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भारतीय फासीवाद का चरित्र और चुनौतियां

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भारतीय फासीवाद का चरित्र और चुनौतियां
भारतीय फासीवाद का चरित्र और चुनौतियां
Arjun Prasad Singhअर्जुन प्रसाद सिंह

हमारे विकासशील पूंजीवादी देश में राजसत्ता के फासीवादी चरित्र (रूपान्तरण) के बारे में काफी लम्बे अरसे से बहस चल रही है. इस बहस का सबसे तीक्ष्ण स्वरूप प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के शासन काल में लाये गये आपात्काल (26 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977) के दौरान दिखा. इस आन्तरिक आपातकाल को उस समय की जनतांत्रिक-क्रांतिकारी ताकतें मुख्यतः दो नजरिये से विश्लेषित कर रही थी. इनके एक खेमा का मानना था कि आपातकाल की घोषणा के साथ-साथ देश में फासीवादी राज्य कायम हो गया, जबकि दूसरे खेमा का मानना था कि आपातकाल के दौरान केवल इन्दिरा गांधी का निरंकुश एवं तानाशाही शासन ही देखने को मिला. हालांकि, सीपीआई जैसी संसदीय कम्युनिस्ट पार्टी का भी एक मत था कि इन्दिरा गांधी द्वारा लाया गया आपातकाल फासीवादी ‘जेपी आन्दोलन’ को दबाने के लिए एक जरूरी कदम था.

1977 के बाद जब खंडित सी.पी.आई. (एम.एल.) के नये-नये ग्रुप अस्तित्व में आये और उनके नेतृत्व में देश के विभिन्‍न भागों में किसानों, मजदूरों एवं आदिवासियों के जुझारू आन्दोलन तेज हुए तो उन पर भारतीय राजसत्ता ने क्रूर दमन चलाया. दमन की इस प्रक्रिया में उन पर टाडा, पोटा एवं यूएपीए जैसे कठोर कानूनों के भी अन्धाधुंध इस्तेमाल किये गये. तब देश के राजनीतिक हलकों में एक बार फिर अघोषित आपातकाल’ एवं ‘राजसत्ता के फासीवादी चरित्र’ की गूंज सुनायी पड़ने लगी. पुनः जब प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी की हत्या के प्रतिक्रियास्वरूप 1984 में राजधानी दिल्‍ली एवं अन्य जगहों पर सिक्‍खों का कत्लेआम कराया गया तो तात्कालीन कांग्रेसी हुकूमत को ‘हिन्दू साम्प्रदायिक-फासीवादी’ कहकर प्रचारित किया गया.

लेकिन इसके कुछ ही साल बाद जब हिन्दुत्व की ताकतों ने भाजपा के वरिष्ठ नेताओं की अगुआई में 1992 में ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद को नेस्तनाबूत कर दिया और 2002 में नरेन्द्र मोदी सरकार की देख-रेख में गुजरात में मुसलमानों का जघन्य जनसंहार कराया गया, तब अधिकांश राजनैतिक विश्लेषकों के तेवर बदल गए. अब वे भाजपा, विश्व हिन्दू परिषद्‌, आर.एस.एस., बजरंग दल जैसी ताकतों को हिन्दू साम्प्रदायिक फासीवादी’ और कांग्रेस को ‘धर्मनिरपेक्ष पार्टी’ के रूप में चिह्नित करने लगे. यहां तक कि क्रांतिकारी नक्सलवादी धारा के कई दल एवं संगठन, जो कांग्रेस पार्टी को सामंती और दलाल नौकरशाह पूंजीवादी ताकतों का मुख्य प्रतिनिधि मानते थे, अब भाजपा, आर.एस.एस. एवं अन्य हिन्दुत्व ताकतों को उक्त शासक वर्गों का मुख्य प्रतिनिधि मानने लगे. इनमें से कुछ ने तो ‘भारतीय गणतंत्र’ को इसके स्थापना काल से ही ‘ब्राह्मणवादी फासीवादी राज्य’ के रूप में विश्लेषित किया और इस हिन्दुत्ववादी राज्य के खिलाफ व्यापक जन आन्दोलन खड़ा करने का आह्वान किया. (हालांकि उन्होंने कभी इस आन्दोलन को व्यापक रूप देने की कोशिश नहीं की .)

26 मई, 2014 को जब नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार केन्द्र में सत्तासीन हुई तो इस सरकार के फासीवादी चरित्र पर गंभीर चर्चाओं का अनवरत दौर शुरू हुआ. अब तक इस महत्वपूर्ण मसले पर देश भर में सैकड़ों कन्वेंशन, सेमिनार एवं साहित्यिक-सांस्कृतिक परिचर्चा आयोजित किये जा चुके हैं. राजधानी दिल्‍ली इस प्रकार की गोष्ठियों एवं चर्चाओं का केन्द्र रहा है, जिनमें तमाम जनतांत्रिक एवं क्रांतिकारी ताकतों की भागीदारी हुई हैं. इन राजनैतिक चर्चाओं में मुख्यतः: तीन तरह के विचार उभर कर सामने आये हैं. एक विचार यह है कि आर.एस.एस. के प्रभुत्व में बनी नरेन्द्र मोदी सरकार ने राजसत्ता के चरित्र को पूरी तरह हिन्दू साम्प्रदायिक-फासीवादी’ बना दिया है। दूसरा यह है कि मोदी सरकार के आने के बाद भारतीय राज्य के एक हिन्दू फासीवादी राज्य’ में तब्दील होने का खतरा काफी बढ़ गया है. तीसरा यह है कि भारतीय लोकतंत्र तो शुरू से ही मूलतः एक बुर्जुआ तानाशाही की व्यवस्था है, मोदी के शासन में इसमें कोई खास गुणात्मक फर्क नहीं पड़ने वाला है.

फासीवाद क्‍या हैं ?

