चीख

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चीख
चीख

इधर कई दिनों से
रात में
तारे गिनते रहते हैं
नींद नहीं आती
पता नहीं
जब भी सोने का कोशिश करते हैं
तो चीख
सोने नहीं देती
कहीं कोई भूख से विलप रहा
उसकी सिसकियां
मेरे कानों तक पहुंच जाती हैं
मन सिहर उठता है
कभी अपने स्कूटर से निकलते हुए
सामने से आती हुई औरत
चेहरा मुरझाया हुआ
उनके अंदर की सिसकियां
मन को चीर देती हैं
कभी बच्चों को देखते हुए
लगता है कि महीनों से भूखे हैं
शरीर नंगा है
उनकी अंदर की चीख
मन को चीरती हैं
तब रात में
उन्हीं स्मरण को याद करते हुए
नींद उड़ जाते हैं
क्योंकि इतनी सारी चीखें
मुझे बेचैन करती हैं
असल में देश में इतना शोर है
उस दम्भ का
जहां चीखें
मिट्टी से पाट दी जाती हैं
पर प्रतिरोध का क्या है
वो उस पाटी गई मिट्टी को भी
चीर देती हैं
और उस दम्भ को
अपने अक्स तले
ढेर सारी मिट्टी से
कई स्तर में पाट दी जाती हैं ताकि
समाज में
दम्भ हो ही न.

  • प्रबोध नारायण

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