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गौतम बुद्ध की जाति ?

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गौतम बुद्ध की जाति ?

नागों के गणतंत्रीय समाज में जातियां नहीं होती थी, इसलिए उनके समाज में जातिव्यवस्था (कथित वर्णव्यवस्था) भी नहीं थी. साक्यों का सम्बंध नागों से ही था, अतः जब शाक्यगणसंघ में जाति या वर्ण ही नहीं होते थे, तब साक्यमुनि बुद्ध को क्षत्रिय भी नहीं बताया जा सकता. परन्तु कुछ महायानी ब्राह्मण लेखकों ने सुत्तों के प्रक्षिप्त अंशों, कालान्तर में लिखे गए सुत्तों, ओक्काक एवं खत्तीय शब्द, तथा कथनों की मनमानी व्याख्या के आधार पर साक्यमुनि बुद्ध को इक्ष्वाकु और क्षत्रिय बताया है.

अपने तटस्थ विश्लेषण को आगे बढाने से पहले कुछ सुत्तों के उन अंशों को देख लेते हैं, जिनको पढ़कर यह भ्रम पैदा होता है कि गौतम बुद्ध क्षत्रिय या ब्राह्मण जातीय थे –

(i) अम्बट्ठ-सुत्त के अनुसार –

‘… तब भगवान (बुद्ध) ने अम्बट्ठ माणवक से कहा- किस गोत्र के हो, अम्बट्ठ.

‘काष्णर्यायन हूं, हे गौतम.

‘अम्बट्ठ ! तुम्हारे पुराने नाम गोत्र के अनुसार … तुम साक्यों के दासी-पुत्र हो ! अम्बष्ट ! साक्य, राजा ओक्काक को पितामह कह धारण करते हैं. पूर्वकाल में अम्बट्ठ ! राजा ओक्काक ने अपनी प्रिया मनापा रानी के पुत्र को राज्य देने की इच्छा से, ओक्कामुख, करण्डु, हत्थिनिक और सिनीसूर नामक चार बड़े लड़कों को राज्य से निर्वासित कर दिया. वह निर्वासित हो, हिमालय के पास सरोवर के किनारे बड़े साक-वन (साखू या सखुआ वृक्ष बाहुल्य वन) में वास करने लगे. जाति के बिगड़ने के डर से उन्होंने अपनी बहिनों के साथ सवास (संभोग) किया. तब अम्बट्ठ ! राजा ओक्काक ने अपने अमात्यों और दरबारियों से पूछा- ‘कहां हैं भो इस समय कुमार ?’

‘देव ! हिमवान के पास सरोवर के किनारे महासाकवन है, वहीं इस वक्त कुमार रहते हैं.

…. वही (ओक्काक) उनका पूर्वपुरुष था. अम्बट्ठ ! राजा ओक्काक की दिशा नाम की दासी थी। उससे कृष्ण नामक पुत्र पैदा हुआ। पैदा होते ही कृष्ण ने कहा- ‘अम्मा ! धोओ मुझे, अम्मा ! नहलाओ मुझे, इस गंदगी (अशुचि) से मुक्त करो, मैं तुम्हारे काम आऊंगा.’ अम्बट्ठ ! जैसे आजकल मनुष्य पिशाचों को देखकर ‘पिशाच’ कहते हैं, वैसे ही उस समय पिशाचों को, कृष्ण कहते थे. उन्होंने कहा- इसने पैदा होते ही बात की, (अत: यह) ‘कृष्ण पैदा हुआ’, ‘पिचाश पैदा हुआ.’ उसी (कृष्ण) से (उत्पन्न वंश) आगे काष्णर्यायन प्रसिद्ध हुआ. वही काष्णर्यायनों का पूर्व-पुरुष था. इस प्रकार अम्बष्ट ! तुम्हारे माता-पिताओं के गोत्र का ख्याल करने से, … तुम साक्यों के दासी-पुत्र हो.’

चूंकि अम्बट्ठ भगवान के सामने ही साक्यों का अपमान कर रहा था, इसलिए यहां ऐसा प्रतीत हो सकता है कि भगवान बुद्ध ने या फिर कथाकार ने अम्बट्ठ को जलील करने के लिए काष्णर्यायनों की उत्पत्ति की मिथक कथा रची है. परन्तु चूंकि यह प्रसंग सभ्य साक्यों के चरित्र के विपरीत है, इसलिए हमें तो ये प्रसंग प्रक्षिप्त दिखाई पड़ता है.

(ii) महापदान सुत्त का सुत्तकार भगवान बुद्ध से कहलवाता है – ‘भिक्खुओं ! कोणागमन भगवान् ब्राह्मण जाति…कस्सप भगवान् ब्राह्मण जाति… और मैं अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध क्षत्रिय जाति का, क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुआ.

‘भिक्खुओं ! विपस्सी भगवान् कोण्डञ्ञ गोत्र के थे. सिखी भगवान् कोण्डञ्ञ गोत्र के थे. वेस्सभू भगवान् कोण्डञ्ञ गोत्र के थे. ककुसन्ध भगवान् काश्यप गोत्र के थे. कोणागमन भगवान् काश्यप गोत्र के थे. कस्सप भगवान् काश्यप गोत्र के थे … और मैं अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध गोतम गोत्र का हूं.