उपरोक्त तीनों विचारों की व्याख्या करने और यह निष्कर्ष निकालने की कि इनमें से कौन विचार अपेक्षाकृत ज्यादा प्रासंगिक है, के पहले यह समझना जरूरी है कि ‘फासीवाद’ की पदावलि का वास्तविक अर्थ क्‍या है ? ‘फासीवाद’ को ऐतिहासिक रूप से समझने के लिए हमें ‘कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल’ के सातवीं कांग्रेस (1935) के दस्तावेजों और खासकर जी. दिमित्रोव एवं जोसेफ स्टालिन के विचारों पर गौर करना होगा. उस वक्त साम्राज्यवादी ताकतों के बीच द्वितीय विश्व युद्ध की तैयारियां चल रही थीं और इटली, जर्मनी, पुर्तगाल एवं जापान जैसे देशों में फासीवाद का उदय हो चुका था. साम्राज्यवादी देश सोवियत रूस की ‘लाल सत्ता’ को नेस्तनाबूत करने के उद्देश्य से वे अपनी-अपनी रणनीति बना रहे थे. ऐसी स्थिति में ‘कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल’ का फौरी दायित्व हो गया था कि सोवियत रूस के ‘लाल दुर्ग’ की रक्षा की जाये, और साथ ही संयुक्त मोर्चा की एक ऐसी नीति बनाई जाये ताकि साम्राज्यवादी-फासीवादी ताकतों को आसन्न युद्ध में करारी शिकस्त दी जा सके.

इसी सिलसिले में ‘कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल’ की सातवीं कांग्रेस 1935 (25 जुलाई से 21 अगस्त) में सम्पन्न की गई. इस कांग्रेस में बुल्गारिया की कम्युनिस्ट पार्टी के एक संस्थापक नेता जी. दिमित्रोव (जो कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल के महासचिव चुने गए) ने एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट पेश की, जिसमें न केवल फासीवाद के उदय एवं उसकी वर्गीय अन्तर्वस्तु की सैद्धांतिक व्याख्या, बल्कि उसे परास्त करने हेतु व्यापक संयुक्त मोर्चा गठित करने की एक सुसंगत अवधारणा भी शामिल थी. फासीवाद को समझने एवं उसके खिलाफ मोर्चाबन्दी की दिशा तय करने में आज भी यह रिपोर्ट काफी प्रासंगिक है.

कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल ने अपनी 13वीं कार्यकारिणी की प्लेनम में फासीवाद को इस तरह परिभाषित किया –

‘फासीवाद सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी, सर्वाधिक उग्र राष्ट्रवादी एवं वित्तीय पूंजी की सर्वाधिक साम्राज्यवादी तत्वों की एक खुली आतंकवादी तानाशाही है. फासीवाद न तो वर्गों से परे कोई सरकार है और न ही वित्तीय पूंजी के ऊपर निम्न पूंजीपतियों या लम्पट सर्वहारा की सरकार है. फासीवाद खुद वित्तीय पूंजी की सरकार है. यह मजदूर वर्ग और किसानों एवं बुद्धिजीवियों के क्रांतिकारी हिस्से का एक संगठित जनसंहार है. फासीवाद की विदेश नीति सर्वाधिक बर्बर उग्र राष्ट्रवादी है, जो दूसरे लोगों के खिलाफ प्राणिशास्त्रीय घृणा को पैदा करता है.’

इस परिभाषा में फासीवाद के मूल चरित्र को पेश किया गया, लेकिन दिमित्रोव ने विश्व के विभिन्‍न देशों में इसके सामान्यवीकरण करने से परहेज करने पर जोर दिया. उन्‍होंने इसी सातवीं कांग्रेस में अपना अंतिम भाषण देते हुए कहा कि –

‘यह जरूरी है कि प्रत्येक देश के खास राष्ट्रीय सम्बन्धों एवं फासीवाद की विशिष्ट राष्ट्रीय विशेषताओं का अनुसंधान व अध्ययन किया जाये और तदनुसार फासीवाद के खिलाफ संघर्ष करने हेतु प्रभावकारी तरीकों एवं रूपों का निरूपण किया जाये.’

इसके आगे उन्होंने यह भी कहा कि फासीवाद के विकास का किसी किस्म का विश्वव्यापी रूपरेखा बनाना एक बड़ी गलती होगी। इस तरह की रूपरेखा हमें मदद नहीं करेगी, बल्कि वास्तविक संघर्ष को चलाने में नुकसान पहुंचायेगी. इसी बात को और स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि उपनिवेशिक एवं अर्द्ध-उपनिवेशिक देशों में कई फासीवादी ग्रुप उभर रहे हैं, लेकिन उनकी तुलना जर्मनी, इटली एवं दूसरे पूंजीवादी देशों के फासीवाद से नहीं की जा सकती. इसी तरह उन्होंने ‘अमेरिकी फासीवाद’ के बारे में कहा कि वह अपने को ‘संविधान’ एवं ‘अमेरिकी जनवाद’ के रक्षक के रूप में चित्रित करता है और कुछ खास स्थितियों, जैसे कमजोर जनाधार एवं फासीवादी बुर्जुआ खेमे में तीखे झगड़ों की स्थिति में ये
फासीवादी संसदवाद को बर्दाश्त भी कर सकते हैं.

सोवियत रूस के नेता जोसेफ स्टालिन, जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान फासीवादी राष्ट्रों को शिकस्त देने में एक अहम भूमिका अदा की, ने राष्ट्रीय समाजवाद’ के नाम पर लाये गये जर्मन फासीवाद को रोकने में वहां के बुर्जुआ के साथ-साथ मजदूर वर्ग की कमजोरियों की भी शिनाख्त की. उन्होंने कहा कि ‘जर्मनी में फासीवाद के विजय’ को न केवल मजदूर वर्ग की कमजोरी एवं सामाजिक जनवाद द्वारा मजदूर वर्ग के प्रति गद्दारी, बल्कि बुर्जुआ की हालत की व्याख्या करते हुए कहा कि अब वे संसदवाद एवं बुर्जुआ जनवाद की पुरानी पद्धति से शासन करने के योग्य नहीं हैं. फलतः वे अपनी घरेलू नीति में शासन के आतंकवादी पद्धति अपनाने को बाध्य हैं. अब वे अपनी वर्तमान समस्या का समाधान शांतिपूर्ण विदेश नीति के आधार पर नहीं कर सकते हैं और ‘युद्ध की नीति अपनाने को मजबूर’ हैं.

