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किसान आन्दोलन को व्यापक बनाने की चुनौतियां

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किसान आन्दोलन को व्यापक बनाने की चुनौतियां
किसान आन्दोलन को व्यापक बनाने की चुनौतियां
मीरा दत्त, संपादक, तलाश द्विमासिक पत्रिका

साल 2022 के अन्त अन्त तक किसान आन्दोलन की गतिशीलता बढ़ी. किसान आन्दोलन का स्थल सिंघू बॉर्डर को पूरी दुनिया में लोग भुले नहीं होंगे. गर्मी की चिलचिलाती धूप हो या हाड़ कंपा देने वाली ठंढ हो किसान आन्दोलन में डटे रहे. यह किसान आन्दोलन साल 2020, 26 नवम्बर से शुरू होकर 2021, 11 दिसम्बर तक चला.

इतने लम्बे चले संघर्ष में अपने 714 साथियों के शहादत होने, हजारों मुकदमा दायर होने, कई तरह की मानसिक प्रताड़ना एवं यातना (खालिस्तानी, देशद्रोही आदि कहलाने, लाठी चार्ज द्वारा हमला, सड़क को काटकर कंटीले तार से घेराव आदि) के बाद किसान आन्दोलन ने पहली बार सरकार को तीन पूंजीवादी कृषि नीतियों को वापस लेने को मजबूर कर दिया. जबकि, किसान के कई महत्वपूर्ण मांगों को सरकार ने नहीं माना.

कोरोना काल के दौरान साल 2020 सितम्बर में बने तीन कृषि कानून – 1. किसान (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन एवं खेती सेवा समझौता कानून, 2. किसान उत्पादन व्यापार एवं वाणिज्य (प्रोत्साहन एवं सहूलियत) कानून और 3. आवश्यक वस्तु (संशोधन) अध्यादेश को सरकार ने 26 नवम्बर 2021 को रद्द कर दिया. वास्तविकता ये है कि प्रधानमंत्री ने स्वयं ये घोषणा किया कि किसानों की मांग मान लिये गये हैं. आगे, जब कोई बातचीत के लिए किसान नेता बुलाए नहीं गए तभी से किसानों ने पुनः सड़क पर आकर जनवरी 2022 से ही विरोध प्रदर्शन करना शुरू कर दिया.

क्योंकि किसानों के अन्य महत्वपूर्ण मांग एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) गारंटी कानून, आन्दोलन आन्दोलन वापसी के साथ किसानों पर चलाये गये मुकदमों की सरकार द्वारा वापसी, शहीद हुए किसानों के परिवार को मुआवजा, राजनीतिक बंदियों की रिहाई, बिजली संशोधन विधेयक की वापसी, लखीमपुर खीरीं (उतर प्रदेश) में किसानों व पत्रकारों के जनसंहार के आरोपी ‘केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा टेनी की बर्खास्तगी एवं उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई’ आदि पर आन्दोलन के बाद कोई लिखित समझौता नहीं हुआ.

जस के तस बनी हुई है किसानों की समस्यायें

किसानों के शानदार संधर्ष को एक साल होने को आये परंतु किसानों की समस्यायें जस के तस बनी हुई है. कई समस्यायें हैं उन सभी कोे यहां रखना संभव तो नहीं है लेकिन कुछ समस्याओं को तो रखा ही जा सकता है. जैसे, किसान कर्ज लेकर कार्य शुरू भी कर दे तब भी उर्वरक जैसे, नेत्रजन, डीएपी आदि के लिए दो दिन तक लाइन लगाना पड़ता है. जहां वे लाइन लगते हैं रात होने पर वहीं सो भी जाते हैं. कभी तो लाइन में एक दो व्यक्तियों की मौत भी हो गई हैै. उसके बाद भी सभी को उर्रवरक नहीं मिल पाता है. जबकि 2014 के बाद उर्वरक का दाम करीब 50 प्रतिशत से लेकर 200» से अधिक बढ़ चुका है.

बिजली की कीमत भी इतनी बढ़ चुकी है कि खेती के लिए इसका इस्तेमाल करना मुश्किल हो गया है. जब सब तरह की समस्याओं का सामना कर खेती भी कर लें तो कृषि उत्पाद को बेचना संभव नहीं होता, उचित मूल्य तो दूर की बात है. जिसे अनाजों का अवसादी बिक्री भी कहा जाता है. चूंकि अधिकांश लोगों के पास क्रय शक्ति नहीं है.

आज भले ही चमचमाती हुई विशाल हाई वे गांव से पास करती दिखाई दे जाये या शहरों में गगनचुंबी इमारतें दिखें पर वह वैज्ञानिक विकास नहीं है जो बाढ़, सुखाड़, जल जमाव आदि से खेती को मुक्ति दिला सके. यह सच है कि बाढ़ और सूखे से शतप्रतिशत मुक्ति नहीं दिलाई जा सकती है, परंतु विज्ञान ने इतनी प्रगति कर ली है कि बहुत हद पर इसपर नियंत्रण पाया जा सकता है.

