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संक्षिप्त जीवनी : भारतीय क्रान्ति के महानायक चारु मजुमदार

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संक्षिप्त जीवनी : भारतीय क्रान्ति के महानायक चारु मजुमदार
संक्षिप्त जीवनी : भारतीय क्रान्ति के महानायक चारु मजुमदार

चारु मजुमदार का जन्म बनारस में सन्‌ 1917 में हुआ था. वहां उनके पिता वीरेश्वर मजुमदार एक स्कूल मास्टर थे. बीस के दशक के पूर्वार्ध में उनका परिवार पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी शहर में आकर बस गया. वीरेश्वर बाबू एक कांग्रेसी कार्यकर्ता होने के नाते स्वतंत्रता संघर्ष में कूद पड़े थे. पुत्र के साथ पिता का रिश्ता दोस्ताना था. बालक चारु का जिज्ञासु मन आजादी के बारे में जानना चाहता, और पिता बतलाते थे कि अंग्रेजों को देश से भगाने के बाद जब हम देशवासियों के हाथों राज आएगा, तो रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा – किसी भी चीज की कमी नहीं रहेगी.

छात्र जीवन में चारु पढ़ाई-लिखाई में तो मेधावी और असाधारण थे, लेकिन शुरू से ही उन्हें बढ़िया रिजल्ट करने की चिंता नहीं रही. यहां तक कि वे अपने से ऊपरी कक्षा के छात्रों को पढ़ने में मदद करते, अपनी किताबें भी गरीब दोस्तों के बीच बांट देते. क्षीणकाय, लेकिन बड़ी-बड़ी असाधारण आंखों वाला और अपनी मनमर्जी पर चलने वाला यह बालक बचपन से ही सबके लिए एक पहेली था. बस यही कहता कि अच्छा डिवीजन पा लेने से यह तो साबित नहीं होता कि किसी का ज्ञान भी सचमुच ज्यादा है !

तीस का दशक आया. मैट्रिक की परीक्षा पास कर चारु कॉलेज में भर्ती हुए, लेकिन क्रमश: पढ़ाई से मन ऊबता गया. चारों ओर आजादी की लड़ाई का उफान चारु के मन को झकझोर रहा था. एक ओर थी क्रांतिकारी आतंकवादी धारा, जिसका अच्छा-खासा असर सिलीगुड़ी के नौजवानों पर भी पड़ रहा था, तो दूसरी ओर था पिता वीरेश्वर का स्वदेशी जनांदोलन. क्रांतिकारी आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति के बावजूद चारु का मन कह उठता – इन छोटी-मोटी कार्यवाहियों से भला क्या होगा. गैरीबाल्डी और मैजिनी की इतालवी क्रांति की कहानी, फ्रांसीसी क्रांति के किस्से, रूसो के लेख चारू के युवा मन को जनक्रांति के स्वप्न दिखाते.

बंकिम चंद्र के आनंदमठ से लेकर शरतचंद्र के चरित्रहीन तक, सब कुछ चारु ने पढ़ डाला. शेली और वर्ड्सवर्थ की तमाम कविताएं कंठस्थ कीं. सत्याग्रह आंदोलन में जेल से लौटने के बाद पिता कहते, गांधी से कोई काम न होगा, जवाहरलाल नेहरू जैसे नेता की जरूरत है. चारु कहते, आपके गांधी, जवाहर सब एक ही जैसे हैं, मुहल्ले में सब लोग चारु को जिद्दी, घमंडी कहते बस मन में जो ठान लिया, सो ठान लिया.

जॉसेल पाबना (अब बांग्लादेश में) के एडवर्ड कॉलेज में दाखिले के बाद युवा चारु के सामने वृहत्तर विश्व का दरवाजा खुल गया. यहां पहली बार उनकी मुलाकात कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित छात्र-छात्राओं के साथ हुई. इसी समय पूरे उत्तर बंगाल में अधियार (बटाईदारी) आंदोलन के लिए बड़े जोर-शोर से प्रचार चल रहा था. गैरकानूनी घोषित हो चुकी कम्युनिस्ट पार्टी की किसान सभा का जिला प्रतिनिधि सम्मेलन चल रहा था पाबना में. कम्युनिस्ट छात्रों के साथ संपर्क के माध्यम से चारु भी वहां उपस्थित हुए.

पृथ्वी की पाठशाला में प्रवेश

आइएससी का दूसरा वर्ष खत्म होने को था, सामने थी फाइनल परीक्षा. अचानक ही एक दिन चारु अपनी सारी किताबें अन्य छात्रों के बीच बांटकर, सिर्फ एक झोले में कुछ कपड़े भरकर, किसी को कुछ बताए बिना ही चल पड़े मेहनतकशों की दुनिया की ओर. पिता की चिट्ठी, जिसमें लिखा हुआ था फाइनल परीक्षा मन लगाकर देना, मेज पर खुली पड़ी रह गईं. जलपाईगुड़ी जिले के देवीगंज थाने (अब बांग्लादेश में) के पचागढ़ में आकर चारु को पृथ्वी की पाठशाला में प्रवेश मिला.

मार्गदर्शक के रूप में मिले माधव दत्त से उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी, रूसी क्रांति और किसान-मजदूरों के बारे में बहुत कुछ सीखा. चंचल और तेजोद्दीप्त युवक चारु बस थोड़े ही दिनों में राजवंशी किसानों के बीच घुलमिल गया. उनका अपना-सा बन गया. कर्ज-का सूद नहीं देंगे, बटाईदारों की बेदखली नहीं चलेगी जैसे नारों के साथ अधियार आंदोलन समूचे उत्तर बंगाल में तेजी से फैल रहा था. इसी आंदोलन के सिलसिले में चारु मजुमदार पहली बार गिरफ्तार हुए.