फासीवाद को और बेहतर एवं व्यापक रूप में समझने के लिए ‘चीनी फासीवाद’ के बारे में जानना जरूरी है. इस संदर्भ में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चाऊ इन लाई द्वारा लिखित लेख ‘आन चाइनीज फासिज्म, द न्यू आटोक्रेसी’ (6 अगस्त, 1943) को पढ़ना चाहिए. इस लेख में कहा गया है कि चियांग काई-शेख का क्वामितांग यद्यपि जापानी हमलावरों का प्रतिरोध कर रहा है, फिर भी वह फासीवादी है. माओ ने कहा है कि चीन के क्वोमितांग का फासीवाद एक ‘दलाल-सामंती फासीवाद’ है जो पश्चिमी यूरोप के फासीवाद से भिन्‍न है. चीनी फासीवाद में ‘राष्ट्रीय आक्रमण को छोड़कर’ दिमित्रोव द्वारा बताये गए सारे लक्षण मौजूद हैं. इस लेख में चीनी फासीवाद की विचारधारा, इसकी ऐतिहासिक जड़ें और इसके राजनीतिक कार्यक्रमों एवं सांगठनिक गतिविधियों की विस्तृत चर्चा की गई है.

ऊपरलिखित व्याख्या से स्पष्ट है कि फासीवाद वित्तीय पूंजी के शासन करने का एक आतंकवादी तरीका है, जो अलग-अलग देशों में वहां के ऐतिहासिक, सामाजिक एवं आर्थिक हालातों के अनुसार और राष्ट्रीय विशेषताओं व उस देश की वैश्विक स्थिति के चलते विभिन्‍न स्वरूप ग्रहण करता है. इस तरह भारत में अगर फासीवादी राज्य स्थापित होगा तो इसका स्वरूप भी जर्मनी, जापान, इटली या यहां तक कि चीन के फासीवाद से कई मामलों में अलग होगा.

भारतीय फासीवाद के वस्तुगत आधार

भारत के दलाल शासक वर्ग आज कई तरह के आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक संकटों में गंभीर रूप से फंसे हुए हैं. अगर आने वाले समय में वे इन संकटों को अपने संसदीय जनवाद के तहत हल नहीं कर पाये तो उनके नेतृत्व में भारतीय राजसत्ता का फासीवादी रूपान्तरण लाजिमी है. इसलिए इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि हमारे देश में फासीवादी सत्ता लाने के लिए आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक आधार मौजूद हैं. आइये, इस पहलू पर थोडी विस्तार से चर्चा करें –

1. आर्थिक आधार

1947 के सत्ता हस्तान्तरण के बाद गठित भारतीय सरकारों ने आत्मनिर्भर विकास नीति अपनाने की बजाय साम्राज्यवाद परस्त आर्थिक नीतियों पर अमल किया. खासकर, 1991-92 में भारत सरकार ने विश्व बैंक के दिशा-निर्देश में ढांचागत समायोजन कार्यक्रम और इसके तहत नई आर्थिक नीति एवं उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण की नीतियों पर अमल करना शुरू किया. इसका सीधा नकारात्मक असर अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों पर पड़ा और मजदूरों, किसानों एवं अन्य मेहनतकश जनता की वास्तविक मजदूरी एवं आय में कमी हुई. दूसरी ओर मंहगाई, बेरोजगारी, सरकारी भ्रष्टाचार, विस्थापन व पलायन एवं सामाजिक कल्याण की योजनाओं में कटौती ने उनका जीवन दूभर कर दिया. लेकिन देश में कारपोरेट घरानों एवं अमीरों की संख्या में काफी तेजी से इजाफा हुआ.

इस आर्थिक दोहन एवं विषमता के खिलाफ जब भी जनता के विभिन्‍न हिस्सों ने संघर्ष खड़ा किया तो शासक वर्गों एवं उनकी सरकार ने एक ओर उनकी एकता को तरह-तरह के हथकंडे (जातिवाद, साम्प्रदायवाद, क्षेत्रीयतावाद आदि) अपनाकर तोड़ने की साजिश की और दूसरी ओर उन्हें दबाने के लिए क्रूर राजकीय दमन का सहारा लिया. भारत सरकार के इन कुकृत्यों का साम्राज्यवादी ताकतों एवं उनकी संस्थाओं द्वारा सक्रिय समर्थन किया गया. ढांचागत समायोजन कार्यक्रम का लागू होना और साथ ही साथ सुनियोजित तरीके से जन्मभूमि का विवाद खड़ा करना एवं बाबरी मस्जिद को ढहाया जाना, तथा अमेरिका, जापान जैसे देशों की इस घटना पर चुप्पी साधना और आई.एम. एफ., विश्व बैंक व एशियन डेवलपमेंट बैंक द्वारा भारत सरकार को भारी मात्रा में लम्बी अवधि का कर्ज दिया जाना उपरोक्त कथन की पुष्टि करता है.

आज साम्राज्यवादी देशों का वित्तीय संकट गहराता जा रहा है और वे अपने इस संकट से निजात पाने के लिए भारत जैसे विकासमान देशों के प्राकृतिक एवं मानवीय संसाधनों का दोहन तेज करना चाहते हैं. जैसे-जैसे भारत का दलाल शासक वर्ग उनकी इस मंशा को पूरा करता जायेगा, देश एवं जनता की माली हालत और खराब होती जायेगी. इस प्रक्रिया में व्यापक जनाक्रोश का उभरना स्वाभाविक है और उसे कुचलने के लिए भारतीय राजसत्ता के फासीवादीकरण की दिशा में बढ़ना भी अवश्यंभावी है.

