 फीसदी तक घट गयी है.

पूंजीवादी मूल्य उत्पन्न करने वाला केन्द्रीय क्षेत्र – औद्योगिक कारखाना क्षेत्र में चीनी अर्थव्यवस्था समूचे विश्व में ही पहले स्थान पर पहुंच गयी है. इस तरह, चीन एक औद्योगिक माल निर्माता के रूप में 110 सालों से अमेरीका द्वारा बरकरार रखे गये स्थान को कब्जा कर लिया है. 2011 तक, विश्व में पांचवा हिस्सा यानी 19.8 फीसदी उत्पादन चीन से आयी, जबकि 19.4 फीसदी अमेरीकी अर्थव्यवस्था से है. यानी, चीन विश्व में ही सबसे बडे़ निर्यातक के रूप में उभर कर आयी.

वह विश्व का 50 फीसदी केमरा, 30 फीसदी एयर कंडिशनर और टेलिविजन सेट, 25 फीसदी वॉशिंग मशीन और लगभग 20 फीसदी रेफ्रिजेरेटरों का उत्पादन कर रही है. 2010 तक बाजार की मांग से 20 फीसदी से अधिक कारों का उत्पादन किया था. 2003 में चीन का कुल निर्यात उसकी जीडीपी के 33 फीसदी तक पहुंच गयी थी. इसका मूल्य 438.87 अरब डालर था. यह 1996 में सिर्फ 18 फीसदी थी. चीनी विदेशी कंपनियों ने 240.34 अरब डालर का माल निर्यात किया है. यह कुल कंपनियों की निर्यातों में 62.4 फीसदी है.

औद्योगिक माल के निर्यातों का मूल्य 403.56 अरब डालर है. कुल निर्यातों में यह 92 फीसदी है. इसमें 110 अरब डालर से ज्यादा मूल्य वाली निर्यात हाईटेक उत्पादन हैं. प्रॉसेसिंग व्यापार का मूल्य 241.85 अरब डालर है. कुल निर्यातों में यह 60 फीसदी है.

चीनी आर्थिक शक्ति इसमें प्रतिबिम्बित होती है कि विश्व वित्तीय बाजार में उसकी ऋण कम है. यानी उसकी विदेशी ऋण सिर्फ 9.3 फीसदी है. उसकी कुल राष्ट्रीय आय में उसकी ऋण सेवाओं (सूद आदि) का हिस्सा 2.5 फीसदी है. अन्य साम्राज्यवादी देशों द्वारा चीन की वित्तीय पूंजी से ऋण लिया गया है. इसलिए जैसाकि कुछ माओवादियों का विचार है उस तरह, चीन किसी भी सूरत पर साम्राज्यवादी देशों पर निर्भर होकर अपनी अस्तित्व बरकरार रखने वाली एक पराधीन देश के रूप में, उनका शोषण झेलने वाली अर्धऔपनिवेशिक देश के रूप में नहीं है. इसके विपरीत, निस्संदेह यह बता सकते हैं कि 2014 तक वह एक नयी सामाजिक-साम्राज्यवादी देश के रूप में परिवर्तित हो गयी है.

चीन में मजदूर वर्ग को बहुत अधिक शोषण करने के कारण ही वह साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में उभर पायी है और निस्संदेश, यह परिवर्तन चीन में तेजी से हो रही औद्योगिकरण का ही नतीजा है. एक विश्व कारखाना के रूप में चीन का उद्भव से विश्व आर्थिक पुनःस्थापना में बल मिल रही है और विश्व आर्थिक व्यवस्था की आपूर्ति और मांग की श्रृंखला के गतिशीलता (dynamics) को परिवर्तित कर रही है. वह इंधन स्रोतों के लिए, लौह अयस्क से लेकर प्राकृतिक रबड़ तक कच्चे माल का भूखा ड्रॉगन हो गयी है.

साम्राज्यवाद का स्वभाव कभी नहीं बदलेगा :

दूसरी विश्व युद्ध के बाद विश्व में तीव्र बदलावें हुए हैं. इन परिस्थितियों में साम्राज्यवाद कमजोर होने के बावजूद साम्राज्यवादी चरण का अंत नहीं हुआ है. इन परिस्थितियों में साम्राज्यवाद के स्वभाव के बारे में मार्क्सवादी शिक्षक माओ ने बार-बार कहा है, ‘‘हम अभी भी साम्राज्यवादी चरण में ही, सर्वहारा क्रांति की चरण में ही हैं. मार्क्सवाद के मौलिक उसूलों पर निर्भर होकर साम्राज्यवाद के बारे में लेनिन द्वारा शिक्षित वैज्ञानिक विश्लेषण पूरी तरह सही है. लेनिनवाद का मौलिक उसूल पुराना नहीं पड़ा.’’ कामरेड लेनिन और माओ द्वारा शिक्षित यह उसूल आज भी हमारे सिद्धांत और व्यवहार का आधार बना हुआ है. इसलिए जैसा कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद ने बताया – साम्राज्यवाद का जीवन लम्बा नहीं है.

साम्राज्यवाद पराश्रयी स्वभाव के साथ, मरणावस्था में छटपटा रही पूंजीवाद है, सर्वहारा समाजवादी क्रांति का सवेरा है लेकिन, साम्राज्यवाद अपने आप, स्वेच्छा से ऐतिहासिक पटल से कभी नहीं हटेगी. सर्वहारा के नेतृत्व में विश्व के उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं और जनता एकत्र होकर विश्व समाजवादी क्रांति को सफल बनाने से ही साम्राज्यवाद को इस भूमण्डल से पूरी तरह उखाड़ सकते हैं लेकिन साम्राज्यवाद अपनी जीवन की चरमावस्था के नजदीक पहुंचने के साथ-साथ वह और खुंखार होकर अपनी अस्तित्व के लिए लड़ती है। वही साम्राज्यवाद का स्वभाव है.

हम वर्तमान 21वीं सदी में नयी विश्व क्रांतिकारी युग में जी रहे हैं. लेनिन और माओ के निधन के बाद दुनिया की परिस्थिति में तीव्र बदलावें आयी है. कुल मिलाकर विश्व के इतिहास के विकास द्वारा यह साबित हुआ है कि लेनिन के क्रांतिकारी शिक्षाएं सही है, मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद अजेय है लेकिन, इतिहास के अपने तरह के मोड़ व करवट (twists and turns) होते हैं. एंगेल्स के निधन के बाद जिस तरह बर्नस्टाईन और काउट्स्की का संशोधनवाद उभरा है और स्तालिन के निधन के बाद ख्रुश्चेव-ब्रेजनेव का संशोधनवाद उभरा है, उसी तरह माओ के निधन के बाद हुआ-देघ का संशोधनवाद उभरा है.

सोवियत संघ में 1956 तक संशोधनवादी ख्रुश्चेव के नेतृत्व में पूंजीवाद की पुनःस्थापना होने के बाद, ब्रेजनेव के नेतृत्व में संशोधनवादी सोवियत संघ सामाजिक-साम्राज्यवाद के रूप में तब्दील हो गयी थी. माओ के निधन के बाद समाजवादी चीन में संशोधनवादी हुआ-देघ के नेतृत्व में पूंजीवाद की पुनःस्थापना होने के बाद, वह एक नयी सामाजिक-साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में तब्दील हो गयी है.

आज संशोधनवाद का विश्व भर में भण्डाफोड़ करना, उखाड़ना, संशोधनवादी चीनी सामाजिक-साम्राज्यवाद के वर्ग स्वभाव को उजागर करना, इस ऐतिहासिक उसूल को ऊंचा उठाना कि पूंजीवादी साम्राज्यवाद के तरह सामाजिक-साम्राज्यवाद का भी अनिवार्य रूप से पतन होगा, साम्राज्यवाद, सभी तरह के संशोधनवाद, सभी तरह के प्रतिक्रियावादियों के खिलाफ विश्व के मजदूर-किसान आदि उत्पीड़ित जनता और उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के संघर्षों को आगे ले जाना – इन कर्तव्यों को प्राथमिकता देकर लागू करना होगा. यही आज की अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों का ज्वलंत मांग है.

लेकिन संशोधनवादी चीन सामाजिक-साम्राज्यवादी देश के रूप में (शक्ति के रूप में) परिवर्तित हुई है या नहीं – इस विषय पर विश्व भर में गंभीर चर्चा पिछले दशक से जारी है इसलिए चीन में हुए बदलावों को मार्क्सवादी महान शिक्षक लेनिन द्वारा शिक्षित साम्राज्यवाद के लक्षणों के रोशनी में विश्लेषण करना होगा. तभी चीन में हुए परिवर्तन को वास्तविक रूप से विश्लेषण कर सकेंगे. मार्क्सवादियों-लेनिनवादियों-माओवादियों के लिए यही सही तरीका है इसलिए जैसे लेनिन ने कहा, साम्राज्यवाद के प्रधान आर्थिक लक्षणों के बीच के संबंधों को संक्षिप्त और सरल रूप से विश्लेषण और संश्लेषण करेंगे.

लेनिन ने साम्राज्यवाद को इस तरह समग्र और स्पष्ट रूप से परिभाषित किया कि ‘‘साम्राज्यवाद पूंजीवाद का एक विशेष ऐतिहासिक चरण है. इसका विशेष स्वभाव तीन तरह का है : साम्राज्यवाद का मतलब है 1) इजारादार पूंजीवाद, 2) पराश्रयी या जर्जर होने वाली पूंजीवाद है, 3) मरणावस्था में छटपटा रहा पूंजीवाद.’’

लेनिन ने बताया कि साम्राज्यवाद के आर्थिक पहलू (economic aspect) के पांच मौलिक स्वाभाविक लक्षण हैं, वे हैं, ‘‘1) उत्पादन तथा पूंजी का केन्द्रीकरण विकसित होकर इतनी ऊंची अवस्था में पहुंच गया है कि उसने इजारेदारियों को जन्म दिया है, जिनकी आर्थिक जीवन में एक निर्णायक भूमिका है. 2) बैंक पूंजी और औद्योगिक पूंजी मिलकर एक हो गयी हैं और इस ‘‘वित्त पूंजी’’ के आधार पर वित्तीय अल्पतंत्र (financial oligarchy) की सृष्टि हुई है. 3) माल-निर्यात से भिन्न पूंजी के निर्यात ने असाधारण महत्व धारण कर लिया है. 4) अंतरराष्ट्रीय इजारेदार पूंजीवादी संघों का निर्माण हुआ है, जिन्होंने दुनिया को आपस में बांट लिया है और 5) सबसे बड़ी पूंजीवादी ताकतों के बीच पूरी दुनिया का क्षेत्रीय बंटवारा पूरा हो गया है।’’[12] साम्राज्यवाद से संबंधित लेनिन का यह सिद्धांत साम्राज्यवाद के प्रतिक्रियावादी स्वभाव के बारे में हमें स्पष्टता देने वाली दूरबीन और सूक्ष्मदर्शी है. अभी मार्क्सवादी महान शिक्षक लेनिन द्वारा बतायी गयी इन विषयों की रोशनी में चीन की ठोस परिस्थिति को जांच करेंगे.

4. चीनी इजारेदार पूंजीवादी संघ

नौकरशाही (bureaucratic) इजारेदार पूंजी, निजी इजारेदार पूंजी चीनी समाज में आधिपत्य में हैं. चीन में पश्चिमी और जापान देशों की पूंजी उल्लेखनीय स्तर पर पहुंचने के बावजूद, अपनी अर्थव्यवस्था पर विदेशी इजारेदार संघों की आधिपत्य को रोककर नियंत्रण करने में चीनी शासक वर्ग कामयाब हुई हैं. उन्होंने मजबूत चीनी सरकारी और निजी इजारेदार संघों को विकसित किया है. सरकारी संस्थान आधिकारिक तौर पर सरकारी मालिकाने में रहते हुए, देशीय और अंतरराष्ट्रीय बाजार में चीनी निजी कार्पोरेशनों की तरह यानी साधारण बहुराष्ट्रीय कंपनियां – एमएनसी, टीएनसी[13] की तरह ही कार्यरत हैं. अन्य पूंजीवादी साम्राज्यवादी देशों से ज्यादा चीन में कम्युनिस्ट पार्टी और राज्य का निजी पूंजीवादी कार्पोरेशनों पर अधिक प्रभाव है.

इसका कारण यह है कि इन निजी कार्पोरेशनों के मालिक और प्रबंधक ज्यादातर सीपीसी के सदस्य हैं. इसी तरह नौकरशाही पूंजीपति वर्ग और निजी पूंजीपति वर्ग के बीच इतनी नजदीकी व घनिष्ठ संबंध है कि एक को दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता. 2002 तक चीन में निजी उद्योगपतियों में पांच में से एक हिस्सा सीपीसी के सदस्य हैं. दो तिहाई ‘लाल पूंजीपति’ हैं. चीन में सबसे बडे़ ‘लाल पूंजीपतियों’ ने अभी फोरब्स ग्लोबल अरबपतियों के तालिका14 में शामिल हैं.

चीन में मजबूत सरकारी और निजी इजारेदार संघ आज ‘विश्व खिलाड़ी’ बन गये हैं. विश्व के सबसे बड़े कार्पोरेशनों में चीनी इजारेदार संघों के विकास को जांच किया जाय तो यह विषय स्पष्ट हो जाता है. विश्व के सबसे बड़ी व अत्यंत ताकतवर कंपनियों की तालिका फोरब्स ग्लोबल 200015 में अभी चीन तीसरी स्थान पर है. इस तालिका में मौजूद 121 कंपनियां चीन की है. 524 कंपनियां अमेरीका की है. 2012 में, इन 121 चीनी इजारेदार संघों का औसतन मुनाफा 168 अरब डालर था. यह विश्व के 2,000 सबसे बडे़ कंपनियों के कुल मुनाफें का 7 फीसदी था.

विश्व में सबसे बडे़ कार्पोरेशनों के लिए और एक तालिका के रूप में रहे, भिन्न मानदण्डों का पालन करने वाली फारच्यून ग्लोबल 50016 में भी विश्व के प्रमुख इजारेदार संघों में गतिशील, मुख्य और बढ़ता चीनी हिस्सा को हम देख सकते हैं। विश्व में बहुत भारी इजारेदार संघों (ultra-super monopolies) के रूप में रहे 10 सबसे बड़े कार्पोरेशनों में तीन चीन की हैं – सीनोपेक पेट्रोलियम कार्पोरेशन, चीनी राष्ट्रीय पेट्रोलियम और एनर्जी कार्पोरेशन स्टेट ग्रिड.

वर्ष 2000 की शुरूआत में विश्व के इन बडे़ 500 कार्पोरोशनों के पैतृक देशों की जांच की जाये तो, चीन ने जापान को पार किया. वर्तमान वह दूसरी स्थान पर है. इसमें 73 चीन की है, 132 अमेरीका की, 68 जापान की, 32-32 फ्रांस और जर्मनी की हैं. विश्व उत्पादन और निर्यातों में चीनी हिस्सा बढ़ रहा है. अमेरीकी साम्राज्यवाद शीर्ष स्थान से कमजोर हो रही है. 2000 के शुरूआत में फारच्यून ग्लोबल 500 में 197 कार्पारेशन अमेरीका की थी, 2012 में यह संख्या 132 तक घट गयी.

विदेशी निधियों से संचालित कंपनियों द्वारा चीन से होने वाले निर्यातों के दबदबे के वजह से कुछ लोगों में यह गलत फहमी है कि समूचे चीनी अर्थव्यवस्था पर विदेशी एमएनसी-यों का आधिपत्य है. दरअसल विदेशी निधियों से संचालित कंपनियों की कुल निर्यातों की फीसदी धीरे-धीरे घटती जा रही है. चीनी सरकार के आंकड़े के मुताबिक 2012 तक यह 50 फीसदी से ज्यादा घट गयी.17 चीन में निजी मालिकाना के कंपनियों के निर्यातें और अधिक होकर 21.1 फीसदी तक वृद्धि हुई इसलिए अभी बाजार में चीन में स्थानीय मालिकाना के निजी कंपनियों का निर्यातों में और अधिक हिस्सा हथियाने का रूझान है.

चीनी आंकड़ों में ‘विदेशी निधियों से संचालित कंपनियों’ के रूप में माने जाने वाली कंपनियां अधिकतर दरअसल विदेशी नहीं. खासकर हांगकांग (1997 से यह चीन में शामिल है) केन्द्रित कंपनियों को भी इसमें शामिल किया गया है. चीनी के ‘अंदर आने वाली विदेशी प्रत्यक्ष निवेश’ के लिए हांगकांग एक मात्र सबसे बड़े स्रोत के रूप में रही है. 2010 तक हांगकांग से चीन में ‘विदेशी’ प्रत्यक्ष निवेश 456-2 अरब डालर (41 फीसदी) जमा हुई थी.18 2010 तक अमेरीका से जमा हुई एफडीआई सिर्फ 78-7 अरब डालर (कुल एफडीआई में 7-1 फीसदी) थी.

ऐसी एक गलतफहमी है कि चीनी अर्थव्यवस्था पर अमेरीका, ब्रिटेन, जर्मनी जैसे साम्राज्यवादी देशों का आधिपत्य है, यह सही नहीं है. अमेरीका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस और जापान से चीन में संचयित (accumulated) सब एफडीआई को मिलाने से भी (2010 तक) सिर्फ 197.4 अरब डालर ही थे. यह सिर्फ एक हांगकांग से आने वाली एफडीआई से भी बहुत कम है (उक्त आंकडे़ के अनुसार). इसी तरह ताइवान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर और छोटा सा द्वीप मकाउ (यह भी अभी चीन में शामिल है) से भी कुछ पूंजी आयी थी. लेकिन इनमें से कोई भी देश को चीन पर अपना दबदबा कायम रखने वाली या उसकी अर्थव्यवस्था को नियंत्रण करने वाली विदेशी शक्ति के रूप में नहीं लिया जा सकता इसलिए, ऐसा विश्लेषण करना गलत है कि चीनी अर्थव्यवस्था पर विदेशी साम्राज्यवादी देशों और उनके एमएनसीयों का आधिपत्य है और वे राजनीतिक तौर पर उसे नियंत्रण कर रही हैं.

2010 में पहली बार चीन में करोड़पतियों की संख्या 10 लाख पार कर गयी. इसमें 251 लोग डालर बिलियनीयर थे. छः वर्ष पहले सिर्फ 15 लोग ही बिलियनीयर थे.करोड़पतियों में लगभग आधा हिस्सा व्यापारी थे. बाकी लोगों का विभिन्न कंपनियों में शेयर हैं या रियल एस्टेट व्यापार में पूंजीपति या उच्च कार्यकारी अधिकारी हैं. चीन में धन-कुबेरों (super-rich) में ज्यादातर व्यापारी ही है.

यह विकासशील चीनी पूंजीपति वर्ग अपनी अमेरीकी प्रतिद्वंद्वी से बहुत छोटी थी. कॉप जेमिनि 2012 के विश्व संपदा के रिपोर्ट19 के मुताबिक, धन-कुबेरों में चीन (अमेरीका, जापान और जर्मनी के बाद) चौथी स्थान पर थी. इस तरह चीन में इजारेदार पूंजीपतियों का एक धन-कुबेर वर्ग (super-rich class of monopoly capitalists)) उभरा है.

संक्षिप्त में, चीनी इजारेदार संघ समूचे विश्व में ही बहुत शक्तिशाली है. लेनिन ने कहा था कि ‘‘इजारेदार ही साम्राज्यवाद का मजबूत आर्थिक आधार है.’’ इसलिए इसको एक प्रतीक के रूप में कहा जा सकता है कि चीन एक सामाजिक-साम्राज्यवादी देश के रूप में तब्दील हो गयी है.

अधिक इजारेदार मुनाफें :

चीन एक साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में तब्दील होने का वस्तुगत आधार मजदूर वर्ग आदि श्रमिक जनता को बहुत ही तीव्र रूप से शोषण करने (exploitation and super-exploitation) में ही मौजूद है. चीन में सुव्यवस्थित केन्द्रीकृत फासीवादी तानाशाही राज्य व्यवस्था होने के कारण श्रमिक जनता को निर्दयता से शोषण करना और उनके प्रतिरोध को कुचलना संभव हो पाया है. श्रमिक वर्ग का बहुत शोषण कर बडे़ पैमाने पर निचोड़ी गयी  अतिरिक्त मूल्य (रकम) से इसका उद्भव हुआ है. चीन में बहुसंख्यक मजदूर वर्ग, आदि श्रमिक जनता को बहुत तीव्र रूप से शोषण (super-exploitation) करना और बडे़ पैमाने पर अतिरिक्त-मुनाफें हथियाना – इन दोनों तरीकों को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से संचालित किया गया है. यही चीनी आर्थिक जादूगरी के पीछे छिपी हुई ‘‘गुप्त पहलू’’ है. चीनी इजारेदार पूंजीपति पहले के मुकाबले बहुत निर्दय हुए हैं.

