Home गेस्ट ब्लॉग प्रेमचंद के किसान और कुलक का चरित्र : एक अध्ययन

प्रेमचंद के किसान और कुलक का चरित्र : एक अध्ययन

1 min read
0
0
988

भारत में दुनिया के सबसे बड़े किसान आन्दोलन ने केन्द्र की मोदी सरकार को हिलाकर रख दिया. अपनी सामूहिक ताकत का परिचय देते हुए किसानों ने अपनी जिस शालीनता, धैर्य और दृढ़ता का परिचय दिया, उसे प्रेमचंद ने काफी पहले ही पहचान लिया था. प्रेमचंद की कहानियों में आए अन्य तमाम किसान चरित्रों को देखते हुए प्रेमचंद के किसान के बारे में कुछ बातें निश्चित तौर पर कही जा सकती हैं कि- 1. वे प्रायः छोटी जोत के किसान हैं, जो अपने खेतों में प्रायः स्वयं काम करते हैं. 2. खेती उनके लिए महज व्यवसाय नहीं, बल्कि ‘मरजाद’ को बचाए रखने का साधन होता है. 3. वे प्रायः पिछड़ी जाति के हैं.

उसी तरह किसानों के इस आन्दोलन ने सरकारी तंत्र, कुलक तबका और उसके रखे हुए चापलूस गुंडों ने जिस कायरता, निर्लज्जता और हैवानियत का परिचय दिया, उसकी भी पहचान प्रेमचंद ने अपने समय में ही कर लिया था. उन्होंने साफ-साफ बताया कि ये तबका समाज का सबसे निकृष्ट, निर्लज्ज और शोषक का सबसे बड़ा धारक है.

ये किसानों-मजदूरों के हमदर्द बनते हैं, बड़े-बड़े आदर्श बघारते हैं लेकिन वास्तव में ये तबका समाज के सबसे बड़े लुटेरे हैं, निर्लज्ज हैं, मनुष्यता से रहित हैं, नैतिक बोध से रहित हैं, कट्टर, अनुदार, अमानवीय हैं, जिसका एक मात्र काम लोगों का जमीन हड़पना, मजदूरों के मजदूरी का पैसा हड़पना, कर चोरी करना, घनघोर जातिवाद करना, कमजोरों के बहन-बेटियों की आबरू लुटना आदि जैसे तमाम कुरीतियों का गंगोत्री बनना ही इनके भाग्य में बदा है.

दिल्ली के बॉडरों पर पूरे एक साल चले इस किसान आन्दोलन ने प्रेमचंद को शब्दशः सच साबित कर दिया. किसान समुदाय और इस तथाकथित कुलीन-शोषणकारी तबकों के बीच साफ-साफ विभाजन रेखा खीच दिया. यह तथाकथित कुलीन तबका ने जिस तरह किसानों के पिज्जा खाने, एसी कमरे में लेट जाने, अच्छे कपड़े पहन लेने जैसी बातों पर जिस तरह आसमान सर पर उठा लिया, मीडिया, सोशल मीडिया पर दुश्प्रचार का बाढ़ ले आया, किसानों के खिलाफ तमाम तरह के दुश्प्रचार फैलाने का कुकर्म किया, उसने इस तथाकथित कुलीन तबके के चरित्र पर प्रेमचंद के गंभीर समझ को सच साबित कर दिया.

मिजोरम विश्वविद्यालय, आइजोल के हिन्दी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. अमिष वर्मा ने प्रेमचंद के साहित्य का गंभीर अध्ययन कर किसान और तथाकथित कुलीन तबका पर प्रेमचंद की गंभीर टिपण्णी को जिस प्रकार लोगों के सामने रखें, वह काबिलेतारीफ है. यहां हम इस विश्लेषण को प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसे ‘लमही’ ने अपनी पत्रिका के अंक में प्रकाशित किया है- सम्पादक

प्रेमचंद के किसान और कुलक का चरित्र : एक अध्ययन

Dr Amish Vermaडॉ. अमिष वर्मा, असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
मिजोरम विश्वविद्यालय, आइजोल
आइजोल (मिजोरम)-796004
मो.: 9436334432

यह बात अब अलग से कहने की ज़रूरत नहीं कि प्रेमचंद मूल रूप से किसान जीवन के कथाकार हैं. किसानों के जीवन के राग-विराग, हर्ष-शोक, उनकी पारिवारिक संरचना, सामाजिक संरचना, समस्याएं, आर्थिक कठिनाइयां आदि प्रायः हर प्रसंग प्रेमचंद के उपन्यास-कहानियों में खूब मिलते हैं. कह सकते हैं कि पूरी कृषक संस्कृति प्रेमचंद के कथा साहित्य में दिखाई पड़ती है और इसी किसानी संस्कृति के प्रति प्रेमचंद का सम्मान भी है, उनकी आस्था भी है. अब सवाल यह है कि प्रेमचंद के किसान कौन लोग हैं ? वे कौन लोग हैं जिन्होंने इस कृषक संस्कृति के निर्माण और संरक्षण का दायित्व निभाया है ?