2. राजनैतिक आधार

आज केन्द्र में भाजपा के नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार सत्तासीन है, जिसे आर.एस.एस.,विश्व हिन्दू परिषद्‌ एवं अन्य हिन्दुत्व की फासीवादी ताकतों का मजबूत समर्थन प्राप्त है. इसके अलावा भाजपानीत सरकारें 9 राज्यों में भी सत्तासीन हैं. आज भाजपा देश की सबसे बड़ी पार्टी है, जिसे पिछले लोकसभा चुनाव में कुल मतदान का करीब 31 प्रतिशत वोट मिला है. भाजपा एवं आर.एस.एस. समर्थित भारतीय मजदूर संघ आज देश का सबसे बड़ा मजदूर संगठन बन गया है. पूरे देश में हिन्दुत्व ताकतों द्वारा करीब 100 संगठन चलाये जा रहे हैं, जिनके पास अकूत सम्पदा है और उन्हें भारी मात्रा में विदेशी धन भी प्राप्त होता है. इनका गोपनीय ढांचा भी मजबूत है और इनके स्वयंसेवकों को आधुनिकतम हथियारों की भी ट्रेनिंग दी जाती है.

एक तो भारत की व्यापक जनता अभी भी धार्मिक अंधविश्वास एवं रुढ़ियों से ग्रसित है, दूसरे ये हिन्दुत्वादी संगठन अपनी सैकड़ों पत्र-पत्रिकाओं, बुकलेटों एवं धार्मिक-उन्मादी पुस्तकों के जरिये उनके अन्दर हिन्दू साम्प्रदायिकता की जहर को फैलाने में पूरी ताकत से लगे हुए हैं. इन हिन्दुत्ववादी ताकतों की भारतीय जनमानस के साथ-साथ कार्यपालिका, न्यायपालिका, सेना एवं खुफिया मशीनरी में भी अच्छी-खासी घुसपैठ है. हाल के महीनों में योजना आयोग, शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक संस्थानों, भारतीय इतिहास परिषद्‌, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास एवं फिल्‍म टेलीविजन संस्थान में अपने लोगों को प्रमुख पदों पर बिठाकर मोदी सरकार ने उन पर अपनी पकड़ मजबूत बनाने की कोशिश की है.

इस तरह एक ओर हिन्दुत्व की ताकतें अपने फासीवादी तेवर के साथ सत्ता एवं व्यवस्था के विभिन्‍न हिस्सों पर अपना शिकंजा मजबूत कर रही है, दूसरी और विपक्षी संसदीय दलों (वामपंथी समेत) एवं जनवादी-क्रांतिकारी ताकतों की राजनीतिक हालत एवं तैयारी काफी कमजोर है. जनवादी-क्रांतिकारी ताकतें तो विभिन्‍न राज्यों में शासक वर्गों और खासकर मोदी सरकार के फासीवादी मनसूबों के खिलाफ अपनी आवाजें उठा रही हैं, लेकिन वे किसी भी राज्य में और खासकर देश स्तर पर इन मनसूबों को जोरदार चुनौती देने में फिलहाल सक्षम नहीं हैं.

जहां तक विपक्षी पार्टियों का सवाल है, उनकी तो अधिकांश राज्यों में सरकारें भी हैं. लेकिन चूंकि उनकी आर्थिक नीतियां भी मूल रूप से वही हैं जो भाजपा एवं राजग की हैं और अपने चुनावी फायदे के लिए वे भी जातिवाद–साम्प्रदायिकता का मनचाहा इस्तेमाल करते हैं, इसलिए हिन्दुत्व की ताकतों और उनकी मोदी सरकार के फासीवाद की दिशा में बढ़ते कदम को रोक पाना उनके लिए संभव नहीं है. यही कारण है कि आज मुस्लिम-ईसाई अल्पसंख्यकों पर हमले बढ़ रहे हैं और दाभोलकर, पानसरे एवं कलबुर्गी जैसे विद्वानों एवं समाजसेवियों की नृशंस हत्या की जा रही है.

यह सच है कि हमारे देश के कुछ प्रांतों में हथियारबन्द माओवादी आन्दोलन और कश्मीर एवं उत्तर-पूर्व में राष्ट्रीयता आन्दोलन दशकों से चल रहे हैं. केन्द्र सरकार इन आन्दोलनों को आतंकवादी करार देती है और इन्हें देश की अखंडता-एकता के लिए खतरा मानती है. खासकर, माओवादी आन्दोलन को तो देश का सबसे बड़ा खतरा घोषित किया हुआ है. सरकार इन आन्दोलनों को सैनिक एवं अर्द्ध-सैनिक बलों के साथ-साथ अमेरिकी-इजरायली सैन्य विशेषज्ञों को लगाकर पूरी तरह कुचलने का प्रयास कर रही है. और मुस्लिम समुदाय जब भी अपनी आत्मरक्षा में हाथ या सर उठाता है तो उसे ‘पाकिस्तानी एजेन्ट’ एवं ‘देशद्रोही कहकर क्रूर राजकीय दमन का शिकार बनाया जाता है. इस तरह स्पष्ट है कि देश का वर्तमान राजनीतिक माहौल अंधराष्ट्रवादी हिन्दुत्व की ताकतों को अपना फासीवादी एजेंडा लागू करने का अवसर देता है.

3. सामाजिक-सांस्कृतिक आधार

हमारे देश का सामाजिक ढांचा ब्राह्मणवादी बहुस्तरीय अनुक्रम में अन्तर्गुन्थित है, जो बहुविध सामाजिक अन्तर्विरोधों को पैदा करता है. यहां की जातीय संरचना काफी मजबूत है और दलितों एवं पिछड़ों की बहुसंख्यक आबादी पर ऊंची जातियों के दबंगों का अत्याचार आज भी जारी है. यहां की धार्मिक संरचना ऐसी है कि मुस्लिम समुदाय के लोगों को दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता है और हिन्दुत्व की ताकतों द्वारा उन पर तरह-तरह के अत्याचार किये जाते रहे हैं. यहां तक गोमांसध्बीफ खाने का आरोप लगा कर उनकी हत्या भी की जा रही है. दादरी की घटना इसका ताजा उदाहरण है. भारत के शासक वर्ग की प्रायः सभी सरकारें जातीय एवं धार्मिक उत्पीड़न को रोकने की बजाय जातिवाद एवं धार्मिक सम्प्रदायवाद को खुलकर बढ़ावा दे रही हैं. खासकर, हिन्दुत्व की ताकतों के हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा ने मुस्लिम एवं अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को काफी असुरक्षित एवं आतंकित कर दिया है. उन्होंने बौद्ध, सिक्ख एवं जैन समुदाय के लोगों को काफी पहले से ही हिन्दू धर्म के अन्दर समाहित कर लिया है, अब वे मुस्लिमों को भी हिन्दू परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों को अपना लेने की सलाह दे रहे हैं.