‘भिक्खुओं ! उसी देवलोक में जहां अनेक सहस्त्र और अनेक लक्ष देवता थे, वे मेरे पास आये. खड़े हो गये. कहा- मार्ष इसी भद्रकल्प में आप स्वयं भगवान…उत्पन्न हुये हैं. मार्ष ! भगवान क्षत्रिय जाति…।… गौतम गोत्र …। … कम और छोटी आयु-परिमाण, जो बहुत जीता है वह सौ वर्ष, कुछ कम या अधिक. … पीपल वृक्ष …।… सारिपुत्त और मोग्गलान प्रधान शिष्य … बारह सौ पचास भिक्खुओं का एक शिष्य-सम्मेलन …। आनन्द भिक्खु उपस्थाक. शुद्धोदन नामक राजा पिता, मायादेवी माता. कपिलवस्तु राजधानी. इस प्रकार निष्क्रमण …। हे मार्ष ! सो हम लोग आप के शासन में ब्रह्मचर्य पालनकर … यहां उत्पन्न हुये हैं.’

इस सुत्त में सुत्तकार भगवान बुद्ध के माध्यम से यह स्थापित करने की कोशिश करता है कि बुद्धों का जन्म केवल खत्तीय या ब्राह्मण जाति में ही होता है. (यहां खत्तीय शब्द का अर्थ क्षत्रिय या आर्य जाति है.) जाहिर है कि वह बुद्ध की जाति और गोत्र निर्धारित करके साक्यों की सभ्य संस्कृति को विकृत करने की भूमिका बना रहा था. महापदान सुत्त को तार्किक दृष्टि से पढ़ने पर निष्कर्ष निकलता है कि यह सुत्त गुपतकालीन रचना है.

सुत्तकार ने साक्यमुनि बुद्ध से बहुत पहले हुए विपस्सी बुद्ध के बारे में विस्तृत व्योरा दिया है. परन्तु आश्चर्य देखिए कि सुत्तकार गोतम के जीवन की प्रारम्भिक बातें नहीं जानता ! महापदान का यह प्रसंग स्वीकारने योग्य नहीं है क्योंकि महावंश और दीपवंश पुराणों में बुद्ध को महासम्मत के वंश में उत्पन्न हुआ बताया है. इन पुराणों में वंश/गोत्र दाता के रूप में किसी पूर्वज ‘गौतम’ का नाम नहीं आया है.

(iii) धम्म चेतीय सुत्तन्त-

इस सुत्त में कोसल नरेश पसेनदि भगवान को सम्बोधित करते हुए कहता है- ‘और फिर भन्ते ! भगवान् भी क्षत्रिय हैं, मैं भी क्षत्रिय हूं, भगवान् भी कोसलक (कोसलवासी) हैं, मैं भी कोसलक हूं. भगवान् भी अस्सी वर्ष के, मैं भी अस्सी वर्ष का. भन्ते ! जो भगवान् भी क्षत्रिय …, इससे भी भन्ते ! मुझे योग्य ही है, भगवान् का परम सम्मान करना, विचित्र गौरव प्रदर्शित करना.’

पसेनदि आर्य जातीय था और भगवान शाक्य कुल के थे. कोसल के आर्य और ब्राह्मण लोग शाक्यों को निम्न (इभ्य) समझते थे. सवाल यह कि पसेनदि ने यह क्यों कहा कि- ‘भगवान् भी क्षत्रिय हैं, मैं भी क्षत्रिय हूं ?’ हमारा विचार है कि कोसलवासी आर्य व ब्राह्मणों की भाषा में उस समय ‘क्षत्रिय’ शब्द प्रयुक्त नहीं होता था. क्षत्रिय शब्द कालान्तरीय है, अतः पसेनदि ने ‘खत्तीय’ शब्द का प्रयोग किया होगा जो साक्यों में शासक के अर्थ में प्रयुक्त होता था. अनुवादकों ने खत्तीय शब्द का अनुवाद क्षत्रिय किया है.

बता दें कि शब्दों के आदान-प्रदान में ब्राह्मणों ने पालि का ‘खत्तीय’ शब्द लिया था. पालिभाषियों के लिए ‘खत्तीय’ का मतलब संथागार का सदस्य तथा मुख्य-खत्तीय होता था, जबकि ब्राह्मणों ने ‘खत्तीय’ शब्द को राजा के अर्थ और आर्यों के पर्याय में लिया था. स्पष्ट है कि पसेनदि ने खत्तीय शब्द का प्रयोग किया था. जाहिर है कालान्तरीय सुत्तकार ने अपने सुत्त में पसेनदी से शिष्टता का व्यवहार कराने तथा भगवान की श्रेष्ठता को उजागर करने हेतु यह कथन कहलवाया है.

(iv) पब्बज्जा-सुत्त में मगध का राजा बिम्बिसार पांडव पर्वत पर गोतम के निकट बैठ, उनका कुशल-मंगल पूंछकर कहता है- ‘आप नवयुवक हैं, रूप और शारीरिक बनावट से क्षत्रिय जाति के जान पड़ते हो. क्या आप क्षत्रिय हैं ?’ बुद्ध बोले- ‘हिमालय की तराई के एक जनपद में कोशल देशवासी धन तथा पराक्रम से युक्त एक ऋजु राजा हैं. वे गोत्र से सूर्यवंशी हैं और शाक्य जाति के हैं ! हे महाराज मैं उस कुल से प्रव्रजित हुआ हूं.’