बीमा के नाम पर किसानों के साथ ठगी

किसानों के लिए बीमा की व्यवस्था भी निजी कंपनियों को बिना किसी काम भारी मुनाफा पहुंचाती है. संसद में दिये गये सवालाें के जवाब से डॉ. डी. एम. दिवाकर ने प्रति किसान और प्रति हेक्टेयर में इसका हिसाब लगाया तो पता चला कि साल 2016-17 एवं 2017-18 में सकल प्रीमियम क्रमशः 22205.10 एवं 25140.54 करोड़ बीमा कम्पनियों को मिला. प्रति किसान भुगतान इन्हीं वर्षों में क्रमशः 5348.55 रुपये तथा 12134 रूपये हुए. प्रति हेक्टेयर भुगतान क्रमशः 2750 तथा 2530 रुपये हुए.

पी. साईनाथ ने प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को रफेल घोटाले से भी बड़ा घोटाला बता कर मोदी सरकार की किसान विरोधी नग्नता को उजागर किया. रिलायंस कंपनी का मामला लीजिए. इसने पूरे महाराष्ट्र के मात्र एक तालुका से किसानों से प्रीमियम के 173 करोड़ रूपये वसूले. मुआवजा बांटा बमुश्किल 30 करोड़ रूपये. मुनाफा कमाया 143 करोड़.

अब आप इस योजना के तहत पूरे देश में कंपनियों की लूट की मात्र का हिसाब लगा सकते हैं. एक अनुमान के मुताबिक कंपनियों ने इस योजना के तहत किसानों की 66,242 हजार करोड़ रूपये की विशाल राशि दबा रखी है. यहां तक कि किसानों के लिए सूद की दर भी अन्य कर्जा लेने वाली कम्पनी की तुलना में अधिक है.

किसानों के कर्ज माफी पर सवाल क्यों ?

इस देश में किसानों के बैंक कर्ज माफी के सवाल पर बड़ा शोर शराबा मचाया जाता है कि इससे तो बैंकों का दिवाला ही निकल जायेगा ! मगर, हकीकत क्या है ? पी. साईनाथ के अनुसार बैंकों से कर्ज लेकर नहीं लौटाने वालों में जहां देश के 70 फीसदी कारपोरेट घराने हैं तो किसान महज 1 फीसदी हैं. मगर, आत्महत्या किसान ही करते हैं.

इतना ही नहीं, किसानों को जहां 20 से 36% व्याज दर पर कर्ज मिलता है वहीं टाटा को नैनो के लिए महज 1% व्याज दर पर कर्ज मिल गया. करीब 50% से अधिक लोग खेतीे किसानी के लिए कर्ज लेते हैं, और जब कर्ज नहीं चुकाने की स्थिति में होते हैं, तब आत्महत्या तक करते हैं.

इस तरह के अभाव में खेती घाटे का सौदा बना हुआ है. करीब 90% किसान हमारे देश में किसी तरह से जीवन निर्वाह करने लायक खेती करते हैं. खेती करके भी दो वक्त का भोजन नहीं जुटा पाते हैं. ऐसे में खेतीहर मजदूर आज भी कुछ राज्यो – जैसे, पंजाब, हरियाणा, झारखंड, बिहार आदि राज्यों में आन्दोलन कर रहे हैं.

यहां तक कि शान्ता कुमार समिति का रिर्पोट है कि मात्र 6% किसानों से सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीद पाती है. एमएसपी पर केन्द्रीय सरकार ने समिति जो की एमएसपी तय करने के लिए होगी, बनाने का वादा किया था लेकिन इस साल जुलाई में वह समिति भी नहीं बनी क्योंकि किसानों के समिति संबंधी प्रासांगिक सवालों का जवाब सरकार और प्रशासन की ओर से नहीं आया.

किसान आन्दोलन को व्यापक बनाना जरूरी कदम

बहरहाल किसान आन्दोलन जारी है. यह कहीं न कहीं समाज की जीने-मरने की संघर्ष एवं गतिशीलता का सूचक है. फिर भी, किसान आन्दोलन की व्यापकता वतर्मान में एक चुनौती है. किसानों ने अभी कुछ क्षेत्रों में खेतिहर मजदूरों से जुड़ाव बनाना शुरू किया है, परंतु सर्वत्र इनका किसान आन्दोलन से जुड़ना नितांत आवश्यक है क्योंकि किसानों की मुक्ति बिना खेतिहर मजदूरों, श्रमशक्ति के उद्देश्य ‘हर जोतने वाले को जमीन और हर हाथ को काम’के पूर्ति के संभव नहीं है.

जहां तक किसानों को भी जीने की मूलभूत सुविधायें- स्वास्थ्य की सुविधा, बच्चों के लिए शिक्षा की सुविधा आवश्यक है, यहां तक कि स्वामीनाथन आयोग के न्युनतम समर्थन मूल्य को तय करने का आधार इन मूल-भूत सुविधाओं के लागत का जायजा लेकर तय किया गया है.

किसानों के लिए यह उपयुक्त समय है जब वे एक विशाल श्रमशक्ति जिसमेें किसान, खेतिहर मजदूर, अन्य श्रमशक्ति को लामबन्द कर केवल उनके मांगों बल्कि स्वास्थ्य एवं शिक्षा सहित सभी के मांगों को लेकर एक जबरदस्त आन्दोलन को अंजाम दे सकते हैं. इन मांगों में विश्व साम्राज्यवाद से जुड़ा विश्व व्यापार संगठन के साथ की गई भारत सरकार द्वारा खेती से संबंधित समझौता को छोड़ने की मांग करना ही समय की मांग है.

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