'यदि आप गरीबी, भुखमरी के विरुद्ध आवाज उठाएंगे तो आप अर्बन नक्सल कहे जायेंगे. यदि आप अल्पसंख्यकों के दमन के विरुद्ध बोलेंगे तो आतंकवादी कहे जायेंगे. यदि आप दलित उत्पीड़न, जाति, छुआछूत पर बोलेंगे तो भीमटे कहे जायेंगे. यदि जल, जंगल, जमीन की बात करेंगे तो माओवादी कहे जायेंगे. और यदि आप इनमें से कुछ नहीं कहे जाते हैं तो यकीं मानिये आप एक मुर्दा इंसान हैं.' - आभा शुक्ला
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कविताएं

वो ढूंढ लेती है अपने हिस्से के उजाले

उजाले भी बहुत हैं वहां वो ढूंढ लेती है अपने हिस्से के उजाले घर के काम को जल्द से निपटा कर पति और बच्चों को खिला पिला कर स्कूल, ऑफ़िस भेजने के बाद या सुलाने के बाद वो ढूंढ लेती है अपनी आज़ादी के क्षण इन क़ीमती पलों में वो पलटती है रंगीन रिसालों के पन्ने प्यार से सहलाती है …

तर्क

दुनिया बदस्तूर चलती रहे इसके लिए हवा पानी और मिट्टी से भी ज्यादा जरूरी है तर्क जैसे, 7 परसेंट ग्रोथ का तर्क भारत की 15 परसेंट आबादी को पांच फुट नीचे ले जाने के लिए काफी है इसके बाद भी वे जमीन पर दिखते हैं तो इसे भारतीय संस्कृति की उदारता कहें चन्द्रभूषण [ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित …

सबसे उपयुक्त समय…

सबसे सहज बातों से जब वे असहज हो जाते हैं वही समय सबसे उपयुक्त होता है सहज सत्य को सरल तरीक़े से कहना आदमी को पिसते हुए देख कर गेहूं के साथ घुन की याद आ जाना पुरानी कहावत के रूह में कुछ अलग तरीक़े से उतरना है सहज और सरल ठीक इसके विपरीत आदमी को उसके आवरण से समझना …

मैं, मैं हूं, और मैं ही रहुंगी…

मैं, मैं हूं , मैं ही रहूंगी. मै ‘राधा’ नहीं बनूंगी, मेरी प्रेम कहानी में,,, किसी और का पति हो, रुक्मिनी की आंख की किरकिरी मैं क्यों बनूंगी, मैं ‘राधा’ नहीं बनूंगी. मै ‘सीता’ नहीं बनूंगी, मै अपनी पवित्रता का, प्रमाणपत्र नहीं दूंगी, आग पे नहीं चलूंगी वो क्या मुझे छोड़ देगा- मै ही उसे छोड़ दूंगी, मै सीता नहीं …

‘तुमने अभी उस आदमी से क्या कहा ?’

‘तुमने अभी उस आदमी से क्या कहा ?’ ‘मैंने उसे जल्दी करने को कहा.’ ‘तुम्हें उसे जल्दी करने को कहने का क्या अधिकार है ?’ ‘मैं उसे जल्दी करने के पैसे देता हूं.’ ‘तुम उसे कितना पैसा देते हो ?’ ‘4 डॉलर रोजाना.’ ‘तुम्हारे पास ये पैसा कहां से आता है ?’ ‘मैं चीजें बेचता हूं.’ ‘उन चीजों को कौन …

काजल लता

चांद औंधे मुंह गिरा था नीले सागर में और चली गई थी मां उस पार चांद की पीठ पर एक काली गठरी है जिसका कलुष काजल लता के वक्ष में पुती कालिख़ सा है बड़े जतन से मां काजल लता के रुपहले बदन को चमकाती थी और घी का लेप अंदर लगा कर घी के दीये के उपर औंधे मुंह …

गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध

कई दिनों से लगातार हो रही बारिश के कारण ये शहर अब अपने पिंजरे में दुबके हुए किसी जानवर सा दिखता है मैं एक नब्बे प्रतिशत भीगे हुए अधोवस्त्र को बाक़ी दस प्रतिशत सूखे हुए हिस्से को अपनी जद में लेने की जद्दोजहद को चुपचाप देख रहा हूं कितना मुश्किल होता है अपने हाथ में कुछ नहीं होना और कितना …

मेरे अंगों की नीलामी

अब मैं अपनी शरीर के अंगों को बेच रही हूं एक एक कर. मेरी पसलियां तीन रुपयों में. मेरे प्रवाहमान उरोज उसके दानवी यौनिकता/पाशविक कामुकता के लिए. मेरी योनि मेरे अस्तित्व के बदले. मेरे पैर दो रुपए में. मेरी गठियाग्रस्त अस्थियां पचास रुपए में. मेरी जबान बिनमोल. मेरा दिमाग़ एक रुपए में और मेरा दिल अन–बिका रह गया. किसी को …

मेरा देश जल रहा…

घर-आंगन में आग लग रही सुलग रहे वन-उपवन, दर दीवारें चटख रही हैं जलते छप्पर-छाजन. तन जलता है, मन जलता है जलता जन-धन-जीवन, एक नहीं जलते सदियों से जकड़े गर्हित बंधन. दूर बैठकर ताप रहा है, आग लगानेवाला, मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझानेवाला. भाई की गर्दन पर भाई का तन गया दुधारा सब झगड़े की जड़ है पुरखों …

‘लो मैं जीत गया…’

सुदूर जंगल से लगा एक कस्बा एक खाली इमारत, चन्द कुर्सियां गहरी रात का पहर पांच वाट की पीली रोशनी कुर्सी के पीछे बंधे हाथ दो चमकती आंखे और पसीने से तरबतर शरीर उसे घेरकर खड़े कुछ वर्दी वाले रोबोट एक कड़कती हुई आवाज- ‘यहां किसके कहने पर आए ?’ कुएं से निकलती एक धीमी मगर दृढ़ आवाज- ‘अपनी अंतरात्मा …

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