ध्यान देने की बात है कि यह जो कृषक संस्कृति प्रेमचंद के कथा साहित्य में छायी हुयी है, उस संस्कृति के मूल घटक वे लोग हैं जो खेती-किसानी से सीधे जुड़े हुए लोग हैं, जिनके पास कुछ थोड़े-बहुत खेत हैं, जो उन खेतों में स्वयं काम करते हैं और खेती जिनके लिए ‘मरजाद’ की बात है. यह ‘मरजाद’ उस संस्कृति के निर्माण और उसके संरक्षण का आधार है. प्रेमचंद इस बात को खूब अच्छी तरह समझते हैं और हमें भी समझाते हैं.

प्रेमचंद के तमाम किसान पात्र जो ‘मरजाद’ के लिए जान देते हैं, वे पिछड़ी जाति के किसान हैं. क्या इस तथ्य को महज एक संयोग मानकर छोड़ दिया जाना चाहिए ? प्रेमचंद के लिए किसान केवल अर्थ आधारित वर्ग ही नहीं है, बल्कि उसका एक स्पष्ट जातिगत आधार भी है इसलिए प्रेमचंद के किसानों पर विचार करते समय जाति के सामाजिक आधार को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए. प्रेमचंद के साहित्य में आए तमाम किसानों की सूची बनाई जाए तो बहुत ही कम किसान ऊंची जातियों और दलित जातियों के मिलेंगे. जहां कहीं वे किसान के रूप में दिखाई पड़ते भी हैं, वहां वास्तविक अर्थ में वे किसान होने की शर्तों को पूरा नहीं करते.

‘रंगभूमि’ के सूरदास को देखिए. उसके पास जमीन तो है, पूरे उपन्यास की कथा उसी ज़मीन को बचाने के संघर्ष की कथा है, मगर सूरदास किसान नहीं है. कहीं भी प्रेमचंद ने सूरदास को खेती करते या खेती की चिंता करते हुए नहीं दिखाया है. ‘कर्मभूमि’ में दलितों की बस्ती में सलोनी बुढ़िया और गूदड़ चौधरी के पास भी कुछ खेत हैं, लेकिन प्रेमचंद ने उन्हें भी खेती की चिन्ता करते हुए नहीं दिखाया. खेती-किसानी की जो पूरी एक संस्कृति प्रेमचंद के कथा साहित्य में दिखाई पड़ती है, वह प्रायः पिछड़ी जाति के किसानों के संदर्भ में ही दिखाई पड़ती है, अन्यत्र नहीं.

प्रेमचंद के किसान और कृषक-संस्कृति के इस जातिगत सामाजिक पहलू को ठीक से समझे जाने की जरूरत है. इस विषय पर युवा आलोचक डा. कमलेश वर्मा ने बारीकी से विचार किया है. उन्होंने अपने लेख ‘प्रेमचंद के किसान, पिछड़ी जातियां और भारतीय संस्कृति’ में प्रेमचंद के किसानों की जातिगत पहचान तथा भारत की कृषि-संस्कृति के निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका का बेहतरीन विश्लेषण किया है. वे लिखते हैं-

‘गोदान’ के होरी महतो से लेकर ‘पूस की रात’ के हल्कू तक-जहां भी किसान है, वह पिछड़ी जाति का व्यक्ति है. प्रेमचंद ने किसान को लेकर जितनी कहानियां लिखी है, उनमें किसान के रूप में पिछड़ी जाति के ही पात्र हैं… उन्होंने जहां भी किसान-जीवन को विषय बनाया है, वहां का पात्र पिछड़ी जातियों से चुना है. उनकी स्पष्ट दृष्टि दिखाई पड़ती है कि किसान का अर्थ है पिछड़ी जातियां. उन्होंने ऊंची जातियों तथा दलित जातियों से किसान पात्र नहीं लिए हैं.

