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छठ : धार्मिकता के लबादे के नीचे मांग-पत्रों की फेहरिस्त

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छठ : धार्मिकता के लबादे के नीचे मांग-पत्रों की फेहरिस्त
छठ : धार्मिकता के लबादे के नीचे मांग-पत्रों की फेहरिस्त
राम अयोध्या सिंह

इधर धनतेरस और दीवाली मनी नहीं कि पीछे से छठ व्रत धकियाने के लिए लाइन में लग गया. लोग छठ व्रत को धार्मिकता का उच्च सीमा समझते हैं. नहाय-खाए से लेकर परना तक की सारी विधियां और कवायद इस तथ्य की पुष्टि करेंगे. जब हम बचपन में थे तो गांव में अधिक से अधिक पांच से दस घर के लोग ही इस व्रत का निर्वाह करते थे. तब कोई तामझाम नहीं था. सब कुछ बिल्कुल सीधा और सादा. मेला जैसा कुछ भी नहीं था.

शाम से लेकर सुबह तक घाट पर बिजली की चकाचौंध की तो कोई कल्पना भी नहीं करता था. तालाब, आहर या कुएं के पास थोड़ा गड्ढा खोदकर पोखरा का नाम दे दिया जाता था. भीड़ भाड़ भी नहीं होती थी. भीड़ के नाम पर अपने घर के अलावा अगल-बगल के दो-चार घर की महिलाएं शामिल होती थी. पुरुष में एक जवान जो घर से घाट और घाट से घर तक प्रसाद का दउरा ढ़ोता था और साथ में बच्चे होते थे. कोई खास गहमागहमी नहीं होती थी.

लोग-बाग छठ से एक-दो रोज पहले से ही प्रसाद की तैयारी में लग जाते थे. उस समय तो गांव के नजदीक ही जितने फल उपलब्ध हो सकते थे, उतने ही फल आते थे. हां, ठेकुआ खूब बनता था. इनको बनाने के लिए आम की लकड़ी खास तौर पर मंगवाई जाती थी. शुद्धता तो थी, पर उसका प्रदर्शन नहीं था. फोटो और कैमरा तो उस समय सपना ही था.

लेकिन, बच्चों की खुशी परना तक गायब रहती थी, कारण उन्हें छठी मइया और सुर्य भगवान का ऐसा डर दिखलाया जाता था कि बेचारे सहमे-सहमे से रहते थे कि कहीं प्रसाद की कोशिश चीज उनसे छुआ न जाए. अब आप ही बताइए कि यह बच्चों के साथ अत्याचार था कि नहीं. जो देवी या देवता मासूम बच्चों को भी डरवाता हो, क्या वह भगवान हो सकता है ?

मैंने नहीं देखा कि कोई भी व्यक्ति इस पर्व को बिना शर्त मनाता हो. हर किसी के पास मांगपत्र होता था छठी मइया या सुर्य भगवान से मांगने के लिए. सबसे ज्यादा डिमांड में बेटा होता था. उसकी मांग सबसे ज्यादा थी. बढ़िया दामाद भी मांगों में शामिल होते थे. किसी को रोग से मुक्ति तो किसी को मुकदमे में जीत की जरूरत होती थी. बिना मांगपत्र के कोई भी नहीं जाता था छठी मइया या सुरुज भगवान के दरबार में.

पहले और आज भी कुष्ठ रोग या सफेद दाग के लिए समाज में यह मान्यता प्रचलित है कि सुर्य भगवान या छठी मइया के प्रकोप से ही किसी को ऐसे रोग होते हैं और ऐसे लोग स्वयं या किसी के माध्यम से यह पर्व अक्सरहां करते हैं. इन दिनों गांव से शहर तक सभी शोहदों की सक्रियता और धार्मिकता इस कदर बढ़ जाती है कि लगता है वे धर्म के रस में सराबोर हो गए हैं.

सचमुच ही वे धर्म के अवतार लगते हैं. घाटों की सफाई से लेकर उनकी सजावट और व्रतियों के लिए आवश्यक इंतजाम तथा सुबह में घाट पर चाय और घर में भोजनादि की व्यवस्था भी उन्हीं के कंधों पर होती है. घर से घाट तक प्रसाद का दउरा ढोने का महती काम भी उनके ही जिम्मे होता है, जिसे वे बखूबी निभाते हैं.

लेकिन, ऐसी सारे कवायदों के पीछे का भी एक सच है, और वह है कि अधिकतर किशोरवय और नए नवजवान बने नवहियों के बीच सबसे अधिक चर्चा होती है कुंवारी जवान लड़कियों के साथ छेड़छाड़ और फूहड इशारेबाजी की. घाट पर पतंगबाजी और पटाखों के कानफोडू शोर से फुरसत पाते ही ऐसे शोहदे अपने असली रंग में आ जाते हैं और अपने इस नए रूप का भौंडा प्रदर्शन वे डिस्को और डिजे पर फूहड़ और अश्लील भोजपुरी गानों पर फिल्मी डांस करते हुए करते हैं. हर कोई इसमें अपना फन दिखाने का भरसक प्रयास करता है.

सुर्य भगवान और छठी मइया न जाने कब कहां दबे पांव गायब हो जाते हैं. धार्मिकता के सारे लबादे उतर जाते हैं और वे अपने असली रूप में नजर आने लगते हैं. सुर्य और छठी मइया का प्रसाद खाते ही वे सारे बंधनों से मुक्त हो जाते हैं. दस-बीस के गिरोह में ऐसे लड़कों को अपनी काले कारनामे दिखाते हुए आसानी से देखा जा सकता है. तब इन्हें न देवी या भगवान का डर होता है और न ही पुलिस का. पुलिस भी अक्सर इनसे बचने में ही अपनी भलाई समझती है. कारण, वह इस बात को अच्छी तरह से जानती है कि इनके विरूद्ध कुछ भी करने का मतलब है कि थाने पर इनके नेता अपनी अकड़ और हैसियत दिखलाने के लिए जरूर हो मौजूद होंगे. अब कौन इनके मुंह लगे.

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