सुत्तकार क्षत्रिय जाति और शाक्य-जाति शब्दों का प्रयोग कर रहा है. क्षत्रिय/आर्य एक जाति थी. अजीब सुत्तकार है क्षत्रिय जाति में शाक्य जाति बता रहा है ! वह शाक्य को गोत्र नहीं बता रहा. गोत्र आदिच्च् यानी सूर्यवंशी बताता है. स्पष्ट है कि महापदान ही नहीं बल्कि पब्बज्ज़ा सुत्त भी साक्य संस्कृति और इतिहास के विपरीत बात लिखता है. ये दोनों ही सुत्त विरोधभाषी बात लिखकर भगवान की जाति और गोत्र निर्धारित कर रहे हैं. वास्तविक तथ्य तो यह है कि साक्य और मगध गणसंघों में जाति व वर्णव्यवस्था नहीं थी.

बिम्बिसार तो गोतम को पहले से अच्छी तरह जानता था. महावंश के द्वितीय परिच्छेद के अनुसार ‘बिम्बिसार और सिद्धार्थ कुमार बचपन से एक-दूसरे के मित्र थे. उन दोनों के पिता भी आपस में मित्र थे. सिद्धार्थ मगध के बिम्बिसार से पांच साल बड़े थे. चूंकि मगध स्वम् मानव/नागों का एक गणसंघ था, इसलिए इसमें कोई शक नहीं कि साक्य व मगध के बीच वैवाहिक सम्बन्ध भी अवश्य रहे होंगे.

स्पष्ट है कि मगध का बिम्बिसार परिव्राजक गोतम से उनकी जाति या वर्ण तो पूंछ ही नहीं सकता था ! अतः इस सुत्त को भी गुपत काल की रचना माना जा सकता है. सुत्तकार साक्यों को कोसल के अधीन समझता है, जबकि साक्यसंघ तो बाह्य व आंतरिक रूप से स्वतन्त्र देश था. ध्यान रहे, जब साक्यमुनि बुद्ध लगभग अपनी आखिरी उम्र में थे, तब पसेनदि के पुत्र विडुडभ ने साक्य-गणसंघ को अपने अधीन किया था.

(v) अम्बट्ठ-सुत्त, महावंश और दीपवंश में आए ‘ओक्काक’ शब्द को अनुवादकों ने ‘इक्ष्वाकु’ अनुवाद करके बड़ा भारी भ्रम फैलाया है जबकि सच तो यह है कि अम्बट्ठ-सुत्त में या फिर महावंश और दीपवंश की वंशावली में ‘इक्ष्वाकु’ शब्द आया ही नहीं है. इनमें ‘इक्ष्वाकु’ के बजाय ओक्काक का नाम आता है और इसी शब्द को अनुवादकों ने इक्ष्वाकु समझ लिया है. इसके द्वारा यह कहने की कोशिश की गई है कि बुद्ध सहित पूर्वी भारत के महान शासक चंदगुत्त मोरिय और अशोक भी इक्ष्वाकु राम की तरह सूर्यवंशी क्षत्रिय थे, जबकि हिन्दू-पुराणों की वंशावली में इक्ष्वाकु के पुत्रों में- ओक्कामुख, करण्डु, हत्थिनिक, और सिनीसूर के नाम आए ही नहीं हैं.

याद दिला दें कि दीपवंश और महावंश में आई वंशावलियों का वर्णन पिछले अध्याय में किया जा चुका है. यदि बुद्ध का सम्बन्ध वास्तव में ‘इक्ष्वांकु वंश’ से होता तो उनके देश का नाम किसी आर्य पुरुष के नाम पर होता ! हो सकता है उनके देश का नाम ‘इक्ष्वाकु’ ही होता, मगर उनके देश का नाम तो साक वृक्ष के नाम पर ‘साक्य’ पड़ा था, इससे यह सिद्ध है कि ओक्काक का इक्ष्वाकु अनुवाद पूरी तरह गलत है.

वह साक्ष्य जो सिध्द करते हैं कि बुद्ध और साक्य क्षत्रिय नहीं थे

आइये उन सुत्तों के प्रसंगों को देखते हैं जो हमारी इस बात की पुष्टि करते हैं कि बुद्ध और साक्य क्षत्रिय नहीं थे –

(i) मागंदीय सुत्त की अट्ठकथा

एक बार भगवान (बुद्ध) ब्राह्मणों के निगम में भारद्वाज गोत्र के ब्राह्मण की अग्निशाला में ठहरे थे. पिंडाचार में प्राप्त पिण्डपात (भोजन) से निवृत्त हो बाहर एक पेड़ के नीचे बैठ गए. उस समय मागण्दीय परिव्राजक घूमता-घामता वहां भारद्वाज ब्राह्मण की अग्निशाला में गया. उसने अग्निशाला में तृण का आसन बिछा देख भारद्वाज से कहा-

‘आप भारद्वाज की अग्निशाला में किसका तृणासन बिछा हुआ है, समण का जैसा जान पड़ता है ?’

‘हे मागंदिय ! साक्य-पुत्र, साक्य-कुल से प्रव्रजित जो समण गौतम हैं, उन्हीं के लिए ये शैया बिछी है.’

‘हे भारद्वाज ये बुरा देखना हुआ, जो हमने भ्रूणहा (भूनहू) गौतम की शैया को देखा.’

‘रोको इस वचन को मागंदिय ! उन गौतम के ऊपर क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य सभी पण्डित श्रद्धावान हैं !’