‘प्रेमाश्रम’ के मनोहर से लेकर ‘गोदान’ के होरी तक और प्रेमचंद की तमाम कहानियों में आए किसान पात्रों के आधार पर प्रेमचंद की पूरी कथा-यात्रा को ध्यान से दखें तो उनके किसान को बहुत अच्छी तरह समझा जा सकता है. मनोहर, होरी, शंकर, भोला महतो, हल्कू, तुलसी और प्रेमचंद की कहानियों में आए अन्य तमाम किसान चरित्रों को देखते हुए प्रेमचंद के किसान के बारे में कुछ बातें निश्चित तौर पर कही जा सकती हैं कि-

  • वे प्रायः छोटी जोत के किसान हैं, जो अपने खेतों में प्रायः स्वयं काम करते हैं.
  • खेती उनके लिए महज व्यवसाय नहीं, बल्कि ‘मरजाद’ को बचाए रखने का साधन है.
  • वे प्रायः पिछड़ी जाति के हैं.

होरी महज पांच बीघे का किसान है. वह और उसका पूरा परिवार (यहां तक कि उसकी छोटी बेटी रूपा भी) खेतों में काम करता है. वह निश्चित रूप से प्रेमचंद का आदर्श किसान चरित्र है. ध्यान देना चाहिए कि ‘गोदान’ में खेत मातादीन के पास भी है, बल्कि होरी से ज्यादा है. मगर प्रेमचंद की निगाह में वह किसान नहीं है. वह ब्राह्मण है और उसका मूल व्यवसाय जजमानी है. मातादीन का बेटा दातादीन झिंगुरी सिंह से कहता है –

‘तुम जजमानी को भीख समझो, मैं तो उसे जमींदारी समझता हूँ; बंकघर. जमींदार मिट जाए, वंकघर टूट जाए लेकिन जजमानी अन्त तक बनी रहेगी. जब तक हिन्दू-जाति रहेगी, तब तक ब्राह्मण भी रहेंगे और जजमानी भी रहेगी… ऐसा चैन न जमींदारी में है, न साहूकारी में.’

इससे आगे प्रेमचंद मातादीन की खेती के बारे में लिखते हैं –

‘दूसरे पेड़ के नीचे दातादीन का निजी पैरा था. चार बैलों से मड़ाई हो रही थी. धन्ना चमार बैलों को हाँक रहा था, सिलिया पैर से अनाज निकाल-निकालकर ओसा रही थी और मातादीन दूसरी ओर बैठा अपनी लाठी में तेल मल रहा था.’

गौर करने की बात है कि मातादीन के पास खेत है, मगर वह खेती का काम नहीं करता. धन्ना चमार खेत में काम करता है, मगर उसके पास अपना खेत नहीं हैं. वह दूसरों के खेत में मजदूरी करता है. होरी के पास थोड़े-से सही, पर अपने खेत हैं और वह सपरिवार उसमें काम करता है. प्रेमचंद की निगाह में किसान न तो मातादीन है और न धन्ना चमार, किसान तो होरी ही है. खेती-किसानी अगर किसी के लिए मरजाद का मामला है तो होरी के लिए. उपन्यास के शुरूआती प्रसंगों में ही गोबर को समझाते हुए होरी कहता है –

‘हमीं को खेती से क्या मिलता है ? एक आने नफरी की मजूरी भी तो नहीं पड़ती. जो दस रुपए महीने का भी नौकर है, वह भी हमसे अच्छा खाता-पहनता है; लेकिन खेतों को छोड़ा तो नहीं जाता. खेती छोड़ दें, तो और करें क्या ? नौकरी कहीं मिलती है ? फिर मरजाद भी तो पालना ही पड़ता है. खेती में जो मरजाद है, वह नौकरी में तो नहीं है.’

प्रेमचंद के पूरे कथा साहित्य में किसान अधिकांशतः पिछड़ी जाति से आते हैं. पिछड़ी जातियां जाति-व्यवस्था में मध्यवर्ती स्थिति रखती हैं. आर्थिक आधार पर भी इनकी स्थिति कमोबेश मध्यवर्ती ही ठहरती है. प्रेमचंद के किसान ठीक इसी तरह की सामाजिक स्थिति वाले किसान हैं. इनके चरित्र में एक प्रकार का सीधापन है जो इन्हें सबसे मिला-जुलाकर चलने वाले एक सरल ग्रामीण का रूप देता है. पिछड़ी जाति के किसान का चरित्र-चित्रण अपनी कहानी ‘सवा सेर गेहूं’ में प्रेमचंद इस तरह करते हैं –

‘किसी गांव में शंकर नाम का एक कुरमी किसान रहता था. सीधा-सादा गरीब आदमी था, अपने काम से काम, न किसी के लेने में, न किसी के देने में. छक्का-पंजा न जानता था, छल-प्रपंच की उसे छूत भी न लगी थी, ठगे जाने की चिंता न थी, ठगविद्या न जानता था, भोजन मिला, खा लिया, न मिला, चबेने पर काट दी, चबैना भी ना मिला, तो पानी पी लिया और राम का नाम लेकर सो रहा.’