कूल मिलाकर वे ‘संस्कृति’ को ‘धर्म’ एवं ‘हिन्दुत्वः को ‘भारतीयता’ का जामा पहनाकर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’, यानी अंधराष्ट्रवाद की अवधारणा पर अमल कर रहे हैं. वे हिन्दुत्व साम्प्रदायिकता का काफी तेजी से फासीवादीकरण कर रहे हैं. आज अच्छी तरह स्पष्ट है कि हिन्दुत्व की ताकतों का फासीवादी साम्प्रदायवाद बहुसंख्यक हिन्दुओं की विचारधारा नहीं है, बल्कि समाज के प्रभुत्वशाली वर्गों की विचारधारा है. लेकिन विडम्बना है कि काफी लम्बे अरसे से जातीय और धार्मिक भेदभाव एवं उत्पीड़न के शिकार दलित-पिछड़ी जातियों के कुंठित-हताश लोग भी हिन्दुत्व की फासीवादी विचारधारा के आगोश में आ रहे हैं और मुस्लिमों पर हमला करने में सक्रिय भागीदारी कर रहे हैं. गुजरात, उत्तर प्रदेश एवं बिहार में उनके द्वारा किये गये मुस्लिम लोगों का जनसंहार इसके उदाहरण हैं. भारत की ऐसी प्रभेदकारी सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना निश्चित रूप से हिन्दुत्व की ताकतों एवं नरेन्द्र मोदी सरकार को फासीवाद की दिशा में आगे बढ़ने का एक मजबूत आधार प्रदान करता है.

फासीवाद की दिशा में मोदी सरकार के बढ़ते कदम

नरेन्द्र मोदी सरकार ने अपने $साल के कार्यकाल में आर्थिक सुधार और राजनीतिक-सांस्कृतिक मोर्चे पर कई ऐसे कदम उठाये हैं, जिससे भारतीय राजसत्ता के फासीवादी रूपान्तरण की गति तेज होती दिखती है. इन कदमों की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है. इसने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की नीति को काफी उदार बना दिया और यहां तक रिटेल, बीमा, पेंशन, रक्षा, रेलवे, बैंकिंग एवं समाचार प्रसारण जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भी एफ.डी. आई. के विस्तार की अनुमति दे दी. इसने कई प्रभावकारी श्रम कानूनों में देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हितों को ध्यान में रखकर संशोधन किया. इसने विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा देश के प्राकृतिक एवं मानवीय संसाधनों के दोहन के लिए ‘मेक इन इण्डिया’, स्किल इण्डिया’ एवं डिजिटल इण्डिया’ जैसे अभियान शुरू किये. देशी-विदेशी कम्पनियों को जल्द से जल्द भूमि मुहैय्या कराने के लिए भूमि अधिग्रहण कानून में व्यापक संशोधन हेतु अध्यादेश एवं बिल लाये.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ज्यादा से ज्यादा विदेशी पूंजी लाने के लिए दो दर्जन से अधिक देशों की यात्राएं की. इसने हिन्दुत्व की ताकतों को ‘हिन्दू राष्ट्र’ का प्रचार करने, शिक्षा एवं संस्कृति का भगवाकरण करने, वैज्ञानिक तथ्यों के साथ मनमाना खिलवाड़ करने और सर्वोपरि देश के अन्दर साम्प्रदायिक असहिष्णुता का माहौल पैदा करने की खुली छूट दे दी. इसने योजना आयोग को खतम कर ‘नीति’ बनाया और ‘ग्रुप आफ मिनिस्टर्स’ को खतम कर स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा नीतिगत निर्णय लेने की व्यवस्था बनाई. इसने ‘न्यायपालिका की स्वायत्तता’ पर सीधा हमला किया और जजों की बहाली में सरकारी एवं राजनीतिक हस्तक्षेप के लिए ‘कौलेजियम व्यवस्था’ की जगह ‘नेशनल जुडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन’
बनाने की कोशिश की.

इसने अपने विस्तारवादी नीति को ‘अखण्ड भारत’ की अवधारणा के साथ संचालित करना शुरू किया. भूटान के भू-भाग में घुस कर हमला करना एवं नेपाल के खिलाफ आर्थिक नाकेबन्दी इसकी ज्वलंत मिसालें हैं. पाकिस्तान के साथ सीमा पर झड़प को जारी रखना तो भारत सरकार की पुरानी रणनीति रही है. हालांकि, मोदी सरकार ने पाकिस्तान से अपने सम्बन्धों को काफी कटुतापूर्ण बना दिया है ताकि देश की व्यापक जनता के भीतर उग्र राष्ट्रवाद की भावना बलवती हो सके. इसने जनता के विभिन्‍न हिस्सों द्वारा चलाये जा रहे आन्दोलनों पर राजकीय दमन चलाया. खासकर, कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठनों एवं उनके नेतृत्व में चल रहे आन्दोलनों पर ‘आपरेशन ग्रीन हंट’ जैसे क्रूर दमनकारी अभियान तेज किया.

अपरिहार्य बहुमत से दोबारा केन्द्र की सत्ता में आने के बाद नरेन्द्र मोदी सरकार ने अपना फासीवादी कदम काफी तेज कर दिया है. इसने संसद के हालिया बजट सत्र में करीब ढाई दर्जनों विधेयकों को पारित करने का रेकॉर्ड बनाया. इनमें मजदूर विरोधी मजदूरी कोड बिल एवं व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यस्थितियों पर श्रम कोड, बिल, जम्मू-कश्मीर की जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार विरोधी जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन बिल, विशेष आर्थिक क्षेत्र (संशोधन) बिल, गैरकानूनी गतिविधियां (निवारण) कानून (संशोधन) बिल, सूचना का अधिकार कानून (संशोधन) बिल मानव अधिकार सुरक्षा कानून (संशोधन) बिल और राष्ट्रीय जांच एजेन्सी (संशोधन) बिल प्रमुख है.