हाफ पैंट और फुल शर्ट पहने नौजवान चारु को पुलिस जलपाईगुड़ी शहर के रास्ते पर कमर में रस्सी और हाथ में हथकड़ी पहना कर ले गई. पिता वीरेश्वर मजुमदार कांग्रेसी आंदोलन में भाग लेने के कारण पहले से ही जेल में बंद थे. वहीं पिता-पुत्र के बीच मुलाकात हुई, और कांग्रेस-कम्युनिस्ट को लेकर उन दोनों के बीच तीखी बहस चलती रही. छह महीने के बाद जेल से उनकी रिहाई हुई, मगर पिता-पुत्र दोनों को उनके सिलीगुड़ी स्थित मकान में ही नजरबंद कर दिया गया.

नजरबंदी की हालत में भी चारु का पार्टी से संपर्क बना रहा, और एक दिन, मुसलाधार बारिश की रात में इक्कीस वर्षीय चारु अंतर्ध्यान हो गया. घर छोड़ने की यह घटना सचमुच नाटकीय थी. शहर में जिस संपर्क-व्यक्ति के माध्यम से चारु को अपने अनजाने गंतव्य-स्थल तक पहुंचना था, उसके घर पहुंचने पर उसने कहा, पागल हुए हो क्‍या ? इतनी तूफानी रात में कहां जाओगे, घर लौट जाओ. फिर दुबारा देखेंगे, लेकिन जिद्दी चार को भला कौन रोक सकता था ! अपना अत्यंत प्रिय रवीन्द्र संगीत ‘यदि तोर डाक शुने केओ ना आसे तबे एकला चलो रे’ गुनगुनाते हुए चारु अकेले ही चल पड़े अनजाने लक्ष्य की ओर.

अधियार आंदोलन के असर से ही कम्युनिस्टों ने उत्तर बंगाल के रेलवे मजदूरों के बीच भी काम शुरू किया था. आदिवासी किसानों के नाते-रिश्तेदार गैंगमैन का काम करते थे, सो उन्हीं के जरिए रेलवे में काम शुरू हुआ. चारु मजुमेदार रेल मजदूरों के बीच काम में लगे, पर साथ ही किसानों के बीच आना-जाना भी लगा रहा. यहीं उन्होंने हिंदी बोलना सीखा और रेल मजदूरों के बीच हिंदी में भाषण भी देने लगे.

चालीस का दशक आते-आते चारु मजुमदार जलपाईगुड़ी जिले के मजदूर-किसान इलाकों में एक सुपरिचित नाम बन चुके थे. इस दशक की शुरूआत से ही, समूचे देश के साथ उत्तर बंगाल में भी जनांदोलन तीव्र हो उठा. चारु मजुमदार लालमनिरहाट जंक्शन (दिनाजपुर जिला) के रेल मजदूरों के बीच संगठन निर्माण का काम कर रहे थे. अब वहां यूनियन में ड्राइवर और फायरमैन नेता बन कर उभरे. यूनियन को तोड़ने की कांग्रेसी कोशिशों को नाकाम करते हुए यह मजदूर यूनियन दिनोंदिन मजबूत होती गई.

1942 में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व ने एक अदूरदर्शी फैसला ले लिया. फासीवादी जर्मनी के खिलाफ सोवियत संघ की रक्षा के सवाल पर, देश के अंदर अंग्रेज सरकार से सहयोग का रास्ता अपनाया, और कांग्रेस के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का विरोध किया. किसी भी किस्म के सरकार विरोधी आंदोलन पर रोक लगा दी. फिर भी, बहुतेरी जगहों में निचले स्तर पर कार्यरत कम्युनिस्ट कार्यकर्ता आंदोलन में जनता के साथ रहे, और बड़े पैमाने पर गिरफ्तार भी हुए. अगस्त आंदोलन में गिरफ्तार होने वाले कम्युनिस्टों में चारु मजुमदार भी शामिल थे.

1943 में बंगाल में भयानक अकाल पड़ा, जिसमें लाखों गरीब किसानों की मौत हो गई पार्टी नेतृत्व में छाईं दिशाहीनता और निराशा के इस माहौल में, बीमार चारु घर में ही पड़े रहे. यह समय उनके पढ़ने-लिखने में बेहद काम आया. कृषि समस्या पर सरकारी व गैरसरकारी दस्तावेजों के अध्ययन के अलावा, मार्क्स-एंगेल्स का रचना संग्रह, गोर्की, रोम्या रोलां, वाशिंगटन आर्विन, लुईं सिंक्लेयर, टॉलस्टाय की युद्ध और शान्ति, तुर्गनेव, दोस्तोएस्की, और उनकी बेहद पसंद के शोलोखोव द्वारा दोन की पृष्ठभूमि पर लिखे गए उपन्यास, और शरत चंद्र का श्रीकांत, यह सब कुछ उनके अध्ययन में शामिल था. आधी रात को अचानक उठकर रवीन्द्रनाथ की कविताओं का पाठ करना तो उनकी आदत ही थी.

चारु मजुमदार अब तक पक्के कम्युनिस्ट बन चुके थे, लाल सेना की शक्ति, किसान आंदोलन में बटाईदारी की समस्या, संघर्षों में किसानों की सृजनात्मक क्षमता, रेल-मजदूरों के बीच खासकर लोको मजदूरों के लडाकूपन, इन तमाम विषयों पर वे घर में ही शाम को जमने वाले अडूडों में नौजवानों को समझाते रहते. ‘छुट्टी’ की इस अवधि में भी उन्होंने कुछ साथियों की मदद से दार्जिलिंग के पहाड़ों में चाय बागान के मजदूरों के बीच संगठन निर्माण की कोशिशें की, लेकिन नेपाली भाषा न जानने के चलते काम ज्यादा दूर तक आगे बढ़ा नहीं.