‘हे भारद्वाज ! यदि मैं गौतम को सामने भी देखता तो उनके सामने भी उन्हें भ्रूणहा (भूनहू) ही कहता ! सो किस कारण ? (क्योंकि) ऐसा ही हमारे सूत्रों में आता है !’

मागंदिय द्वारा भ्रूणहा शब्द का प्रयोग करने पर भरद्वाज की प्रतिक्रिया ‘रोको इस वचन को मागंदिय !’ बताती है कि उसने बुद्ध के लिए कोई गलत शब्द प्रयुक्त किया था. यदि भगवान क्षत्रिय होते तो उनके लिए कोई भी ब्राह्मण अपशब्दों का प्रयोग नहीं कर सकता था. महाभारत, गौतमधर्मसूत्र और मनुस्मृति द्वारा इस शब्द का अर्थ समझा जा सकता है-

अभिकामां स्त्रियं यश्च गम्यां रहसि याचित: !
नोपैति स च धर्मेषु भ्रूणहेत्युच्यते बुधैः ।।
– महाभारत, प्रथम खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, 1/83/34, संस्करण 2072, पृ. 307 –

(अर्थात, जो न्यायसम्मत कामना से युक्त गम्या स्त्री के द्वारा एकांत में प्रार्थना करने पर उसके साथ समागम नहीं करता, वह धर्म-शास्त्र में विद्वानों द्वारा गर्भ की हत्या करने वाला बताया जाता है.)

अन्नादे भ्रूणहा मार्ष्टि पत्यौ भार्यापचारिणी ।
गुरौ शिष्यश्च याज्यश्च स्तेनो राजनि किल्बिषम् । ( मनुस्मृति 8/317 )

(अर्थात, भ्रूण हत्या करने वाला उसके यहां भोजन करने वाले को भी निन्दा का पात्र बना देता है अर्थात् जैसे भ्रूण-हत्यारे को बुराई मिलती है, वैसे ही उसके यहां अन्न खाने वाले को भी उसके कारण बुराई मिलती है, व्यभिचारी स्त्री की बुराई उसके पति को मिलती है बुरे शिष्य की बुराई उसके गुरू को मिलती है और यजमान की बुराई उसके यज्ञ कराने वाले ऋत्विक गुरू को मिलती है इसी प्रकार दण्ड न देने पर चोर की बुराई राजा को मिलती है.)

गौतमधर्मसूत्र 3/2/1- ‘अर्थात, राजा की हत्या करने वाले, शूद्र के लिए यज्ञ करने वाले, शूद्र से धन लेकर यज्ञ करने वाले, वेद की हानि करने वाले, भ्रूण की हत्या करने वाले, चांडाल आदि अंत्यावसायियों के साथ रहने वाले और उन अंत्यावसायियों की स्त्रियों के साथ सम्बन्ध रखने वाले पिता का भी त्याग कर दे.’

(ii) वसल सुत्त ( सुत्तनिपात )

एक समय भगवान श्रावस्ती जेतवन-आराम में विहार करते थे … पात्र ले श्रावस्ती में भिक्षाटन के लिए प्रविष्ट हुए … तब भगवान श्रावस्ती में जहां अग्निक भारद्वाज ब्राह्मण का घर था वहां गए. अग्निक भारद्वाज ने भगवान को दूर से ही आते हुए देखा. देखकर भगवान से यह कहा- ‘वहीं मुण्डक ! वहीं समणक ! वहीं वृषलक ! ठहरो !’ ऐसा कहने पर भगवान ने अग्निक भारद्वाज से ऐसा कहा- ‘ब्राह्मण ! क्या तुम वसल (वृषल, नीच) बनाने वाली बातों को जानते हो ?’ यदि भगवान क्षत्रिय होते तो क्या अग्निक भारद्वाज ब्राह्मण उनके लिए वसल शब्द का प्रयोग करने का साहस कर सकता था ?

(iii) सुन्दरिकभारद्वाज-सुत्त ( सुत्तनिपात )

एक समय भगवान कोसल जनपद में सुन्दरी नदी (सई नदी) के किनारे विहार कर रहे थे. उस समय सुन्दरिक भारद्वाज नामक ब्राह्मण सुन्दरी नदी के किनारे अग्नि हवन करके, अग्निहोत्र की परिचर्या कर, आसन से उठकर चारों ओर दिशाओं में अवलोकन करता हुआ सोचा- ‘कौन इस हव्यशेष (पुरोडाश) को खाएगा ?’

उसने पास ही में भगवान को एक वृक्ष के नीचे सिर से चीवर ओढ़े देखा. देखकर वहां गया. तब भगवान ने पैरों के शब्द सुनकर सिर खोल दिया. तब सुन्दरिक भरद्वाज- ‘यह आप मथमुंडे हैं, आप मुण्डक हैं’ कहकर वहीं से लौटना चाहा. तब सुन्दरिक को ऐसा हुआ- ‘यहां कोई-कोई ब्राह्मण भी मुण्डक होते हैं, क्यों न मैं पास जाकर जाति पूछूं ?’ तब सुन्दरिक ने भगवान से कहा- ‘आप किस जाति के हैं ?’