चीनी सरकार क्रमशः बडे़ पैमाने पर मजदूरों को काम से हटाकर, पुनरव्यवस्थीकरण कर, सरकारी क्षेत्र को सीमित कर, इसके समानांतर निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित कर चीनी मजदूरों के श्रमशक्ति को सफलतापूर्वक माल के रूप में परिवर्तित कर दिया है. माओ के समय में समाजवादी समाज में आत्मनिभर्रता, अनुशासन, आत्मबलिदानों से नहीं डरें, कष्टों को पार करें, जनता और देश की सेवा करें के नारों से लेकर बनायी गयी विशेष कानूनों को भी वह चीनी मजदूर वर्ग के शोषण हेतु रास्ता सुगम बनाने के लिए अपने पक्ष में इस्तेमाल कर रही है.

चीनी ग्रामीण इलाके में तीव्र स्तर पर गरीबी, शहरों में रोजगार के अवसर होने के कारण बहुसंख्यक युवा किसान रोजगार के लिए वहां जाते हैं. इस तरह ग्रामीण इलाके से शहरों में पलयान करने वाले मजदूरों को घर, उचित रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती है. उनकी जीवन परिस्थितियां कहीं बदतर होते है. उनमें से बहुत लोग जर्जर भवनों, टेंटों, पुलों के नीचे, सुरंगों में, कार डिक्कियों में गुजर-बसर करते हैं. वे शीघ्र ही पूंजीपतियों के तीव्र शोषण का मुख्य स्रोत बन गये हैं. चीनी लेबर बुलेटिन के मुताबिक, ग्रामीण इलाके से प्रवास करने वाले मजदूरों की कुल संख्या लगभग 20-30 करोड़ है. इनमें से लगभग 14 करोड़ लोग शहरों में काम कर रहे हैं. बीजिंग में ही कुल आबादी में प्रवासी मजदूर लगभग 40 फीसदी होंगे.

इसी तरह शेनझेन के एक करोड़ 40 लाख आबादी में एक करोड़ 20 लाख लोग प्रवासी हैं. इन प्रवासी मजदूरों को आम तौर पर खतरनाक कामों में और कम वेतन वाली नौकरियों में धकेल दिया जाता है. कुल औद्योगिक मजदूरों में 58 फीसदी, सेवा क्षेत्र के मजदूरों में 52 फीसदी प्रवासी मजदूर हैं. प्रवासी मजदूर भारी संख्या में होने के कारण बडे़ पैमाने पर असंगठित क्षेत्र अस्तित्व में है इसलिए वे दूभर परिस्थितियों में तीव्र शोषण का अनुकूल स्रोत है. आधिकारिक आंकडे़ के मुताबिक 21वीं सदी की पहली दशक में कुल शहरी मजदूरों में संगठित क्षेत्र के मजदूर 30-37 फीसदी थे.

चीन में मुनाफा कई गुणा बढ़ाने का यही मुख्य कारण है कि मजदूरों का तीव्र शोषण (super exploitation) करना, चीनी पूंजीवादी शासक वर्ग द्वारा मजदूरों का वेतन उसके मूल्य से घटाना. इसी तरह विदेशी कंपनियों ने भी मजदूरों का मनमाना शोषण चलाया हैं इसलिए राष्ट्रीय आय में मजदूरों के वेतन का हिस्सा तेजी से घट गया है. चीनी कारखाना क्षेत्र के मूल्य वाली औद्योगिक मजदूरों के वेतन का हिस्सा 2002-2008 के बीच 52.3 से 26.2 फीसदी तक घट गया. जीडीपी में कुल वेतन का हिस्सा 1983-2005 के बीच 57 से सिर्फ 37 फीसदी तक घट गया था.

चीनी विश्लेषक दाङ टाओ ने निम्नलिखित आंकडे़ प्रकाशित किए थे कि पिछले दो दशकों में चीन में मजदूरों की श्रम-शक्ति के शोषण का दर बडे़ पैमाने पर किस तरह वृद्धि हुआ है :

कुल वेतन कुल चीनी औद्योगिक संस्थानों के मूल्य में 10 फीसदी से कम रही है और उसी समय वह विकसित देशों में लगभग 50 फीसदी रही है. पर्ल नदी के मुहाने (डेल्टा) इलाके में अमेरीकी औद्योगिक उत्पादन लगभग 17 फीसदी रही, वही वेतन सिर्फ लगभग 6-7 फीसदी है. चीन में 1990-2005 के बीच मजदूरों का वेतन (labor remuneration) जीडीपी की तुलना में 53.4 फीसदी से 41.4 फीसदी तक घट गयी. 1993-2004 के बीच सरकारी क्षेत्र के संस्थानों में और भारी उद्योगों में कुल वेतनों के साथ मुनाफें का दर भी उल्लेखनीय तौर पर 240 से 43 फीसदी तक घट गया.

चीन एक मजबूत साम्राज्यवादी दावेदार के रूप में खडे़ होने के लिए उसे मजदूर वर्ग का बहुत ही तीव्र रूप से शोषण करना अनिवार्य है. चीन, अमेरीका, जापान और अन्य साम्राज्यवादी प्रतिद्वंद्वियों के साथ स्पर्धा के लिए उसे जरूर अपने और अधिक कंपनियों को पिछडे़ देशों में स्थानांतरित करना अनिवार्य है. वहां के मजदूर वर्ग और श्रमिक जनता को तीव्र रूप से शोषण करना अनिवार्य है.

5. चीन में वित्तीय पूंजी

साम्राज्यवाद की पहली आर्थिक लक्षण है इजारेदारी आधिपत्य. दूसरी लक्षण है, वित्तीय पूंजी उभर कर कुछ ही वित्तीय पूंजीपतियों के आर्थिक आधिपत्य (oligopoly) स्थापित होना.[20] औद्योगिक क्षेत्र में इजारेदारी आधिपत्य उभरने के साथ-साथ बैंकिंग उद्योग में भी इजारेदार बैंकिंग का उद्भव होता है. औद्योगिक संस्थानों के शेयरों को खरीद कर बडे़ बैंक औद्योगिक क्षेत्र में घुस आएंगे.

परिणास्वरूप इजारेदार बैंक की पूंजी और इजारेदार औद्योगिक पूंजी मिलकर वित्त पूंजी को बनाएंगे. इस तरह चीन में इजारेदार औद्योगिक पूंजी और इजारेदार बैंक की पूंजी का न सिर्फ उद्भव हुआ, बल्कि वे एक दूसरे से इतना मिल गया कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता. इससे वित्तीय पूंजी का उदय हुआ. इसी क्रम में चीन में बहुत बड़े रकम के वित्तीय पूंजी पर आधिपत्य रखने वाले कुछ वित्तीय पूंजीपतियों (financial oligopolists) का उद्भव हुआ. कुछ इजारेदार घरानों का आधिपत्य होने वाली चीनी केन्द्रीय सरकार का इस वित्तीय क्षेत्र पर मजबूत नियंत्रण है. उदाहरण के लिए पेय पदार्थ (beverage) की कंपनी होङ जोयु वहाहा ग्रुप के चैयरमेन और चीन में धन-कुबेरों में दूसरे स्थान पर रहे जाङ क्विङ गोयु परिवार की संपत्ति 68 अरब युवान है. बीजिंग के लांग फार प्रापर्टीस के चैयर-उमन उ याजुन परिवार की संपत्ति 40 अरब युनाव है. वह चीन में एक धन-कुबेर है. चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ का परिवार आज अरबपति पूंजीवादी परिवार है. वह 2.7 अरब डालर की संपत्ति को अपनी नियंत्रण में रखती है.

विश्व के दस सबसे बडे़ बैंकों में चार चीन की है. इनमें से सबसे बड़ा है इंडस्ट्रियल एण्ड कमर्शियल बैंक आफ चाईना (आईसीबीसी). इसकी संपदा 2.8 ट्रिलियन डालर है. बाकी बैंक हैं : चीन कंस्ट्रक्शन बैंक (इसकी संपदा 2.2 ट्रिलियन डालर है), बैंक ऑफ चाईना (इसकी संपदा 2.0 ट्रिलियन डालर है), अग्रिकल्चरल बैंक ऑफ चाईना (इसकी संपदा 2.1 ट्रिलियन डालर है).

ये बैंक चीनी वित्तीय पूंजी का केन्द्र है. इन सभी ‘बिग फोर’ बैंक सीपीसी की आधिकारिक व्यवस्था में वरिष्ठ नेताओं के नेतृत्व में हैं. चीन में सभी बडे़ बैंक पार्टी और सरकार के मजबूत नियंत्रण में हैं. चीनी बडे़ बैंकों पर यह राज्य नियंत्रण कई तरह से बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू है. समूचे अर्थव्यवस्था पर पार्टी और सरकार के निगरानी रखने के लिए, अपने इच्छानुसार जिन आर्थिक क्षेत्रों को मजबूत और प्रोत्साहित करना है, उनपर और अधिक पूंजी लगाने के लिए यह एक प्राथमिक तंत्र के रूप में मौजूद है. खासकर, एसओईयों (State Owned Enterprises) के लिए बैंकों से ऋण उपलब्ध करवाया गया है.

चीनी अर्थव्यवस्था में सरकारी क्षेत्र के संस्थानों पर सरकार की पकड़ यथास्थिति में रहने का यह एक कारण है. चीन का यह वित्तीय कमांड अमेरीका की तरह उल्लेखनीय स्तर पर वाल स्ट्रीट[21] के मुनाफेखोरों के हाथों में नहीं है. इस पर इजारेदार आधिपत्य सीपीसी में मजबूती से पैठ जमाए हुए चीनी नौकरशाह व निजी इजारेदार पूंजीपति ‘शासक वर्ग’ के हाथों में है.

चीन में वित्तीय अल्पतंत्र (financial oligarchy)[22] देश की राजसत्ता पर ही नहीं, बल्कि अधिरचना के विभिन्न क्षेत्रों पर भी अपनी नियंत्रण रखती है. उदाहरण के लिए, चीन की विधायिका राष्ट्रीय लोक कांग्रेस (एनपीसी) में 70 धन-कुबेर सदस्यों ने बहुत अधिक संपदाओं को इकट्ठा किया है. इनकी संपदा अमेरीकी कांग्रेस के कुल 535 सदस्य, अध्यक्ष, उनकी कैबिनेट सदस्य और समूचे उच्चतम न्यायालय से संबंधित बचे हुए सामूहिक संपत्ति से अधिक है. 2011 में इन 70 शासन निर्माताओं के सामूहिक बचत संपदा 565.8 अरब युवान (89.8 अरब अमेरीकी डालर) तक पहुंची थी.

चीनी बैंकों का कर्तव्य सरकार और निजी क्षेत्रों में कार्पोरेटीकरण के लिए वित्त देना ही नहीं, बल्कि सरकार के आदेश के अनुसार चीन में पूंजी संचयन करना भी उनका कर्तव्य बन गया है. हालांकि, चीन के इन भारी बैंकें खुद बहुत ही लाभदायक हैं. 2012 तक अकेले आईसीबीसी ही लगभग 50 अरब डालर के टैक्स फ्री (शुल्क मुफ्त) मुनाफें कमायी थी. 2012 के अंत तक चीन के चार बडे़ बैंकों ने मिलकर 150 अरब युवान (30 अरब डालर), यानी चीन द्वारा कमायी गयी मुनाफें का एक तिहाई हिस्सा कमाया था. उसी समय अमेरीका के चार महाबैंकों द्वारा मिलकर कमायी गयी रकम से यह तीन गुणा ज्यादा था.

मजदूर कुलीन-वर्ग (Labor Aristocracy) :

पूंजीवादी चीन के विकास के क्रम में मजदूर कुलीनों और निम्न पूंजीपतियों के तबकों (strata) का उद्भव हुआ है. उनकी संख्या 10-15 करोड़ तक होगी. इसमें दो पहलुएं हैं : एक, चीन में अतीत से ही बड़ी संख्या में कई ट्रेड यूनियन, कर्मचारी संगठन और किसान संगठन मौजूद हैं. पूंजीवाद की पुनःस्थापना के बाद इन यूनियनों के नेतृत्व संशोधनवादियों के हाथों में चली गयी है. इनके हाथों में ही सरकारी और निजी यूनियनों का नेतृत्व है. यही मजदूर कुलीनों का प्रधान स्रोत बनी हुई है. दूसरा, कंपनी प्रबंधक, सेवा प्रबंधक, लाखों दलाल ठेकेदार, वकील, शिक्षाविद और इंजनियरों में से नौकरशाही तबकों में मौजूद लोग शामिल हैं. पेशेवरों (professionals) और प्रबंधकों के रूप में पहचाने जानेवाली यह तबका चीन में उभरी भारी चीनी और विदेशी कार्पोरेटों और चीनी पूंजीपति वर्ग की सेवा कर रही है. यह विशेष तबका चीनी साम्राज्यवाद के उद्भव को प्रतिबिम्बित करती है इसलिए बहुसंख्यक मजदूर और किसान बहुत ही तीव्र शोषण और उत्पीड़न का सामना कर रहे हैं.

इजारेदार पूंजी द्वारा हासिल अधिक मुनाफा ही इन मजदूर कुलीनों और सर्वहारा के आंदोलन में मौजूद संशोधनवाद का आर्थिक आधार है. साम्राज्यवादी व्यवस्था में मजदूर कुलीनों का उद्भव होने के साथ-साथ साम्राज्यवाद को बचाने वाली संशोधनवादी सिद्धांत और लाइन भी उभर कर आती हैं. ये मजदूर कुलीन मजदूरों के आड़ में रहने वाले बुर्जुआ वर्ग के दलाल हैं. संशोधनवाद मार्क्सवाद के आड़ में होने वाले बुर्जुआ वर्ग का सिद्धांत है.

आर्थिक अराजकता पूंजीवाद के स्वभाव में ही रहता है :

विश्व के अधिकोत्पादन के संकट से या वित्तीय संकटों से अभी तक चीन उतना ज्यादा प्रभावित नहीं हुआ है. इसका कारण है जमा और खर्चों के भार को बहुत ज्यादा और तेजी से संतुलन करने की क्षमता उसमें मौजूद है. 2008-09 के वित्तीय संकट के दौर में दी गयी कई प्रोत्साहन पैकेज (stimulus package) चीन में बहुत प्रभावशाली रही हैं. लेकिन चीन की वित्तीय व्यवस्था बाजार की स्पर्धा के तहत पूंजी को अराजक तरीके से आबंटन करने की दिशा में आगे बढ़ रही है.

मालेमा दृष्टि से यह पूंजीवादी व्यवस्था में अनिवार्य है यानी 1990 की दशक के अंत में अमेरीका में ‘नयी अर्थव्यवस्था’ या ‘डॉट कॉम’ की अचानक उभार (boom)[11] सामने आयी. इसके तहत इंटरनेट कंपनियों में भारी पैमाने पर असमान स्तर पर पूंजी लगाए गये थे. इनसे कुछ निवेश किसी हालत में भी मुनाफा नहीं कमा पाने के कारण उनकी कई अरब डालर नष्ट हो गयी थी. इस नुकसान के बाद 2000-2006 के बीच मंदी के दौरान अमेरीका में पूंजी के आबंटन में और एक नया उभार आया था. यही 2007 के अंत में प्रधान गृह-ऋण संकट के रूप में और सब-प्राइम संकट के रूप में तब्दील हो गयी.

1980 की दशक के अंत में जापान में भी ऐसा ही हुआ था. यही था रियल एस्टेट का बुलबुला.[23] यह 1990 की दशक के शुरूआत में फट गया. जब वह बुलबुला फटा तब संकट उजागर हुआ. सभी पूंजीवादी-साम्राज्यवादी देशों की तरह चीनी वित्तीय व्यवस्था में भी कई समस्याएं लगातार सामने आ रही हैं. उदाहरण के लिए, चीन में भी गृह ऋण संकट पैदा हो रही है (चीन में यह संकट कई वर्षों से जारी है). 2013 में नए घरों की बिक्री पहली बार एक ट्रिलियन डालरों[24] से अधिक हुई.

एक साल पहले से नए घरों की बिक्री की कुल मूल्य में 27 फीसदी वृद्धि हुई. 2013 दिसम्बर तक औसतन नए घरों का दर बीजिंग में (एक साल पहले) 16 फीसदी बढ़ गयी. शंघाई में यह 18 फीसदी बढ़ी. गुवाघझाओ और शेनझेन में 20 फीसदी बढ़ी. (हाउसिंग-सेल्स इन चाईना टॉप वन ट्रिलियन डालर लेख से, सान फ्रान्सिस्को क्रानिकल, 21 जनवरी, 2014). जैसे अमेरीका में है (भिन्न लक्षण होने के बावजूद) चीन में भी सरकारी नियंत्रण में एक बैंकिंग व्यवस्था है. वर्तमान में चीन में (बाकी विषयों की तरह) बडे़ पैमाने पर अधिकोत्पादन जारी है. इससे वहां खाली हुई हजारों भवन और कार्यालयों के साथ कुछ नयी ‘भूत शहर’ (ghost cities) अस्तित्व में आयी है.

इस तरह की आर्थिक अराजकता में अन्य पूंजीवादी साम्राज्यवादी देशों और चीनी पूंजीवादी साम्राज्यवाद के बीच मौलिक रूप से कुछ भी अंतर नहीं है. अचानक तेजी आने के समय ऋण व्यापक हो जाती है और संपत्ति के बुलबुलें उभरते हैं. पूंजीवाद के स्वभाव में ही आर्थिक अराजकता निहित होता है.

6. ‘‘पूंजी का निर्यात वित्तीय पूंजी के विश्व आधिपत्य के तरफ ले जाता है’’

बॉण्ड और ऋण पूंजी के रूप में पूंजी का निर्यात :

जैसे महान मार्क्सवादी शिक्षक लेनिन ने बताया, साम्राज्यवाद के विशेषताओं में एक है इजारेदार संघों का गठन, दूसरा है पूंजी का निर्यात. चीन में बडे़ पैमाने पर पूंजी के निर्यात में वृद्धि के वजह से इस तरह के परिणाम सामने आ रहे हैं.

चीन का एक पूंजी निर्यातक के रूप में तेजी से विकसित होना दो स्तरों में हुआ है : औद्योगिक पूंजी और वित्तीय पूंजी (बॉण्ड, ऋण आदि). चीनी साम्राज्यवाद औद्योगिक उत्पादन से बहुत ही तेजी से पूंजी संचयन करने के कारण, उसने अपनी भारी बैंक पूंजी के साथ मिलकर बडे़ पैमाने पर वित्तीय पूंजी भी संचयन किया है. यह देशी और विदेशी विनिमय मुद्रा भण्डार असाधारण गति से वृद्धि होने में दिखता है. यह भण्डार 2000 में 165 अरब डालर से मार्च 2012 में 3,305 अरब डालर तक बढ़ गया है. चीनी विदेशी विनिमय मुद्रा भण्डार उसके बाद के छः सबसे बड़े देशों के विदेशी विनिमय मुद्रा भण्डार के रकम से समान है.

विदेशी विनिमय मुद्रा भण्डार ऋणों के रूप में वित्तीय पूंजी के तौर पर इस्तेमाल की जाती है. ऋण लेने वाले देश द्वारा मिले अतिरिक्त मूल्य में हिस्सा हिस्सेदारों को मिलेगा. साधारण रूप से, विदेशी विनिमय मुद्रा भण्डारों पर विशेष रूप से विनिमय करने के अधिकार होने के लिए इन्हें सापेक्षिक तौर पर सुरक्षित रूप से विदेशी सरकारी बॉण्डों और अंतरराष्ट्रीय समझौतों के तहत या अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) में बैंक डिपजिटों के रूप में संग्रह कर रखा जाता है.