1944 से परिस्थितियां फिर बदलने लगीं. अकाल की भयावहता को पीछे छोडकर संघर्षशील जनता फिर एक बार अपने अधिकारों के बारे में सचेत होने लगी थी. उधर, दो वर्षो तक पीछे हटते रहने के बाद सोवियत लाल सेना ने पलटकर वार करना शुरू किया, और अजेय मानी जाने वाली हिटलर की नात्सी सेना का पीछे हटना शुरू हुआ. चीन की लाल सेना भी जापानियों को शिकस्त पर शिकस्त देने लगी. दक्षिण-पूर्व एशिया के तमाम देशों में फासीवाद विरोधी सशस्त्र संघर्ष, शोषण से मुक्ति के संघर्ष में तब्दील होने लगा.

भारत में मजदूर आंदोलनों के विकास के साथ-साथ किसान संघर्ष भी तीत्र होने लगी. उत्तर बंगाल में किसान सभा तेजी से फैलने लगी. बटाईदारों ने धान की फसल में आधे हिस्से की मांग पर आंदोलन शुरू किया था, पर क्रमश: जमीन की मिल्कियत की मांग भी सामने आने लगी. 1943 के भयानक अकाल से किसान यह तो समझ ही गए थे कि जमीन पर अधिकार के बिना, जमींदारी प्रथा के खात्मे के बिना, बार-बार आनेवाला यह अकाल किसानों का ही खात्मा कर देगा. चारु मजुमदार किसान आंदोलन को संगठित करने के लिए एक बार फिर से कूद पड़े. देहाती चट्टी-बाजारों में होने वाली नुक्कड़ सभाओं में भी भाषण देते थे. सभा शुरू होने से पहले क्रांतिकारी गीत गाए जाते थे. मध्यमवर्गीय नौजवान भी चारु के भाषणों से प्रभावित होकर कम्युनिस्ट पार्टी की ओर झुकने लगे.

1944 के अंत से ही, अंडमान भेजे गए ‘आतंकवादी’ बंदियों की रिहाई की मांग पर शहरों में आंदोलन शुरू हो चुके थे. सिलीगुड़ी शहर में पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी की शाखा बनी और बंदी मुक्ति के सवाल पर विशाल जनसभा हुईं. इस सभा के मुख्य संगठक और पहले वक्ता थे चारु मजुमदार. उस दिन उनके ओजस्वी भाषण ने सारे लोगों को मुग्ध कर दिया.

आजादी की लड़ाई अपने अंतिम चरण में पहुंच रही थी. एक ओर, मजदूर आंदोलन में देशव्यापी उभार, आजाद हिंद फौज के बंदी सैनिकों की रिहाई की मांग पर व्यापक छात्र आंदोलन, नौसैनिकों का विद्रोह आदि चल रहे थे, तो दूसरी ओर, कांग्रेसी और लीगी नेतृत्व द्वारा देश के विभाजन की सौदेबाजी तथा सांप्रदायिक दंगों का माहौल था.

इस दौर के जनउभार में कम्युनिस्ट सक्रिय भूमिका में रहे और कांग्रेस आंदोलन में कहीं भी नहीं थी, कांग्रेसी तो सिर्फ कम्युनिस्ट विरोधी प्रचार में ही जोर-शोर से उतरे हुए थे. जलपाईगुडी शहर में लगातार मीटिंग कर छात्रों के बीच चारु मजुमदार कांग्रेसी कुप्रचार का जवाब देते थे. 21 जुलाई को कलकत्ता में तीन लाख से अधिक मजदूरों के एक विशाल जुलूस ने अंग्रेज सरकार को ठप्प कर दिया. आजादी लड़कर लेनी होगी, खून देकर देश की मुक्ति हासिल करनी होगी, इस सड़ी-गली सरकार को एक धक्का और दो – पूरे जुलूस में यही नारे लग रहे थे. उधर उत्तर बंगाल में किसान तेभागा आंदोलन की तैयारियों में जुट गए थे. मजदूर-किसान क्रांति की यह विशाल संभावना साकार न हो सकी. बहुत ही सुनियोजित ढंग से 6 अगस्त से ही दंगे भड़का दिए गए.

तेभागा आंदोलन में चारु मजुमदार

चारु मजुमदार उत्तर बंगाल में तेभागा आंदोलन संगठित करने में जुटे हुए थे. वे चाहते तो आसानी से जलपाईगुड़ी रेल मजदूर संगठन या किसान सभा में अध्यक्ष या सचिव का पद ग्रहण कर सकते थे. उन पर अधिकांश कार्यकर्ताओं का दबाव भी रहता था, लेकिन उनकी वही जिद. कहते थे, अध्यक्ष या सचिव बन जाने पर क्‍या इससे ज्यादा जिम्मेदारी से काम करूंगा ?

बंगाल के तेभागा आंदोलन का फैसला दरअसल उत्तर बंगाल के जिलों की किसान सभा का ही फैसला था. पार्टी तथा किसान सभा का प्रादेशिक नेतृत्व शुरूआत में ही आंदोलन से पीछे हटने का निर्देश दे रहा था. लेकिन उत्तर बंगाल की किसान सभा के दबाव से और 70 लाख किसानों का आंदोलन शुरू हो जाने पर प्रादेशिक नेतृत्व ने भी अपना समर्थन दे दिया.