भगवान ने कहा- ‘मैं न तो ब्राह्मण हूं, न राजपुत्र हूं, न वैश्य हूं, और न कोई और हूं. पृथकजनों (आर्य व ब्राह्मण जन) के गोत्र को भली प्रकार जानकर मैं विचारपूर्वक अकिंचन भाव से लोक में विचरण करता हूं. चीवर पहन, बेघर हो, सिर मुंडाकर, पूर्ण रूप से शांत हो, यहां लोगों में अनासक्त हो विचरण करता हूं. हे ब्राह्मण ! तू मुझसे जाति का प्रश्न अनुचित पूंछ रहा है !’ मतलब भगवान के साक्य समाज में जातिव्यवस्था नहीं थी, इसलिए वह ब्राह्मण, राजपुत्र/क्षत्रिय, वैश्य या कोई और (शूद्र) नहीं थे.

(iv) चंकि-सुत्तन्त (म.नि.)

ब्राह्मण माणवक भारद्वाज कहता है- ‘हे गौतम ! पहिले हम ऐसा जानते थे, कहां इभ्य (नीच), काले, ब्रह्मा के पैर से उत्पन्न (शूद्र), मुंडक-समण और कहां धर्म का जानना ! आप गौतम ने मुझ में … समण-प्रेम (समण-प्रसाद) …। आज से आप गौतम मुझे अंजलिबद्ध शरणागत उपासक धारण करें.’ मतलब बुद्ध क्षत्रिय जातीय होने के बजाय पराए यानी नाग थे, तभी तो माणवक भारद्वाज नामक ब्राह्मण उनके बारे में ऐसा सोचता था.

(v) अम्बट्ठ-सुत्त (दीध-निकाय)

ऐसा मैंने सुना- एक समय भगवान कोसल (देश) के इच्छानगल नामक ब्राह्मण-ग्राम के वनखण्ड मे विहरते थे … तब पौष्करसाति ब्राह्मण ने अपने शिष्य अम्बट्ठ माणवक को भगवान के दर्शन करने के लिए भेजा … उस समय अम्बट्ठ भगवा के बैठे हुये भगवा से कुछ पूछ रहा था. तब भगवा ने अम्बष्ट माणवक से यह कहा- ‘अम्बष्ट ! क्या महल्लक, आचार्य-प्राचार्य ब्राह्मणों के साथ कथा-सलाप, ऐसे ही होता है, जैसा कि तू चलते खड़े बैठे हुये मेरे साथ कर रहा है ॽ’

‘नहीं हे गौतम ! चलते ब्राह्मणों के साथ चलते हुये, खड़े ब्राह्मणों के साथ खड़े हुये, बैठे ब्राह्मणों के साथ बैठे हुये बात करनी चाहिये. किंतु हे गौतम ! जो मुंडक, समण, इभ्य (नीच) काले, ब्रह्मा के पैर की संतान है, उनके साथ ऐसे ही कथासलाप होता है, जैसा कि (मैं) आप गौतम के साथ (कर रहा हूं).’

‘अम्बट्ठ ! याचक (अर्थी) की भांति तेरा यहां आना हुआ है. (मनुष्य) जिस अर्थ के लिये आवे, उसी अर्थ को (उसे) मन में करना चाहिये. अम्बष्ट ! (जान पड़ता है) तूने (गुरुकुल में) वास नहीं किया है, वास करे बिना ही क्या (गुरुकुल-) वास का अभिमान करता है ॽ’ तब अम्बष्ट माणवक ने भगवान के (गुरुकुल-) अ-वास कहने से कुपित, असंतुष्ट हो, भगवान को ही खुनसाते, भगवान को ही निन्दते, भगवान को ही ताना देते- ‘समण गौतम दुष्ट है’ (सोच) यह कहा- ‘हे गौतम ! शाक्य-जाति चंड है. हे गौतम, शाक्य-जाति क्षुद्र (लघुक) है. हे गोतम ! शाक्य-जाति बकवादी (रभस) है. नीच (इभ्य) समान होने से शाक्य, ब्राह्मणों का सत्कार नहीं करते, ब्राह्मणों का गौरव नहीं करते, … नहीं मानते, … नहीं पूजते, … नहीं (खातिर) करते. हे गौतम ! सो यह अयोग्य हैं, जो कि नीच, नीच-समान शाक्य, ब्राह्मणों का सत्कार नहीं करते …’.

इस प्रकार अम्बट्ठ ने शाक्यों पर इभ्य (नीच) कह, यह प्रथम आक्षेप किया.

‘अम्बट्ठ ! शाक्यों ने तेरा क्या कसूर किया है ॽ’

‘हे गौतम ! एक समय मैं (अपने) आचार्य ब्राह्मण पौष्कर साति के किसी काम से कपिलवस्तु गया, जहां शाक्यों का संस्थागार (मुख्य संस्था का भवन) था, वहां पहुंचा. उस समय बहुत से शाक्य तथा शाक्य-कुमार संस्थागार में ऊंचे-ऊंचे आसनों पर, एक दूसरे को अंगुली गड़ाते हंस रहे थे, खेल रहे थे, मानो मुझ पर ही हंस रहे थे. (उनमें से) किसी ने मुझे आसन पर बैठने को नहीं कहा. सो हे गौतम ! अयुक्त/अयोग्य हैं, जो यह इभ्य तथा इभ्य-समान शाक्य ब्राह्मणों का सत्कार नहीं करते हैं.’

इस प्रकार अम्बट्ठ माण्वक ने शाक्यों पर दूसरा आक्षेप किया.

‘लटुकिका (गौरय्या) चिड़ीया भी अम्बट्ठ अपने घोंसले पर स्वच्छन्द-आलाप करती है. कपिलवस्तु शाक्यों का अपना है, अम्बट्ठ ! इस थोड़ी बात से तुम्हें अमर्प न करना चाहिये.’

