मैं दूध खरीदता हूं, भुगतान करता हूं, दूधवाले का एहसान नहीं लेता. कपड़े खरीदता हूं, भुगतान करता हूं, कपड़े वाले का एहसान नहीं लेता. कार खरीदता हूं, भुगतान करता हूं, कारवाले का एहसान नहीं लेता…तो जब अनाज खरीदता हूं, पेमेंट करता हूं, अनाज वाले का एहसान नहीं लेता. क्या ही सुंदर तर्क है..!! पर इसके नीचे झोल है.
किसानों की समर्थन मूल्य की मांग पर बड़े बड़े चैनल, देशभक्त और ठगबाज हैंडल इस तरह की किससेबाजी कर रहे हैं लेकिन इनके बीच बड़ा फर्क है.
कार के निर्यात पर सरकार रोक नहीं लगाती, दूध PDS में नहीं बेचती, कपड़े सब्सिडी पर नहीं मिलता. इनके मूल्य नियंत्रित करने में सरकारों की भूमिका नहीं होती.
अनाज, खाद्य पदार्थ सबसे अलग है !! जीवन का आधार, और आम आदमी के खर्च की सबसे बड़ा हिस्सा. दरअसल जैसे-जैसे आपकी औकात कम होती जाती है, भोजन का खर्च बढ़ता जाता है.
यानी, आप 50 हजार कमाते हैं, भोजन का खर्च 20 हजार, 40% है. आप लाख रुपये कमाते हैं, पर भोजन खर्च अब भी 20-22 हजार, यानी 20-22% है. लेकिन आप कुल जमा 20 हजार कमाते हैं, तो भोजन खर्च, कमाई का 60-70% तक हो सकता है. यानी गरीब सबसे ज्यादा हिस्सा भोजन पर खर्च करता है और गरीब ही देश में ज्यादा हैं. वही वोट बैंक का सबसे बड़ा हिस्सा है.
ऐसे में भोजन की कीमत कम रखना, सरकार की मजबूरी है. वह कार, दूध, कपड़े में दखल नहीं देती, मगर भोजन पर कड़ा नियंत्रण रखती है. इसलिए कृषि लागतों में सब्सिडी देती है, प्रोडक्शन की कीमतों को नियंत्रण रखती है.
अगर विदेश में अच्छे दाम मिल रहे हों तो निर्यात रोक देती है कि कहीं लोकल दाम न बढ़ जाये. हमेशा खुद खरीद कर भंडार करती है, ताकि अचानक दाम न चढ़ जायें. लेकिन खरीदकर रख लिया, तो इस भंडार का करे क्या, अब इसे ठिकाने लगाने के लिए मुफ्त बांटने का ड्रामा होता है.
एक सरकार 24 करोड़ लोगों को बांटने का दावा करती थी, दूसरी 80 करोड़ को…, पर ये पात्रता है. असल में राशन लेने वालों की संख्या इसका 30-40% से अधिक नहीं होती.
कुल मिलाकर, राजनीति के खेल का सबसे बड़ा प्रयास यह कि अनाज की कीमत दबी रहे. यह खेल, हर सरकार खेलती है. इसलिए किसानों को, उचित प्राइज पाने के लिए सरकार सबसे बड़ा रोड़ा बन जाती है. किसी और प्रोडक्ट की बेच खरीद में बाजार सामने होता है. अनाज की बेच खरीद में सरकार सामने होती है. अपनी पुलिस, बैरिकेड, पैलेट गन, वाटर कैनन, कीलों, आंसू गैस के गोलों के साथ…
एक वक्त लागतों पर सब्सिडी अच्छी खासी थी, जिसे सरकार ने मुफ्तखोरी बताकर घटा दिया. बदले में यूरिया पर नीम कोटिंग करवा दी. पर नीम कोटिंग से पेट नहीं भरता साहब। अब कीमत बढाने की बरसों से मांग कर रहे है, तो कभी नए नए कानून दिए जाते है, कभी खालिस्तानी का तमगा, कभी लाठी गोली..
फसल का मूल्य भर नहीं दिया जाता. तर्क यह भी कि इतना मूल्य कहां से देंगे, पैसा कहां से आएगा ?? सच है, पचास घरानों को 12 लाख करोड़ का तोहफा देने में कर्जा 205 लाख करोड़ हो गया है, अब किसान के लिए पैसा कहां से लायें.. !!
लेकिन एक मिनट !!
सारा अनाज तो सरकार नहीं खरीदती. एक फ़्रेक्शन ही खरीदा जाता है. MSP का मलतब तो सिर्फ यह होता है कि तय करती है कि कोई व्यापारी, इससे कम दाम पर खरीदे तो अपराध माना जायेगा…
– हंय !! क्या बात करते हो मनीष ?? ऐसा तो मुझे किसी ने नहीं बताया.
– तूने पूछा कहां पगले. सुनता ही कहां है. तू तो देशभक्ति, खलिस्तानी, पाकिस्तानी वाली बहस करने लगता है.
– खैर. इसके बावजूद भी तो काफी बड़ी मात्रा में सरकार अनाज खरीदती ही है न.. उसकी कीमत देने से क्या खजाना खाली न हो जाएगा ??
मितरों, सारा अनाज खरीदकर, आखिर मोदी जी और सीतारमन को तो खाना नहीं है. उसे वे आगे बेच ही देंगे. 40 में खरीदेंगे, 45 में बेच देंगे.. उल्टा 5 रुपये कमा लेंगे. ऐसा ही तो होता है न..??
चलो, 40 में खरीदकर, 30 में बेचेंगे- सब्सिडी देंगे. तो महज 10 रुपये का घाटा होगा. पूरा 40 गिनाना ठगबाजी है. और घाटा इतना बड़ा नहीं की सरकार सह न सके.
नहीं, ऐसा नहीं होता. घाटा सचमुच पूरा होगा क्योंकि उसे मुफ्त बांटा जाता है, वोट की खातिर.. ‘मैं 80 करोड़ को मुफ्त राशन देता हूं, उस दावे की खातिर ..’
तो समस्या किसान नहीं, तेरे नेता की नीति है बालक. और दूधवाला, कपडेवाला, कार वाला, तेरे नेता की नीति के कारण सुसाइड नहीं करता. क्योंकि जब तुम दूध खरीदते हो, भुगतान करते हो, तो दूधवाले का एहसान नहीं लेते. कपड़े वाले का, कारवाले का एहसान नहीं लेते. पर जब अनाज खरीदते हो, तो किसान का एहसान लेते हो.
खा, पीकर, डकार लेकर मोबाइल खोलते हो, किसान को गाली देते हो. वो फांसी पर लटक जाता है. इसके अपराधी तुम हो. तुम अहसानफरामोश हो.
- मनीष सिंह
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