'यदि आप गरीबी, भुखमरी के विरुद्ध आवाज उठाएंगे तो आप अर्बन नक्सल कहे जायेंगे. यदि आप अल्पसंख्यकों के दमन के विरुद्ध बोलेंगे तो आतंकवादी कहे जायेंगे. यदि आप दलित उत्पीड़न, जाति, छुआछूत पर बोलेंगे तो भीमटे कहे जायेंगे. यदि जल, जंगल, जमीन की बात करेंगे तो माओवादी कहे जायेंगे. और यदि आप इनमें से कुछ नहीं कहे जाते हैं तो यकीं मानिये आप एक मुर्दा इंसान हैं.' - आभा शुक्ला
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कविताएं

एक कवि की मौत

आज ही मरना था साले को रविवार है कितना कुछ सोचा था अब मुए को ढो कर ले चलो मसान कल शनिवार था घर में कोई नहीं था मौका पाकर साला पी गया बोतल भर और लुढ़क गया कुर्सी पर बैठे बैठे ऐसा क्यों बोलते हो भाई किसी की मौत पर ऐसा नहीं कहते थोड़ा संजीदा दिखो सफेद कपड़े पहनो …

कैसे क्षमा कर कर दूं एकलव्य ?

तुम पर दया नहीं आती क्रोध उपजता है एकलव्य तुम पहचान नहीं पाये कि जिसे तुम गुरु मानकर पूजते रहे वह शिष्यहन्ता है, गुरु नहीं गुर तो उसने तुम्हें दिये नहीं जो भी गुर तुमने सीखे, स्वयं सीखे और जो भी सीखे, उसने छीन लिये तो फिर गुरुदक्षिणा काहे की ? यह सवाल उठा तो होगा तुम्हारे मन में फिर …

लाशें, ईद और रथयात्रा

तुम ईद मनाओ, जगन्नाथ के रथ को हांको बड़े मोलवियों और पुजारियों की बधाई ले लो मैं तुम्हारे बिखेरे रक्त-धब्बों को अपने आंंसुओं से साफ़ करता रहूंगा तुम ईद-निमाज़ पढ़ो, अल्लाह का गुणगान करो जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की जय-जयकार करो पत्थरों में ढलते क्रोध को अपने हाथों से उछालो यह सोचे बिना कि हाथ भी तुम्हारे ही हैं और …

कालांतर में

कालांतर में जब दुनिया के सारे बम बरस चुके होंगे सारे युद्धक विमान नष्ट हो कर धूल चाट रहे होंगे और अकाल मृत्यु के सारे उपादान काल कवलित हो कर तुम्हारी स्मृति में गुंंथ जाएंंगे नथुनों से ग़ायब होते बारूद की महक की तरह कुछ स्त्रियांं फटे हुए बमों के खोखों में उगा लेंगी फूल कुछ मर्द क्यारियांं बनाकर कतारबद्ध …

लॉकडाउन अच्छा है

कल सुबह सूनी सड़क पर, एक गाड़ी में डाली गई थीं कुछ ज़िंदा लाशें, कहते हैं उन्हें भेजना था, 380 किमी दूर किसी होटल में, थानेदार ने पकड़ा, थाने में बिठाया एक रसूखदार बड़े ‘भाई साहब’, कई अमीर, पत्रकार, नेताजी के नकाब उतरे, एक ‘भाई साहब’ ने फ़ोन घुमाया, ‘बड़े भाई साहब’ को छोड़ने का आदेश दिया, बात नहीं बनी, …

कौन उजाड़ता है इन्हें ?

वो जो भटकते रहे उम्र भर, बना दिए गए अपने ही देश में शरणार्थी. जिनकी गर्दन पर रखी है तलवार सैन्यवाद की वो जो कूद गए मुक्ति संग्राम में, लड़ पड़े प्रतिरोध की कसम लिए जिन्हें गुजरना पड़ा अन्तहीन जेल यात्राओं से, जिनके साथ चलता रहा सिलसिला नज़रबंदी का. वो जो गिरफ्तार कर लिए गए क्रांतिकारी साहित्य रखने के जुर्म …

लॉकअप का बेताल शव

लॉकअप से शव को कन्धे पर उठाए मैं चल रहा हूंं अपनी मौत की घटना सुनाऊंं पूछता है शव ‘मेरी मौत सहज थी या हत्या.’ शव और वह भी लॉकअप में बात कर रहा हो तो वह हत्या ही हो सकती है- मैंने कहा. सत्य कहने पर ख़ुशी हुई जीवित आदमी का लॉकअप में मुंंह खोलना ही अपराध है इसीलिए …

स्त्री-साहस का प्रतीक

केरल के तंकमणी गांंव की घटनाओं पर 22.2.1987 के इलेस्ट्रेटिड वीकली में छपे वेणु मेनन के लेख के प्रति आभार सहित. दरवाज़े को लात मार कर खोला है और घर में घुस कर जूड़ा पकड़ कर मुझे खींचा है मारा है. दी हैं गन्दी गालियांं… निर्वस्त्र किया है और क्या कहूंं ! छिपाने के लिए अब बचा ही क्या है …

तुम धरती हो …

तुम धरती हो बिछी हो जिस पर मैं चलता हूं तुम वृक्ष हो झुकी हो, जिससे लिपट मैं अकसर सो जाता हूं और जाग कर मेरी दरंदगी अपने बदन की खुजली मिटाती है मेरे दोस्तों के हरे जंगल सूख गये वे परिंदे कहां चले गये जिनके घोंसले मेरी आंंखें आज भी ढोतीं हैं एक तरफ मौत और दूसरी तरफ तुम …

आत्म निर्भर

आत्म निर्भर शब्द का क्या वही मतलब है जो कल घोषणा के पूर्व था या आज जो घोषणा के बाद है ? हिंदी के बिचारे कितने निर्दोष शब्द ऐसे ही आतंकी हमलों की भेंट चढ़ गए. चीनी उत्पादों का बहिष्कार हो, न हो अलग बात है, डर तो इस बात का है कि बहिष्कार का ही कहीं बहिष्कार न होने …

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