मोदी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में ही कुल 44 श्रम कानूनों को 4 श्रम कानूनों में शामिल करने की घोषणा की थी. इस बार संसद में जो दो श्रम कोडों को पारित किया गया है उनमें से मजदूरी कोड बिल में (जो अब कानून बन गया है) 4 कानूनों और दूसरे कोड बिल में कुल 13 कानूनों को शामिल किया गया है. इन दोनों के कानून बन जाने से मजदूरों के संघर्ष की बदौलत प्राप्त कानूनी अधिकारों में कई प्रकार की कटौतियां की गई हैं.

ध्यान देने की बात है कि जनवरी 1952 में कश्मरी के बारे में बयान दिया था- ‘कश्मीर न तो भारत और न ही पाकिस्तान की सम्पत्ति है. यह कश्मीरी जनता की है. जब कश्मीर का भारत से विलय हुआ था तो हमने कश्मीरी जनता के नेताओं को साफ कहा था कि हम अन्ततः: उनके जनमत संग्रह के निर्णय का पलान करेंगे ! आज मोदी सरकार ने इस वादा को तोड़ दिया है.

कश्मीर घाटी की जनता द्वारा कर्फ्यू और धारा 144 लगाने के बावजूद व्यापक विरोध किया जा रहा है. इस जन विरोधी को कुचलने के लिए पूरी घाटी में 35 हजार अतिरिक्त अर्द्ध सैनिकों की तैनाती की गई है. दो पूर्व मुख्यमंत्रियों समेत सैकड़ों राजनैतिक कार्यकर्त्ताओं, वकीलों, बुद्धिजीवियों और नागरिक अधिकार कार्यकर्त्ताओं को गिरफ्तार किया गया है. वहां इंटरनेट और टेलीफोन सेवायें भी रोक दी गई हैं. कुल मिलाकर कश्मीर की जनता को पूरी दुनिया से काटकर गुलामों की जिन्दगी जीने का मजबूर कर दिया गया है.

गैरकानूनी गतिविधियां (निवारण) कानून (यूएपीए) देश के कई कठोर कानूनों में से एक है, जिसे भारत सरकार ने देश की ‘सार्वभमौमिकता और अखंडता की रक्षा’ के नाम पर बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी, बिना हथियार के शांतिपूर्वक इक्ट्टा होने और यूनियन बनाने के अधिकार पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से 1967 में ही बनाया गया था. भारत सरकार इस कानून में अबतक (2019 के पूर्व) 4 बार, क्रमश: 1969, 2004, 2008 एवं 2012 में संशोधन कर चुकी है.

2004 का संशोधन पोटा कानून के संसद द्वारा वापस लेने के बाद किया गया था, लेकिन इसमें पोटा के लगभग सारे खतरनाक प्रावधानों को डाल दिया गया था. यूएपीए की धारा 35 के तहत कुल 41 दलों एवं संगठनों और उनसे जुड़े दर्जनों फ्रंटों एवं फार्मशनों को प्रतिबंधित किया गया है. बड़े पैमाने पर क्रान्तिकारी धारा के कार्यकर्त्ताओं और मुस्लिम समुदाय से जुड़े लोगों को इस कानून की विभिन्‍न धाराओं के तहत गिरफ्तार कर जेलों में डाला गया है. देश के जनतान्त्रिक-क्रान्तिकारी धारा और नागरिक अधिकार के लिए कार्यरत संगठन करीब एक दशक से ही इस कठोर कानून को रद्द करने की मांग करते रहे हैं.

लेकिन फासीवादी मोदी सरकार ने यूएपीए कानून की धारा को और तेज करने के लिए अगस्त्‌ 2019 के प्रथम सप्ताह में संसद से एक नया संशोधन पारित कराया. इसके बाद राष्ट्रपति ने इस संशोधन कनून पर अपना दस्तखत भी बना दिया. इस संशोधन के बाद अब सरकार को किसी व्यक्ति को भी आतंकवादी घोषित करने और उसे गिरफ्तार कर जेल भेजने का अधिकार होगा. अब तक केवल संगठनों को ही आतंकवादी घोषित करने का प्रावधान था. जिस व्यक्ति को आतंकवादी घोषित किया जायेगा, उसके नाम ऑफिसियल गजट में प्रकाशित किये जायेंगे, और उस व्यक्ति को ही सरकार को संतुष्ट करना होगा कि वह आतंकवादी नहीं है.

सरकार की ओर से बहस में भाग लेते हुए अमित शाह ने ‘अर्बन नक्सल’ पर कार्रवाई करने का संकेत दिया. ज्ञात हो कि आरएसएस द्वारा हाल में प्रकाशित एक पुस्तिका में अरूणा राय, मेधा पाटकर, स्वामि अग्निवेश, गौतम नवलखा जैसे लोगों को भी ‘अर्बन नक्सल’ कहा गया है. इस तरह आने वाले समय में यूएपीए का व्यापक पैमाने पर दुरूपयोग होगा और हजारों सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्त्ताओं को पकड़कर कैद किया जायेगा.

इसी तरह एनआईए (संशोधन) बिल, 2019 को भी संसद से पारित किया गया है. ज्ञात हो कि एनआईए का गठन मुम्बई आतंकी हमला (2008) के बाद 2009 में किया गया था. केन्द्रीय गृह मंत्रालय इस संस्था को और अधिक अधिकार देने के लिए 2017 से ही प्रयासरत था. इस संशोधन के बाद, विदेशों में आतंकवादी घटनाओं में भारतीय नागरिकों के प्रभावित होने की स्थिति में एनआईए को मामला दर्ज कर अन्य देशों में जाकर जांच करने का अधिकार मिल जायेगा. गृह मंत्री का मानना है कि किसी भी देश में भारतीयों के खिलाफ आतंकवादी अपराध होंगे तो एनआईए उससे निबटने में सक्षम होगा. कई कानून विशेषज्ञों का मानना है कि केन्द्र सरकार इस कानूनी संशोधन का दुरूपयोग पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल के खिलाफ कर सकती है.