‘हे गौतम ! चार वर्ण है- क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र. इनमें हे गौतम ! क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह तीनों वर्ण, ब्राह्मण के ही सेवक हैं. गौतम ! सो यह … अयुक्त हैं ….’

इस प्रकार अम्बट्ठ माणवक ने इभ्य कह, शाक्यों पर तीसरी बार आक्षेप किया.

उपरोक्त उदाहरण यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि बुद्ध और उनका साक्य-कुल ‘क्षत्रिय’ या ‘आर्य-जातीय’ नहीं था. कोसल के ब्राह्मण साक्यों को शूद्र से ज्यादा महत्व नहीं देते थे, इसलिए उपरोक्त उदाहरणों में उन्होंने भगवान बुद्ध को भी वसल, इभ्य, भूनहा, काले, ब्रह्मा के पैर की संतान जैसे शब्दों का प्रयोग किया है. ब्राहणों द्वारा बुद्ध को जिन असभ्य शब्दों का प्रयोग किया है, वैसे शब्द तो संस्कृत-साहित्य में किसी मूर्ख ब्राह्मण के लिए भी प्रयोग नहीं किए गए हैं.

इतिहास में दुर्योधन व धृतराष्ट्र जैसे क्षत्रिय भी हुए हैं जो ब्राहणों कि नजर में दुष्ट और खलनायक थे, पर महाभारत ग्रन्थ में इनको भी इतने गिरे हुए शब्दों द्वारा अलंकृत नहीं किया गया है. कोसल के अहंकारी ब्राह्मण किसी गैर-ब्राह्मण और गैर क्षत्रिय को मेधावी एवं तथागत कैसे स्वीकार कर सकते थे ? स्पष्ट है कि गोतम बुद्ध के लिए इन अपशब्दों के प्रयोग का एकमात्र कारण यही था कि वह क्षत्रिय या फिर ब्राह्मण नहीं थे.

भगवान बुद्ध और साक्य आर्य/क्षत्रिय नहीं

इतने पर भी यदि पाठकों को यकीन न हो तो कुछ तर्क भी देखिए जो सिद्ध करते हैं कि भगवान बुद्ध और साक्य आर्य/क्षत्रिय नहीं थे-

(i) गोतम अपनी तीब्र ज्ञान-पिपासा और अपने अनवरत परिश्रम से प्रकृति तथा प्रकृति के अंग इंसान से सम्बंधित तथ्य/सच को जानकर तथागत बुद्ध हुए थे. उनके समय में ऐसा कोई प्रतिद्वंद्वी नजर नहीं आता जो बुद्ध के तथ्य-ज्ञान (विद्या) को चुनौती देने में सक्षम हो. ऐसे में, यदि वह वास्तव में आर्य/क्षत्रिय होते तो कोसल राजतंत्र की यात्राओं के दौरान निःसन्देह आदर/सम्मान पाया करते !

कोसल में एक भी ब्राह्मण उनके साथ अशिष्टता करने का साहस नहीं कर सकता था ! परन्तु सुत्त ही बताते हैं कि भगवान बुद्ध को कोसलराज पसेनदि का संरक्षण प्राप्त होने के बाद भी ब्राहणों ने बुद्ध के साथ अशिष्टता की थी. इस अशिष्टता का कारण यह नहीं था कि भगवान कोसल में आर्य व ब्राह्मणों के जातिवाद तथा उनकी आस्थाओं का समर्थन नहीं करते थे, अपितु इसका कारण भगवान का आर्य व ब्राह्मण जाति से भिन्न ‘शाक्य-कुलीय’ होना था.

धर्मानन्द कोसंबी के अनुसार, ‘कोसलसुत्त के एक सुत्त से यह सिद्ध होता है कि यद्यपि कोसल नरेश पसेनदि आर्य होने के कारण वैदिक धर्म का पूरा अनुयायी था और बड़े-बड़े यज्ञ करता रहता था.’ फिर भी बुद्ध का प्रसंशक हो जाने के बाद वह बुद्ध और समणों का सम्मान करता था परन्तु इसके बाद भी कोसल में ब्राह्मणों द्वारा भगवान बुद्ध, बुद्ध के सावकों/भिक्खुओं और साक्यों को नीच, इभ्य, वसल तथा शूद्र-समान समझा जाता था. इस चित्र से ऐसा प्रतीत होता है कि कोसल में भगवान के एक मुंडक सावक या समण को बांध लिया है, जिसकी सूचना मिलने पर पसेनदि दौड़ा आया और क्षमा मांग रहा है.

(ii) तत्कालीन साक्य समाज में कोसल की तरह के ब्राह्मणी-संस्कार नहीं होते थे. साक्यों में नामकरण संस्कार नहीं होता था. यदि बुद्ध क्षत्रिय होते तो उनका नामकरण संस्कार भी अवश्य होता, परन्तु उनके नामकरण संस्कार का कोई साक्ष्य नहीं मिलता है. साक्यों में उपनयन व यग्योपवीत संस्कार भी नहीं होते थे. यही कारण है कि बुद्ध का यग्योपवीत संस्कार का वर्णन नहीं मिलता है. किसी भी प्राचीन शिल्प में बुद्ध के गले में जनेऊ/यग्योपवीत नहीं है. प्रत्येक साक्य बालक विद्यालय/विहार में अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करता था.