1946 के नवंबर से 1947 की फरवरी तक इस आंदोलन में जबर्दस्त उभार दिखाई पड़ा. पुलिस दमन भी तेज होता गया. किसान भी सशस्त्र प्रतिरोध के लिए तैयार थे. चारु मजुमदार सहित तेभागा आंदोलन का प्रत्यक्ष रूप से नेतृत्व कर रहे नेतागण पुलिस दमन का प्रतिरोध करने के जरिए सशस्त्र संघर्ष की बात सोच रहे थे, मगर हर कोई निर्भर था ऊपरी नेतृत्व के निर्देशों पर. वहां से यह निर्देश तो आया नहीं, उल्टे, तत्कालीन मुस्लिम लीग सरकार के कोरे आश्वासन पर प्रादेशिक नेतृत्व ने आंदोलन ही वापस ले लिया. इससे चारों ओर निराशा छा गई. चारु मजुमदार तथा उनके सहयोगियों ने नेतृत्व की तीखी आलोचना की. प्रादेशिक नेतृत्व आत्मालोचना के जरिए कार्यकर्ताओं के विक्षोभ को शांत करने में लग गया.

क्रांतिकारी विद्रोह का दौर

इधर देशव्यापी दंगे शुरू हुए और 1947 में देश विभाजित हो गया. चारु मजुमदार का प्रधान कर्मस्थल पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में चला गया. उनका नया कर्मस्थल बना चाय बागान और उससे जुड़ा आदिवासी किसानों का इलाका. साथ ही रेल का बचा हुआ हिस्सा. मार्च 1948 में कलकत्ता में पार्टी की दूसरी कांग्रेस हुईं, ‘यह आजादी झूठी है’ के नारे के साथ देश-विभाजन को गलत करार देते हुए दोनों देशों में क्रांतिकारी आंदोलनों के बल पर फिर से देश को एक करने की बातें हुईं. क्रांति के स्तर को समाजवादी बताया गया और तदनुरूप शहरों में मजदूर वर्ग के सशस्त्र विद्रोह की लाइन सूत्रबद्ध हुई. गांवों में किसानों के सशस्त्र सत्तादखल को शहर के विद्रोह का पूरक बताया गया और शहर व गांव में एक पसाथ विद्रोह करने पर जोर दिया गया. जलपाईगुड़ी जिला कमेटी से चारु मजुमदार इस पार्टी कांग्रेस में प्रतिनिधि थे. पार्टी के नए महासचिव चुने गए रणदिवे.

इसी बीच बड़े-बड़े शहरों में पार्टी के भूमिगत ऑफिसों की जगहें, पार्टी नेताओं के गुप्त शेल्टर, पार्टी अखबार छापने के लिए गुप्त प्रेस सहित भूमिगत संगठन का पूरा ढांचा खड़ा हो चुका था. पार्टी कांग्रेस खत्म होते-न-होते ही पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी गैरकानूनी करार दी गई और तमाम काले कानूनों के तहत नेताओं-कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी शुरू हुई, जिस समय जलपाईगुड़ी पार्टी ऑफिस में चारु मजुमदार व कांग्रेस के अन्य प्रतिनिधिगण कार्यकर्ताओं को पार्टी कांग्रेस की रिपोर्ट सुना रहे थे, पार्टी के गैरकानूनी करार दिए जाने की खबर उन्हें मिल पाने से पहले ही रात के अंधेरे में पुलिस ने पूरे पार्ट ऑफिस को घेर लिया और सारे लोगों को गिरफ्तार कर लिया. हालांकि तीन महीने बाद कलकत्ता हाईकोर्ट द्वारा सिक्योरिटी ऐक्ट को गैरकानूनी करार दिए जाने की वजह से चारु मजुमदार वगैरह दमदम जेल से रिहा कर दिए गए. मगर इसके पहले कि चारु मजुमदार नए सिरे से पार्टी गठन के काम में लग पाते, पश्चिम बंगाल सरकार के डिटेंशन विदाउट ट्रायल ऐक्ट के तहत वे फिर से गिरफ्तार करके दमदम जेल भेज दिए गए,

बाहर के सशस्त्र विद्रोह के साथ-साथ दमदम जेल में भी कम्युनिस्ट बंदी लड़ते रहे. बाहर से आई सशस्त्र पुलिस ने हमला करके तीन साथियों की हत्या कर दी. इसके विरोध में जेल में 56 दिनों तक अनशन चला और अंततोगत्वा सरकार को राजनीतिक बंदियों को प्रथम श्रेणी की सहूलियतें देने की मांग को मानना पड़ा.

1949 के अंत से पार्टी के अंदर बहस तेज हो गईं. पार्टी लाइन को अतिवामपंथी करार दिया जाने लगा. उधर, तेलंगना में सशस्त्र किसान आंदोलन शुरू हुआ. आंध्र के कम्युनिस्टों ने भारतीय क्रांति के स्तर को जनवादी क्रांति का स्तर बताते हुए चीनी क्रांति के रास्ते का अनुसरण करने की बातों के साथ आंध्र दस्तावेज जारी किया. ये तमाम बहसें जेल में भी पहुंचीं.

जेल के संघर्ष में चारु मजुमदार अगुआ भूमिका में थे. उस समय जेल में मुजफ्फर अहमद, रणेन सेन, नृपेन चक्रवर्ती, इन्द्रजीत गुप्त आदि प्रादेशिक स्तर के नेता थे. सफल चीनी क्रांति का समाचार और चीनी पार्टी के दस्तावेज भी जेल में पहुंचने लगे. जेल में माओ के चेलों के रूप में जिन लोगों को जाना जाता था, उनमें चारु मजुमदार प्रमुख थे.

रणदिवे की अतिवामपंथी दुस्साहसवादी लाइन के चलते 1950 तक सशस्त्र विद्रोह व्यर्थ हो गया और 1951 में भारत सरकार के समक्ष कम्युनिस्टों की हथियारबंद ताकत के आत्मसमर्पण के साथ ही तेलंगना का संघर्ष भी वापस ले लिया गया.