पिछड़ी जाति के किसान शंकर का यह चरित्र प्रेमचंद के संपूर्ण साहित्य में आए किसानों के चरित्र का प्रतिनिधि है. शंकर के चरित्र की इन विशेषताओं के माध्यम से प्रेमचंद केवल अपनी कहानी के एक पात्र का चरित्र नहीं गढ़ रहे, बल्कि भारतीय किसान का एक चित्र गढ़ रहे हैं.

प्रेमचंद के किसान मनुष्य हैं- सच्चे अर्थों में मनुष्य, मनुष्यता की कसौटी पर खरे सरल-सहज श्रमजीवी ! ‘गोदान’ का होरी भारतीय किसान का प्रतिनिधि चरित्र है. होरी के चरित्र की कुछ विशेषताओं को ‘गोदान’ की निम्नलिखित पंक्तियों के आधार पर समझा जा सकता है-

‘होरी किसान था और किसी के जलते हुए घर में हाथ सेंकना उसने सीखा ही न था.’ होरी की कृषक प्रकृति झगड़े से भागती थी. चार बातें सुन कर गम खा जाना इससे कहीं अच्छा है कि आपस में तनाजा हो. कहीं मार-पीट हो जाए तो थाना पुलिस हो, बंधे-बंधे फिरो, सबकी चिरौरी करो, अदालत की धूल फांको, खेती-बारी जहन्नुम में मिल जाए.’

दूसरों की मजबूरी का फायदा उठाकर अपना लाभ गांठना अनैतिक है- इस तरह का नैतिक बोध पिछड़ी जाति के किसान के भीतर ही है. होरी में भी छोटी-छोटी चालाकियां करने की आदत है. वह भोला से गाय पा जाने के लिए अपनी तरफ से चालाकी करता ही है, लेकिन इन सबके बावजूद उसके भीतर की मनुष्यता और उसका गहरा नैतिक बोध कभी लुप्त नहीं होता. जैसे ही उसे एहसास होता है कि अपनी चालाकी में वह सामने वाले की मजबूरी का लाभ उठा रहा है, वह तुरंत पीछे हट जाता है. यही दरअसल मनुष्यता है. यह मनुष्यता प्रेमचंद ने ऊंची जाति के पात्रों को यदाकदा ही बख्शी है

प्रेमचंद के कथा साहित्य में ऊंची जाति के पात्रों में प्रायः एक प्रकार का जातिवादी अभिमान मौजूद है. इस जातिवादी अभिमान के कारण उनमें एक प्रकार की अभद्रता, ढीठपना और क्रूरता भी मौजूद है. दूसरों को ठगकर, उनकी मजबूरी का लाभ उठाकर इन्हें एक प्रकार का आत्मतोष मिलता है. यहां किसी प्रकार का कोई नैतिक बोध नहीं है. छोटे-मोटे साधारण किसानों- बेगारों को ठगना तो छोड़ दें, ये जमींदारों को भी चकमा देने में कामयाब हो जाते हैं.

ज़ाहिर है कि अपनी सामाजिक जातिगत हैसियत के बल पर यह ऊपर के अमले-अधिकारियों से अपनी सांठ-गांठ बिठाए रखते हैं. ‘प्रेमाश्रम’ के एक प्रसंग में प्रेमचंद ने लिखा है- ‘गांव में दस-बारह घर ठाकुरों के थे. उनसे लगान बड़ी कठिनाई से वसूल होता था…’. एक और उदाहरण देखा जा सकता है –

‘प्रेमाश्रम’ में ही ज्ञानशंकर की पत्नी विद्या की बड़ी बहन गायत्री के पास भी थोड़ी जमींदारी है. उसके असामियों में कुछ ठाकुर भी हैं. ठाकुर गायत्री देवी की जमीन हड़प लेते हैं. कानूनगो गायत्री देवी को सूचना देता है- ‘आपको सुनकर रंज होगा. सारन में हुजूर की कई बीघे सीर असामियों ने जोत ली है, जगराँव के ठाकुरों ने हुजूर के नए बाग को जोतकर खेत बना लिया है, मेड़ें खोद डाली हैं. जब तक फिर से पैमाइश न हो कुछ पता नहीं चल सकता कि आपकी कितनी जमीन उन्होंने खाई है.’

प्रेमचंद के पूरे कथा साहित्य में शायद ही कोई ऐसा प्रसंग ढूंढकर निकाला जा सके, जहां किसी पिछड़ी जाति के किसान ने किसी जमींदार की जमीन हड़पने का विचार भी किया हो. इस मामले का संबंध भारतीय समाज की जातिवादी संरचना तथा विभिन्न जातियों की ‘सोशल ट्रेनिंग’ से है. पिछड़ी जातियों की ‘सोशल ट्रेनिंग’ ऊंची जातियों की ‘सोशल ट्रेनिंग’ से भिन्न है.