(iii) सुत्तों में बताया गया है कि बहुत से ब्राह्मण बुद्ध के उपदेशों से इतने प्रभावित हो जाते थे कि वह बुद्ध के शरणागत हो जाते थे. परन्तु जब हम आज के वैज्ञानिक और तार्किक युग में भी कितने ही ब्राह्मणों को अपनी अवैज्ञानिक व अतार्किक मान्यताओं व धारणाओं का समर्थक पाते हैं, तब हम यह कैसे विश्वास करें कि भगवान बुद्ध के सम्पर्क में आए कोसल के ब्राह्मण बुद्ध से प्रभावित होकर उनके शिष्य या अनुगामी हो जाते थे ?

निःसन्देह कुछ ही ब्राह्मण शिष्य बने थे जिनको ‘ब्राह्मण-समण’ का नाम दिया गया था. यदि बुद्ध क्षत्रिय या ब्राह्मण होते तो कोसल के अधिकांश ब्राह्मण व क्षत्रिय भगवान बुद्ध के अनुयायी हो जाते ! इसके अतिरिक्त भगवान समण बने ब्राह्मणों को समण ही कहते, ‘ब्राह्मण-समण’ नहीं.

(iv) यदि शाक्य जाति भी वास्तव में क्षत्रिय होती तो वह भी लड़ाकू प्रवृत्ति से युक्त होती, और तब विडुडभ द्वारा आसानी से नहीं हराई जा सकती थी. परन्तु सभ्य साक्य लड़ाकू प्रवृत्ति के नहीं थे, इसलिए विडुडभ से आसानी हारकर अपनी भूमि को कोसल राजतन्त्र के अधीन हो जाने से नहीं बचा सके. उसके बाद मगध व आर्यों के बीच ऐतिहासिक युद्ध हुआ.

अजातसत्तु ने न केवल कोसल को अपितु कोसल का साथ देने वाले वैशाली गणसंघ को भी पराजित करके ‘मगध’ का अंग बना लिया. उदयभद्द और नन्द ने शेष बचे आर्य राजतंत्रों को हराकर मगध को ‘महामगध’ बनाया. परशुराम की कथा से ऐसा लगता है इस संघर्ष में मगध तथा आर्य-राजतंत्रों का लगभग 21 बार आमना सामना हुआ, जिसमें लगभग सभी आर्य मारे गए थे. आर्यों/क्षत्रियों की पराजयों के बाद ब्राह्मण जाति मगध में साधारण नागरिक की हैसियत में आ गई थी.

(v) इतिहास में ऐसी किसी घटना का पता भी नहीं चलता कि किसी वैमनस्य/दुर्घटना के कारण ब्राह्मणों ने साक्यों का सामूहिक बहिष्कार किया हो, और जिसके कारण साक्य जाति द्विज की हैसियत से नीचे गिर गई थी.

(vi) ब्राह्मण संस्कृति में गोत्र महत्वपूर्ण तत्व माना जाता है. गोत्र और वंश एक दूसरे के पर्यायवाची शब्द हैं. वंश या गोत्र किसी एक मूल-पुरुष के नाम से चलता है. अतः गोत्र लोगों के उस समूह को कहते हैं, जिनका वंश किसी एक पुरुष-पूर्वज से लगातार आगे बढ़ता रहा है.

ब्राह्मण जाति में ‘गोत्र’ को मूलतः ऋषि परम्परा से संबंधित माना गया है. बताया जाता है कि प्राचीनकाल में चार ऋषियों- अंगिरा, कश्यप, वशिष्ठ और भगु के नाम से गोत्र परंपरा प्रारंभ हुई. आर्यों की परंपरा में भी उनके वंश या गोत्र का नाम किसी पुरुष के नाम पर आगे बढ़ता था.

इसके विपरीत मानव/नाग संस्कृति में ‘कुल’ के नामकरण के पीछे प्राचीन-पूर्वज का नाम नहीं होता था. माना कि एक कुल बड़ा परिवार या कुटुंब/कुनबा होता था, परन्तु कुल का नाम किसी पेड़ पौधे या जीव-जंतु के नाम पर रखा जाता था. साक्य नाम भी साक (साखू, सखुआ) वृक्ष के नाम पर पड़ा था.

जब विडुडभ ने साक्यों का रक्त बहाते हुए शेष बचे भू-भाग पर कब्जा किया तो बहुत से साक्य पलायन करके वैशाली के उत्तर में स्थित पिप्पली वन में पहुंचे और अपनी बस्ती बसाई. यहां उन्होंने मोर पक्षी को अपना टोटम बनाया इसलिए वह मोरिय कहलाए. इससे भी सिद्ध होता है कि साक्य और भगवान बुद्ध क्षत्रिय नहीं बल्कि नाग/मानव थे.

(vii) कुल से जाति बन चुकी साक्य जाति आज ओबीसी वर्ग के अंतर्गत सूचीबद्ध है. यदि यह जाति आर्य/क्षत्रिय जाति ही होती तो सामान्य वर्ग में आती. बता दें कि ओबीसी वर्ग में सामान्यतः शूद्र जातियों को स्थान दिया गया था, ये बात अलग है कि कुछ द्विजातियां भी इस वर्ग में शामिल कर दी गई हैं. साक्य जाति ओबीसी वर्ग में क्यों आई ? कारण स्पष्ट है कि साक्य जाति कभी भी द्विजों में नहीं गिनी जाती थी.