1951 में ब्रिटिश जमाने के बक्सा कैंप जेल को फिर से चालू किया गया और जिन लोगों को उग्रवादी घोषित कर वहां भेजा गया, उनमें चारु मजुमदार भी थे, जब दूसरे साथी मजाक में कहते, क्रांति के चक्कर में यह क्या बचकानापन किया गया ! तब चारु मजुमदार की गंभीर आवाज गूंजती थी, गलती होने पर भी क्रांति की कोशिश करने में हर्ज क्या है ? गलतियों से सीखकर फिर उठ खड़ा भी तो हुआ जा सकता. है. गंभीर राजनीतिक बहसों के साथ-साथ साथियों की गलत हिंदी सुधारने, ताश खेलने में हुल्लड्बाजी और शतरंज की चालों में घंटों सोचते रहने के जरिए – कुल मिलाकर चारु बक्सा कैंप के जेल जीवन को सजीव बनाए रहते थे.

निराशा के बीच

इसी बीच, 1951 में पार्टी कार्यक्रम का ड्राफ्ट वितरित होना शुरू हुआ. रणदिवे लाइन को खारिज कर भारत को अर्धऔपनिवेशिक देश करार दिया गया. क्रांति के स्तर को जनवादी और कृषि क्रांति को जनवादी क्रांति की धुरी बताया गया. सशस्त्र क्रांति की बात दुहराई गई. 1952 में पहली बार लोकसभा का आम चुनाव हुआ. मजदूर-किसान आंदोलन के केंद्रों से कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिनिधि बडी मात्रा में वोट पाकर जीते. इस लोकसभा में कम्युनिस्ट पार्टी सबसे बड़े विरोधी दल के रूप में सामने आईं. दूसरी कांग्रेस में चुनी गई ऊपर से नीचे तक की सारी कमेटियां भंग कर दी गईं. तीसरी कांग्रेस की तैयारी के लिए नए ड्राफ्ट कार्यक्रम के आधार पर नई केंद्रीय सांगठनिक कमेटी बनी. सचिव चुने गए सी. राजेश्वर राव. रणदिवे को दो साल के लिए पार्टी सदस्यता से निलंबित कर दिया गया. चारु मजमदार को फिर कलकत्ता के जेल में भेज दिया गया. 1952 के मार्च में जब वे जेल से रिहा हुए, तो उन्हें जलपाईगुड़ी जिला कमेटी का सचिव बनाकर पार्टी कमेटी का पुनर्गठन हुआ.

चुनाव, उसकी जीत के समारोह, नेहरू की तारीफों के पुल, वर्ग संघर्ष की जगह जिम्मेदार विरोध पक्ष की बातें, यह सब चारु मजुमदार को अजीब-सा लगने लगा. बहुतेरे लोग पार्टी छोड़ने लगे, या तो अंशकालिक कार्यकर्ता बन गए या फिर पढ़ाई-लिखाई और कैरियर के मोह में पड़ गए. चारों ओर जैसे एक सूनापन छाया था. पार्टी का काम करने के शुरूआती दिनों में जो सहृदय डाक्टर बाबू अक्सर चारु मजुमदार तथा दूसरे साथ्रियों को आश्रय देते थे, उन्हीं की बेटी लीला सेनगुप्ता के साथ 1952 में चारु मजुमदार का विवाह हुआ. देश विभाजन के बाद लीला जलपाईगुड़ी शहर में स्कूल मास्टरी करती थी और भाई-बहनों की देख-भाल भी करती थी. 1949 में महिला आत्मरक्षा समिति के गैरकानूनी घोषित होने के बाद वह जेल भी हो आई थी.

चारु मजुमदार के पिता संपत्तिहीन थे, पर नाना की ओर से उनकी मां को मिला हुआ मकान और जमीन का कुछ हिस्सा ही परिवार की संपत्ति थी. उसी जीर्णशीर्ण घर को ठीक-ठाक कर शुरू हुआ चारु मजुमदार का पारिवारिक जीवन. मां की रखी हुई काली की तस्वीर को जब चारु मजुमदार यह कह कर हटाने लगे कि यहां पूजा-ऊजा नहीं चलेगी, तो वीरेश्वर बाबू के अनुरोध पर लीला ने ही जिद करके मां की यादगार के रूप में उस तस्वीर को संजोकर रख दिया. नक्सल आंदोलन के दौरान इसी तस्वीर को लेकर अखबारों में कितना ऊल-जलूल लिखा गया. एक अखबार ने तो यह भी लिख डाला, असल में चारु मजुमदार एक ‘काली साधक’ (तांत्रिक) हैं.

परिवार चलाना झंझट का काम था. चारु मजुमदार के नाम शहर में जो भी थोड़ी-बहुत जमीन थी, वह तो 1953 से ही भोजन-पानी का जुगाड़ बैठाने के लिए क्रमश: सस्ते दामों में बेची जा चुकी थी. फिर भी नक्सल आंदोलन के समय ‘देश’ पत्रिका में एक नामी-गिरामी संवाददाता ने चारु मजुमदार को बहुत सारी जमीन का मालिक बताया और उनकी काल्पनिक दो बहनों के नाम पर बेनामी जमीन के भी किस्से गढ़े.

जलपाईगुड़ी से हटकर अब चारु मजुमदार ने अपना कर्मक्षेत्र दार्जिलिंग जिले को बनाया. इस समय सदस्यता नवीकरण के दौरान ऊपरी नेतृत्व ने एक फार्म भेजा था, जिसमें हर सदस्य को अपना पूरा इतिहास और ऊपरी नेतृत्व के बारे में अपना मंतव्य लिखना था. चारु मजुमदार ने जिले के मुख्य संगठक को नौकरशाह बताते हुए जिला कमेटी के कामकाज की तीब्र आलोचना लिख डाली. इससे नाराज होकर जिला कमेटी ने उन्हें पार्टी सदस्यता से निलंबित कर दिया. सिलीगुड़ी के सारे कामरेड इससे नाराज हो उठे और अंततोगत्वा राज्य कमेटी ने हस्तक्षेप करके उनका निलंबन वापस ले लिया.

