‘हट छिनाल, ऐसे क्या देख रही है ?’ बत्तीस वर्षीय मोना को अपनी हमउम्र कामवाली सरिता का उसकी तरफ़ तिरछी नज़रों से देख कर रहस्य मय मुस्कान असहज कर जाता.
सरिता लॉकडाउन के दौरान काम की तलाश में मोना के पास आई थी. पुरानी कामवाली, माया, माथे पर अपना संसार उठाए पैदल अपने गाँव की तरफ़ चल पड़ी थी बिरजू के साथ. कह गई, अगर ज़िंदा बचे तो लौट आएँगे. मोना को अपने फ़ौजी बाप की याद आई थी. लाम पर जाते वक़्त हर बार यही कहते माँ को. एक दिन नहीं लौटे.
सरिता को देखकर मोना का स्त्री मन कुछ असहज था. कामवाली जैसी कोई बात उसमें नहीं थी. बर्तन, झाड़ू-पोंछा, कपड़े धोने के हिसाब से तनख़्वाह नहीं माँगी, जैसा शहरों में अमूमन कामवालियां करती हैं. रविवार की छुट्टी भी नहीं माँगी. कुल मिला कर तीन हज़ार रुपए और एक शाम का खाना. मोना और उसकी माँ को ये सौदा पसंद आया.
बस एक ही बात खटकती. जब भी मोना बाहर से लौटती और वह आदमी उसे घर तक छोड़ने आता, सरिता हमेशा दरवाज़ा खोलती, और उस आदमी को लौटते देख उसके होंठों पर वही वक्र हँसी खिल जाती. मोना हर बार असहज होती, लेकिन कुछ नहीं कहती. माया के लौटने का कोई ठिकाना नहीं था.
एक रविवार, मोना फ़ुर्सत में थी. सरिता भी अपना काम निपटा कर मोना के कमरे में बैठे टीवी देख रही थी. मोना ने सोचा यही मौक़ा है सरिता को बातों में उलझा कर उसके बारे कुछ जानने का. पूछने पर सरिता साफ-साफ कुछ नहीं बता रही थी, जैसे कि पहले कहाँ काम करती थी, गाँव घर परिवार आदि.
मोना को चिढ़ होने लगी.
‘देख, तू अगर सबकुछ नहीं बताएगी तो कल से काम पर नहीं आना’, वह चिढ़ कर बोली.
‘ऐसा मत कहो दीदी, मैं कहाँ जाऊँगी इस समय में ?’ सरिता ने गिड़गिड़ाने के लहजे में कहा.
‘फिर बता, मैं जब भी उनके साथ घर लौटती हूँ, तू मुझे देख कर हँसती क्यों है ?’
‘पहले आप बताईए, वे आपके कौन हैं ? उम्र में तो आप से दूने हैं ?’
‘कौन लगते हैं मतलब ? हम साथ में काम करते हैं.’ इस बार चौंकने की बारी मोना की थी.
‘बस काम ? फिर वो आपके लिए इतना सब क्यों ख़रीद लाते हैं, सब्ज़ी, फल, कपड़े से लेकर श्रृंगार तक ? और वो नीली और बादामी रंग की जूतियाँ ? जवान लड़कियों को नई जूतियाँ कौन और क्यों देता है ?
‘चुप रह, तू तो जैसे सती सावित्री है’, मोना ने शर्म और खीज से भरी डाँट पिलाई.
‘अच्छा बता, तेरा कोई बॉय फ्रेंड है कि नहीं ?’
‘है न, नहीं, था. गाँव में था. हम साथ-साथ स्कूल जाते थे. बहुत अच्छी बाँसुरी बजाता था. गूँगा था वैसे, ठीक नदी की तरह’, कहते-कहते सरिता कहीं खो गई.
‘फिर ?’
‘फिर क्या, इस शहर में आने के बाद रोज़ उसे याद करती हूँ, लेकिन, दोपहर में.’
‘दोपहर में क्यों ?’
‘आपलोगों का दुपहरी ही हमारी सुबह है. शाम तो हमारी होती नहीं. वह तो रात की तरह ही औरों के लिए होती है.’
‘मतलब ?’ मोना अब कुछ-कुछ समझने लगी थी.
‘ठीक समझी दीदी, मैं उन्हीं में से एक हूँ. लॉकडाउन में पुलिस वाले छोड़ कर कोई नहीं आते. पैसे भी नहीं मिलते. मैं किसी तरह से भाग निकली वहाँ से दूर !’
मोना पर मानो वज्रपात हुआ. वह एक छिनाल को पास रख रही थी. छी: ! उसके सारे बदन में कीड़े रेंगने लगे. सरिता ने न जाने कितनी बार उसकी मालिश की थी.
‘दीदी, मेरा हिसाब कर दो, आज मैं वहाँ लौट जाऊँगी. सुना है बाज़ार खुल चुका है.’
मोना एक झटके से होश में लौटी. इतनी आसानी से सरिता से पीछा छूट जाएगा उसने सोचा नहीं था. उसने झट से पैसे निकाल कर सरिता को दिये.
जाते समय सरिता ने आख़िरी बार मोना को दरवाज़े पर मुड़ कर देखा. होंठों पर वही वक्र हँसी, लेकिन वो बुजुर्ग तो वहाँ नहीं था.
मोना ने सोचा, चलो छिनाल गई ! क्या वास्तव में ऐसा था ?
- सुब्रतो चटर्जी
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