यह लेख अंग्रेजी वेबसाइट dna.com पर 3 अप्रैल, 2015 को प्रकाशित किया गया था, जिसका हिन्दी अनुवाद वर्तमान परिस्थितियों को समझने के लिए यहां प्रस्तुत किया जा रहा है. यह लेख बताता है कि छत्तीसगढ़ के गरीब और भोले-भाले आदिवासियों पर अंबानी-अदानी जैसे जालसाज धन्नासेठों के इशारे पर नाचती यह भारत सरकार अपनी खूंखार फौजों के बल पर किस कदर जुल्म ढ़ा रही है.
कहना नहीं होगा कि भारत सरकार की यह खूंखार सत्ता देश के आम अवाम को आतंकित करती है और जब लोग इस बेइंतहा जुल्म का खिलाफत करते हैं तब यह धूर्त भारत सरकार, उसकी खूंखार पुलिस, उसका दलाल मीडिया जोर-जोर से चीखने लगती है : माओवादी-माओवादी.
नि:संदेह अगर आप लोगों पर जुल्म ढ़ाना अपना नैतिक अधिकार समझते हैं, तब आपके जुल्म के प्रतिकार में आपका बांह मरोड़ कर आपके सर में गोली मार देना भी लोगों का प्राकृतिक अधिकार है. जो कोई इस प्राकृतिक न्याय के खिलाफ बोलने की कोशिश करते हैं, असल में वे चुके हुए नपुंसक हैं, जो इन सत्ताधारी हत्यारों के गोद में खेलने को अभिशप्त हैं और देर-सबेर खुद भी इसके शिकार बनेंगे. प्रस्तुत है लेख का हिन्दी अनुवाद –
अगर आप एक आदिवासी हैं और किसी माओवाद प्रभावित इलाके में रहते हैं तो हां ज़रूर हो सकती है. तथाकथित निचले स्तर के माओवादी कार्यकर्ताओं के विवादास्पद आत्मसमर्पण और आदिवासियों को आर्म्स एक्ट और धारा 307, यानी हत्या की कोशिश के मुकदमे बना कर लंबे समय तक जेलों में रखने के मुद्दे पर छत्तीसगढ़ पुलिस आजकल काफी चर्चा बटोर रही है. और आदिवासियों के ऊपर जो आरोप लगाये जाते हैं, उनमें शामिल हैं : बड़ा बर्तन लेकर कहीं जाना, छाता, परम्परागत धनुष वाण, सब्ज़ी काटने का चाकू का उनके पास होना.
इनमें से कई आदिवासी जेलों में कई साल गुज़ार चुके हैं. हालांकि इन लोगों के नाम किसी भी चार्जशीट में नहीं लिखे हुए थे, ना ही कभी किसी गवाह ने कभी आरोपी के तौर पर इन्हें पहचाना.
ये चौंकाने वाले तथ्य डीएनए अखबार द्वारा विभिन्न मुकदमों में पुलिस द्वारा अदालतों में जमा किये गए कागजातों के अध्ययन से सामने आये हैं. इस अध्ययन से साफ़ हो जाता है कि पुलिस द्वारा बस्तर के इस इलाके में जिस तरह से मामलों में जांच की गयी है, वह भयानक गलतियों और गलत पूछताछ से भरा हुआ है, जिससे इस इलाके में बड़े पैमाने पर अन्याय फ़ैल गया है.
उदहारण के लिए सन 2012 का एक मामला सुकमा ज़िले के जगरगुंडा थाने में दर्ज़ किया गया है. इस मामले में पुलिस ने 19 लोगों को आरोपी बनाया है और उनमें से नौ लोगों को गिरफ्तार किया है. इस मामले में ज़ब्त किये गए सामान की सूची के मुताबिक़ इन लोगों के पास से धनुष-बाण ज़ब्त किये गए हैं. इसी मामले में आरोपी संख्या आठ दोरला जनजाति के सल्वम सन्तों से ज़ब्त किये गए सामान में खाना बनाने का बड़ा बर्तन लिखा गया है. इन सभी आदिवासियों को हत्या की कोशिश करने, आर्म्स एक्ट, विस्फोटक एक्ट, घातक अस्त्र शस्त्र से लैस होकर दंगा फैलाने और राज्य की अन्य कानून की धाराएं लगाईं गयीं हैं.