इसी भिन्न ‘सोशल ट्रेनिंग’ का नतीजा है कि होरी जैसा पिछड़ी जाति का किसान किसी तरह के झगड़े-झंझट में नहीं पड़ना चाहता, अपना सर्वस्व लुटाकर भी किसी का एक पैसा नहीं मारता और दूसरी तरफ ‘प्रेमाश्रम’ के ठाकुर असामी जमींदार तक की जमीन हड़प लेने का हौसला रखते हैं. प्रेमचंद इस ‘सोशल ट्रेनिंग’ को कहीं भी नजरअंदाज नहीं करते. उनके पात्रों का ध्यान से अध्ययन करने पर यह बात बहुत साफ तौर पर दिखाई पड़ती है.

पिछड़ी जाति के किसान तमाम अभावों के बावजूद मनुष्यता का दामन नहीं छोड़ते. ऐसा नहीं है कि ये किसी ऊंचे आदर्श का पालन करने के लिए सायास ऐसा करते हैं, बल्कि यह तो इनका स्वभाव है. किसान के खेत में काम करने वाला दलित मजदूर भी मनुष्य है, उसे भी भूख-प्यास लगती है, थकान होती है- इस बात की चिंता और समझ पिछड़ी जाति के किसान को तो है लेकिन किसी ऊंची जाति वाले व्यक्ति के मन में नहीं है, चाहे वह जमींदार हो या तथाकथित किसान.

‘प्रेमाश्रम’ में मनोहर के खेत में काम करने वाले रंगी दलित के लिए बलराज (मनोहर का बेटा) की चिंता में मनुष्यता का वह सहज रूप दिखाई पड़ता है. मनोहर, बलराज और रंगी एक साथ बैठकर खाना खा रहे हैं. बलराज की मां बिलासी केवल बलराज के लिए दूध लाती है तो वह अपनी मां से नाराज होकर कहता है-

‘…जो हमसे अधिक काम करता है उसे हमसे अधिक खाना चाहिए. हमने तुमसे बार-बार कह दिया है कि रसोई में जो कुछ थोड़ा-बहुत हो, वह सबके सामने आना चाहिए. अच्छा खाएं, बुरा खाएं तो सब खाएं… रंगी कोई बेगार का आदमी नहीं है, घर का आदमी है. वह मुंह से चाहे न कहे, पर मन में अवश्य कहता होगा कि छाती फाड़कर काम मैं करूं और मूछों पर ताव देकर खाएं यह लोग. ऐसे दूध-घी खाने पर लानत है.’

जैसे आग में तपकर सोना और भी चमक उठता है, उसी तरह अभावों में तपकर यह मनुष्यता और भी गरिमामयी हो उठती है. लेकिन ऐसी मनुष्यता प्रेमचंद के उपन्यासों में ऊंची जाति के पात्रों को कहाँ नसीब ! ‘गोदान’ के रायसाहब ऊपर-ऊपर किसानों-मजदूरों के हमदर्द बनते हैं, बड़े-बड़े आदर्श बघारते हैं, लेकिन जब उनका चपरासी आकर सूचना देता है कि ‘बेगारों ने काम करने से इंकार कर दिया है. कहते हैं जब तक हमें खाने को न मिलेगा हम काम न करेंगे. हमने धमकाया तो सब काम छोड़कर अलग हो गए’, तब यह सुनकर ‘रायसाहब के माथे पर बल पड़ गए.

आंखें निकालकर बोले- चलो मैं इन दुष्टों को ठीक करता हूं. जब कभी खाने को नहीं दिया, तो आज यह नई बात क्यों ? एक आने रोज के हिसाब से मजूरी मिलेगी, जो हमेशा मिलती रही है; और इस मजूरी पर काम करना होगा, सीधे करें या टेढ़े.’ प्रेमचंद कितनी सूक्ष्मता और कुशलता से यह भी बता देते हैं कि रायसाहब के यहां बेगारों का भूखे-प्यासे खटना कोई आज की बात नहीं है- ‘जब कभी खाने को नहीं दिया…’ – यह तो हमेशा की बात है ! यह है ऊंची जाति के (ठाकुर) जमींदार रायसाहब अमरपाल सिंह की मनुष्यता !