जुलाई के अंतिम सप्ताह में सूचना का अधिकार कानून (आरटीआई) संशोधन बिल को संसद में पारित कर इस कानून की मूल अन्तर्वस्तु को ही काफी कमजोर कर दिया गया है. यह कानून सरकार और बाहुबलियों पर लगाम लगाने में कितनी बड़ी भूमिका अदा करता था, इसका सबूत इस बात से मिलता है कि अब तक 80 सूचना अधिकार कार्यकर्त्ताओं की हत्या की जा चुकी है. विश्वसनीय आंकड़े के मुताबिक हर साल करीब 60 लाख लोग आरटीआई का उपयोग करते हैं और सरकार की ओर से 2014-15 से 2016-17 के बीच कुल 34.39 लाख आवेदनों का जबाब नहीं दिया गया.

जब इस कानून का उपयोग करते हुए प्रधानमंत्री की शैक्षणिक योग्यता, सार्वजनिक बैंकों की ऋण नहीं चुकाने वालों के नाम और नोटबन्दी सम्बंधी जानकारी मांगी गई तो मोदी सरकार परेशान हो गई. इसका स्वाभाविक नतीजा यह होगा कि सूचना आयोग की स्वायत्त्ता ही समाप्त हो जायेगी, और जो भी व्यक्ति सूचना आयुक्त बनेगा, वह केन्द्र सरकार के रहमो-करम पर आश्रित होगा. आयुक्‍तों के 11 स्वीकृत पदों में से 4 खाली पड़े हैं। भ्रष्टाचार को उजागर करने वाले कार्यकर्त्ताओं की सुरक्षा के लिए ही व्हीसल ब्लोअर प्रोटेक्शन कानून 2014 में ही पारित किया गया था, लेकिन अभी तक इसका क्रियान्वयन नहीं हुआ है.

जुलाई 2019 के अंतिम सप्ताह में मानवाधिकार संरक्षण संशोधन बिल को भी संसद द्वारा पारित किया गया है. मानवाधिकार विशेषज्ञों के मुताबिक यह बिल पेरिस समझौता, जिसमें मानवाधिकार के सिद्धान्तों का अंतर्राष्ट्रीय मानक तय किया गया है, के खिलाफ है. इसके प्रावधान के मुताबिक राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय मानवाधिकार इकाईयों के अध्यक्षों एवं सदस्यों के कार्यकाल के 5 साल से घटाकर 3 साल कर दिया गया है. अब किसी सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व जज को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का चेयरपर्सन बनाया जा सकता है, जबकि इसके पूर्व भूतपूर्व मुख्य न्यायथीश को बनाया जाता था.

इसी तरह राज्य मानवाधिकार आयोग का चेयरपर्सन हाईकोर्ट के किसी भूतपूर्व जज को बनाया जा सकता है, जबकि पहले हाईकोर्ट ने भूतपूर्व मुख्य न्यायथीश को बनाया जाता था. इसके अलावा इस संशोधन के जरिये मानवाधिकार पेनलों के प्रशासनिक एंव वित्तीय अधिकार बढ़ाये गए हैं. विपक्षी दलों एवं मानवाधिकार विशेषज्ञों का मानना है कि इस संशोधन से मानवाधिकार आयोग की स्वायत्तता कमजारे पड़ेगी और इसमें सरकार का हस्तक्षेप बढ़ेगा.

इस प्रकार मोदी सरकार ने संसद के बजट सत्र में देश की आम जनता (खासकर जम्मू-कश्मीर की) एवं राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्त्ताओं पर फासीवादी दमन तेज करने के लिए व्यापक कानूनी संशोधन किये हैं, जिसका जनपक्षीय ताकतों द्वारा जमकर विरोध किया जाना चाहिए.

फासीवाद की आहट

यह सच है कि हिन्दुत्व की ताकतों द्वारा पूर्णतः समर्थित मोदी सरकार के नक्शे-कदम फासीवादी हैं. यह भी सच है कि प्रधानमंत्री के रंग-ढंग भी कई मामलों में हिटलर एवं मुसोलिनी जैसे फासीवादी नेताओं से मेल खाते हैं और इनका ‘अच्छे दिन आएंगे’ का नारा भी अक्षरश: हिटलर द्वारा सत्ता प्राप्ति के बाद दिये गये नारे का अनुवाद है. लेकिन इसके बावजूद भारत में फासीवादी राज्य की स्थापना में कई बाधायें है. फिलहाल भारतीय फासीवाद के रास्ते में जो बाधायें कमजोर हुई है; उन्हें इस प्रकार चिह्नित किया जा सकता है –

  1. हमारे देश के एकाधिकारी पूंजीपतियों के बीच काफी अन्तर्विरोध है और दूसरे उनका आर्थिक संकट भी गहरा हुआ है.
  2. केन्द्र और आधिकांश राज्यों में फासीवादी ताकतें सत्तासीन हैं और बहुसंख्यक राज्यों में क्षेत्रीय बुर्जआजी का चरित्र तेजी से बदल रहा है एवं उनकी क्षेत्रीय पार्टियां काफी कमजोर हुई हैं.
  3. भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास दर घटा है. साम्राज्यवादी देशों से भारत सरकार का अन्तर्विरोध बढा है.
  4. भारतीय समाज का ढांचा काफी जटिल एवं विविधतापूर्ण है, जिसे एकताबद्ध कर फासीवाद के खिलाफ एक शक्तिशाली जनान्दोलन खड़ा करना आसान नहीं है.
  5. हमारे देश के क्रान्तिकारी आन्दोलन और मजदूरों-किसानों व युवाओं के आन्दोलन भी तेज एवं जुझारू हो रहे हैं.