दरअसल, चीन के कुल संपदा में 3.3 ट्रिलियन डालर विदेशी विनिमय भण्डार ही है. इसमें अधिकतर विदेशी सरकारी बॉण्डों के रूप में निवेश के तौर पर रहे हैं. वर्तमान में चीन की अमेरीकी बॉण्ड उसे अमेरीका को ऋण उपलब्ध करवाने वाले बहुत बड़े पूंजीपति के रूप में बदल दिया है. अमेरीका को ऋण देनेवाले सभी ऋणदाताओं में दो अमेरीकी सरकारी संस्थानों के बाद चीन 1.73 ट्रिलियन डालर का ऋणदाता के रूप में तीसरे स्थान पर है. हाल ही में चीनी सरकारी पूंजी ने यूरो जोन के सरकारों की ऋणों के हिस्सें खरीदना शुरू किया है.

चीन द्विपक्षीय ऋणों में भी सक्रिय ऋणदाता के रूप में रहा है. फाइनान्शियल टाइम्स के मुताबिक, विश्व में चीनी बैंकें विगत कुछ सालों में मुख्य वित्तीय संस्थानों के रूप में उभर कर आयी हैं. वह पहले से ही विश्व बैंक से ज्यादा कई पिछडे़ देशों को पैसा ऋण के रूप में दे रही है. 2009, 2010 में चीनी निर्यात-आयात बैंक और चीनी विकास बैंक ने कम से कम 110 अरब डालरों का ऋण देने के लिए साम्राज्यवाद देशों के सरकारों और कंपनियों के साथ समझौते किए. 2008 के बीच से 2010 के बीच तक विश्व बैंक से तुलना करें तो, उसने 100 अरब डालर का ऋण देने के लिए समझौते किए.

विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) के रूप में पूंजी निर्यात :

चीन ने वर्ष 2000 में ‘विश्व में प्रवेश करो’ (गो ग्लोबल) रणनीति को लागू की थी. संक्षिप्त में इसका मतलब है चीनी अर्थव्यवस्था का आंशिक तौर पर सस्ते माल का निर्यात करने के स्थान पर पूंजी का निर्यात करने के दिशा में अवश्य पुनःकेन्द्रीकरण करने की स्थिति सामने आना. तब से लेकर ‘गो ग्लोबल’ रणनीति को चीन और तेजी से अमल कर रही है. 15 मार्च, 2011 को प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ ने कहा, ‘‘हमें ‘गो ग्लोबल’ रणनीति को और तेजी से अमल करना होगा. उसे मदद देने वाली नीतियों को बेहतर करना होगा. जांच और अनुमोदन की प्रक्रिया को सरल बनाना होगा. योग्यता रखने वाली कंपनियों और व्यक्तियों को विदेशों में पूंजी निवेश हेतु मदद करनी होगी. अंतरराष्ट्रीय तौर पर सक्रिय और नियमबद्ध तरीके से संचालन करने में काबिल होने के लिए हमें संस्थानों को प्रोत्साहित करना होगा. विदेशों में निवेश करने के लिए समग्र दिशा-निर्देशन को मजबूत करेंगे. उन्हें आगे बढ़ाने, सुरक्षा देने और विपदाओं से बचाने के लिए अपने तंत्रें को बेहतर करेंगे।’’ (रिपोर्ट आन द वर्क ऑफ द गवर्नमेंट, जिन हुआ नेट वेब साईट, 5 मार्च, 2011).

चीन के ‘गो ग्लोबल’ रणनीति के लिए कुछ मुख्य निशाने हैं : ‘ग्लोबल योद्धाओं’ को पैदा करना और उन्हें प्रोत्साहित करना. यानी, विश्व में जाने-माने ब्रॉण्ड के साथ अंतरराष्ट्रीय बाजार में चीन आधारित बडे़ बहुराष्ट्रीय कार्पोरेशनों द्वारा बेहतरीन ढंग से प्रतिस्पर्धा करना। उदाहरण के लिए, विश्व में सबसे बड़ा
पियानो निर्माता रहे चीनी पर्ल रिवर ने अभी गुणवत्ता में भी यमहा को पार किया है. इसी तरह वह विदेशी तकनीक और विज्ञान और आसानी से हासिल कर रही है. विदेशी कार्पोरेशनों द्वारा देश के अंदर आने वाली एफडीआई से ओएफडीआई द्वारा विदेशी तकनीक को अधिक मात्र में हासिल किया जा सकता है.

विदेशों में कंपनियां और कंपनियों की शाखाएं स्थापित कर व्यापार के लिए आडे़ आ रहे उल्लेखनीय रुकावटों (आयात कोटें, शुल्क आदि) को सुलझाया जा सकता है. इस तरह पूंजी निर्यात के लिए एक मौलिक आवश्यकता के रूप में ‘गो ग्लोबल’ रणनीति सामने आयी है. अतिरिक्त निवेश के लिए विश्व में सबसे लाभदायक स्थानों को पहचानना और उन्हें लूटना सभी साम्राज्यवादी देशों के लिए आवश्यक ही है.

2008 से एक तरफ विश्व आर्थिक संकट तेज हुई है, दूसरी तरफ चीन प्रमुख पूंजी निर्यातक के रूप में उभर कर सामने आयी है. 2008 में अमेरीका होते हुए यूरोप तक फैली वित्तीय और आर्थिक संकट के कारण अमेरीका और विभिन्न पूंजीवादी देशों में कई बडे़ निजी और सरकारी बैंक दिवालिया हो गये. इस स्थिति में उन देशों के बहुराष्ट्रीय संस्थानों/कार्पोरेटों को जरूरी वित्त और निवेश को वहां के सरकारें प्रोत्साहन पेकेजों के रूप में उपलब्ध कराने के दौरान
उस अवसर को इस्तेमाल कर उल्लेखनीय तौर पर विदेशों में चीनी निवेशों का उभार आया. चीनी सरकार और उसकी नयी पूंजीपति वर्ग, खासकर, कच्चे माल के लिए, औद्योगिक संपत्तियों के लिए देश के बजाए विदेशों में व्यापक तौर पर निवेश कर रही हैं. संकट के कारण विश्व भर में कर्ज लेन-देन का क्रम स्थगित हो जाना, शेयरों के मूल्य घट जाना, वित्तीय सहायता के लिए कई कार्पोरेशनों से उभरे मांग को एक अवसर के रूप में इस्तेमाल कर विदेशों में उल्लेखनीय स्तर पर चीनी निवेशों का उभार आया है.

2002 में चीनी विदेशी निवेश सिर्फ 2.5 अरब डालर ही थी. वह 2007 तक 18.6 अरब डालर तक पहुंचा. वह 2008 में दोगुणा बढ़कर 52.2 अरब डालर हो गयी. स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक के आकलन के मुताबिक फरवरी 2009 में ही वह 65 अरब डालर हो गयी. उस बैंक के आंकडे़ के मुताबिक 2009 में चीन में आयी एफडीआई 80.100 अरब डालर थी, वही विदेशों में चीन द्वारा लगायी गयी एफडीआई 150-180 अरब डालर तक पहुंच गयी. हाल ही में चीन एक साम्राज्यवादी ताकत के रूप में उभरी है. इसके कारण, विश्व बाजार में एक सदी से ज्यादा समय से अंतरराष्ट्रीय वित्तीय निवेश पर आधिपत्य रखने वाली साम्राज्यवादी शक्तियों से वह अभी भी कमजोर शक्ति है. इसलिए पुराने साम्राज्यवादी शक्तियों के हाथों में चीन से कहीं अधिक विदेशी प्रत्यक्ष निवेशों
(एफडीआई) के शेयर मौजूद हैं. विश्व एफडीआई निवेशों के शेयरों में अमेरीका की 21.1 फीसदी, ब्रिटेन की 8.1 फीसदी, जर्मनी की 6.8 फीसदी, फ्रांस की 6.4 फीसदी, हांगकांग की 4.9 फीसदी, इटली की 2.4 फीसदी और चीन की 1.7 फीसदी शेयर मौजूद हैं. एफडीआई निवेश करने में चीन 2005 से ही तेजी से बढ़ रही है. चीनी आधिकारिक आंकडे़ के मुताबिक, 2005-2012 के बीच देश की एफडीआई 344.8 अरब डालर तक पहुंच गयी. 2009-2011 के बीच चीन द्वारा लगायी गयी वार्षिक एफडीआई अपनी प्रतिद्वंद्वी कनाडा और इटली को पार कर गयी. हाल ही में, वह जर्मनी जैसी देशों के स्तर तक पहुंच गयी है.

हेरिटेज फाउण्डेशन के मुताबिक, 2005-2010 के बीच चीन द्वारा अधिक निवेश लगायी गयी बहुत ही मुख्य देश और उसकी मात्र इस प्रकार है – अस्ट्रेलिया में 45.3 अरब डालर, अमेरीका में 42 अरब डालर, ब्राजील में 25.7 अरब डालर, इंडोनेशिया में 23.3 अरब डालर, नाइजीरिया में 18.8 अरब डालर, कनाडा में 17.2 अरब डालर, इरान में 17.2 अरब डालर, कजाकस्तान में 12.3 अरब डालर, ग्रीस में 5 अरब डालर और वेनीजुएला में 8.9 अरब डालर.

चीन के हाथों में दुनिया में ही अत्यधिक बचत खातों का दर, चालू खाते में भारी बचत और दुरिया में ही अत्यधिक तौर पर 1.95 ट्रिलियन डालर वित्तीय भण्डार मौजूद हैं. चीनी कार्पोरेशनों के कम से कम 8 लाख विदेशी कर्मचारी पिछडे़ (अर्धऔपनिवेशिक-अर्धसामंती) देशों में कार्यरत हैं. पिछडे़ देशों में चीनी भूमिका तेजी से बढ़ रही है. 2010 में लातीन अमेरीका में अमेरीका, नेदरलैंड्स के बाद चीन तीसरी सबसे बड़ी निवेशक बन गयी. चीनी इजारेदार संघ तेल कंपनियां जैसे अन्य रणनीतिक निवेशों के साथ-साथ बंदरगाह जैसे बहुत ही महत्वपूर्ण मौलिक सुविधाएं उपलब्ध कराने वाली (इनफ्रास्ट्रक्चर) परियोजनाओं के नियंत्रण पर ध्यान दे रही हैं. चीन पहले ही पाकिस्तान के ग्वादर में आधुनिक बंदरगाह के निर्माण में 2,000 लाख डालर निवेश लगा रही है. पापुआ न्यू गिनी देश में 1.37 अरब डालर लागत वाली रामु निकेल खदान को चीनी मेटालर्जिकल कंस्ट्रक्शन कार्पोरेशन (एमसीसी) द्वारा हथिया लिया गया है. यह दक्षिणी प्रशांत इलाके में चीन द्वारा लगाये गये सबसे बड़े निवेश को प्रतिबिम्बित करता है.

इसी तरह, चीनी सरकारी क्षेत्र के कोसको नामक भीमकाय नौ परिवहन कंपनी ने हाल ही में पूर्वी भूमध्य सागर इलाके के बहुत ही महत्वपूर्ण बंदरगाहों में से एक, ग्रीस के सबसे बड़े बंदरगाह पिराइस को हथिया लिया है.

2006 के अंत तक 5,000 से अधिक देशी चीनी निवेश इकाइयां (entities) दुनिया भर में 172 देशों में (इलाकों में) विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के लगभग 10,000 उद्योग स्थापित किये. इस तरह चीन द्वारा विदेशों में लगायी गयी कुल एफडीआई संचयन 90-63 अरब अमेरीकी डालर हो गयी.

चीन में बैंकिंग व्यवस्था सरकारी नियंत्रण में होने के वजह से विश्व संकट से वह बहुत हद तक सुरक्षित रही. वह मजबूत स्थिति में होने के कारण ही विदेशों  में चीन निवेश कर पायी है. चीनी सरकार ने स्थानीय कंपनियों को 1,000 लाख डालर के अंदर विदेश में निवेश करने पर अनुमति देने का अधिकार राज्य और स्थानीय अधिकारियों को दे दिया तथा विदेशों में और अधिक निवेश लगाने के लिए उन्हें प्रोत्साहित किया है. चीन अपनी भारी औद्योगिक बुनियाद के लिए मुख्य रूप से खनिज, बिजली स्रोतों पर ध्यान दे रही है. वह दीर्घकालीन तेल आपूर्ति के लिए रूस, ब्राजील, वेनजुएला और कजाकस्तान के साथ 46 अरब डालर निवेश/कर्ज के समझौतें पर हस्ताक्षर किया है. इसके साथ-साथ बिजली कंपनियों में चीनी कंपनियां भारी रकम निवेश कर रही हैं. चीनी भारी कार्पोरेटों के समूहों (conglomerate)[25] को विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने के काबिल होने के लिए पुनरव्यवस्थिकरण के उभार के जरिए उद्योगों को मजबूत और विकसित करने की जरूरत है. इसके लिए उन्हें टेकनोलोजी, बॉण्ड, मार्केटिंग नेटवर्कों को पैदा करना या खरीदना अनिवार्य हो गया है.

विश्व कार्पोरेट क्षेत्र में चीन को उच्च स्थान देने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों में पोर्टफोलियो पूंजी[26] लगाना या शेयरों को खरीदना एक सरल उपाय बन गया है. 2004 में, गृह-उपकरणों के उत्पादन में भीमकाय (giant) कंपनी चीन के टीसीएल ने फ्रांसीसी टेलीकॉम सामग्री उत्पादन कंपनी अलकाटेल के साथ एक साझा उपक्रम पर समझौता किया. यूरोप में थाम्सन डीवीडी, टीवी ऑपरेशनों में चीन अपना नियंत्रण हासिल कर चुका है. 2008 में इटली के कंस्ट्रक्शन यंत्रों का निर्माता सीआईएफए को चीन के जूमलियोन हेवी इंडस्ट्री ने हथिया लिया है.

विदेशी निवेशों में उभार आने के बावजूद अमेरीकी डालर मूल्य की स्थिरता से चीन घबरा रही है. चीन अपनी 1.95 ट्रिलियन डालर विदेशी विनिमय मुद्रा को बहुत हद तक अमेरीकी ट्रेजरी बिलों में और अन्य अमेरीकी कंपनियों में निवेश के रूप लगा रखी है. अमेरीका भारी रकम के साथ प्रोत्साहन पेकेज देने की परिप्रेक्ष्य में अचानक डालर मूल्य गिर सकता है, इसीलिए चीनी नेतागण अपने संपत्ति की सुरक्षा और मूल्य के बारे में बहुत घबरा रहे हैं. 2007 में प्रधान रूप से विश्व वित्तीय संस्थानों में और बहुराष्ट्रीय कार्पोरेशनों में निवेश करने के लिए ही चीन ने 200 अरब डालर की लागत वाली चीनी इन्वेस्टमेंट कार्पोरेशन को स्थापित की है. उसने अपनी बहुप्रतिक्षित सिल्क रोड और बेल्ट प्रोजेक्टों के लिए निवेश हासिल करने के लिए, एशिया और अफ्रीका में अपनी पकड़ मजबूत कर आधिपत्य स्थापित करने के लिए एशिया इनफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक[27] गठित किया है.

चीन के पास मौजूद भारी वित्तीय भण्डार उसकी आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव विस्तार करने के लिए मदद कर रही हैं. इसे देख कर अमेरीका और पश्चिमी साम्राज्यवादी घबरा रहे हैं. वर्तमान में जारी ऋण लेन-देन के क्रम में दुनिया में आर्थिक रूप से पिछडे़ हुए कई देशों को पूंजी, कर्ज और मदद उपलब्ध करवाने के स्रोतों में से एक है चीन. उदाहरण के लिए जमाइका के पारम्परिक मित्र देश अमेरीका और ब्रिटेन जब वित्तीय संकटों में छटपटा रही हैं, चीन उस देश की ‘रक्षा’ के लिए 1,380 लाख डालर के साथ सामने आयी.

रूस और कजाकस्तान को चीन ने कर्ज के रूप में बड़ी रकम दी थी. विश्व वित्तीय संकट के प्रभाव से उबरने के लिए चीन ने दक्षिण-पूर्वी एशिया को मदद के लिए 2010 में 10 अरब डालर का निवेश सहकारी निधि और 15 अरब डालर का कर्ज आशियान (दक्षिण-पूर्वी एशियायी देशों का समूह) के गठजोड़ के लिए घोषणा की थी. अमेरीका और जापान के साथ मजबूत संबंध होने वाले थाइलैंड, मलेशिया और फिलिप्पीन्स जैसे देश वर्तमान में चीन के तरफ देख रहे हैं. इस तरह हमें यह स्पष्ट होता है कि साम्राज्यवाद अपनी पूंजी के निर्यात के आधार पर ही अत्यधिक राष्ट्रीयताओं और देशों पर अत्यधिक शोषण और उत्पीड़िन चलाता है इतना ही नहीं, पूंजी का निर्यात करना ही कुछ संपन्न देशों के पराश्रयी (parasite) पूंजीवाद का मजबूत आधार है.

चीन नयी औपनिवेशिक तरीके के शोषण के लिए एशिया, अफ्रीका और लातीन अमेरीका के देशों को भारी पैमाने पर पूंजी का निर्यात कर रही है :

चीन एशियाई, अफ्रीकी और लातीन अमेरीकी देशों के प्राकृतिक संसाधनों को किस तरह व्यापक रूप से लूट रही है, उन देशों में इस शोषण का आम रूझान कैसा है, जानने के लिए कुछ देशों का उदाहरण यहां देखें :

दुनिया में बहुत गरीब और पिछड़े देशों में से एक है लाओस. यह चीन के युनान प्रांत की दक्षिणी सीमा से सटी हुई है. अमेरीकी इंडो-चीन दुराक्रमणकारी युद्ध के दौरान लाओस तहस-नहस हो गयी थी. लाओस अभी चीनी पूंजी और शोषण के कारण नयी तरह की विपत्ति का सामना कर रही है. लाओस देश की इमारती लकड़ी (timber), खनिज संपदाओं को योजनाबद्ध तरीके से चीन लूट रही है. बडे़ पैमाने पर विभिन्न राष्ट्रीयताओं की जनता अपने जमीन को छोड़कर लाओस की राजधानी वियनटियान जैसे कुछ शहरों के झोपड़पट्टियों में निवास करने पर मजबूर हैं. रबड़ बागानों का एक बड़ा हिस्सा चीनी मालिकाना में है.

लाओस से काठ, रबड़, धान-दलहन-तिलहन, खनिज आदि माल ले जाने के लिए चीन ने युनान में कुनमिघ से वियनटियान तक 7.2 अरब डालर की लागत वाली रेल मार्ग निर्माण कर रही है. इसमें लगभग 50 हजार मजदूर काम कर रहे हैं. दक्षिण-पूर्व एशिया में अपनी गतिविधियां चलाने हेतु चीन के लिए यह रेल मार्ग महत्वपूर्ण है. इस मार्ग को वियनटियान से महत्वपूर्ण व्यापार केन्द्र बेंकाक तक मिला रही है. इसके बाद इसे म्यांमार के रंगून तक विस्तार किया जाएगा. लाओस में चीन कई विशेष आर्थिक जोनों को संचालित कर रही है. कई परियोजनाओं का निर्माण कर रही है. क्रमशः लाओस को चीन अपनी एक राज्य या अधीनस्थ राज्य के रूप में तब्दील कर रही है.

दक्षिण एशिया-चीन का प्रभावः

चीन के पाकिस्तान, अफगानिस्तान, श्रीलंका और नेपाल में विस्तार के पीछे उसकी साम्राज्यवादी हितों और प्रभाव को समझना महत्वपूर्ण है. पाकिस्तानः पाकिस्तान चीन का वर्तमान में मजबूत और विश्वसनीय मित्र देश है. चीन दशकों से पाकिस्तान को परमाणु टेकनोलोजी बदली सहित व्यापक सैनिक और आर्थिक सहायता तथा अंतरराष्ट्रीय व्यवहारों में कूटनीतिक मदद दे रही है. पाकिस्तान में चीनी गतिविधियों का लक्ष्य है खाड़ी देशों और अफ्रीका तक वाणिज्य और इंधन स्रोतों का मार्ग निर्माण करना. पाकिस्तान को चीन द्वारा उपलब्ध कराने वाली मदद न केवल भारत से, बल्कि अमेरीका से भी उसकी रणनीतिक प्रतिस्पर्धा से ही उत्पन्न हुई है. अमेरीका-भारत परमाणु समझौते के सीधे जवाब के रूप में चीन ने दो नए परमाणु संयंत्र पाकिस्तान को भेजी. वह पाकिस्तान को उल्लेखनीय तौर पर काउण्टर-इंसर्जेन्सी मदद उपलब्ध करवायी है. चीन ने समूचे पाकिस्तान में भारी पैमाने पर निवेश की है. दोनों देशों के बीच व्यापार पिछले दशक के दौरान तेजी से बढ़ा है. पाकिस्तान में आर्थिक वृद्धि में ठहराव आ जाना, देश में आने वाली विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) घट जाना, बेरोजगारी, महंगाई, तीव्र शोषण के कारण गहरी आर्थिक संकट पैदा हुई है. इस परिप्रेक्ष्य में पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था के लिए चीनी निवेश बहुत जरूरी है.