इसी तरह ‘गोदान’ में उस प्रसंग को भी देखा जा सकता है जब होरी दातादीन के खेत में मजदूरी करने पर मजबूर हो जाता है और दातादीन उससे भूखे-प्यासे इतना काम लेता है कि वह बेहोश हो जाता है. पिछड़ी जाति के पात्रों की मनुष्यता और ऊंची जाति के पात्रों की मनुष्यता(!) के अंतर के उदाहरण प्रेमचंद के उपन्यासों में भरे पड़े हैं. प्रेमचंद ने अपने निबंध ‘उपन्यास’ में लिखा है –

‘वह (साहित्यकार) हमारा पथ प्रदर्शक होता है, वह हमारे मनुष्यत्व को जगाता है, हममें सद्भावों का संचार करता है… इस मनोरथ को सिद्ध करने के लिए जरूरत है कि उसके चरित्र positive हों, जो प्रलोभनों के आगे सिर न झुकाएँ, बल्कि उनको परास्त करें, जो वासनाओं के पंजे में न फँसें, बल्कि उनका दमन करें; जो किसी विजयी सेनापति की भाँति शत्रुओं का संहार करके विजय-नाद करते हुए निकलें, ऐसे ही चरित्रों का हमारे ऊपर सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है.’

‘हमारे मनुष्यत्व को जगाने वाले’, ‘हममें सद्भावों का संचार करने वाले’ और हमें प्रभावित करने वाले ऐसे कितने चरित्र प्रेमचंद के उपन्यासों में मिलते हैं, जो ऊंची जाति के हों ? संभवतः एक भी नहीं. क्या यह महज एक संयोग है कि प्रेमचंद के तमाम आदर्श पात्र-नायक-पिछड़ी या दलित जाति के हैं ? या फिर यह भारतीय समाज की जातिवादी संरचना की गहरी समाजशास्त्रीय समझ है ? दरअसल यह वह प्रस्थान बिंदु है, जहां से प्रेमचंद के साहित्य का समाजशास्त्र विश्लेषित और व्याख्यायित होता है.

प्रेमचंद के किसान भारत के वास्तविक किसान हैं जिनके चरित्र की बारीकियों को बिल्कुल ठीक-ठीक पहचाना है प्रेमचंद ने. पिछड़ी जाति के किसान के चरित्र को ‘सुजान भगत’ कहानी के सुजान महतो के चरित्र के आधार पर भी देखा-समझा जा सकता है. प्रेमचंद लिखते हैं- ‘सीधे-सादे किसान धन हाथ आते ही धर्म और कीर्ति की ओर झुकते हैं.

दिव्य समाज की भांति वह पहले अपने भोग-विलास की ओर नहीं दौड़ते…घर में सेरों दूध होता, मगर सुजान के कंठ तले एक बूंद भी जाने की कसम थी…किसान को दूध-घी से क्या मतलब, उसे रोटी और साग चाहिए. सुजान की नम्रता का अब पारावार न था. सबके सामने सिर झुकाए रहता, कहीं लोग यह न कहने लगें कि धन पाकर उसे घमंड हो गया है.’ धर्मभीरुता, सादा जीवन, नम्रता और लोकभीरुता प्रेमचंद के किसान के चरित्र का जैसे श्रंगार हैं.

प्रेमचंद के कथा साहित्य में पिछड़ी जाति का शायद ही कोई ऐसा किसान पात्र हो जो उपर्युक्त चारित्रिक श्रंगारों से युक्त न हो ! ‘पूस की रात’ का हल्कू, ‘बाबाजी का भोग’ का रामधन अहीर, ‘अलग्योझा’ का रग्घू, ‘सभ्यता का रहस्य’ का दमड़ी आदि ऐसे ही पिछड़ी जाति के किसान चरित्र हैं. प्रेमचंद के किसान ‘मरजाद’ पर जान देने वाले किसान हैं.

ये किसान बड़े किसान नहीं हैं, बल्कि पांच, दस या अधिक-से-अधिक बीस बीघे जमीन में खेती करने वाले किसान हैं, जिन पर ऊंची जाति के जमींदारों का दबदबा है. ये छोटे किसान जमींदार को लगान चुकाने के बाद मुश्किल से इतना अनाज बचा पाते हैं कि दो जून की रोटी नसीब हो जाए और कभी-कभी तो उतना भी नहीं बचता. ये छोटे किसान सोच-विचार करते हैं, जोड़-घटाव करते हैं कि इस खेती में बचा ही क्या है ? इससे तो मजदूरी अच्छी है. लेकिन जो बात इन किसानों को मजदूर बनने से रोकती है वह ‘मरजाद’ ही है. ‘मरजाद’ की चिन्ता न होती तो कब का ये किसानी छोड़कर मजदूर बन गए होते. मगर मजदूर बन जाना अपनी सामाजिक हैसियत से च्युत हो जाना है.