नक्सलबाड़ी क्षेत्र में कामकाज की शुरूआत

इस बीच नक्सलबाड़ी क्षेत्र में किसानों व चाय बागान के मजदूरों के बीच काम शुरू हुआ. जंगल संथाल, कदमलाल मल्लिक, खोदनलाल मल्लिक इत्यादि स्थानीय कार्यकर्ता तैयार हुए, 1951 के बाद 21 वर्ष के युवक कानू सन्याल का आगमन हुआ. चारु मजुमदार इन तमाम कार्यकर्ताओं के मार्गदर्शक बने.

कानू से उन्होंने कहा, पार्टी से तनख्वाह लेकर होलटाइमर मत बनना. किसानों के घर में रहो, खाओ-पीओ और उन्हीं से अपने खर्च की जरूरतें पूरी करो. इससे किसान तुम्हें अपना बना लेंगे. पार्टी के सामने हाथ फैलाने से पार्टी के नेता तुम्हें कर्मचारी की नजर से देखेंगे.

27 दिसंबर 1953 से 4 जनवरी 1954 तक मदुरै में पार्टी की तीसरी कांग्रेस हुईं. राज्य सम्मेलन से इस कांग्रेस में चारु मजुमदार प्रतिनिधि के रूप में चुने गए, पार्टी में फिर से नया जोश आया. आंशिक मांगों के लिए संघर्ष के दौरान मजदूरों, किसानों, शरणार्थियों व शिक्षकों के संगठन बनने लगे. किसान आंदोलन का दायरा भी बढ़ने लगा. चारु कहने लगे, बस कैडर, कैडर तैयार करो; कैडरों को राजनीतिक रूप से सचेत करो. हिंदी और राजवंशी दोनों भाषाओं पर अच्छी पकड़ के कारण चारु मजुमदार को हर कैडर मीटिंग में बैठना पड़ता था.

क्रांतिकारी गीतों व नाटकों के प्रति चारु मजुमदार के मन में जबर्दस्त उत्साह था, लेकिन अलग से जननाट्य संगठन बनाना उन्हें पसंद नहीं था. वे कहते थे, ऐसा संगठन बनाने से वह मध्यवर्ग का अड्डा बन जाएगा. उनकी राय थी कि संगठन की सभाओं व आंदोलनों में गीत गाए जाएं. व नाटक प्रदर्शित किए जाएं. शहरों में वे क्लबों में भी अपने कार्यक्रम पेश करें. चारु मजुमदार की पहलकदमी पर ही शहर के मुख्य क्लब में रवीन्द्र-नजरुल-सुकांत दिवस, पहला वैशाख (बांग्ला कैलेंडर में वैशाख से वर्ष की शुरूआत होती है और यह रवीन्द्रनाथ के जन्म दिन के रूप में भी मनाया जाता है) इत्यादि अवसरों पर क्रांतिकारी सांस्कृतिक कार्यक्रमों की परंपरा शुरू हुईं. शास्त्रीय संगीत के प्रति चारु मजुमदार का आकर्षण प्रबल था. बड़े गुलाम अली का गायन बाजू बंद खुल-खुल जाए उन्हें बेहद पसंद था. 1969-70 के भूमिगत जीवन में भी अक्सर उन्हें बड़े गुलाम अली का यही रिकार्ड सुनते देखा जा सकता था.

इधर पार्टी में संसदवादी रुझान बढ़ता जा रहा था. सिलीगुड़ी में जोतदारों और पुलिस के हमले के मुकाबले किसान प्रतिरोध तेज हो रहा था. चाय बागान के मजदूरों की बागानस्तरीय मीटिंगों में चारु मजुमदार ही प्रधान वक्ता रहते थे. लेकिन वार्षिक सम्मेलनों और जनसभाओं में वे अनुपस्थित रहते. कहते थे, नए-नए संगठकों को बोलने दो, वे सीखेंगे. 1955 में तमाम वामपंथी युनियनों के आह्वान पर कुल 56 बागानों में हड़ताल हुई.

1956 में कम्युनिस्ट पार्टी की चौथी कांग्रेस पालघाट में हुई. पार्टी नेतृत्व दो हिस्सों में विभाजित हो चुका था. एक हिस्सा प्रगतिशील बुर्जुआ के साथ यानी नेहरू के साथ साझा सरकार में शामिल होने की पैरवी कर रहा था और इसी कारण से 1951 के पार्टी कार्यक्रम में संशोधन की मांग कर रहा था. और दूसरा हिस्सा बड़े बुर्जुआ के बीच प्रगतिशील व प्रतिक्रियावादी – इस किस्म के विभाजन का विरोधी था. अजय घोष के नेतृत्व में केंद्रीय कमेटी ने मध्यपंथी स्थिति अपनाई. अजय घोष खुश्चेव की नीतियों की तारीफ करते हुए लेख लिखने लगे.

इधर चारु मजुमदार आंदोलन के लगातार कानून पर निर्भर होते जाने की प्रवृत्ति से परेशान थे. परिवार की आर्थिक स्थिति भी बहुत खराब हो चली थी. 1957 का चुनाव आया. केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी; केंद्र में और आंध्र प्रदेश व पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी मुख्य विरोधी दल के रूप में उभरी, संसदीय मोह फैलता ही चला गया.

चारु मजुमदार के मन में प्रश्न जगने लगा. यह तो ठीक है, पर इससे सरकार विरोधी आंदोलन कैसे तीव्र होगा ? इधर सिलीगुड़ी में छात्र आंदोलन तेज हो रहा था. हर महत्वपूर्ण मीटिंग में चारु मजुमदार को बुलावा आता. उस समय भी वे छात्रों से यही कहते थे, सिर्फ कॉलेज युनियन और कैंपस के सवालों में उलझे रहने से क्या होगा ? आम जनता की समस्याओं पर नुक्कड़ सभाएं करो, सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश करो, बीच-बीच में जत्थे बनाकर मजदूरों-किसानों के बीच जाओ.