(viii) कुछ लोग कह सकते हैं कि यदि बुद्ध आर्य/क्षत्रिय नहीं थे तो वह ‘चार आर्य सत्य’ शब्दों का प्रयोग क्यों करते थे ? दरअसल संस्कृत लेखकों ने पालि शब्द ‘अरिय’ का अनुवाद ‘आर्य’ किया है, जो पूर्णतः गलत अनुवाद है. यही गलत अनुवाद भ्रम पैदा करता है और इसी भ्रम के कारण लोग ‘पालि के अरिय’ तथा ‘संस्कृत के आर्य’ को समानार्थी समझ लेते हैं. आर्य एक जाति थी जबकि पालि के ‘अरिय’ शब्द का मतलब परम् (अंतिम, उत्तम, श्रेष्ठ, utmosts) होता है इसलिए ‘अरिय सच्च’ का मतलब ‘परम्-सत्य’ होता है !

उत्तम/श्रेष्ठ अर्थ वाले अरिय से प्रभावित होकर तथा अरिय को आर्य का समानार्थी समझने के कारण बाद में संस्कृत वालों ने आर्य का अर्थ श्रेष्ठ किया है. जाहिर है ‘अरिय’ शब्द बुद्ध और बौद्ध धम्म से संबंधित है, जिसका आर्य जाति से कोई लेना-देना ही नहीं है. गलत अनुवाद करने वालों को पता होना चाहिए कि पालि भाषा में आर्य-जाति के लिए पहले से ही ‘अय्य’ शब्द था. भाषा वैज्ञानिक डा. राजेन्द्र प्रसाद सिंह (खोए हुए बुद्ध की खोज, कौटिल्य बुक्स, 2020, पृ. 120) बताते हैं कि- ‘ … आर्य को पालि में ‘अय्य’ कहा जाता है, ‘अरिय’ नहीं. ‘अरिय’ और ‘अय्य’ दोनों अलग-अलग रुट के शब्द हैं, जिनका घालमेल हो गया है.’

(ix) आजकल साक्यों को राजपूत बताया जाने लगा है जबकि ईसा पूर्व छटी शताब्दी में हुए भगवान बुद्ध के समय में राजपूत शब्द नहीं था. पालि साहित्य में बुद्ध को राजपूत नहीं लिखा गया. संस्कृत में भी राजा के पुत्र को राजपूत नहीं बल्कि राजपुत्र कहा गया है. विद्वानों के अनुसार राजपूत नाम की जाति प्राचीन नहीं है. इतिहासकार के. सी. श्रीवास्तव बताते हैं कि, ‘कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार राजपूत विदेशी सीथियन जाति की संतान थे. विलियम क्रूक के अनुसार तत्कालीन समाज में कई विदेशी जातियां निवास करती थी.

ब्राह्मणों का बौद्धों से द्वेष था, अतः उन्होंने कुछ विदेशी जातियों को शुद्धि-संस्कार द्वारा पवित्र करके राजपूत नाम दिया. स्मिथ के अनुसार उत्तर-पश्चिम की राजपूत जातियों- प्रतिहार, चौहान, परमार, चालुक्य आदि की उत्पत्ति शकों तथा हूणों से हुई थी. ‘मनुस्मृति में शकों (शाक्य नहीं) को व्रात्य क्षत्रिय बताया गया है जबकि गहड़वाल, चन्देल, राष्ट्रकूट आदि मध्य तथा दक्षिणी क्षेत्र की जातियां गोंड, भर जैसी देशी अनार्य जातियों की संतान थीं.

चंद्रवरदाई भाट/चारण ने ‘पृथ्वीराजरासो’ में लिखा है कि जब परशुराम ने क्षत्रियों का विनाश कर दिया तो राजाओं का अभाव हो गया. वशिष्ठ ने आबू पर्वत पर एक यज्ञ किया जहां यज्ञ की अग्निकुंड से चार राजपूत कुलों का उद्भव हुआ- परमार, प्रतिहार, चौहान तथा चालुक्य. यदि आप आधुनिक युग के तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टि वाले पाठक हैं, तो राजपूत-उत्पत्ति के प्रश्न पर स्वम् निर्णय लें !

(x) सल्तनत और मुगलकाल में जातीय-संस्कृति के अधीन आ जाने के बाद ‘शाक्य कुल’ बदलकर ‘शाक्य-जाति’ हुआ था. वर्तमान में देखा जाता है कि ब्राह्मण-जाति शाक्य-जाति को राजपूत जातियों की तरह सम्मान नहीं देती है. मतलब ब्राह्मण जातीय लोग अपनी परम्परा और संस्कृति से जानते हैं कि शाक्य जाति क्षत्रिय नहीं है. जब ब्राह्मण शाक्यों को क्षत्रिय नहीं मानता तो शेष समाज शाक्य जाति को क्षत्रिय कैसे मान सकता है ?

राजपूत जातियां अपने से भिन्न राजपूत गोत्रों में विवाह करती हैं जबकि शाक्य जाति केवल अपनी जाति में विवाह करती है. यदि शाक्य भी राजपूतों की एक गोत्र होती तो अन्य राजपूत गोत्र के लोग उनके साथ भी सामान्य रूप से वैवाहिक सम्बन्ध बनाया करते ! परन्तु ऐसा नहीं होता है, इसलिए शाक्य और साक्यमुनि बुद्ध ‘क्षत्रिय-जातीय’ सिद्ध नहीं होते हैं.

  • विनोद कुमार

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ROHIT SHARMA

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