इस परिप्रेक्ष्य में ही चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) को2030 तक पूरा करने के लक्ष्य से 3 लाख 30 हजार करोड़ रूपयों (50 अरब डालर) की पूंजी के साथ चीन निर्माण कर रही है. यह गलियारा पाकिस्तान के बलूचिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को चीन के जिघ जियाघ प्रांत के कशगर से जोड़ते हुए इंधन स्रोतों के मार्ग के रूप में, चीन के लिए नौसैनिक अड्डा और रणनीतिक महत्व रखने वाली गलियारा के रूप में रहेगी. इसके तहत चीन भारी इनफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्टों पर निवेश कर रही है. लगभग तीन हजार किलोमीटर लम्बे रोड, रेल मार्ग और पाइप लाइन का निर्माण हो रहा हैं. इसके अंदर ही जिघ जियाघ को पाकिस्तान के साथ जोड़ने वाली काराकोरम हाइवे का उन्नतकरण (upgrade) कर रहे हैं. इससे रेल मार्ग को जोड़ने की योजना है. सीपीईसी प्रोजेक्ट के तहत पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को 40 साल तक इस्तेमाल करने का अधिकार चीन के पास रहेगा.

हिन्द महासागर को पार करने के लिए चीन मलाक्का जलसंधि (strait)[28] पर निर्भर है. इसके कारण बहुत समय से आस-पास के देशों के साथ झगड़ा उत्पन्न हो रहा हैं. इससे वह एशिया और प्रशांत देशों में अकेली पड़ रही है. इस इलाके पर अमेरीका का प्रभुत्व कायम है. इसके जवाब के तौर पर पाकिस्तान की मदद से अपनी व्यापार के आयात-निर्यातों को रणनीतिक महत्व वाली ग्वादर बंदरगाह से चलाने के लक्ष्य से सीपीईसी अस्तित्व में आयी है. इसी क्रम में चीन ने सीपीईसी प्रोजेक्ट निर्माण के लिए जरूरी आर्थिक सहायता पाकिस्तान को उपलब्ध करवा रही है और उससे दीर्घकालीन संबंध मजबूत करने के लिए, यह ऋण डालर के रूप में दशकों साल के अवधि में चुकाने का समझौता किया है. चीन से पाकिस्तान द्वारा लिए गए इस ऋण से स्थानीय लोगों को कोई फायदा नहीं है. लेकिन पाकिस्तान के सभी लोगों को इस ऋण का भार उठाना होगा. नौकरियां भी पाकिस्तान के लोगों को नहीं मिलेगी. इसलिए चीन पाकिस्तान के पंजाब और रावलपिंडी के राजनेताओं को बडे़ पैमाने पर पैसे देकर उन्हें भ्रष्ट कर रही है. इसके साथ-साथ इस प्रोजेक्ट में कार्यरत चीनी अधिकारियों और विशेषज्ञों की सुरक्षा के नाम पर 15 हजार चीन सैनिकों को तैनात कर रही है. इससे इस इलाके पर चीन की राजनीतिक, आर्थिक और रणनीतिक पकड़ कायम हो रही है.

हिंद महासागर में भारत के आधिपत्य को रोकने का प्रयास चीन कर रही है. वहां चीनी उपस्थिति भारत की घबराहट बढ़ा रही है. उक्त यह यातायात मार्ग कश्मीर इलाके (पीओके) के गिलगिट बल्टिस्तान से गुजरने और जनमुक्ति सेना (पीएलए) को हिंद महासागर में लाने का मौका मिल पाने के कारण भारत घबरा रही है. कश्मीर के विषय पर 1963 से चीन द्वारा लागू तटस्थ नीति को वह अभी छोड़ने वाली है. दूसरी तरफ भारत और अमेरीका के बीच बढ़ती रणनीतिक मित्रता से रूस भी खुश नहीं है, इसलिए रूस अपनी युरेशिया आर्थिक प्रोजेक्ट को सीपीईसी में विलय कर रही है. वह पाकिस्तान के साथ संयुक्त सैनिक अभ्यास कर रही है. इस परिप्रेक्ष्य में, इसके विकल्प के रूप में भारत ग्वादर से 100 किलोमीटर दूर इरान के चाबाहर बंदरगाह के विकास के लिए 5,000 लाख अमेरीकी डालर खर्च कर रही है.

सीपीईसी प्रोजेक्ट के साथ अरब सागर के तटीय इलाके पर भी चीनी आधिपत्य बढे़गी. पर्शियान खाड़ी पर चीन का पकड़ बढ़ने के साथ-साथ उसके लिए होरमुज जलसंधि29 तक 600 किलोमीटर की दूरी कम हो जाएगी. दक्षिणी चीनी सागर और उत्तरी हिंद महासागर के बीच स्थित मलाक्का जलसंधि से, श्रीलंका होते हुए, अरब सागर से पर्शियान खाड़ी तक जाने के लिए चीन द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली पुरानी जलमार्ग की 12 हजार किलोमीटर दूरी कम हो जाएगी. इससे वह अपनी मर्जी से सस्ती तेल मध्य एशियाई और अफ्रीकी देशों से आयात करने के मौके बढ़ जाएंगे. दरअसल इस इलाके से ही दुनिया में बहुत अधिक मात्र में तेल की आपूर्ति हो रही है. यह प्रोजेक्ट पूरा होने से चीन को 60 देशों से प्रत्यक्ष संबंध कायम हो जाएगी. इसी क्रम में अन्य देशों की आवाजाही और तेल आपूर्ति को नियंत्रण करने का मौका भी चीन को मिलेगा. इससे चीन से प्रतिस्पर्धा बढ़ने के कारण प्रतिद्वंद्वी साम्राज्यवादी देशों में असहिष्णुता बढ़ रही है. सीपीईसी प्रोजेक्ट उनके गले नहीं उतर रही है. लेकिन इंग्लैंड सीपीईसी प्रोजेक्ट में निवेश करने की अपनी इच्छा जता रही है.

दूसरी तरफ सीपीईसी प्रोजेक्ट से बलूचिस्तान और सिंध इलाके की जनता बडे़ पैमाने पर विस्थापित हो रही हैं. उन्हें मुआवजा देने के लिए पाकिस्तान तैयार नहीं है. चीन भी विस्थापित के इस समस्या पर ध्यान नहीं दे रही है. इस तरह सीपीईसी प्रोजेक्ट बलूचिस्तान और सिंध के लोगों की जीवन-मरण समस्या बन गयी है. वैसे ही पाकिस्तान के अंदर चीनी माल के उभार से सभी स्थानीय छोटे और मध्यम उद्योग के निर्माता और हस्तशिल्पी गंभीर सकंट की ओर धकेले जाने पर मजबूर है. कुल मिलाकर … चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा अतीत के अमेरीकी मार्शल योजना की याद दिला रही है. अंत में, यह पाकिस्तान की सम्प्रभुता के लिए भी घातक साबित होगी.

अफगानिस्तानः अफगानिस्तान से जब नाटो पीछे हट रही है, वहां चीन ने अपनी आर्थिक, राजनीतिक और सुरक्षा गतिविधियों को तेज की है. हाल ही के सालों में अफगानिस्तान में चीन ने कुछ मुख्य आर्थिक परियोजनाएं प्रारंभ की है. इसमें अनयक तांबा खदान और अफगानिस्तान के तेल-गेस भण्डार का विकास शामिल हैं. 2014 के बाद पश्चिमी देशों की सहायता व पूंजी कम हो गयी है. वर्तमान में चीन अफगानिस्तान में सबसे बड़ी विदेशी निवेशक बन गयी है. चीन अफगानिस्तान में अपनी राजनीतिक और सुरक्षा संबंध बेहतर कर रही है.

जून 2012 में चीन और अफगानिस्तान अपने संबंधों को रणनीतिक और सहयोगी हिस्सेदार के स्तर तक विकसित कर ली. चीन वहां सरकार के साथ संबंधों को मजबूत करना ही नहीं, बल्कि अफगान तालिबान के साथ भी संबंध बढ़ा रही है. सुरक्षा क्षेत्र में हिस्सेदारी के साथ, हाल ही में अनुमोदित समझौतों के मुताबिक, सुरक्षा संबंधित गुप्त सूचनाएं आदान-प्रदान करना, काउण्टर-इंसर्जेन्सी में सहयोगिता, अफगान सुरक्षा बलों के लिए अधिक प्रशिक्षण आदि शामिल है. शंघाई सहयोगिता संगठन (एससीओ) अफगानिस्तान समस्याओं पर 2002 से सक्रिय है. 2012 में अफगानिस्तान को एक पर्यवेक्षक के रूप में वह इसमें शामिल किया गया था. चीन और रूस दोनों आशा कर रही हैं कि अफगानिस्तान में एससीओ की भूमिका अधिक होगी. कुल मिलाकर, चीन रणनीतिक महत्व वाली अफगानिस्तान को अपने आधिपत्य में लाने के लिए राजनीतिक, आर्थिक और सैनिक रूप से अपना खेल खेल रही है.

श्रीलंकाः चीन और श्रीलंका के बीच पहले से ही अच्छे संबंध है. 2005 में राष्ट्रपति राजपक्षे सत्ता में आने बाद यह संबंध उल्लेखनीय तौर पर मजबूत हुई हैं. आज चीन श्रीलंका के लिए बहुत बड़ी वित्तीय प्रबंधक और रक्षा आपूर्तिकर्ता है. श्रीलंका हिंद महासागर में होने के कारण वह चीन के लिए महत्वपूर्ण है. क्योंकि, चीन द्वारा आयातित 90 फीसदी इंधन का स्रोत श्रीलंका के समुद्र मार्ग से होकर ही गुजरती है. इसी कारण से चीन श्रीलंका के साथ मजबूत राजनीतिक हिस्सेदारी चाहती है. श्रीलंका में बंदरगाह सुविधाएं सहित मौलिक सुविधाओं के विकास के लिए चीन वित्तीय सहायता कर रही है. चीन दक्षिणी एशिया में भारत के प्रभुत्व पर चोट पहुंचाने के लिए भी इस संबंध को जारी रखी है.

चीन हस्तक्षेप नहीं करने (non-interference) की नीति[30] को नाम के वास्ते रटते हुए, व्यवहार में अपनी विश्व आधिपत्य की रणनीति के तहत पिछड़े देशों के प्रतिक्रियावादी और विश्वासघाती शासक वर्गों के नीतियों को बल दे रही है. इसके तहत चीन ने कोलंबो के सभी प्रतिक्रियावादी नीतियों को समर्थन किया है. श्रीलंका की प्रतिक्रियावादी राजपक्षे सरकार द्वारा तमिल राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष (एलटीटीइ) के साथ चलायी गयी युद्ध के लिए चीन ने सभी तरह का समर्थन दिया था. एलटीटीइ की संघर्ष को खून में डुबो दिया था. इस सफेद आंतक में हजारों तमिल राष्ट्रीयता की जनता, बच्चों और लड़ाकों को निर्ममता से मारा गया था. श्रीलंका में युद्ध अपराधों पर जांच करने की संयुक्त राष्ट्र के योजनाओं पर बार-बार चीन अपनी आपत्ति जताती रही. उस युद्ध में राजपक्षे सरकार को हथियार मुहैया कराने में चीन ने मुख्य भूमिका निभाई थी. युद्ध का अंत होने के बावजूद श्रीलंका के सशस्त्र बलों को प्रशिक्षण और वित्तीय सहायता चीन ने जारी रखी है. संयुक्त कार्रवाइयों के लिए योजनाएं जारी है.

2009 से श्रीलंका में चीन की गतिविधियां मुख्य रूप से वहां के इनफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्टों के लिए भारी रकम कर्ज देने के रूप में रही है. युद्ध में श्रीलंका आर्थिक रूप से अकेले पड़ जाने की समस्या से दक्षता से उबरने में उसे चीन ने मदद दी. चीन की वित्तीय सहायता मिलने वाली अधिकतर परियोजनाएं दक्षिण और मध्य श्रीलंका में हैं. जमीन संबंधित विषयों पर वहां की जनता लड़ रही है. इस परिप्रेक्ष्य में अमेरीका श्रीलंका को छोड़ने के लिए तैयार हो गयी. लेकिन चीन उस देश के साथ अपनी साम्राज्यवादी हितों को ही प्रमुखता दे रही है. युद्ध अपराधों के लिए वहां की सरकार जवाबदेह नहीं होने, मानवाधिकारों का सम्मान नहीं करने, तमिलों के लिए एक राजनीतिक समाधान के बिना श्रीलंका में खायी जैसे का वैसा ही रहने का मुख्य कारण यही रहा है.

नेपालः चीन और भारत के बीच नेपाल होने के कारण वह उन दोनों देशों के लिए रणनीतिक महत्व रखती है. नेपाल चीन के साथ अच्छी संबंध जारी रखते हुए ही वह हमेशा भारत का एक नजदीकी मित्र देश के रूप में रही है. 2008 में राजशाही के खात्मे के बाद चीन के साथ उसकी संबंधों में बढ़ोत्तरी हुई है.

नेपाल में चीन की मुख्य हित हैं – तिब्बती शरणार्थियों की राजनीतिक गतिविधियों को नेपाल सरकार द्वारा दबाना, सीमा पर चीनी सुरक्षा बल (पीएलए) के साथ वहां की सरकार का सहयोग हासिल करना, दक्षिणी एशिया में अपनी प्रभाव को बढ़ाना, नेपाल से नए व्यापार मार्गों को खोलना. अपनी प्रभाव को विस्तार करने वाली चीन और अपने आप को बचाने वाली भारत के बीच नेपाल की स्थिति इस प्रकार है :

2008 से चीन ने नाटकीय ढंग से नेपाल में अपनी राजनीतिक और आर्थिक सुरक्षा गतिविधियां तेज की है. 2012 में चीनी प्रधानमंत्री ने पिछली एक दशक में पहली बार नेपाल का भ्रमण किया था। बडे़ पैमाने पर चीनी सहायता बढ़ाने की घोषणा की थी. चीन काठमांडु में अपनी कूटनीतिक और सैनिक प्रतिनिधि मंडलों का विस्तार कर दोनों देशों के लोगों की आवाजाही, समूचे नेपाल चीनी अध्ययन केन्द्रों के निर्माण के लिए प्रोत्साहन दे रही है. इस तरह नेपाल में बढ़ती चीनी प्रभाव भारत को परेशानी में डाल रही है. नेपाल में 2011 में हुयी पेट्रोल की कमी बढ़ती चीनी गतिविधियों के जवाब में भारत की ही देन है. भारत का सोच है कि प्रतिरोध कार्रवाइयों द्वारा चीन को सीमित रखा जाए. नेपाली सेना का पारम्परिक तौर पर भारतीय सेना के साथ नजदीकी मित्रता रहने के बावजूद, वह चीनी जनमुक्ति सेना (पीएलए) के साथ संबंधों को विस्तार कर रही है. दोनों सेना संयुक्त अभ्यास संचालित कर रही हैं. चीन द्वारा प्रतिक्रियावादी नेपाली सेना को उपलब्ध करवाने वाली सैनिक सहायता में सामग्री, प्रशिक्षण, इनफ्रास्ट्रक्चर और आदान-प्रदान (एक्सचेंज) शामिल हैं.

नेपाल में चीनी गतिविधियां आर्थिक क्षेत्र में बहुत ज्यादा है. नेपाल को ‘सहायता’ देने वाली पांच देशों में चीन एक है. जनयुद्ध की समाप्ति के बाद से वह नेपाल में अपनी व्यापार और निवेश को उल्लेखनीय तौर पर बढ़ाई है. नेपाल में इनफ्रास्ट्रक्चर और जलविद्युत परियोजनाओं के लिए चीन भारी ऋण उपलब्ध करवा रही है। नेपाल में चीनी निवेश चीन और भारत के बीच तनाव को बढ़ा रही है.

उदाहरण के लिए, 2008 में तिब्बत से नेपाल तक एक रेल मार्ग निर्माण करने की योजना पर समझौता हुआ था. इस रेल मार्ग से नेपाल की अर्थव्यवस्था के हितों को पूरा होने का मौका होने के बावजूद, इस पर भारत बहुत परेशान हो रहा है. इससे इंधन स्रोतों के लिए भारतीय बंदरगाहों पर, भारतीय इंधन स्रोतों पर नेपाल की निर्भरता घटेगी ही नहीं, बल्कि चीनी माल का दक्षिणी एशिया में प्रवेश के लिए नयी राजमार्ग खुलेगी. भारत को ज्यादा डर इससे है कि इस रेल मार्ग द्वारा अपने सरहदों तक चीनी पीएलए तेजगति से आने का मौका मिलेगा।

अफ्रीका में चीनी साम्राज्यवाद का प्रभाव :

एक समय अफ्रीका में पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों द्वारा चलाया गया कार्य अभी चीनी सामाजिक-साम्राज्यवादी कर रहे हैं. वे अफ्रीकी महाद्वीप को अपने लक्ष्य बनाएं हैं. यहां तेल, लौह अयस्क, तांबा, सोना जैसे खनिज संपदाओं का व्यापक भण्डार हैं. दुनिया के पूरे खनिज भण्डार में 30 फीसदी अफ्रीकी महाद्वीप में ही मौजूद है. वहां विश्व के बाक्साइट की 42 फीसदी, युरेनियम की 38 फीसदी, सोना की 42 फीसदी, कोबाल्ट की 55 फीसदी, क्रोमाइन की 44 फीसदी, मांगनीस की 82 फीसदी, वनाडियम की 95 फीसदी, प्लाटिनम की 73 फीसदी भण्डार मौजूद हैं. यहां से कई महत्वपूर्ण खनिजों का आयात करने में चीन दुनिया में पहली स्थान पर है. इस तरह वह यहां नयी औपनिवेशिक तरीके से तीव्र शोषण जारी रखी हुई है. अफ्रीका में कई इलाकों में चीनी आर्थिक दबदबा तेजी से बढ़ रहा है. चीन और अफ्रीका के बीच वाणिज्य वर्ष 2000 से छः गुणा बढ़कर 30 अरब पाउण्ड[31] तक पहुंच गयी है.

वर्तमान चीन लगभग एक तिहाई हिस्सा तेल अफ्रीका से मुख्य रूप से अंगोला और सूडान से खरीद रही है. चीन 8,000 लाख पाउण्ड लागत वाला तेल क्षेत्र सूडान में खोल रही है. सूडान में 900 मील लम्बी पाइप लाइन चीन निर्माण कर रही है. इसके लिए 8 अरब पाउण्ड निवेश की है. नाइजीरिया की समुद्र में एक नया तेल क्षेत्र स्थापित करने के लिए 1.2 अरब पाउण्ड चीन खर्च कर रही है. कंगो में चीन तेल और खनन क्षेत्रें में रणनीतिक हिस्सेदार बन गयी है. उसी समय में जांबिया में खदानों, लेसोतो में कपड़ा कारखानों, उगांडा में रेल मार्गों, मध्य अफ्रीका गणतंत्र में इमारती लकड़ी और प्रत्येक देश की राजधानी में खुदरा व्यापार विकास योजनाएं चीन ने हासिल की है. चीनी साम्राज्यवादी हितों को कायम रखने के लिए जरूर अधिक कच्चा माल और उत्पादक माल के लिए नए बाजार खोजना होगा. चीन की तेल की खपत प्रत्येक साल कम से कम 10 फीसदी बढ़ने की स्थिति है. इस मांग के मुताबिक अपने देश की तेल भण्डार 20 सालों के अंदर खत्म हो जाएगी. इसलिए उसे विदेशी तेल अवश्य खोजना होगा. पहले से ही विश्व के बहुत बडे़ तेल भण्डार अमेरीका और पश्चिमी देशों के हाथों में हैं. साउदी अरब और इराक के पास ही विश्व तेल भण्डारों में से 45 फीसदी मौजूद हैं. धीरे-धीरे इन देशों के साथ चीन का संबंध बढ़ रहा हैं. साउदी अरब, इरान और अम्मन के बाद चीन के लिए सूडान चौथी तेल आपूर्तिकर्ता है.

