'यदि आप गरीबी, भुखमरी के विरुद्ध आवाज उठाएंगे तो आप अर्बन नक्सल कहे जायेंगे. यदि आप अल्पसंख्यकों के दमन के विरुद्ध बोलेंगे तो आतंकवादी कहे जायेंगे. यदि आप दलित उत्पीड़न, जाति, छुआछूत पर बोलेंगे तो भीमटे कहे जायेंगे. यदि जल, जंगल, जमीन की बात करेंगे तो माओवादी कहे जायेंगे. और यदि आप इनमें से कुछ नहीं कहे जाते हैं तो यकीं मानिये आप एक मुर्दा इंसान हैं.' - आभा शुक्ला
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पुस्तक / फिल्म समीक्षा

‘यूटोपिया’ : यानी इतिहास का नासूर…

यह फिल्म आस्ट्रेलिया के एक ऐसे नासूर को छूती है जिस पर आमतौर पर कोई आस्ट्रेलियाई बात करना पसंद नहीं करता. यह मुद्दा है आस्ट्रेलिया के ‘मूल निवासियों’ यानी काले लोगों का. अमरीका की तरह ही आस्ट्रेलिया में भी यूरोपियन के आने से पहले यहाँ एक भरी पूरी सभ्यता निवास करती थी, जिन्हे जीत कर और उनकी बड़ी आबादी को …

एन्नु स्वाथम श्रीधरन : द रियल केरला स्टोरी

एक फालतू और बकबास मुद्दे को उठाकर बनाया गया थर्ड ग्रेड साम्प्रदायिक नफरत परोसती फिल्म ‘केरला स्टोरी’ जितनी ही बकबास है उतनी ही जल्दी उसका हश्र भी तय हो गया. केरला में लापता हुई तीन लड़कियों के काल्पनिक आधार पर बनी यह फिल्म असल में संघी प्रयोगशाला गुजरात में महज पांच साल में लापता हुई 40 हजार लड़कियों की दर्दनाक …

‘ये क्या जगह है दोस्तों’ : एक युद्धरत संस्कृतिकर्मी की पुकार…

भारत में क्रांतिकारी वाम 1947 में मिली आज़ादी को झूठी या औपचारिक मानता है. विडंबना यह है कि वरवर राव इस समय ऐसी ही झूठी या औपचारिक ‘आज़ादी’ में अपना जीवन बिताने को बाध्य हैं. कुख्यात ‘भीमाकोरेगांव’ केस में मेडिकल जमानत पर ‘रिहा’ होने के बाद जिन शर्तों को उनपर थोपा गया है, वह ऐसी ही झूठी आज़ादी है. पिछले …

‘दि एक्ट ऑफ किलिंग’ : यहूदियों के अलावा और भी जनसंहार हैं…

आज से 57 साल पहले इण्डोनेशिया में एक भीषण कत्लेआम हुआ था. 1965-66 में हुए इस भीषण कत्लेआम में करीब 10 लाख लोग मारे गये थे. यह जनसंहार मुख्यतः केद्रित था, ‘इण्डोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी’ अर्थात पीकेआई के खिलाफ. उस वक़्त ‘पीकेआई’ चीन और तत्कालीन सोवियत संघ के बाद दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी थी. लेकिन इसकी जद …

‘The Last War’ : भारत 10 दिनों में चीन से युद्ध हार सकता है

यदि भारत और चीन में भविष्य में युद्ध हुआ तो भारत 10 दिनों में यह युद्ध हार सकता है. बहुत कम सैनिकों की क्षति पर ही चीन अरुणाचल और लद्दाख को अपने कब्ज़े में ले सकता है. भारत के लिए इसे रोक पाना मुश्किल होगा. यह इसलिए है कि भारतीय सेना एक गलत युद्ध की तैयारी कर रही है. आंख …

‘ज्वायलैंड’ : लेकिन शहरों में जुगनू नहीं होते…

अगर अगली बार कोई गुस्से या नफ़रत से भरकर आपसे कहे कि तुम्हें तो पाकिस्तान चले जाना चाहिए तो घबराने की बात नहीं, बस उस नफ़रती चिंटू को ‘ज्वायलैंड’ देखने की सलाह दे दीजिये. उसे समझ आ जायेगा कि भारत और पाकिस्तान में कोई अंतर नहीं है. एक जैसे किरदार, एक जैसे सपने, एक जैसी इच्छाएं, एक जैसे संघर्ष. और …

‘दी सेंटीपीड’ : आज के दौर के ‘दुःस्वप्न’ का यथार्थ…

‘एक सपने में मैंने देखा कि सड़क पर खून फैला हुआ है और एक व्यक्ति जिसने महंगा सूट व सभी उंगलियों में हीरे की अंगूठी पहनी हुई है, वह ताज़े करेंसी नोटों से इस खून को ढंक रहा है.’ यह पावरफुल बिम्ब ‘ब्रेव् न्यू इंडिया’ की तस्वीर है. और इसी की कहानी कहता है यह उपन्यास ‘दी सेंटीपीड’ (The Centipedes). …

काली-वार काली पार : दुःख, संघर्ष और मुक्ति की दास्तान…

उत्तराखंड-नेपाल की सीमा के दोनों तरफ बसने वाले ‘राजी’ जनजाति में एक कथा सदियों से प्रचलित है. इस कथा के अनुसार जंगल के बाहर रहने वाले ग़ैर आदिवासी समूह उनके छोटे भाई हैं. लेकिन विडम्बना यह है कि ‘छोटे भाई’ ने जंगल में रहने वाले लोगो को ‘दाज्यू’ मानने से इनकार कर दिया. बल्कि सरकार और वर्चस्वशाली समूहों के बनाये …

‘हिस्टीरिया’ : जीवन से बतियाती कहानियां

बचपन में मैंने कुएं में गिरी बाल्टियों को ‘झग्गड़’ से निकालते देखा है. इसे कुछ कुशल लोग ही निकाल पाते थे. इन्ही कुंओं में कभी-कभी गांव की बहू-बेटियां भी मुंह अंधेरे छलांग लगा देती थी. उन औरतों का शरीर तो निकाल लिया जाता था, लेकिन उनकी कहानियां वहीं दफ़न हो जाती थी. उन कहानियों को निकालने वाला वह झग्गड़ किसके …

समकालीन हिन्दी कविता में सुरेश सेन निशांत

 जन्म 12 अगस्त 1959  जन्म स्थान हिमाचल प्रदेश, भारत  कुछ प्रमुख कृतियाँ वे जो लकड़हारे नहीं हैं (2010)  विविध प्रफुल्ल स्मृति सम्मान, सूत्र सम्मान (2008)  जीवन परिचय सुरेश सेन नि‍शांत / परिचय हिन्दी में लोक स्वर कुछ मौकापरस्त पाखंडियों के हाथों कैद होती दिखी, पर प्रतिरोधी स्वरों ने अपनी पुरजोर कोशिशों से लगभग इसे बचा ही लिया. यह सुखद बात …

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