1958 में पार्टी कौ पांचवीं (विशेष) कांग्रेस अमृतसर में संपन्न हुई. इस कांग्रेस में संयुक्त जनवादी मोर्चा (यूडीएफ) और राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा (एनडीएफ) की दो विरोधी धारणाओं के आधार पर पार्टी में ऊपर से नीचे तक विभाजन हो गया. यूडीएफ वाले मजदूर-किसान एकता के आधार पर वामपंथी पार्टियों का संयुक्त मोर्चा बनाने की बात करते थे; सामंतवाद के अवशेषों व साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकने की बात करते थे. उधर एनडीएफ वाले प्रगतिशील बुर्जुआ (नेहरू सरकार) के साथ साझा मोर्चा बनाकर शांतिपूर्ण तरीके से समाजवाद में संक्रमण की बात करते थे. पांचवीं कांग्रेस से चारु मजुमदार जब लौटे तो उनकी डायरी में विभिन्‍न नेताओं के नामों के सामने सिर्फ चंद कटु मंतव्य लिखे मिले, जैसे अजय घोष – सब बर्बाद कर दिया, भूपेश गुप्त – असहनीय, इत्यादि.

1959 कौ जुलाई में केरल सरकार बर्खास्त हो गई. सारे पश्चिम बंगाल में प्रतिवाद जुलूस निकले. सिलीगुड़ी में जुलूस का नेतृत्व चारु ही कर रहे थे. खाद्य आंदोलन सारे पश्चिम बंगाल में फैल गया. 29 अगस्त को छात्रों, शहरवासियों व किसानों के जुलूस पर विधान राय की सरकार ने गोलियां चलाई, जिसमें 80 लोग मारे गए, सिलीगुड़ी के तराई अंचल में किसान आंदोलन तीत्र हो उठा. लेकिन सरकार के आश्वासन पर प्रादेशिक नेतृत्व ने आंदोलन वापस ले लिया. चारु मजुमदार, कानू सान्याल वगैरह इससे विक्षुब्ध हो उठे.

चीन विरोधी अंधराष्ट्रवाद के खिलाफ संघर्ष

1958 के अंत से ही भारत-चीन सीमा पर तनाव बढ़ने लगा था. नेहरू,-विधान राय व अन्य कांग्रेसी नेतागण चीन के खिलाफ अंधराष्ट्रवाद भड़काने में जुट गए. कम्युनिस्ट लोग चीन के समर्थन में प्रचार में उतर पड़े. कांग्रेसियों के हमले शुरू हुए, चारु मजुमदार ने प्रतिरोध के लिए नौजवानों को तैयार करना शुरू किया.

1961 में पार्टी की छठी कांग्रेस शुरू हुईं विजयवाड़ा में. चारु मजुमदार ने उसमें जाने से इन्कार कर दिया. उनका कहना था, वहां जाकर क्‍या होगा ? वही सब फालतू बातें सुननी पड़ेंगी.

पार्टी में जो हिस्सा खुश्चेवी धारणाओं के खिलाफ खड़ा था, वह चीन के पक्ष में था. पर चारु मजुमदार उनमें भी शामिल न थे. उनका कहना था, यह तो ठीक है, लेकिन भारत की मुक्ति व भारतीय समाज के परिवर्तन के बारे में तो ये लोग भी साफ कुछ नहीं कह रहे हैं. खुद उनके सामने भी धारणाएं स्पष्ट नहीं थी. फिर भी सही रास्ते की उनकी खोज जारी थी.

अचानक उन्होंने नाटकों का निर्देशन करने का मन बना लिया. अपने घर की टूटी छत के नीचे, जमीन पर बैठे, कथा ओ कलम द्वारा पद्मा नदीर माझी नाटक का रिहर्सल देखते-देखते अचानक उत्तेजित होकर प्रश्न करते हुसैन मियां और मैना द्वीप का तात्पर्य समझते हो ? और फिर हुसैन मियां और मानिक बंद्योपाध्याय के सपनों के समाजवाद मैना द्वीप पर लगातार बोलते चले जाते.

1962 के अक्टूबर में भारत-चीन युद्ध छिड़ गया. नेहरू के घनिष्ठ रिश्तेदार और भारत-चीन सीमा युद्ध में नियुक्त सेना दल के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल कौल ने बाद में अपनी किताब ‘अनटोल्ड स्टोरी’ में लिखा था – चीन के इलाके में हमला करने के लिए जिस स्तर की सैनिक तैयारी की जरूरत थी, वह हमारे पास नहीं थी. इसके बावजूद जब नेहरू का हुक्म आया, तो इसने भारतीय सेना को अस्वाभाविक परिस्थितियों में धकेल दिया. सीमा संघर्ष किसने पहले शुरू किया था, यह बात तो इसी तथ्य से साफ हो जाती है.

खैर, चंद दिनों बाद ही चीनी सेना एकतरफा युद्धविराम घोषित कर पीछे लौट गई. इस पर प्रख्यात विद्वान ब्रेन्ड रसेल ने कहा था, एक विजयी सेना खुद ही पीछे हटकर युद्ध की समाप्ति की घोषणा करे, ऐसा युद्ध के समूचे इतिहास में आज तक कभी नहीं हुआ. भारत सरकार ने चीन से हार का सार गुस्सा उतारा कम्युनिस्टों पर. भारत रक्षा कानून के तहत बडे पैमाने पर गिरफ्तारियां शुरू हुईं. चारु मजुमदार को 21 नवंबर को गिरफ्तार करके पहले जलपाईगुड़ी जेल में, फिर दमदम सेंट्रल जेल भेजा गया. जेल में बंगाल के तमाम कम्युनिस्ट नेता मौजूद थे. बहसें चल रही थीं कि अब पार्टी के आंदर ही विचारधारात्मक संघर्ष चलाना संभव है या नहीं.