अफ्रीका में तीन चीनी सरकारी तेल कंपनियां – सीएनपीएल, चीनी राष्ट्रीय आफ-शोर तेल कार्पोरेशन (CNOOC) और सीनोपेक कार्यरत हैं. तेल के क्षेत्र में चीनी गतिविधियां सूडान, अंगोला, नाइजीरिया, अलजीरिया, ईक्वटोरियल गिनी, कंगो और गेबन में जारी है.

अफ्रीका-चीन संबंधों में वर्ष 2006 एक मील का पत्थर है. उसी वर्ष चीनी राष्ट्रपति हु जिनटाओ, प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ दस अफ्रीकी देशों में भ्रमण किए थे. नवंबर में बीजिंग में हुई चीनी-अफ्रीकी सहयोगिता मंच (FOCAC) की तीसरी सत्र में कुल 53 अफ्रीकी देशों में से 48 देशों ने भाग लिया. चीन ने ‘‘अफ्रीका में चीनी नीति’’ नामक दस्तावेज प्रकाशित किया है. वह उसमें चीनी लक्ष्यों और उन्हें हासिल करने के रास्ते के बारे में बतायी है. वर्ष 2000 में 20 अरब डालर की द्विपक्षीय व्यापार 2006 में 55 अरब डालर तक वृद्धि हुई इस तरह अमेरीका और फ्रांस के बाद चीन उसकी तीसरा सबसे बड़ा वाणिज्य हिस्सेदार बन चुका है. 2004 में चीन ने 31 देशों को 1.38 अरब डालर के 156 ऋण उपलब्ध करवायी थी. 190 उत्पादों के आयात पर शुल्क नाममात्र कर दिया गया. 2005 के अंत तक, चीन ने अफ्रीका में 720 प्रोजेक्टों को आरंभ कर दिया.

अफ्रीका देशों में चीन कथनी में समाजवाद और करनी में साम्राज्यवाद को लागू कर रही है. वह समाजवादी विदेश नीति के नाम पर पांच सूत्रों को रटते हुए, मजदूर-किसान, मध्यम वर्ग के लोगों का तीव्र शोषण कर रही है. चीनी साम्राज्यवादियों ने ईमानदारी, समानता, साझा हित, भाईचारा, साझा विकास के झूठी बाते, ‘‘आपस में आदान-प्रदान,’’ ‘‘विविधता को सम्मान देना,’’ ‘‘शांति’’ आदि शब्दों को उनके द्वारा जारी प्रत्येक बयान और घोषणाओं में शामिल किया जाता है. इन बातों से स्थानीय शोषक-शासक वर्ग खुशी जाहिर करती हैं. इस तरह समाजवादी नकाब पहनकर चीन अफ्रीका के मजदूर-किसानों को धोखा दे रही है.

बाजार से अफ्रीकी व्यापारियों को दिवालिया कराकर भगा रही है. उसके सस्ते उत्पाद को अफ्रीका में भारी पैमाने पर निर्यात करने के कारण वहां के उद्योग नष्ट हो गये हैं. चीनी साम्राज्यवादी वहां के पर्यावरण को ध्वस्त कर दिया है. समूची अफ्रीका की स्वतंत्रता और एकता के लिए जनता से आ रही मांग को विकृत कर रहे हैं. वहां मानवाधिकारों का उल्लंघन कर रहे हैं. अफ्रीका को भ्रष्ट कर रहे हैं. पेयजल व्यापक तौर पर दूषित होने के वजह से चीनी अवैध खनन परियोजनाओं के बारे में घाना के कृषि आधारित कबिलाई लोगों में आक्रोश बढ़ रहा है. चीन वहां के कानूनों को बार-बार उल्लंघन कर रही है. इस तरह वहां के स्वतंत्र और आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था के विकास को रोककर चीनी साम्राज्यवादी नयी औपनिवेशिक तरीके का शोषण तेज कर रहे हैं.

लातीन अमेरीका में चीनी निवेश :

समूची लातीन अमेरीका में चीनी एफडीआई बहुत तेजी से बढ़ रही है. पेरू में आर्थिक, पर्यावरण और सामाजिक प्रभाव को ध्यान में रखकर देखें तो, वहां मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन करते हुए सभी तरह के शोषण करने में विदेशी और स्थानीय पूंजीवादी कार्पोरेशनों से चीनी मॉफियां भी पीछे नहीं हैं. 2012 तक चीन और लातीन अमेरीका के बीच व्यापार 261-2 अरब डालर तक पहुंच गयी थी. यह चीन-अफ्रीका व्यापार के बराबर है. अफ्रीका से भी लातीन अमेरीका (ब्राजील को मिलाकर) में चीनी निवेश अधिक हो गयी है. 2005 में विश्व बैंक और अंतर-अमेरीकी विकास बैंक से उपलब्ध निवेश से भी चीनी विकास बैंक और चीनी निर्यात-आयात बैंक से उपलब्ध ‘विकास’ ऋण अधिक थी. वहां जारी विकास की सभी गतिविधियां चीनी साम्राज्यवादी आर्थिक हितों और मुनाफें के लिए चल रही हैं.

लातीन अमेरीका में चीन कई ऊर्जा स्रोतों और मौलिक सुविधाओं (infrastructure) के परियोजनाओं का निर्माण कर रही है. अर्जेंटीना के शांताक्रुज में चीन अपनी जेझौबा कार्पोरेशन द्वारा 4.7 अरब डालर की लागत से दो नए जलविद्युत परियोजनाएं निर्माण कर रही है. ईक्वेडार में चीन की सीनोहाइड्रो कंपनी 2.2 अरब डालर की लागत से जलविद्युत परियोजना निर्माण कर रही है.

लातीन अमेरीका में ज्यादातर कच्चा माल और प्राकृतिक संसाधनों को कब्जा करने की मंशा के साथ ही पेरू में तांबा, ब्राजील में लौह अयस्क, अर्जेंटीना में सोया फसल पर चीन निवेश कर रही है. लातीन अमेरीका में 87 फीसदी चीनी ओएफडीआई (Outgoing FDI-बाहर जाने वाली विदेशी प्रत्यक्ष निवेश) चीनी सरकारी क्षेत्र के संस्थानों द्वारा ही लगायी जा रही है. अभी कई चीनी निजी कार्पोरेशन भी अधिक निवेश निर्यात कर रही हैं.

7. अंतरराष्ट्रीय आर्थिक और सैनिक गठजोड़ों का निर्माण – उनपर बढ़ती चीनी साम्राज्यवादियों की पकड़

शंघाई सहयोगिता संगठन (एससीओ) :

शंघाई सहयोगिता संगठन (एससीओ) 26 अप्रैल, 1996 को गठित हुआ था. छः देश – रूस, चीन, कजाकस्तान, उजबेकिस्तान, कर्गिस्तान, ताजिकिस्तान पूर्णकालीन सदस्य के रूप में हैं. पर्यवेक्षक देशों के दर्जे में रहे भारत और पाकिस्तान को 2017 जून महीने की दूसरी सप्ताह में हुई एससीओ के शिखर सम्मेलन में पूर्णकालीन सदस्यता दी गयी है. राजनीतिक, आर्थिक और सैनिक पहलुओं पर एससीओ काम कर रहा है. चीन और रूस 2005 से ही बडे़ पैमाने पर नियमित रूप से युद्ध अभ्यास कर रही हैं. इससे यह लग रहा है कि दोनों देशों के बीच संबंध और गहरी हो गयी है. पूर्ववर्ती सोवियत राज्यों के साथ किये गये रक्षा समझौतों के तहत रूस के नेतृत्व में गठित सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन (Collective Security Treaty Organisation-CSTO) में एससीओ शामिल हो गया है. इससे अमेरीकी नेतृत्व वाले नाटो के विकल्प के तौर पर एक रक्षा गठजोड़ के रूप में एससीओ मजबूत हो रहा है.

ब्रिक्स :

साम्राज्यवादी देश रूस और चीन- आर्थिक शक्ति हासिल करने वाली मुख्य देश – ब्राजील, भारत और दक्षिण अफ्रीका मिलकर 2009-2011 के बीच राजनीतिक और आर्थिक गठजोड़ के रूप में ब्रिक्स को गठित किए हैं. इन देशों के बीच कुछ अंतरविरोध और खींच-तान होने के बावजूद, उनके अपने विभिन्न हित होने के बावजूद साझा हितों के लिए उन्होंने ब्रिक्स को स्थापित की है. इनमें से सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और बहुत तेज आर्थिक वृद्धि होने वाली देश चीन है.

आईएमएफ, विश्व बैंक और अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों पर अमेरीका और उसके नजदीकी दोस्त साम्राज्यवादी देश इजारेदारी चला रही हैं. तुरंत आईएमएफ और विश्व बैंकों से पीछे हटने की कोई भी योजना ब्रिक्स देशों का नहीं है, इसके बावजूद उनके आधिपत्य और अलोकतांत्रिक आकांक्षाओं के विकल्प के तौर पर नयी अंतरराष्ट्रीय आर्थिक और राजनीतिक संगठनों का निर्माण करने पर चीन सहित ब्रिक्स देश सोच रही हैं. इसी तरह विश्व बैंक के विकल्प के तौर पर एक अंतरराष्ट्रीय विकास बैंक गठित करने पर मार्च 2013 में दर्बन (दक्षिण अफ्रीका) बैठक में ब्रिक्स देशों के नेताओं ने एक निर्णय लिया है और नयी विकास बैंक (NDB) का 2015 में गठन किया है. यह विश्व भर में इनफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को निवेश उपलब्ध कराने में विश्व बैंक से टक्कर ले रही है.

ब्रिक्स के सदस्य देश भविष्य में आने वाले वित्तीय संकटों का मुकाबला करने के लिए 100 अरब डालर की लगात से ‘आकस्मिक जरूरतों को मदद देने वाली संरक्षित निधि’ (contingent reserve arrangement) को भी गठन करेंगे. आईएमएफ और विश्व बैंक पर अमेरीका जिस तरह अपना प्रभुत्व चला रही है, चीन का भी नयी विकास बैंक पर उसी तरह का प्रभुत्व चलाने की मंशा है. प्रारंभिक योजना के मुताबिक इस बैंक के लिए सभी ब्रिक्स देशों ने 10 अरब डालर का समान हिस्सा उपलब्ध कराने का निर्णय लिया है. लेकिन इसमें पहले ही भारी रकम लगाने पर चीन सोच रही है. इसके बाद बैंक के लिए जरूरी भारी अतिरिक्त निवेश तो चीन ही उपलब्ध करा सकती है.

ब्रिक्स देशों द्वारा जिस बैठक में इस बैंक को गठित की गयी है उसी बैठक में ही इस समझौते पर हस्ताक्षर किया गया है कि ‘अमेरीकी डालर और यूरो पर निर्भरता घटाना होगा.’ विश्व में असमान विकास के कारण चीन की आर्थिक शक्ति तेजी से बढ़ रही है. इसके साथ-साथ यह भी एक सच्चाई है कि अमेरीका आर्थिक तौर पर कमजोर हो रही है. साम्राज्यवादियों के बीच आर्थिक प्रतिस्पर्धा तेजी से बढ़ रही है. विश्व आर्थिक संकट तेज हो रही है. इन परिस्थितियों में आर्थिक प्रतिस्पर्धा और मजबूती से जारी है. बढ़ती आर्थिक प्रतिस्पर्धा के मुताबिक भविष्य में सैनिक प्रतिस्पर्धा अवश्य और बढ़ सकती है.

चीन की सैनिक शक्ति :

चीन आर्थिक शक्ति के रूप में ही नहीं, बल्कि राजनीतिक और सैनिक तौर पर भी विकासशील शक्ति है. 2002-2011 के बीच चीन ने अपनी रक्षा बजट को 170 फीसदी बढ़ाकर खर्च करने द्वारा अपनी सेना को विकसित किया है.[32] स्टॉकहम इंटरनेशनल रीसर्च इनस्टिट्यूट (SIPRI) के मुताबिक, आज चीन समूचे विश्व में ही दूसरी सबसे बड़ी सैनिक बजट खर्च कर रही है. इससे ज्यादा सिर्फ अमेरीका ही ऐसी खर्च कर रही है. इसी तरह अमेरीका, रूस, ब्रिटेन और फ्रांस के बाद समूचे विश्व में ही चीन 5वां सबसे बड़ा परमाणु शक्ति हासिल करने वाला देश के रूप में है. पिछली दशक के दौरान चीनी सेना में तेजी से अधुनिकीकरण किया गया है.

आज वह आक्रामक युद्ध लड़ने के लिए भारी सैनिक क्षमताओं से लैस है. उसने हाल ही में साबित किया कि वह उपग्रहों को भी गिरा सकेगी. चीन भारी हथियारों के निर्माताओं के लिए जन्मभूमि है. ैप्च्त्प् के मुताबिक, विश्व के हथियार बाजार में सभी स्पर्धा लेने वालों में चीनी हथियार के इजारेदारी संस्थान 5वीं स्थान पर है. अमेरीका और अन्य साम्राज्यवादियों की तुलना में चीन लगातार अपनी सैनिक शक्ति बढ़ा रही है. एक डिविजन सैनिकों के लिए भुगतान करने वाली वेतन, भोजन, निवास और प्रशिक्षण हेतु खर्च अमेरीका की तुलना में चीन में बहुत कम है. इसी तरह अमेरीका से तुलना करने से चीन में टैंक, जेट विमान, मिसाइल, सबमेरिन आदि का निर्माण करने के लिए होने वाली लागत बहुत कम है.

चीन ड्रोन विमानों के विकास और उत्पादन को तेजी से विस्तार कर रही है. वह अपनी आधुनिक मिसाइल व्यवस्थाओं के साथ प्रतिद्वंद्वियों के ड्रोनों को आसानी से गिरा रही है. 2011 तक उसके पास 280 ऑपरेशनल ड्रोन मौजूद थी. इन्हें खुफिया जानकारी लेने (इंटलिजेन्स), निगरानी (सरवाइलेन्स), रेक्की (रेकन्नाइसेन्स) गतिविधियों और इलेक्ट्रानिक युद्धतंत्रों में इस्तेमाल कर रहे हैं. चीन का ड्रोन प्रोग्राम बहुत ही आधुनिक है.

इस तरह चीन बडे़ पैमाने पर हथियारबंद होने के पीछे का परिप्रेक्ष्य यह है कि वह देरी से एक नयी सामाजिक-साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में पटल पर आयी है. उसके इर्दगिर्द के इलाकें पहले ही अन्य साम्राज्यवादी आधिपत्य वाली शक्तियों के प्रभाव में हैं. उसकी उत्तर और पश्चिम दिशाओं में रूस है. उसकी दक्षिण और पूर्वी दिशाओं से अमेरीका और जापान से उसे सबसे मुख्य खतरा है. इनके साथ-साथ अन्य साम्राज्यवादी देशों से मुकाबला करते हुए ही चीन अपनी नयी औपनिवेशिक प्रभाव के दायरे को पिछडे़ देशों में पैदा और विस्तार कर सकती है. इस परिप्रेक्ष्य में ही चीन की पूर्वी चीन सागर व दक्षिणी चीन सागरों से सटे हुए पड़ोसी देश – जापान, वियतनाम और फिलिप्पीन्स के बीच बढ़ती खींचतान को समझना होगा.

अमेरीका में सरकारी बजट घाटा और अमेरीका व विश्व में भी आर्थिक संकट जारी रहने के कारण अमेरीका अपनी सैनिक खर्च में कटौती कर रही है. इसी तरह पश्चिमी देश भी कटौती कर रही हैं। यूरोप से नाटो के लिए पैसे देती आ रही सात देश – ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, इटली, नेदरलैंड्स, पोलैंड, स्पैन – पहले ही यानी 2009 से 10 फीसदी से ज्यादा कटौती की है. सामाजिक-साम्राज्यवादी महाशक्ति सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था नष्ट और पतन हो चुकी थी. इसका कारण है सोवियत संघ की हथियारों की होड़ ही नहीं, बल्कि उसकी पूरी अर्थव्यवस्था का मरणावस्था में पहुंच जाना.

चीनी साम्राज्यवाद की सैनिक गतिविधियां :

चीन पहले ही कई देशों में सैनिक तौर पर कई तरीकों से हस्तक्षेप कर रही है. वह अभी तक मुख्य साम्राज्यवादी युद्ध में नहीं उतरी है, लेकिन कई देशों में चल रहे गृहयुद्धों में, जनविद्रोहों में, राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों और क्रांतिकारी आंदोलनों को कुचलने में वह स्थानीय दलाल सरकारों को सक्रिय समर्थन दे रही है. चीनी साम्राज्यवादी चाद देश में अपने खिलाफ चलने वाली सरकार को उखाड़ कर अपने लिए अनुकूल सरकार गठन किया है. चाद के राष्ट्रपति इड्रिस डेबी तेल आपूर्ति में ताइवान के प्रति अनुकूल रवैया रखते थे. इसके वजह से चीन ने उन्हें उखाड़ने के लिए उस देश में उनके खिलाफ जारी एफयुसी विद्रोहियों को कूटनीतिक, सैनिक और आर्थिक तौर पर समर्थन दिया है. उनके स्थान पर अपने लिए अनुकूल और एक नेता को लाये हैं. विश्व में कई सैनिक संघर्षों में चीन हस्तक्षेप कर रही है. उदाहरण के लिए, श्रीलंका में एलटीटीइ पर चलायी गयी युद्ध में उसकी भूमिका रही थी.

दक्षिणी एशिया में शक्ति संतुलन को अपने अनुकूल बलदने के लिए वह रणनीतिक रूप से पाकिस्तान को परमाणु हथियार उपलब्ध करवायी. नेपाल और अफगानिस्तान में विभिन्न अवसरों पर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हस्तक्षेप किया है और कर रही है. मुख्य रूप से अफ्रीका में राजनीतिक, कूटनीतिक समर्थन, सैनिक सुझाव देने, विदेशी राजनयिक कार्यालयों में सैनिक सलाहकारों द्वारा आदेश देने, इसी तरह चीन विदेशी राजनयिक कर्मचारियों को सैनिक प्रशिक्षण देकर हस्तक्षेप कर रही है. अपने अनुकूल रहने वाले कई देशों को सैनिक सामग्री और हथियार बेच रही है या आपूर्ति कर रही है. इस विषय में अन्य साम्राज्यवादियों और चीनी साम्राज्यवादियों के बीच कोई अंतर नहीं है. इसमें वह पहले से ही सक्रिय साम्राज्यवादी देशों में एक रही है. वह 2012 तक तीसरा सबसे बड़ा हथियार निर्यातक हो चुकी है.

विदेशों में अपनी निवेशों को बचाने और पिछडे़ देशों पर अपनी आधिपत्य की क्षमता को बढ़ाते हुए चीनी सेना अमेरीका सेना के साथ होड़ में बहुत तेजी से बढ़ रही है. चीन समूचे विश्व में विस्तार करने के लिए लुटेरी साम्राज्यवादी शक्ति को निर्माण करने में अभी तक सफल होने के बावजूद, वियतनाम, इराक और अफगानिस्तान में अमेरीका जिस तरह फंसी है, उसी तरह चीन भी अपनी साम्राज्यवादी स्वभाव के मुताबिक साम्राज्यवादी दुराक्रमणकारी युद्धों में फंस जाना अनिवार्य है.