बीजापुर और दंतेवाड़ा के कई और मामलों में भी इसी तरह के सामान की ज़ब्ती दिखाई गयी है. बीजापुर ज़िले के एक अन्य मामले में दो आदिवासी मीडियम लच्छु और पुनेम भीमा को पुलिस ने सन 2008 में गिरफ्तार किया और जेल में डाल दिया था. इन दोनों आदिवासियों का नाम पुलिस के किसी भी कागज में नहीं था. सिर्फ गिरफ्तार किये गए लोगों की सूची में इनका नाम लिखा हुआ था. इन लोगों पर हथियार लेकर दंगा करने और हत्या की कोशिश करने, आर्म्स एक्ट आदि का मामला बनाया गया था. हालांकि पुलिस द्वारा इस मामले में बनाए गए गवाहों में से किसी ने भी अपने बयानों में इन दोनों के नाम का ज़िक्र नहीं किया था.
इन दोनों के ऊपर अभी भी मुकदमा चल रहा है हालांकि ये दोनों आदिवासी ज़मानत पर जेल से रिहा हो चुके हैं लेकिन तब तक ये दोनों जेल में छह साल गुज़ार चुके थे. इस दौरान बहिन को छोड़ कर लच्छु के परिवार के सभी सदस्यों की मृत्यु हो गयी. इसी मामले में एक और आरोपी इरपा नारायण को भी पुलिस ने पकड़ कर जेल में डाला हुआ है. पुलिस के मुताबिक पुलिस ने इरपा नारायण को नक्सलियों से भयानक मुठभेड के बाद पकड़ा था लेकिन इरपा नारायण के पास से मात्र तीर धनुष ही ज़ब्त दिखाया गया है.
जगदलपुर लीगल एड ग्रुप द्वारा किये गए एक स्वतंत्र अध्ययन से पता चला है कि छत्तीसगढ़ में सन 2012, तक आपराधिक मामलों में से कुल 95.7 लोगों को अदालत द्वारा रिहा कर दिया गया. राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह से रिहा होने वाले आरोपियों का प्रतिशत 38.5 है. छत्तीसगढ़ में मुकदमों में बहुत ज्यादा समय लगता है, इससे आरोपियों को जेलों में बहुत लंबा समय बिताना पड़ रहा है. सन 2012 में मात्र 60 प्रतिशत मुकदमों का फैसला दो साल के भीतर किया गया जबकि बड़ी संख्या में मुकदमों का निपटारा छह साल के बाद किया गया.
इस सब के कारण छत्तीसगढ़ की जेलें खचाखच भरी हुई हैं. सन 2012 में छत्तीसगढ़ की जेलों में 14,780 लोग बंद थे जबकि इन जेलों की कुल क्षमता 5,850 कैदियों को रखने की ही है. छत्तीसगढ़ की जेलों में क्षमता से अधिक कैदियों का प्रतिशत 253 है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह प्रतिशत 112 ही है.
पुलिस की जांच में त्रुटियों का पता आदिवासी भीमा कड़ती के मामले से लग जाता है. भीमा कड़ती की उम्र मात्र 19 साल की थी. पुलिस ने उस पर 12 मामले बनाए थे, जिनमे दो रेल पलटाने के भी थे. हालांकि किसी भी मामले में कुछ भी सिद्ध नहीं कर पायी. कड़ती भीमा को अदालत ने सभी मामलों में बरी कर दिया लेकिन तब तक तो कड़ती भीमा जेल में ही चिकित्सीय लापरवाही से मर चुका था.
इसी तरह के एक मामले में आदिवासी महिला कवासी हिड़मे को 2008 में गिरफ्तार किया गया था. उस पर तेईस सिपाहियों पर हमला करने का आरोप लगाया गया था. उसका नाम गिरफ्तारी के कई महीने बाद पचास आरोपियों की सूची में जोड़ा गया लेकिन उसे किसी भी चश्मदीद गवाह ने नहीं पहचाना. उसका मुकदमा अभी भी कोर्ट में है.
जब इस विषय में हमने बस्तर के पुलिस महानिरीक्षक एसआरपी कल्लूरी से उनकी प्रतिक्रिया लेने के लिए बात करने की कोशिश की तो उन्होंने यह कह कर फोन काट दिया कि ‘नई दिल्ली की मीडिया माओवादी समर्थक है. मैं आप लोगों से नहीं मिलना चाहता. मुझे मेरा काम करने दीजिए.’
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