'यदि आप गरीबी, भुखमरी के विरुद्ध आवाज उठाएंगे तो आप अर्बन नक्सल कहे जायेंगे. यदि आप अल्पसंख्यकों के दमन के विरुद्ध बोलेंगे तो आतंकवादी कहे जायेंगे. यदि आप दलित उत्पीड़न, जाति, छुआछूत पर बोलेंगे तो भीमटे कहे जायेंगे. यदि जल, जंगल, जमीन की बात करेंगे तो माओवादी कहे जायेंगे. और यदि आप इनमें से कुछ नहीं कहे जाते हैं तो यकीं मानिये आप एक मुर्दा इंसान हैं.' - आभा शुक्ला
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कविताएं

देशभक्त

देश में देशभक्तों की बहुत कमी है कमल छाप छोड़ अब कौन है जो देश में देशभक्त है देशभक्ति के लिए कमल, और कमल के लिए भरपूर कीचड़ चाहिए कश्मीर से कन्याकुमारी कच्छ से कामरुप जहां तक कीचड़ फैले बेरोक फैलने देना है कीचड़ का विरोध कमल का विरोध कमल का विरोध जघन्य देशद्रोह है देश में देश को देशद्रोहियों …

नई सभ्यता का नया उजाला

सभी कालखण्डों को रौंदता बनाता, बिगाड़ता, फिर बनाता इतिहास को, सभ्यता को दृश्यमान अखिल जगत को दौड़ता जाता महाकाल रथ पीढ़ियां उठती हैं थामती है इसके घोड़ों की लगाम हाथों में महाविप्लवों, महाक्रांतियों की चाबुक से हांकती, दौड़ती जाती इसे ! पीढ़ियां स्थान बदलती हैं, पुरानी जाती है, नये आते हैं न महाकाल-रथ विराम लेता है और न चुकते हैं …

इंतजार में सूर्य

जब देश और दुनिया की समूची प्रबुद्ध मनीषा गुजर रही हो मेनोपाॅज के दौर से जब बोझ व बंध्या हो गई हो उनकी कोख जब सृजन, ठहराव और असृजन का ही पर्याय बन गया हो जब रहनुमाओं की रहनुमाई दम तोड़ रही हो घने अंधकार वाली बंद गलियों में तब और तब मेरे दोस्त केवल तभी जरूरत है कि झोंका …

लहू है की तब भी गाता है

हमारे लहू को आदत है मौसम नहीं देखता, महफ़िल नहीं देखता ज़िन्दगी के जश्न शुरू कर लेता है सूली के गीत छेड़ लेता है शब्द हैं की पत्थरों पर बह-बहकर घिस जाते हैं लहू है की तब भी गाता है ज़रा सोचें की रूठी सर्द रातों को कौन मनाए ? निर्मोही पलों को हथेलियों पर कौन खिलाए ? लहू ही …

बसन्त कभी अकेला नहीं आता

बसन्त कभी अलग होकर नहीं आता ग्रीष्म से मिलकर आता है, झरे हुए फूलों की याद शेष रही कोंपलों के पास नई कोंपलें फूटती हैं आज के पत्तों की ओट में अदृश्य भविष्य की तरह, कोयल सुनाती है बीते हुए दु:ख का माधुर्य प्रतीक्षा के क्षणों की अवधि बढ़कर स्वप्न-समय घटता है, सारा दिन गर्भ आकाश में माखन के कौर-सा …

भारत में लोकतंत्र बहुत है !

भारत में लोकतंत्र बहुत है ! कुपोषण से यहां बच्चे मरते बहुत हैं ! बिना दवा-दारू के अकाल मौतें बहुत हैं ! किसान करते यहां आत्महत्या बहुत हैं ! बेगुनाह लोग यहां जेल भरते बहुत हैं ! लड़कियों के साथ यहां होते बलात्कार बहुत हैं ! जल-जमीन-जंगल के लिये यहां होते जुल्म बहुत हैं ! सरकार खजाने की लूट बहुत …

जनतन्त्र के सूर्योदय में

रक्तपात – कहीं नहीं होगा सिर्फ़, एक पत्ती टूटेगी ! एक कन्धा झुक जायेगा ! फड़कती भुजाओं और सिसकती हुई आंंखों को एक साथ लाल फीतों में लपेटकर वे रख देंगे काले दराज़ों के निश्चल एकान्त में जहाँ रात में संविधान की धाराएंं नाराज़ आदमी की परछाईं को देश के नक्शे में बदल देती है पूरे आकाश को दो हिस्सों …

किसान

तुम किसानों को सड़कों पे ले आए हो अब ये सैलाब हैं और तिनकों से रूकते नहीं ये जो सड़कों पर हैं खुदकुशी का चलन छोड़ कर आए हैं बेड़ियां पाओं की तोड़ कर आए हैं सोंधी खुशबू की सबने कसम खाई है और खेतों से वादा किया है के अब जीत होगी तभी लौट कर जाएंगे अब जो आ …

तलवार

तलवार मुसलमानों पर ही नहीं है तलवार दलितों पर ही नहीं है तलवार बस्तर के जंगल पर ही नहीं है तलवार घाटी में ही नहीं है तलवार कहीं पर किसी पर हो सकती है तलवार तलवार होती है तलवार कोई फ़र्क़ नहीं करती लोहार, सोनार, मजबूर मजदूर किसान में आप की तकसीम महंगी पड़ सकती है कल तलवार की जद …

यह मेरा देश है…

यह मेरा देश है… हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक फैला हुआ जली हुई मिट्टी का ढेर है जहांं हर तीसरी जुबान का मतलब – नफ़रत है. साज़िश है. अन्धेर है. यह मेरा देश है और यह मेरे देश की जनता है जनता क्या है ? एक शब्द…सिर्फ एक शब्द है: कुहरा, कीचड़ और कांच से बना हुआ… एक भेड़ …

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