1990 में चीन ने ‘संयुक्त राष्ट्र के शांति सुरक्षा जिम्मेदारियों’ में शामिल होने पर अपनी सहमति जतायी थी. लाइबेरिया (2005), पश्चिमी सहारा, सियर्रा लियोन, आइवरी कोस्ट, कंगो लोकतांत्रिक गणतंत्र में गतिविधियों में शामिल होने के लिए छोटी संख्या में चीन अपनी बलों को भेजी थी. पाकिस्तान (बलूचिस्तान इलाके) के ग्वादर बंदरगाह और हिंद महासागर के जबूती सैनिक आपूर्ति अड्डा (military logistics base) में उसके द्वारा पहले ही तैनात 20 हजार नौसेना को एक लाख तक बढ़ाने का निर्णय उसने लिया है. सूडान, अलजीरिया, नाइजीरिया, मिस्र सहित कम से कम छः अफ्रीकी देशों और चीन के बीच सैनिक गठजोड़ हैं. उनके लिए चीन द्वारा बेचे गये हथियारों के इस्तेमाल पर वह सैनिक प्रशिक्षण दे रही है.

8. चीनी सामाजिक-साम्राज्यवाद

दूसरी इंटरनेशनल के विश्वासघातियों (रेनगेड) की निंदा करते हुए लेनिन ने कहा, ‘‘कथनी में समाजवाद और कार्यों में अवसरवाद वृद्धि होने पर वह साम्राज्यवाद के रूप में तब्दील हो जाती है.’’ सोवियत संशोधनवादी विश्वासघाती गुट भी संशोधनवाद से बढ़ते हुए सामाजिक-साम्राज्यवाद के रूप में तब्दील हो गयी थी. कामरेड माओ ने एक ऐतिहासिक सबक के रूप में कहा कि एक सामाजिक राज्य की राजनीतिक सत्ता अगर संशोधनवादियों द्वारा हथिया लिया जाता है तो, वह जरूर सोवियत संघ की तरह सामाजिक-साम्राज्यवाद के रूप में तब्दील हो जाएगी. इसपर रेनमिन रिबाओ, हांक्वी और जीफाघजुन बाओ के संपादकीय विभागों ने पिकिंग रिव्यू में प्रकाशित अपने एक निबंध में इस तरह व्याख्या की :

‘‘ऐतिहासिक सबक यह है कि एक बार एक संशोधनवादी गुट द्वारा राजसत्ता को कब्जा किया जाता है, तब एक समाजवादी राज्य या तो समाजिक-साम्राज्यवाद के रूप में तब्दील हो जायेगी, जैसा कि सोवियत संघ के मामले में हुई, या एक पराधीन देश या एक औपनिवेशिक देश के रूप में बदल जायेगी, जैसाकि चेकोस्लोवाकिया और मंगोलियाई लोकतांत्रिक गणराज्य के मामले में हुई. अब हम साफ देख सकते हैं कि ख्रुश्चेव-ब्रेजनेव गद्दार गुट का सत्ता पर काबिज होने का सारतत्व निहित है लेनिन और स्तालिन द्वारा स्थापित समाजवादी राज्य का एक आधिपत्यवादी समाजिक-साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में परिवर्तित होने में.’ (पिकिंग रिव्यू, नं- 17, 24 अप्रैल, 1970)

चीनी संशोधनवादी और विश्वासघाती गुट भी संशोधनवाद से ‘‘चीनी तरह के समाजवाद’’ के नाम पर पूंजीवाद में वापस चली गयी. संशोधनवादी देङ शब्दों में कहा जाये तो, ‘‘सभी आर्थिक संबंध को पूंजीवाद के तर्ज पर बदलना होगा, लेकिन राजनीतिक संबंध को ‘समाजवाद’ के नाम पर, ‘जनता की अधिनायकत्व’ के नाम पर अकेली-पार्टी की तानाशाही के मातहत रखना होगा.’’

इसी नकाब पहन कर चीन आज सामाजिक-साम्राज्यवाद के रूप में बदल गयी है. सीपीसी और चीनी सरकार अभी भी अपने देश को ‘समाजवादी’ कहकर धोखा दे रही हैं. आज वे कथनी में, चीनी व्यवस्था को ‘चीनी विशेषताओं के साथ समाजवाद’ कहते हुए भटका रहे हैं. ‘‘कम्युनिस्ट पार्टी के मातहत लागू बुर्जुआ आर्थिक सुधारों को चीनी तरह का समाजवाद’’ कहते हुए धोखा दे रहे हैं. वे और आगे चल कर ‘‘वर्ष 2050 तक समाजवादी आधुनीकिकरण हासिल करना होगा’’ कहते हुए चीनी तरह के समाजवाद को पुनर-उल्लेख कर रहे हैं.

इसी तरह सीपीसी का नेतृत्व अभी भी ‘‘सभी क्षेत्रें में चीनी तरह के समाजवाद को निर्माण करने के लक्ष्य से 21वीं सदी में भी आगे बढे़ं’’ का आह्वान अधिवेशनों में कर रहा है. ‘समाजवादी व्यवस्था,’ ‘सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व,’ ‘कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व,’ ‘मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओ विचारधारा’ – इन चारों विषयों को गलत ढंग से पेश करते हुए वह लोगों को अभी भी धोखेबाजी से भटका रही है. चीन में हो या अन्य देशों में हो, सिर्फ संशोधनवादी ही वास्तविक परिस्थितियों को गलत ढंग से पेश कर रहे हैं. चीन पिछडे़ देशों के लोगों को समाजवाद के नाम पर धोखा देते हुए, अपनी सामाजिक-साम्राज्यवादी हितों को पूरा कर रही है. चीन में मौजूदा सरकारी क्षेत्र के संस्थानों (SOEs) को दिखा कर पूंजीवाद को ‘समाजवाद’ के रूप में भ्रमित कराना संशोधनवादियों के लिए मामूली बात हो गया है.

चीनी सामाजिक-साम्राज्यवाद पिछड़े देशों और अन्य देशों में युद्ध सामग्री और निवेश के निर्यात के द्वारा, असमान व्यापार के द्वारा उनकी प्राकृतिक संसाधनों को लूट रही है. उनकी आंतरिक विषयों में हस्तक्षेप करते हुए, सैनिक अड्डे स्थापित करने हेतु वह मौका तलाश रही है. अमेरीकी साम्राज्यवाद के साथ प्रतिस्पर्धा में उतर रही है. इस तरह चीनी सामाजिक-साम्राज्यवाद साम्राज्यवाद से संबंधित घेरे में ही घुम रही है. वह चीनी विशेषताओं के साथ साम्राज्यवाद को लागू कर रही है. ‘चीनी विशेषताओं के साथ साम्राज्यवाद’ का मतलब सिर्फ साम्राज्यवाद ही है, इसे खतरनाक साम्राज्यवाद के रूप में देखा जा सकता है.

9. लेनिन का नारा ‘‘साम्राज्यवाद का इतिहास ही संकटों, युद्धों, क्रांतियों और प्रतिक्रांतियों का इतिहास है’’

आज अधिकोत्पादन से संबंधित गंभीर संकट एक विश्व व्यापी संकट है इसलिए यह पूंजीवादी व्यवस्था के अस्तित्व को ही चुनौती दे रही है. चीन तीव्र शोषण का शिकार करोड़ों मजदूरों के साथ एक बड़ा देश है. वह विश्व अर्थव्यवस्था में शामिल हो जाने के वजह से बडे़ पैमाने पर अधिकोत्पादन हो रहा है. हर एक साम्राज्यवादी शक्ति अन्य साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ होड़ में शामिल होने के लिए आस लगाकर बैठी है. उनकी मंशा न सिर्फ अपनी व्यय को कम करना है, बल्कि अपने उज्रती मजदूरों की, खासकर औपनिवेशिक और अर्ध-औपनिवेशिक देशों के मजदूरों के जीवन स्तर को कम करने के लिए उन पर हमले किये जाय. औद्योगिक उत्पादन, पूंजी निर्यात, माल का निर्यात, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय स्थिति में सापेक्षिक तौर पर आयी परिणामों के मुताबिक नयी और असमान परिस्थितियां सामने आ रही हैं और तेज हो रही हैं.

साम्राज्यवादी देशों के बीच असमान आर्थिक और राजनीतिक विकास तेज हो जाने के कारण उनके बीच बाजारों, कच्चा माल की आपूर्ति के लिए अड्डों और पूंजी निर्यात के लिए मार्गों के लिए संघर्ष अनिवार्य रूप से तेज हो जाएगा. साम्राज्यवादियों के बीच जारी इस आंतरिक संघर्ष में बहुत ही लाभदायक उत्पादन वाली, बहुत ही मजबूत साम्राज्यवादी देश और वृद्धि होकर मजबूत हो जाती हैं. इस स्पर्धा में पिछड़ने वाली पूंजीपति या साम्राज्यवादी कमजोर हो जाते हैं.

साम्राज्यवादियों के बीच जारी आंतरिक संघर्ष उनकी आर्थिक शक्ति के मुताबिक दुनिया का बंटवारा की ओर धकेल रही है. यह अंत में विश्व युद्ध का ही रास्ता सुगम बनाती है. लेनिन इसे इस तरह संश्लेषण किया है : पूंजीपति दुनिया का बंटवारा अपने किसी विशेष द्वेष-भावना के कारण नहीं, बल्कि इसलिए करते हैं कि केन्द्रीकरण जिस हद तक पहुंच चुका है, वह उन्हें मुनाफा कमाने के लिए यह रास्ता अपनाने पर मजबूर कर देता है। साथ ही वे इसका बंटवारा ‘‘पूंजी के अनुपात से,’’ ‘‘शक्ति के अनुपात से’’ करते है, क्योंकि माल-उत्पादन और पूंजीवाद के अंतर्गत बंटवारे का कोई दूसरा तरीका हो ही नहीं सकता. परंतु शक्ति का कम या ज्यादा होना आर्थिक तथा राजनीतिक विकास पर निर्भर होता है. जो कुछ हो रहा है, उसे समझने के लिए यह आवश्यक है कि हम इस बात को जानें कि शक्ति के परिवर्तन कौन-से प्रश्नों का समाधान करते हैं. ये परिवर्तन ‘‘शुद्ध रूप से’’ आर्थिक हैं या गैर-आर्थिक हैं (उदाहरण के लिए, सैनिक) यह गौण प्रश्न है, जो पूंजीवाद के नवीनतम युग संबंधित मूलभूत विचारों को जरा भी प्रभावित नहीं कर सकता। पूंजीवादी संघों के बीच संघर्ष तथा समझौतों के सारतत्व के प्रश्न के स्थान पर संघर्ष तथा समझौतों के रूप (आज शांतिपूर्ण, कल युद्ध जैसा, अगला दिन फिर से युद्ध जैसा) का प्रश्न रखना एक कुतर्की की भूमिका तक उतर आने जैसा है.’’ (लेनिन संकलित रचनाएं, ग्रंथ-3,साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था, पृष्ठः 94 से)

लेनिन के इस शिक्षा के मुताबिक, दिन ब दिन बढ़ती अपनी आर्थिक शक्ति के बुनियाद पर निर्भर होकर चीन अपनी वित्तीय पूंजी के मुनाफें हेतु दुनिया का बंटवारा करना अनिवार्य है इसलिए वह साम्राज्यवादियों, विशेषकर अमेरीका के साथ अवश्य ही प्रतिद्वंद्विता करती है और उनके बीच आर्थिक प्रतिस्पर्धा, राजनीतिक और सैनिक क्षेत्रों में संघर्ष की ओर ले जाती है. इसके बावजूद उनके बीच सांठगांठ भी होती है. इसमें सांठगांठ अस्थायी और सापेक्षिक है प्रतिस्पर्धा ही स्थायी और निर्णायक है. इस प्रतिस्पर्धा सैनिक क्षेत्र में परोक्ष युद्ध और प्रांतीय युद्धों के रूपों में जारी रहने की संभावना है.

चीन को घेरकर रोकना अमेरीका का लक्ष्य है. जापान और भारत सहित चीन के इर्दगिर्द अपने गठजोड़ों को मजबूत करने के लिए अमेरीका कोशिश कर रही है. वह अपनी सैनिक शक्ति को बडे़ पैमाने पर विस्तार करते हुए चीनी आर्थिक और सैनिक विस्तार को और मजबूती से मुकाबला करने के लिए कोशिश कर रही है. बढ़ती साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में चीन अपनी सीमित दायरे से विस्तार करने के लिए कोशिश करते हुए प्रतिद्वंद्वी शक्तियों से मुकाबला करनी चाहती है.

‘बहुध्रुवीय दुनिया’ को स्थापित करना आधिकारिक तौर पर घोषित चीनी विदेश नीति है. दूसरे शब्दों में कहे तो, यह अमेरीकी एकध्रुवीय दुनिया को चुनौती देने, उसके साथ प्रत्यक्ष प्रतिस्पर्धा में उतरने के सिवा और कुछ नहीं है.

दक्षिण एशिया प्रांतीय सहयोगिता संगठन (सार्क) में, दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार इलाके में चीन को ‘विशेष हिस्सेदार’ का दर्जा हासिल है. खाद्य और कच्चा माल की आपूर्ति के लिए ब्राजील के साथ चीन ने द्विपक्षीय समझौतें किये हैं. अमेरीकी शासक वर्ग और उसके मित्र देश 9/11 की अलकायदा के हमले के बहाने अफगानिस्तान और इराक पर साम्राज्यवादी दुराक्रमणकारी युद्ध में उतरी है. अंतरराष्ट्रीय ‘आतंकवाद पर युद्ध’ को मुख्य रूप से इस्लामिक देशों और जनता के खिलाफ केन्द्रीकृत किया गया है. इसके कारण चीन के साथ योजनाबद्ध तरीके से बढ़ती संघर्ष और नयी शीत युद्ध (Cold War) के कार्रवाइयों को स्थगित करना पड़ा. अमेरीका और उसके मित्र देशों ने सोचा कि अफगानिस्तान और इराक में जल्द ही आसानी से जीत हासिल कर पाएंगे, उसके बाद इरान, सिरिया और उत्तर कोरिया पर अपना ध्यान केन्द्रीकृत कर पाएंगे, अंत में रणनीतिक तौर पर खतरा बनी हुई चीन के साथ लम्बे समय तक मुकाबला कर पाएंगे.

लेकिन इसके विपरीत अफगानिस्तान और इराक में साम्राज्यवादी दुराक्रमणकारी युद्धों में अमेरीका फंसती गयी है. लम्बे समय तक उन देशों में जन प्रतिरोध जारी है. उसमें अमेरीका विफल होती गयी है. इन युद्धों के लिए पैसा देने और बलों को भेजने में ‘गठजोड़ बलों’ की एकता कमजोर होती चली गयी है.

अफगानिस्तान और मध्यपूर्व के (पश्चिम एशियाई) देशों में अमेरीका के फंस जाने के कारण वर्तमान विश्व साम्राज्यवादी ढांचे में आर्थिक तौर पर घुसने के लिए चीन साम्राज्यवाद को बड़ा अवसर मिला है. चीनी विस्तार को मजबूती से मुकाबला कर पाने में आर्थिक रूप से अमेरीका कमजोर हो गयी है. उदाहरण के लिए, अमेरीका के नेतृत्व में दुराक्रमणकारी युद्ध के बाद के वर्षों में चीन ने इराक से बड़े तेल ठेकें हासिल की है. अमेरीका की घबराहट इस बात से है कि दुनिया में सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में रही उसकी स्थान को चीन कहीं कब्जा न कर लें. उसकी कमजोर वित्तीय स्थिति और बजट घाटें और गहरी हो रही है, चीन की अंतरराष्ट्रीय वित्तीय स्रोत और ताकत बडे़ छलांगों के साथ वृद्धि हो रही है. प्रत्येक वर्ष चीनी सैनिक व्यय और ताकत का विस्तार हो जाना पेंटागन निगल नहीं पा रही है. कुल मिलाकर, चीनी शक्ति बढ़ रही है और अमेरीकी शक्ति घट रही है.

अंतरराष्ट्रीय आर्थिक प्रतिस्पर्धा में चीन को पार करने के लिए अमेरीकी शासक वर्ग रास्ते ढ़ूंढ़ रहे हैं। इसके तहत ही हुई है ‘अंतरप्रशांत भागीदारी’ (टीपीपी) समझौता. अमेरीका के लिए और चीन को छोड़कर प्रशांत इलाके के बाकी सभी देशों के लिए यह मुक्त व्यापार मंडली गठित की गयी है. (डोनल्ड ट्रम्प इस समझौते को अभी रद्द करने के बावजूद दूसरे तरीके से इस तरह के समझौते करना अनिवार्य है. क्योंकि, इस समझौते को रद्द करने पर जापान और दक्षिण कोरिया ने अपनी आपत्ति जतायी है और घोषणा की कि अपने बीच इस समझौता के मुताबिक सहयोगिता जारी रहेगी.) इससे विश्व पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था में दो प्रतिस्पर्धात्मक आर्थिक/राजनीतिक/सैनिक गठजोड़ गठन हो रहा है.

डब्ल्युटीओ जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों को इस्तेमाल कर पिछडे़ देशों को शोषण करने में साम्राज्यवादी देशों के बीच सांठगांठ जारी रहने के बावजूद, डब्ल्युटीओ में चीन के खिलाफ अमेरीका और अन्य साम्राज्यवादी देशों का अंतरराष्ट्रीय व्यापार युद्ध तेज हो रहा है. डब्ल्युटीओ में शामिल सभी मुख्य साम्राज्यवादी देश उसके नियमों का उल्लंघन करते हैं. लगातार सदस्य देशों को और आपस में एक दूसरे को भी धोखा देते हैं. बाजार के हिस्से को छीनने के लिए विदेशी बाजारों में कम कमीतों पर अपने माल बेचते हैं – ‘डम्पिंग’ करते हैं (बाजार में फेंक देती हैं).

निर्यात के रियायतों को इस्तेमाल करते हैं. अपनी कार्पोरेशनों को ठेकें देने पर सैनिक सहायता के लिए भरोसा देते हैं. रिश्वतखोरी जैसे अवैध कार्यों में उतरते हैं. अमेरीका की तरह चीन भी अपनी प्रतिद्वंद्वियों को छोड़कर अपनी मुक्त व्यापार संगठनों को गठन कर रही है. इसलिए, अमेरीका और उसकी नजदीकी मित्र देशों के खिलाफ आर्थिक/राजनीतिक/सैनिक गठजोड़ गठन करने के लिए चीन कोशिश कर रही है. इसका उदाहरण है, चीन और रूस केन्द्रित शंघाई सहकारिता संगठन (एससीओ). वे एससीओ को एक रक्षा गठजोड़ के रूप में, ब्रिक्स को एक आर्थिक गठजोड़ के रूप में जारी रखी हुई हैं.

सिल्क रोड मुक्त व्यापार इलाका या ओबीओआर योजना :

चीन मध्य एशियाई देश – कजाकिस्तान, उजबेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, किर्गिस्तान, तजकिस्तान के साथ एक ‘‘सिल्क रोड मुक्त व्यापार इलाके’’ का गठन कर रही है. इसके लिए एक करोड़ 65 लाख करोड़ रूपयों के निवेश के साथ मुख्य रूप से चीन की पहलकदमी, रूस की सक्रिय सहकारिता से वन बेल्ट, वन रोड (OBOR) योजना सामने आयी है. चीन की एशिया इनफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक, ब्रिक्स के नये विकास बैंक और कई सिल्क रोड निवेश संगठन मुख्य रूप से ओबीओआर के लिए आर्थिक सहायता दे रहे हैं. 2016 में संपन्न शंघाई सहकारिता संगठन के शिखर सम्मेलन ने इस ओबीओआर योजना का पूरा समर्थन किया है. ओबीओर कोई एक साधारण योजना नहीं है. यह छः आर्थिक गलियारों का सम्मिलित योजना है.

ये गलियारें चीन से आरंभ होती हैं. चीन से बाकी एशियाई इलाकों और अफ्रीकी तथा यूरोपीय महाद्वीपों तक रोड, रेल व जलमार्गों का विकास करना इस योजना का लक्ष्य है. इनके निर्माण से पूर्वी एशिया से यूरोपीय आर्थिक मंडलों तक भूभाग एक-साथ मिल जायेगी. पहली मार्ग, मध्य एशिया और पूर्वी यूरोपीय देशों की तरफ किर्गीस्तान, इराक, तुर्की और ग्रीस तक जाती है. दूसरी मार्ग, मध्य एशिया से पश्चिमी एशिया और भूमध्यसागर तक जाती है. इस मार्ग से कजाकस्तान और रूस तक चीन जा सकती है. तीसरी मार्ग, दक्षिण एशियाई देश बंगलादेश की तरफ जाती है. इसको बंगलादेश, चीन, भारत, म्यांमार (BCIM) आर्थिक गलियारा का नाम दिया गया है. चौथी मार्ग, पाकिस्तान में रणनीतिक महत्व वाली बंदरगाह ग्वादर को पश्चिमी चीन से जोड़ती है. यही चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा के रूप में जाना जाता है. पांचवीं मार्ग, चीन से एक जलमार्ग थाइलैंड और मलेशिया होते हुए सिंगापुर से हिंद महासागर की तरफ जाती है. छठवीं मार्ग, मंगोलिया आर्थिक गलियारा. इन छः भू-जल मार्गों द्वारा मध्य एशियाई मुक्त व्यापार मंडल (Central Asian Free Trade Area) में नेपाल, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, इरान जैसे एशियाई देशों को शामिल करने के साथ-साथ अफ्रीका और यूरोप महाद्वीपों के कुल 65 देशों को जोड़ने के लक्ष्य से इस योजना को कार्यान्वित किया जा रहा है.