तत्काल शासक वर्गों के (‘संसदीय जनवाद’ पर कोई वैसा खतरा नहीं है. हालांकि, इसका मतलब यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि भारतीय शासक वर्ग हमेशा ही संसदीय जनवाद पर अमल करता रहेगा. अगर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियां बदलेंगी, भारत मे वित्तीय पूंजी का संकट बढ़ेगा, जनता के विभिन्‍न हिस्सों का जुझारू आन्दोलन यहां के फासीवादी शासकों की नींद हराम कर देगा, तब यहां के शासक समूहों का काम संसदीय जनवाद से नहीं चलेगा और निश्चय ही भारतीय सत्ता का पूर्णतया फासीवादी रूपान्तरण होगा.

भारतीय फासीवाद की विशिष्टताएं

लेकिन तब भी भारतीय फासीवाद न केवल यूरोपीय बल्कि चीन के फासीवाद से भी कई मामलों में अलग होगा. यूरोपीय फासीवाद के अन्दर वित्तीय पूंजी के ‘सर्वाधिक साम्राज्यवादी तत्व’ मौजूद थे जबकि भारतीय फासीवाद का चरित्र दलाल किस्म का होगा, क्योंकि भारत एक अर्द्धधसामंती-अर्द्ध उपनिवेशिक देश है. आज की तारीख में आर.एस.एस., जो हिन्दुत्व की फासीवादी ताकतों में सबसे ज्यादा प्रतिक्रियावादी एवं अंधराष्ट्रवादी है, साम्राज्यवाद विरोधी भूमिका में नहीं आ सकता है. इतिहास गवाह है कि इसने आजादी की लड़ाई के दौरान ब्रिटिश साम्राज्यवाद का भी विरोध नहीं किया था.

चूंकि भारतीय शासक वर्ग दलाल पूंजीवादी एवं सामंती तत्वों से बने हैं, इसलिए यहां की फासीवादी राजसत्ता पर इन दोनों तत्वों (मुख्यतरू पूंजीवादी तत्वों) की छाप होगी. हालांकि, भारतीय फासीवाद चीन के दलाल-सामंती फासीवाद से भी अलग होगा, क्योंकि यहां न तो चीन की तरह युद्ध सरदारों की सत्ता है और न ही भारतीय दलाल बुर्जुआ का चरित्र चीन के कठपुतली शासकों जैसा है. अगर हमारे देश में फासीवादी राजसत्ता पूरी तरह कायम होगी, तो उसका चरित्र विल्कुल ही अलग होगा.

फासीवाद की आहट के खिलाफ जन मोर्चा व जन गोलबन्दी नरेन्द्र मोदी के केंद्र की सत्ता पर बैठने के बाद हमारे देश के जनवाद-पसंद ताकतों के बीच इस फासीवादी सरकार या फासीवाद की दिशा में इसके बढ़ते कदम के खिलाफ जनता की विभिन्‍न ताकतों को लेकर व्यापक मोर्चा बनाने की चर्चा शुरू हो गई. इनमें से कुछ ताकतों का मानना है कि पूंजीवादी-उदार पूंजीवादी दलों, सामाजिक जनवादियों व सुधारवादी-संशोधनवादी दलों के साथ मिलकर उन्हें तत्काल एक व्यापक जन मोर्चा (पोपुलर फ्रंट) खड़ा करना चाहिए.

कुछ का मानना है कि तत्काल केवल मजदूरों के सभी हिस्सों (संगठित-असंगठित) को लेकर मजदूर वर्गीय मोर्चे का निर्माण करना चाहिए. अन्य ताकतों का मानना है कि फिलहाल मजदूर वर्ग के नेतृत्व में तमाम प्रगतिशील-जनवादी-क्रांतिकारी ताकतों और केंद्र की सत्ता के खिलाफ संघर्षरत राष्ट्रीयताओं, दलितों, अल्पसंख्यकों एवं आदिवासियों को गोलबंद करना जरूरी है.

नरेन्द्र मोदी की सरकार द्वारा अब तक जो भी फासीवादी कदम उठाये गये हैं, उसका सीधा असर भारतीय जनता के सभी वर्गों एवं हिस्सों पर पड़ रहा है. खासकर, मजदूरों, किसानों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यक समूहों, उत्पीडित राष्ट्रीयताओं एवं अन्य मेहनतकश हिस्सों का शोषण-दमन-उत्पीडन काफी बढ़ा है. इसलिए आज जरूरत इस बात की है कि जनता के इन तमाम हिस्सों को एक व्यापक मोर्चा के तहत गोलबन्द किया जाये, ताकि सरकार के फासीवादी कदमों के खिलाफ एक शक्तिशाली जनान्दोलन खड़ा किया जा सके.

इस लड़ाई को न केवल आर्थिक, बल्कि राजनीतिक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक मोर्चे पर भी लड़ना होगा, इसके अलावा हिन्दुत्व की ताकतों एवं कारपोरेट घरानों के प्रचार-तंत्रों के खिलाफ एक जनपक्षीय वैकल्पिक मीडिया की स्थापना भी करनी होगी. साथ ही साथ, धरातल पर फासीवादी ताकतों की सीधी टक्कर भी देनी होगी.

इस महत्वपूर्ण एवं तात्कालिक कार्यभार को पूरा करने के लिए मजदूरों एवं जनता के अन्य हिस्सों के बीच कार्यरत प्रगतिशील-जनतांत्रिक-क्रांतिकारी समूहों को आगे आना चाहिए. अगर हम इसमें चूकेंगे तो हिटलर के फासीवादी राज्य के खिलाफ आवाज उठाने वाले विख्यात जर्मन पादरी पास्टर मार्टिन नायमौलर की यह पंक्ति सार्थक साबित होगी- ‘तब वे मुझे लेने के लिए आये-तो मेरे लिए बोलने वाला कोई नहीं था.’

नायमौलर की पूरी उक्ति का काव्यात्सक अनुवाद इस प्रकार है –

हले वे कस्युनिस्टों के लिए आये
और मैं कुछ नहीं बोला-
क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था
तब वे ट्रेड यूनियनवादियों के लिए आये
और मैं कुछ नहीं बोला-
क्योंकि मैं ट्रेड यूननियनवादी नहीं था
तब वे यहूदियों के लिए आये
और मैं कुछ नहीं बोला-
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था
तब वे युझे लेने के लिए आये –
तो मेरे लिए बोलने वाला कोर्ड नहीं था.

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