कारण यह कि मजदूरी तो नीची जाति के लोगों का काम है. इसके अलावा जब तक खेती कर रहे हैं तब तक सारी आर्थिक तंगी के बावजूद किसी के नौकर तो नहीं हैं. मजदूरी से आर्थिक तंगी भले थोड़ी कम हो जाए मगर वह आजादी और ‘मरजाद’ तो न बचेगी. ‘सभ्यता का रहस्य’ कहानी में दमड़ी की चिंता इसी ‘मरजाद’ को बचाए रखने की है-

‘लेकिन मौरूसी किसान मजदूर कहलाने का अपमान न सह सकता था. इस बदनामी से बचने के लिए दो बैल बाँध रखे थे ! उसके वेतन का बड़ा भाग बैलों के दाने-चारे में ही उड़ जाता था. ये सारी तकलीफें मंजूर थीं, पर खेती छोड़कर मजदूर बन जाना मंजूर न था. किसान की जो प्रतिष्ठा है, वह कहीं मजदूर की हो सकती है, चाहे वह रुपया रोज ही क्यों न कमाए ?’

दरअसल, ‘मरजाद’ प्रेमचंद के किसानों का नैतिक बल है. वह सब कुछ खोकर भी इस ‘मरजाद’ को बचाकर रखना चाहता है तो सिर्फ इसलिए कि गांव-बिरादरी में मुंह दिखाने लायक बचा रहे. यहां रामविलास जी की इस बात से असहमत होने का आधार बनता है कि प्रेमचंद के किसानों की मूल समस्या आर्थिक (ऋण की समस्या) है. बल्कि ऋण का बोझ तो इन किसानों की मूल समस्या से निबटने की कोशिश का परिणाम है. इस किसानों की मूल समस्या है ‘मरजाद’ की रक्षा.

डा. कमलेश वर्मा के जिस लेख की चर्चा शुरुआत में की गई है, उसमें उन्होंने मरजाद-रक्षा के इस पक्ष को भी उठाया है. डा. वर्मा लिखते हैं-

‘गोदान’ ही नहीं प्रेमचंद के पूरे कथा-साहित्य में किसान की मूल समस्या मरजाद को बचाए रखने की समस्या है. यदि वह मरजाद की चिंता नहीं करता तो ऋण की समस्या उसके सामने नहीं आती.’ प्रेमचंद के लिए किसानों की यही मरजाद की चिन्ता उनकी मनुष्यता की सबसे बड़ी कसौटी है. ‘मरजाद’ प्रेमचंद के लिए दरअसल एक प्रकार की नैतिकता है, जिस पर वे मनुष्यता को परखते हैं.

इस बात पर ध्यान देने की ज़रूरत है कि ‘मरजाद’ की चिन्ता प्रायः पिछड़ी जाति के छोटे किसानों को है. ऊंची जात के लोगों, जमींदारों को कुलीनता की चिन्ता तो है पर मरजाद की चिन्ता नहीं है. कुलीनता और मरजाद में बुनियादी फर्क है.

कुलीनता की चिन्ता व्यक्ति को कट्टर, अनुदार और अमानवीय बनाती है, जबकि मरजाद की चिन्ता उसे सहिष्णु, उदार और मानवीय बना देती है. कुलीनता का भाव घमंड को जन्म देता है, मरजाद की चिन्ता स्वाभिमान की रक्षा की चिन्ता है. कुलीनता वर्णाश्रम के सिद्धांतों को मनुष्यता से ऊपर रखती है, मरजाद के लिए पहली और आखिरी कसौटी मनुष्यता है, भाईचारा है. यह अकारण नहीं है कि प्रेमचंद के लिए ऐसी कुलीनता दो कौड़ी की चीज है, त्याज्य है और दूसरी तरफ ‘मरजाद’ अनमोल है, वरेण्य है.

यही मनुष्यता, सहृदयता और सदाशयता पिछड़ी जाति के किसानों में है. ‘गोदान’ में दो ऐसे प्रसंग आते हैं, जहां कुलीनता और बिरादरी की परवाह किए बिना होरी और धनिया सहज मनुष्यता की रक्षा करते हैं. पहला प्रसंग है जब गर्भवती झुनिया होरी के घर आ जाती है. होरी और धनिया के लिए बहुत आसान था कि झुनिया को लात मारकर भगा दें और बिरादरी में अपनी नाक बचाए रखें. इसके विपरीत झुनिया को अपने घर में आश्रय देना बेवजह संकट और आफत को न्योता देना था. पहला मार्ग अत्यंत सरल था, दूसरा उतना ही संकटपूर्ण लेकिन मनुष्यता का मार्ग तो दूसरा ही था.