14 मई, 2017 को इस योजना पर चीन में संपन्न अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में चार महाद्वीप – एशिया, अफ्रीका, यूरोप और दक्षिणी अमेरीका से 29 देशों के राष्ट्रपति शामिल हुए. अमेरीका, जापान सहित कई देशों ने अपनी प्रतिनिधि मंडल भेजी हैं. संक्षिप्त में यह योजना जलमार्गों पर अमेरीकी साम्राज्यवाद की वर्चस्व के विकल्प के तौर पर रूस के समर्थन और भागीदारी देशों के सहकारिता सहयोग से चीन द्वारा बनायी गयी रणनीतिक योजना है.

कुल मिलाकर, अंतरराष्ट्रीय तौर पर चीन की आर्थिक प्रतिष्ठा बढ़ी है. अमेरीक को अपनी वित्तीय और व्यापार घाटा को पाटने के लिए पैसे देना चीन के लिए कई विषयों में अनुकूलताएं पैदा कर दिया है. अमेरीका और चीन के बीच आर्थिक तनाव बढ़ने से चीन का ही वर्चस्व कायम हो रहा है. चीन पर हमले करने या प्रतिबंध लगाने के लिए अमेरीका कई सीमितताओं का सामना कर रही है. अमेरीका और चीन का कई विषयों में सांठगांठ होने के बावजूद मुनाफें के लिए बाजारों को कब्जा करने के विषय में उनके बीच तीव्र प्रतिस्पर्धा जारी है.

लेकिन रूस और चीन के बीच साझा हित हैं. अमेरीकी आधिपत्य के वर्तमान अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को अस्वीकार करना, इस स्थिति को अंत करने की ाकांक्षाएं रखना, इसके लिए अपने बलों को इस्तेमाल करने के लिए भी तैयार रखने में इसे देख सकते हैं. रूस और चीन अपने देशों के हितों के मुताबिक बल प्रयोग कर रहे हैं. पश्चिमी और पड़ोशी देशों के साथ संबंध बिगड़ने के डर का परवाह न करते हुए व्यवहार कर रही हैं. उदाहरण के लिए, रूस ने क्रैमिया को शामिल करने का एकतरफा निर्णय लिया है. रूस के बल पर क्रैमिया ने एकतरफा स्थानीय जनमत संग्रह करवाकर युक्रेइन से अलग हुई है. मार्च 2014 में रूसी संघ में शामिल हुई है. रूस की इस निर्णय का पश्चिमी देश तीव्र निंदा करते हुए उसपर प्रतिबंध लगाये हैं. नवम्बर 2013 में दक्षिणी चीनी सागर में चीन ने एकतरफा घोषणा की कि अपनी एयर डिफेंन्स आईडेंटिफिकेशन जोन (ADIZ) को स्थापित कर रही है और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को चेतावनी दी कि इस जोन में उड़ान भरने से पहले उन्हें जानकारी देनी होगी. दो चीनी युद्ध विमान जापान के ADIZ से ओवरलैप होने वाले इलाके में जापान के दो स्काउट बलों से बाल-बाल बच गयी थी. मई 2014 में वियतनाम के विवादास्पद भूभाग में स्थित पर्सल द्वीपों के इर्दगिर्द समुद्री जलों में चीनी राष्ट्रीय ऑफ-शोर तेल कार्पोरेशन (CNOOC) ने एक बड़ा तेल रिग स्थापित किया और तेल के लिए किसी को जानकारी दिये बिना ड्रिलिंग प्रारंभ कर दिया है. इस जलक्षेत्र में चीन अपनी नौसेना भेजी है. वहां वह वियतनाम के मछुआ नावों और सार्वजनिक नावों के साथ बार-बार संघर्षों में उतर रही है.

रूस और चीन युरेशिया में दो मजबूत शक्तियां हैं. वे संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा समिति में भी स्थायी सदस्य हैं. जैसे पहले ही उल्लेख किया गया है, अंतरराष्ट्रीय राजनीति को अमेरीका और पश्चमी देशों द्वारा नियंत्रित किया जा रहा है, जिसे रूस और चीन बार-बार विरोध कर रही हैं. जब से शीत युद्ध खत्म हुई तब से लेकर विभिन्न अवसरों पर अपने वीटो अधिकार को उन्होंने (रूस और चीन) इस्तेमाल किया. उदाहरण के लिए, जब 1999 में कोसोवो में युद्ध हुई वहां पर सैनिक शक्ति प्रयोग करने पर संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा समिति में इन दोनों देशों ने अपना विरोध जताया था। जब उत्तर कोरिया के खिलाफ कई प्रतिबंध लगाया गया था, सिरिया में गृहयुद्ध में हस्तक्षेप किया गया था, जिसके विरोध में उन दोनों ने साझा रूख अपनाया था.

चीन दक्षिण चीन सागर और पूर्वी चीन सागर में जो कार्रवाई लागू कर रही है, वे उस भूभाग पर उसके अधिकार के दावों पर आधारित हैं. इस तरह रूस और चीन द्वारा जारी किए गए घोषणा पत्रों और दस्तावेजों से यह पता चलता है कि वर्तमान अमेरीकी एकल महाशक्ति का वे विरोध कर रहे हैं. मई 2014 में रूस, बेलारूस और कजाकस्तान मिलकर एक आर्थिक गठजोड़ गठित करने के तरफ एक समझौते पर हस्ताक्षर किया और युरेशिया संघ को स्थापित की. सैनिक मामलों में रूस सामूहिक सुरक्षा समझौता संगठन (CSTO) को प्रमुखता दे रही है. इसमें रूस, आर्मेनिया, बेलारूस, कजाकस्तान, किर्गिस्तान और तजकिस्तान शामिल हैं. युक्रेइन और यूरोपियन यूनियन के अन्य रीजियनों से संबंधित रूसी नीति भविष्य में इन इलाकों को अपने नियंत्रण में लाने के मुताबिक है.

चीन में हु जिनटाओ ने जब से प्रधानमंत्री का पद संभाला तब से चीन अपने आप को एक मजबूत समुद्र शक्ति के रूप में तब्दील होने का दावा कर रही है. शी-जिनपिंग (Xi Jinping) ने जब से राष्ट्रपति पद संभाला तब से लेकर ‘‘चीनियों का सपना,’’ ‘‘चीनी लोगों का महा पुनरुद्धार’’ जैसे मुहावरों को ऊंचा उठा रहे हैं. जून 2013 में राष्ट्रपति शी और अमेरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ हुई शिखर सम्मेलन में नयी दुनिया के आधिकारिक संबंधों के बारे में शी ने अपने प्रस्ताव में कहा कि प्रशांत इलाका अमेरीका और चीन के लिए पर्याप्त जगह उपलब्ध करा सकती है. इस प्रस्ताव के जरिए शी ने चीन की योजना को इस तरह घोषित किया कि प्रशांत इलाके को अमेरीका और चीन के बीच बंटवारा कर शासन किया जाए.

इस योजना के तहत अमेरीका से भी ज्यादा चीन का चाहत यह है कि नानसीयु द्वीपों और ताइवान-फिलिप्पीन्स के बीच बाशि जलमार्ग (चेनेल) और पूरी दक्षिण चीनी सागर सहित पहली द्वीप समुदाय के दायरे में अपनी प्रभुत्व स्थापित कर सके। उसके बाद, ओगासावरा द्वीपों से गुआन तक विस्तारित दूसरी द्वीप समुदाय के दायरे में (यह पर्ल नेकलेस के रूप में प्रसिद्ध है) हिंद महासगार से मध्यपूर्व (पश्चिम एशिया) तक विस्तारित समुद्र जलों में अड्डों के साथ एक मूल नेटवर्क निर्माण कर अनुकूलताएं पैदा कर सके. इसलिए, पूर्वी चीन सागर और दक्षिण चीन सागर में चीन के वर्तमान कार्रवाइयों को किसी मामूली भौगोलिक विवादों को सुलझाने की कोशिशों के रूप में नहीं, बल्कि चीनी साम्राज्यवाद द्वारा उक्त योजना के एक सीढ़ी के रूप में ही देखना होगा। सीधी बात करते हुए चीन ने कहा है कि अमेरीकियों को चीनियों के बचत निवेश और अधिक चाहिए तो, अमेरीका ताइवान को हमारे हवाले कर देना होगा, तिब्बत पर चीन के अधिकारों के बारे में परेशान करना बंद करना होगा. यही है वाकई में नयी साम्राजयवादी शक्ति के तौर पर उभरी चीन और पतन होती जा रही अमेरीकी महाशक्ति के बीच का संबंध. अंतरराष्ट्रीय पटल पर कुछ मुख्य बदलावों और रूझानें (trends) सामने आ रहे हैं, वे हैं –

1. 1970 की दशक से स्टैगफ्लेशन[33] या ठहराव-स्फीति के रूप में जारी पूंजीवादी आम संकट के तहत, क्रमशः आर्थिक तौर पर कमजोर पड़ती जा रही अमेरिका 2008 में उभरे गृहऋणों की संकट के कारण और कमजोर होना- अभी राजनीतिक और सैनिक क्षेत्रों में उसका रूस और चीन से प्रतिस्पर्धा और बढ़ जाना.

2. साम्राज्यवादी और पूंजीवादी देशों में आर्थिक क्षेत्र में (अपने देश के बाजार को सिर्फ अपने ही देश के उद्योगों के लिए) सुरक्षित रखने की नीति (protectionism), राजनीतिक क्षेत्र में रंगभेद और फासीवाद का बढ़ जाना.

3. पिछड़े देशों के संसाधनों और बाजारों को लूटने के लिए साम्राज्यवादी देशों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ जाना.

4. अभी तक एकल महाशक्ति के रूप में रहे अमेरीकी साम्राज्यवाद अपने परिस्थिति को संगठित करने की कोशिश कर रहा है. रूसी साम्राज्यवाद अपने प्रभाव क्षेत्रें को बचाने के लिए कोशिश कर रहा है. साम्राज्यवादी देश के रूप में उभरी चीन द्वारा दुनिया को पुनर्विभाजित करने के लिए गंभीर कोशिशें किये जाने के कारण अमेरिका महाशक्ति के साथ उसकी अंतरविरोध बढ़ रही है. दुनिया को पुनर्विभाजित करने के लिए अमेरिका और चीन के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा के मुताबिक दुनिया भर में भौगोलिक-राजनीतिक ध्रुवीकरण में बदलाव आना. यूरोप में आधिपत्य के लिए जर्मनी और फ्रांस के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ना. इन बदलावों में प्रधान साम्राज्यवादी देशों का शक्ति-संतुलन प्रतिबिम्बित होना.

निकट भविष्य में अमेरीका, चीन/रूस गठजोड़ों (blocks) के बीच युद्ध एजेण्डा में नहीं होने के बावजूद, कई परोक्ष युद्ध तो जरूर एजेण्डा में हैं. लेकिन अमेरीका रूस और चीन को आक्रामकता के साथ घेर रही है. नाटो अफगानिस्तान और पाकिस्तान में युद्ध विस्तार कर रहा है. वह आर्कटिक में रूस को रोकना चाहता है. अमेरीकी नेतृत्व वाली गठजोड़ द्वारा जारी चेतावनियों से ऐसा लगता है कि चीन पुनःहथियाबंद हो रही है इसलिए विश्व भर में चीन और रूस गठजोड़ अमेरीकी साम्राजयवाद के लिए मुख्य प्रतिस्पर्धी बन गयी है. चीनी साम्राज्यवाद का बढ़ता बाजार जरूरतों को पूरा करने के लिए, तेल, महत्वपूण खनिजों पर नियंत्रण के लिए, आम तौर पर दुनिया को लूटने के लिए विश्व में प्रत्येक जगह पर चीन अमेरीका के साथ प्रतिस्पर्धा में उतर रहा है. इस तरह दुनिया को बंटवारा करने के लिए जारी साम्राज्यवादी आंतरिक संघर्ष में चीन और रूस गठजोड़ अभी अमेरीकी आधिपत्य के खिलाफ मुख्य खतरा के रूप में उभरा है.

समापन

विश्व में तीन मौलिक अंतरविरोध – साम्राज्यवाद और उत्पीड़ित राष्ट्रों व जनता के बीच का अंतरविरोध- पूंजीवादी, साम्राज्यवादी देशों में बुर्जुआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच का अंतरविरोध- साम्राज्यवादी देशों और इजारेदार पूंजीवादी समूहों के बीच का अंतरविरोध तीखे हो रहे हैं. इन अंतरविरोधों में से साम्राज्यवाद और उत्पीड़ित राष्ट्रों तथा जनता के बीच का अंतरविरोध प्रधान अंतरविरोध है. यही अंतरविरोध आज दूसरे अंतरविराधों को प्रभावित व निर्धारित कर रहा है.

साम्राज्यवाद के शोषण, उत्पीड़न, दमन, दुराक्रमण, विश्वासघात, हस्तक्षेप, आधिपत्य और भेदभाव का शिकार अफ्रीका, एशिया और लातीन अमेरीकी देशों की जनता जागृत हो रही हैं और प्रतिरोध कर रही हैं. साम्राज्यवादियों के खिलाफ जारी आंदोलनों में जन भागीदारी बढ़ रही है. इसके तहत चीनी सामाजिक-साम्राज्यवादियों और उत्पीड़ित राष्ट्रों व जनता के बीच का अंतरविरोध, चीन में बुर्जुआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच का अंतरविरोध बढ़ते हुए चीनी साम्राज्यवाद के खिलाफ जनता विभिन्न रूपों में लड़ रही हैं. देश आजादी चाहते हैं, राष्ट्रीयताएं मुक्ति चाहती हैं, जनता क्रांति चाहती हैं इसलिए ये सभी संघर्ष साम्राज्यवाद को उखाड़ने तक विरामहीन जन उभारों के रूप में आगे बढ़ेंगे. इस अवसर पर महान मार्क्सवादी शिक्षक माओ द्वारा शिक्षित बातों को यहां याद करना उचित होगा जिसे जापान-विरोधी युद्ध की जीत के संदर्भ में बताया गया था, ‘‘दुनिया निश्चय ही प्रगति का मार्ग अपनाएगी, न कि प्रतिक्रियावाद का.

अलबत्ता, हमें पूर्णतया सतर्क रहना चाहिए और घटनाक्रम के दौरान कुछ अस्थाई अथवा यहां तक कि गम्भीर उतार-चढ़ावों की सम्भावनाओं की ओर भी ध्यान देना चाहिए- कई देशों में अब भी जबरदस्त प्रतिक्रियावादी शक्तियां मौजूद हैं, जो देश के भीतर और देश के बाहर की जनता की एकता, प्रगति और मुक्ति के प्रतिद्वेष रखती हैं. जो कोई भी इन बातों को नजरअन्दाज करेगा वह राजनीतिक गलती कर बैठेगा. फिर भी इतिहास की सामान्य धारा बिलकुल स्पष्ट रूप से निर्धारित हो चुकी है और वह बदलेगी नहीं.’’[34]

साम्राज्यवादियों के बल पर संशोधनवादियों द्वारा की गयी गद्दारी के कारण सोवियत संघ और समाजवादी चीन सहित पूरी समाजवादी खेमे ही खो जाने की वर्तमान स्थिति में विश्व सर्वहारा वर्ग के लिए एक मुक्तांचल भी नहीं बचा है. आज अक्टूबर क्रांति की पहले की स्थिति बनी हुई है. कुल मिलाकर परिस्थिति के अंदर मौजूद सभी लक्षणों पर ध्यान देने से कुछ नकारात्मक पहलू मौजूद होने के कारण परिस्थिति में गंभीर खतरें और चुनौतियां होने के बावजूद, महान अवसरों के रास्ते सुगम बनाने की अनुकूलताएं अतीत की इतिहास में किसी समय के मुकाबले अभी अधिक मात्रा में मौजूद हैं लेकिन कुल मिलाकर परिस्थिति सही में उस तरह है, जैसे कामरेड माओ ने बताया कि ‘‘एक चिगांरी सारे जंगल में आग लगा सकती है,’’ ‘‘सशस्त्र क्रांति सशस्त्र प्रतिक्रांति का सामना कर रही है.’’

मरणावस्था में छटपटा रही साम्राज्यवाद आज विश्व भर में कई पिछडे़ देशों पर दुराक्रमणकारी युद्ध जारी रखते हुए, स्थानीय/प्रांतीय युद्ध सुलगाते हुए विश्व की उत्पीड़ित जनता के लिए गंभीर मुसीबतें पैदा कर रही है. साम्राज्यवादियों के बीच प्रतिस्पर्धा के तहत अपने बाजार हितों के लिए दुनिया का बंटवारा करने हेतु योजनाबद्ध तरीके से आर्थिक और सैनिक गठजोड़ें गठित करते हुए और एक विश्व स्तर के युद्ध के लिए तैयारियां कर रहे हैं. जैसे पहले ही बताया गया है, साम्राज्यवादियों के दुराक्रमणकारी व हस्तक्षेप की नीतियों के जरिए जारी प्रतिक्रांतिकारी युद्धों का विश्व सर्वहारा वर्ग, उत्पीड़ित राष्ट्रों व जनता विरोध व प्रतिरोध कर रही हैं. मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद की रोशनी में विश्व सर्वहारा वर्ग, माओवादी पार्टियां व संगठन उत्पीड़ित राष्ट्रों व जनता को गोलबंद कर, युद्धों के लिए कारण बने साम्राज्यवाद और सभी तरह के प्रतिक्रियावादी तत्वों को उखाड़ने के लक्ष्य से संघर्ष करना होगा. साम्राज्यवादी बिना-संकोच तीसरी विश्व युद्ध में उतरती है तो, उन्हें दफनाकर सर्वहारा क्रांतियों को सफल बनाने के लक्ष्य से उस युद्ध को गृहयुद्ध के रूप में तब्दील करने की कार्यनीतिय विश्व सर्वहारा वर्ग को अपनानी चाहिए. बुर्जुआ अंधदेशभक्ति को उकसा कर उत्पीड़ित राष्ट्रों व जनता में फूट डालने के लिए साम्राज्यवादियों व संशोधनवादियों द्वारा की जाने वाली साजिशों के खिलाफ लड़ना चाहिए. विश्व समाजवादी क्रांति को सफल बनाने के लक्ष्य से पूंजीवादी-साम्राज्यवादी देशों में सर्वहारा वर्ग मध्यम वर्ग से मिलकर समाजवादी क्रांतियों को सफल बनाने का कर्तव्य हाथ में लेना होगा. पिछड़े देशों में नवजनवादी क्रांतियों और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों को सफल बनाना होगा.

आज की शानदार क्रांतिकारी परिस्थिति में क्रांतियां हो सकती हैं और वे युद्ध को रोक सकती हैं. परन्तु अगर क्रांतियां छिड़ने में विलम्ब हो जाए, साम्राज्यवादियों के बीच अंतरविरोध और तेज होने से विश्वयुद्ध शुरू हो सकता है. ऐसा होने पर, विश्व सर्वहारा वर्ग उस गंभीर संकट और युद्ध के कारण लोगों में उभरने वाले आक्रोश का इस्तेमाल कर साम्राज्यवाद और अपने-अपने देशों में उसके दुमछल्लों को पूरी तरह उखाड़कर क्रांतियों को सफल बनाना होगा. इन दोनों में से किसी भी हालत में क्रांति ही मुख्य प्रवृत्ति (trend) होती है. इस रूझान को दुनिया में कोई भी शक्ति रोक नहीं सकती.

नोट्स :

1. ‘उत्पादन शक्तियों’ का संशोधनवादी सिद्धांतः उत्पादन शक्तियों में दो पहलुएं हैं. वे हैं मानव और उत्पादन साधन. इनमें से मानव प्रधान और निर्णायक हैं. लेकिन संशोधनवादी उत्पादन साधनों के विकास को प्रमुखता देते हैं. ‘उत्पादन शक्तियों का सिद्धांत’ को समर्थन करने वाले सशोंधनवादी दावा करते हैं कि उत्पादन साधन को विकसित करने के लिए बुर्जुआ विशेषज्ञों पर निर्भर होना होगा, उनको और आधुनिक विज्ञान को विदेशों से आयात करना होगा. विज्ञान और टेकनोलोजी विकसित करने से ही उत्पादन का विकास होकर अर्थव्यवस्था विकसित होगी. एक शब्द में ‘उत्पादन शक्तियों का सिद्धांत’ का अर्थ है वर्गसंघर्ष के खिलाफ आधुनीकिकरण और मुनाफा को प्राथमिकता देकर, वस्तुगत प्रोत्साहनों के जरिए ही उत्पादन शक्तिओं को बढ़ाने पर ही ध्यान देना होगा. यह सर्वहारा क्रांति और सर्वहारा अधिनायकत्व के खिलाफ संशोधनवादियों द्वारा सामने लाया गया सिद्धांत है.

दूसरी इंटरनेशनल के संशोधनवादी नेता बर्नस्टाईन और काउट्स्की, रूस के बोश्लेविक पार्टी में ट्रॉट्स्की, बुखारिन जैसे गद्दार, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में छुन तू-श्यु, ली शाओ-ची, लिन पियाओ, देङ जियाओ पिङ जैसे दक्षिणपंथी व वामपंथी ‘अवसरवादी’ संशोधनवादी लाइन के नेता विभिन्न संदर्भों में इस सिद्धांत को सामने लाये थे.

2. प्रगमाटिज्म (व्यवहारिकतावाद)ः यह 1870 की दशक में अमेरीका में शुरू हुई थी. यह पूंजीवादी दुनिया में खासकर अमेरीका में प्रचलित रूझान है. इसका दावा हैः ज्ञान के मूल्य का मानदण्ड उससे होने वाला फायदा ही है, न कि उसका वस्तुगत वास्तविकता के अनुरूप होना. सच्चाई वही है जिससे आदमी को फायदा हो. वस्तुगत वास्तविकता का मतलब ‘अनुभव’ के सिवा और कुछ नहीं है. यानी सफलता दिलाने वाली किसी भी प्रतिक्रियावादी नीति या सिद्धांत से कोई एतराज नहीं. इस तरह वह बुर्जुआ वर्ग के हितों को प्रतिबिम्बित करती है.

3. एक मिलियन दस लाख से बराबर है. डालर अमेरीकी मुद्रा है. वर्तमान अतंरराष्ट्रीय मूल्य के मुताबिक एक डालर लगभग 66-67 रूपये के बराबर है.

4. एक अरब 100 करोड़ या एक बिलियन के बराबर है.

5. मुनाफें में हिस्सेदारी समझौताः चीन में पूंजीवाद के पुनःस्थापाना के बाद लागू किये गये सुधारों के परिणास्वरूप अतीत के योजनाबद्ध आर्थिक विकास की समाजवादी नीति को भी कूडे़दान में फेंक दिया गया. नीचे से ऊपर तक विभिन्न स्तर के सरकारी अंगों के मातहत होने वाली उत्पादन क्षेत्रें को धीरे-धीरे निजी मालिकाना के अंदर लाया गया है. इसी क्रम में निचले स्तर के (स्थानीय) सरकारी अंगों के मातहत लागू स्थानीय योजनाबद्ध विकास की नीति रद्द हो गयी. उसके स्थान पर विभिन्न उत्पादन/सेवा क्षेत्रें में ठेकें के आधार पर व्यापार करने की नीति अमल में लायी गयी है. स्थानीय सरकारी अंगों कें हाथों से उत्पादन/सेवा क्षेत्र के योजनाओं का निरीक्षण करने की जिम्मेदारियां छीन ली गयी है. वे सिर्फ विभिन्न ठेका व्यापारों में मिलने वाले मुनाफें में सरकार के लिए भुगतान करने वाली हिस्सेदारी के बारे में विभिन्न ठेकेदारों/पूंजीपतियों के साथ बातचीत कर समझौते करने तक सीमित हो गया हैं. इन स्थानीय सरकारी अंगों द्वारा पूंजीपतियों के साथ किए जाने वाले करारनामों को ही मुनाफें में हिस्सेदारी समझौता कहते हैं. यानी निजी कंपनियां अपने मुनाफें में सरकार के लिए भुगतान करने वाले हिस्से के बारे में किये जाने वाला करारनामा है.

6. चीन देश की मुद्रा है युवान. मार्च 2012 में एक अमेरीकी डालर के लिए 6.3 चीनी युवान मिलती थी।

7. तियनानमेन स्क्वेयर विरोध प्रदर्शनः 1989 के वसंत काल में जनवादी-पक्षधर छात्रों ने चीन व्याप्त बडे़ पैमाने पर प्रदर्शन किए थे. जनवादी सुधारों को लागू करने की मांग की. अप्रैल 1989 में सीपीसी के पूर्व प्रधान सचिव हु याओबघ के निधन के बाद बीजिंग के तियनानमेन स्क्वेयर के पास ये प्रदर्शन शीर्ष स्तर तक पहुंच गयी थी. सरकार की निशेधाज्ञाओं को भी धिक्कार करते हुए जारी इस आंदोलन में प्रदर्शनकारियों ने सीपीसी के शीर्ष नेता व संशोधनवादी देङ और उनकी उनके सहयोगियों को गद्दी से उतरने की मांग की. 20 मई को सरकार ने मार्शल कानून लगा दिया. अमेरीकी साम्राज्यवादी इस तथाकथित ‘जनवादी आंदोलन’ को यथासंभव सभी तरीके से प्रोत्साहन दिया. इन प्रदर्शनों को संशोधनवादी देङ सरकार ने सेना को तैनात कर बहुत ही पाशविक ढंग से कुचल दिया. 3 और 4 जून, 1989 को सेना द्वारा की गयी हमलों में सैकड़ों प्रदर्शनकारी मारे गये और हजारों घायल व गिरफ्तार हो गये. बडे़ पैमाने पर फांसी की सजा दी गयी.

8. पश्चिमी शैली के निजी इजारेदार पूंजीवादः पहले पश्चिमी यूरोप और अमेरीका में पूंजीवाद और इजारेदार पूंजीवाद का उद्भव हुआ. वहां बडे़ पैमाने पर यह अस्तित्व में है. पूंजीवादी साम्राज्यवादी देशों में इजारेदार पूंजीवाद निजी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में तीव्र प्रतिस्पर्धा के क्रम में धीरे-धीरे विकसित हुई. यही है पश्चिमी शैली के निजी इजारेदार पूंजीवाद. इस निजी इजारेदार पूंजीवाद कुछ हद तक विकसित होने के बाद ही, उस निजी इजारेदार पूंजी की सेवा करने के लिए जब राजसत्ता का इजारेदार पूंजी के साथ मेल-मिलाप हुआ तब सरकारी इजारेदार पूंजीवाद उभर कर आया.

9. इनपुटः किसी एक निर्दिष्ट क्रम में (वह कोई उत्पादन हो, सेवा हो या कार्रवाई) बाहर से जोड़ने वाली मदद. उदाहरण के लिए, उत्पादन में उसके लिए मदद देने वाला कच्चा माल, पानी, बिजली जैसी मौलिक सुविधाएं, श्रम-शक्ति आदि.

10. ठेका मजदूर व्यवस्थाः स्थायी मजदूरों की संख्या धीरे-धीरे घटाते हुए, अस्थायी मजदूरों और मौसमी (ेमेंवदंस) मजदूरों को बड़ी संख्या में नियुक्त करने की नीति.

11. अमेरीका की नयी अर्थव्यवस्था-डॉटकाम बूम-पतनः 1990 की दशक के अंत में अमेरीका में विकसित इंटरनेट पर निर्भर होकर सांप्रदायिक तरीकों से विपरीत ई-कामर्स (इलेक्ट्रानिक व्यापार संबंधित लेन-देन) को अमेरीकी साम्राज्यवादियों ने बडे़ पैमाने पर विकसित किया था. 1999-2002 के बीच ई-व्यापार उल्लेखनीय तौर पर विकसित हुई. एक अमेरीकी ब्यूरो के आंकडे़ के मुताबिक वह 1999 में 15 अरब डालर से 2002 में 44 अरब डालर तक वृद्धि हुई. धीरे-धीरे उसकी जोश कम हो गयी. 2000-2001 में ई-व्यापार बडे़ पैमाने पर दीवालिया हो गया. 1990 की दशक के अंत में फली-बढ़ी डॉटकाम बूम का बुलबुला 21वीं सदी के शुरूआत तक फट गया. 1999-2001 के बीच 520 ई-व्यापार संघों को अपना व्यापार या तो स्थगित करना पड़ा या दीवालिया होना पड़ा. फार्च्यून पत्रिका के मुताबिक एक लाख कर्मचारियों की नौकरी चली गयी (ले-आफ का शिकार हुए).

12. लेनिन संकलित रचनाएं, ग्रंथ-3, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम दशा, पृष्ट-111 से.

13. एमएनसी और टीएनसीः एमएनसी (बहुराष्ट्रीय कार्पोरेशन) साम्राज्यवादी देशों से संबंधित भारी इजारेदार पूंजीवादी संस्थान. इनके यूनिट ज्यादातर पिछडे़ देशों में होते हैं. पिछडे़ देशों में मजदूरों के वेतन का स्तर कम होता है. इसे इस्तेमाल कर उन देशों में पूंजी के निर्यात कर एमएनसीयां शोषण कर रही हैं. टीएनसी किसी एक देश के इजारेदार पूंजीवादी संस्थानों के रूप में होती हैं. कुछ परिस्थितियों में एमएनसीयां, टीएनसीयों के रूप में भी व्यवहार करती हैं. इन दोनों गतिविधियां विश्वव्यापी हैं. 1960 के दशक से ये बेरोकटोक वृद्धि हो गयी हैं ये बहुत ही धनाढय हैं.

14. फोर्ब्स ग्लोबल अरबपतियों की तालिकाः विश्व में अरबपतियों का ब्योरा देने वाली तालिका- अमेरीका के फोरब्स पत्रिका इसे प्रकाशित करती है.

15. फोर्ब्स ग्लोबल 2000ः विश्व में बहुत बडे़ व बहुत ही ताकतवर कंपनियों की तालिका- फोर्ब्स पत्रिका इसे प्रकाशित करती है.

16. फार्च्यून ग्लोबल 500ः विश्व में अमेरीका केन्द्रित 500 बहुत बडे़ कार्पोरेशनों की तालिका- फोर्ब्स पत्रिका इसे प्रकाशित करती है.

17. 2012 में चीन के राष्ट्रीय आर्थिक और सामाजिक विकास पर चीनी लोकतांत्रिक गणराज्य द्वारा जारी आंकड़ा, 22 फरवरी, 2013.

18. केस डेविस, चीन में आने वाली एफडीआई और उसकी नीतिगत संदर्भ, 2012, कोलम्बिया एफडीआई रूपरेखा, 24 अक्टोबर, 2012.

19. 2012 में विश्व के धन-कुबेरों के हाथों में मौजूद संपदा के बारे में कॉपजेमिनि 2012 विश्व संपदा की रिपोर्ट बताती है.

20. ओलिगोपोलीः कुछ ही वित्तीय पूंजीपतियों के आर्थिक आधिपत्य को आलिगोपोली कहते हैं.

21. वाल स्ट्रीट अमेरीका के न्यूयार्क शहर में प्रमुख स्टॉक एक्सचेंज है.

22. फाइनान्शियल ओलिगार्कीः देश की राजसत्ता पर ही नहीं, बल्कि समाज के अधिरचना में विभिन्न क्षेत्रें पर भी नियंत्रण रखने वाली छोटी वित्तीय शासकों के गुट को फाइनान्शियल ओलिगार्की कहलाते हैं.

23. रियल एस्टेट का बुलबुलाः 15 अक्टोबर 2008 को एक दिन में ही अमेरीकी स्टॉक मार्केट ने एक ट्रिलियन डालर 100 बिलियन खो दिया था. सितम्बर में 7 ट्रिलियन डालर खो दिया था. कुल मिलाकर विश्व बाजार की संकट के कारण अक्टूबर के बीच तक 27 ट्रिलियन डालर का नुकसान हो गया. बैंकों ने 2-5 ट्रिलियन डालर के पेंशननिधियों के साथ 700 अरब डालर खो दिया. ऋण नीति भ्रष्ट होकर, भरोसा घटने के कारण गंभीर परिणाम भुगतना पड़ा. इन परिणामों के लिए गृहऋण संकट उत्प्रेरक बन गयी. सब-प्राइम नामक नयी जहरीला रूझान वित्तीय पूंजी द्वारा ही पैदा हुआ था.

सब-प्राइमः सब-प्राइम के बारे में जानने के लिए अमेरीका में कर्ज देने की नीति को समझना होगा. अमेरीका में कर्ज लेने वालों को दो वर्गों में वर्गीकृत करते हैं. 1) प्राइम लोन लेनेवाले. कर्ज चुनाके के लिए पर्याप्त संपत्ति होने वालों को ही प्राइम लोन देते हैं. 2) सब-प्राइम लोन लेनेवाले. किसी भी योग्यता नहीं रखने वालों को इस तरह के कर्ज देते हैं. इसके लिए उन्हें किसी तरह की गारंटी दिखाना जरूरी नहीं है. घर को गिरवी रखने से मिलने वाले पैसे को पैसे के रूप में नहीं, बल्कि एक सेक्यूरिटी बॉण्ड के रूप में देना आज वित्तीय बाजार में आम बात हो गयी है.

अमेरीका में रियल एस्टेट व्यापारी इस तरह की सेक्यूरिटी बॉण्डों को ऋण के रूप में लेने की नीति विकसित हुई. दरअसल इस तरह के सेक्यूरिटी बॉण्डों के लिए किसी भी गारंटी नहीं होती. इनपर आधारित होकर ऋण देना पानी में बहाने के अलावा और कुछ नहीं है. इस तरह अमेरीकी बैंकें किसी भरोसे बिना करोड़ों डालर कर्ज देने, फिर वे वापस ले नहीं पाने (कर्ज लेकर भुगतान नहीं करने) के कारण 2007 के अंत में अमेरीका में सब-प्राइम संकट पैदा हुई थी.

24. एक ट्रिलियन एक हजार बिलियन या एक लाख करोड़ के बराबर है.

25. कॉनग्लोमरेटः कॉनग्लोमरेट एक इजारेदार पूंजीवादी संस्थान है. वह अपने क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि विभिन्न अन्य औद्योगिक और सेवा क्षेत्रें में यानी बैंकिंग, यातायात, बीमा, कन्सल्टेन्सी (सलाह देने वाली संस्थान) आदि सेवा क्षेत्रों में निवेश लगाती है. इस तरह विभिन्न क्षेत्रों के उद्योगों पर आर्थिक नियंत्रण रखना कॉनग्लोमरेटों का लक्षण है.

26. पोर्टफोलियो निवेशः ट्रेजरी बॉण्ड, सेक्यूरिटी, स्टाक मार्केट के शेयर, विकास कार्यक्रमों में लगायी जाने वाली निवेशों के शेयर.

27. एशिया इनफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक चीनी साम्राज्यवादियों द्वारा अमेरीका पर प्रतिस्पर्धा के तौर पर एशिया में अपना आधिपत्य विस्तार करने के लिए स्थापित किया है. इसमें विभिन्न देशों के निवेश होने के बावजूद प्रधान रूप से चीन अपनी पहलकदमी से ही इसे स्थापित की है.

28. मलक्का जलसंधि दक्षिण-पूर्व में मलेशिया और इंडोनेशिया को अलग करने वाली जलसंधि है. यह उत्तर हिंद महासागर से दक्षिण चीन सागर को जोड़ती है. इसकी लम्बाई 800 किलोमीटर और चौड़ाई 60-480 किलोमीटर है. इसकी दक्षिण दिशा में कई द्वीप हैं. यह जलसंधि दुनिया के प्रमुख नौ-मार्गों में से एक है.

29. होरमुज जलसंधि इरान और अरब प्रायद्वीप के बीच एक छोटी जलमार्ग है. यह पर्शियन खाड़ी से अरब सागर को जोड़ती है. इसकी लम्बाई 270 किलोमीटर और चौड़ाई 50-80 किलोमीटर है. यह विश्व भर में तेल को नौ-मार्गों के जरिए रवाना करते हुए बहुत रणनीतिक-आर्थिक महत्व रखती है. इसमें तुम्ब अल कुबरा (बड़ी तुम्ब), तुम्ब एस्सुघरा (छोटी तुम्ब) और अबु मुसा नामक तीन द्वीप हैं. इन्हें 1971 में इरान द्वारा कब्जा किया गया. संयुक्त अरब अमिरात ने इन द्वीपों को क्वेश्म, होरमुज और होमगाम के नामों से पुकारते हुए उनपर अपना अधिकार का दावा करती है.

30. नान-इंटरफियरेन्स नीति अन्य देशों के व्यवहारों में हस्तक्षेप किये बिना, उनकी सम्प्रभुता को नष्ट किये बिना उनसे संबंध रखने की नीति है.

31. पाउण्ड या पाउण्ड स्टेर्लिंग ब्रिटेन देश की मुद्रा है. आज एक पाउण्ड 77 रूपयों के बराबर है.

32. माइकेल प्रोबस्टिंग, ‘साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में चीन का उदय’ से.

33. स्टैगफ्रलेशन (स्टग्नेशन$इनफ्रलेशन)ः स्टैगफ्रलेशन का मतलब है आर्थिक वृद्धि के साथ-साथ मुद्रा की आपूर्ति बढ़ना. और सरल शब्दों में कहें तो माल के लिए मांग गिरने के साथ-साथ महंगाई बढ़ना. माल के लिए मांग गिरने के कारण उद्योगों को अधिक उत्पादन के मार से बंद करना पड़ता है. बेरोजगारी तेजी से बढ़ती है. दूसरी तरफ महंगाई बढ़ती है. लोगों में खरीददारी की क्षमता का और गिरना, इससे और कुछ उद्योग बंद हो जाना, बेरोजगारों की संख्या और बढ़ना, फिर भी महंगाई बढ़ना – इस तरह संकट तीव्र होती जाती है. इस तरह की संकट से अर्थव्यवस्था का उबर पाना असंभव है. क्रांति या युद्ध ही एक मात्र रास्ता है.

गौरतलब है कि स्टैगफ्रलेशन दूसरी विश्व युद्ध से पहले अस्तित्व में थी ही नहीं. अधिकोत्पादन संकट होने से कीमते बहुत गिर जाना संकट के चरण में या मंदी (recession or depression) के चरण में अस्तित्व में आती है. उसके बाद स्थिति फिर सम्भालने और विकास होने के चरणों में कीमतें बढ़ना शुरू हो जाता था. इस तरह एक क्रम पूरी हो जाती थी. यह क्रम 1914 तक जारी थी लेकिन उसके बाद दूसरी विश्व युद्ध तक पुरानी क्रम जारी नहीं होने के बावजूद, संकट में कीमतें गिर जाती थी. 1929-32 आर्थिक मंदी के दौर में कीमतें बहुत गिर गयी थी लेकिन दूसरी विश्व युद्ध के बाद के दौर में, खास तौर पर 1973 के संकट से मांग कम होने, अधिकोत्पादन से उद्योग बंद हो जाने के बावजूद कीमतें बिलकुल गिरती नहीं. रंगबिरंगे बुर्जुआ आर्थिक विशेषज्ञ जो पूंजीपतियों के बीच प्रतिस्पर्धा के कारण कीमते गिर जाने के सिद्धांत का दावा करते हैं, क्यों स्टैगफ्रलेशन हो रहा है, बता नहीं पाते है या जानने से भी बताने का साहस नहीं करते हैं.

34. माओ की संकलित रचनाएं, ग्रंथ-3, मिलीजुली सरकार के बारे में, पृष्ठ-368 से




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