होरी और धनिया कभी भी अपनी मनुष्यता नहीं छोड़ सके. भले बिरादरी-बाहर हो गए, डांड़ भरना पड़ा- भरा, लेकिन मनुष्य बने रहे. पिछड़ी जाति का किसान मनुष्यता और सहृदयता को कुलीनता से ज्यादा बड़ा मूल्य समझता है. इसकी रक्षा में कुलीनता चली जाए, कोई परवाह नहीं. धनिया दातादीन से आत्मविश्वास और गर्व के साथ कहती है-

‘हमको कुल-परतिसठा इतनी प्यारी नहीं महराज, कि उसके पीछे एक जीव की हत्या कर डालते…बड़े आदमियों को अपनी नाक दूसरों की जान से प्यारी होगी, हमें तो अपनी नाक इतनी प्यारी नहीं.’

दूसरा प्रसंग है सिलिया का पंडित मातादीन द्वारा ठुकराया जाना और फिर होरी-धनिया द्वारा उसे अपने घर में आश्रय देना. पंडित मातादीन सिलिया को धोखे में रखकर उसका यौन-शोषण करता है. सिलिया मातादीन से प्रेम करती है, लेकिन मातादीन के लिए सिलिया उसकी यौन तृप्ति के साधन और बेगार मजदूर के अलावा कुछ नहीं है. प्रेमचंद लिखते हैं- ‘सिलिया का तन और मन दोनों लेकर भी बदले में कुछ न देना चाहता था. सिलिया अब उसकी निगाह में केवल काम करने की मशीन थी, और कुछ नहीं.’

मातादीन जैसे ब्राह्मण की नैतिकता (?) यह है कि वह सिलिया चमारिन के साथ संभोग तो कर सकता है, मगर वह उसके घर के भीतर नहीं जा सकती, उसके हाथ का छुआ मातादीन कुछ खा नहीं सकता. मातादीन सिलिया से केवल लेता है, बदले में उसे कुछ नहीं देता और उसे छोड़ भी देता है- लाचार, बेसहारा.

पुनः इस अवसर पर सिलिया को आश्रय मिलता है पिछड़ी जाति के किसान होरी के घर में. होरी को सिलिया से कुछ नहीं मिलता है. हां, बिरादरी में बदनामी जरूर होती है लेकिन तब भी उसकी सहृदयता और मनुष्यता का तकाजा यह है कि बेसहारा सिलिया को घर से कैसे निकाल दे !

प्रेमचंद बार-बार पिछड़ी जातियों के किसान पात्रों को ऊंची जातियों के पात्रों के विपरीत मनुष्यता के ऊंचे आसन पर बिठाते हैं. क्या यहां से प्रेमचंद के साहित्य के समाजशास्त्र का कोई वातायन नहीं खुलता ?

संदर्भ :

  1. डा. कमलेश वर्मा, ‘प्रेमचंद के किसान, पिछड़ी जातियां और भारतीय संस्कृति’ (आलेख), आरोह (पत्रिका), अंक-1, वर्ष- 1, असम विश्वविद्यालय, सिलचर, 2013, पृ.-102
  2. प्रेमचंद, गोदान, संजय बुक सेंटर, वाराणसी, 1996, पृ.-198
  3. वही, पृ.-199
  4. वही, पृ.-12
  5. प्रेमचंद, सवा सेर गेहूं (कहानी), मानसरोवर-4, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2001, पृष्ठ-167
  6. गोदान, पृष्ठ-5
  7. वही, पृ.-32
  8. प्रेमचंद, प्रेमाश्रम, मारुति प्रकाशन, मेरठ, पृष्ठ-36
  9. वही, पृष्ठ-103
  10. वही, पृष्ठ-45
  11. गोदान, पृष्ठ-9
  12. वही, पृष्ठ-9
  13. देखें, वही, पृष्ठ 163-164
  14. प्रेमचंद, प्रेमचंद के विचार (भाग-2), प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, 2008, पृष्ठ-29-30
  15. प्रेमचंद, सुजान भगत (कहानी), मानसरोवर-5, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2001, पृष्ठ-164
  16. प्रेमचंद, सभ्यता का रहस्य (कहानी), मानसरोवर-4, पृष्ठ- 176
  17. डा. कमलेश वर्मा, वही, पृ.-104
  18. गोदान, पृष्ठ-98
  19. वही, पृष्ठ-99

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें]

ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

नारेबाज भाजपा के नारे, केवल समस्याओं से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए है !

भाजपा के 2 सबसे बड़े नारे हैं – एक, बटेंगे तो कटेंगे. दूसरा, खुद प्रधानमंत्री का दिय…