नेतृत्व का अच्छा-खासा हिस्सा मध्यपंथी स्थिति पर खड़ा था. सोवियत की कुछ बातों में तो दम है, और चीन की बातों में भी. चारू मजूमदार का मत किसी से भी मेल नहीं खाता था. वे सोचते थे ये नेता संशोधनवाद के खिलाफ सिर्फ नकारात्मक संघर्ष की बात करते हैं, संघर्ष की सकारात्मक बातें गायब हैं. उन्हें आशंका थी, नया नेतृत्व भी ही घूमफिर कर उसी जगह चला जाएगा. जनरल बॉडी मीटिंगों में स्तालिन के पक्ष में और संशोधनवाद के खिलाफ एक प्रमुख वक्ता थे सरोजदत्त. चारु मजुमदार सिर्फ़ चुपचाप सुनते रहते, प्रमुख मध्यपंथियों में एक थे ज्योतिबसु.

चारु मजुमदार के दिमाग में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का वक्तव्य समा गया था. इसलिए उनका दृढ़ विश्वास था कि भारतीय समाज में परिवर्तन लानेवाले क्रांतिकारी कार्यक्रम के बिना पार्टी को विभाजित करने या एक बनाए रखकर विचारधारात्मक संघर्ष चलाने का कोई मतलब नहीं है.

अक्सर वे कटु मंतव्य करते और एक दिन अचानक उन्होंने कह दिया, आप लोगों के इस मामले में मुझे कुछ नहीं कहना है, क्योंकि मैं तो खुद को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की पश्चिम बंगाल कमेटी का मेंम्बर मानता हूं.

इसी बीच उनके पिता वीरेश्वर गंभीर रूप से बीमार पड़े. पत्नी लीला द्वारा पेरोल के आवेदन के बावजूद, पिता के देहांत के बाद ही चारु मजुमदार को पुलिस के कड़े पहरे में हवाई जहाज से सिलीगुड़ी भेजा गया.

यूरोप में बुर्जुआ वर्ग ने कैसे समंतवाद को खत्म किया, इस पर हरेकृष्ण कोनार क्लास ले रहे थे. चारु मजुमदार ने सवाल उठाया, किसानों को जमीन तथा संघर्ष में हासिल अन्य अधिकारों की रक्षा के लिए हथियारबंद करने के सवाल पर आप लोग क्‍या सोचते हैं? इसका जवाब नहीं मिला.

सिलीगुड़ी में विधानसभा चुनाव में पार्टी ने चारु मजुमदार को उम्मीदवार बनाया. चुनाव में उम्मीदवार होने के नाते उन्हें जेल से रिहाई मिली. अंधराष्ट्रवाद के दौर में और करीब एक साल तक पार्टी की संपूर्ण अनुपस्थिति में तथा पुलिसिया आतंक के माहौल में पराजय तो निश्चित थी. चीनपंथी नेता के पक्ष में प्रचार करने व वोट देने की हिम्मत बहुतेरे लोगों ने नहीं की. फिर भी उन्हें करीब 3500 वोट मिले. चारु मजुमदार खुद चुनावी प्रचार के पहले शहर, गांव, चाय बागानों में पार्टी के अंदर संशोधनवाद के खिलाफ माहौल बनाने में व्यस्त थे, और इसी काम का नतीजा था कि जब पार्टी में विभाजन हुआ, तो मजदूर-किसान पार्टी सदस्यों के बीच से एक भी सदस्य सीपीआई में शामिल नहीं हुआ.

सीपीएम का गठन और नई बहसें

1964 में नई पार्टी के निर्माण की कोशिशें तेज हो गई. सातवीं पार्टी कांग्रेस के मसविदा कार्यक्रम पर बातचीत के लिए जिला कमेटी की बैठक बुलाई गई, नए जिला सम्मेलन की तैयारी के लिए. इसी मीटिंग के बाद दूसरे दिन सबेरे उनके सीने में दर्द शुरू हुआ. डाक्टर ने बताया कि उन्हें दिल की गंभीर बीमारी है और तबसे जीवन के अंत तक उनका अधिकतर समय बिस्तरों पर लेटे-लेटे ही गुजरा.

नई पार्टी के मसविदा कार्यक्रम व कार्यनीति के बारे में चारु मजुमदार के अपने काफी रिजर्वेशन थे. फिर भी, उन्होंने उम्मीद जताई कि पार्टी के अंदर ही विचारधारात्मक संघर्ष चला पाने से वह क्रांति का औजार बन सकती है. नई पार्टी में भी दो किस्म के वक्तव्य सामने आए. एक मसविदा तैयार किया था वासवपुनैया, सुंदरैया, प्रमोद दास गुप्त और हरेकृष्ण कोनार ने, जिन्होंने चीनी पार्टी के वक्तव्य का समर्थन करते हुए खुश्चेवी संशोधनवाद पर चोट की. दूसरा तैयार किया नंम्बूदरीपाद, ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत ने, जिन्होंने सोवियत संघ व चीन, दोनों की स्थितियों में कुछ सही, कुछ गलत बताया.

बीमारी की वजह से चारु जिला सम्मेलन में नहीं जा सके. लेकिन उनकी सलाह पर ही जिला सम्मेलन ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का अभिनंदन और माओ के दीर्घ जीवन की कामना करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया. दार्जिलिंग जिले के इसी सम्मेलन के प्रस्ताव का जिक्र गृहमंत्री गुलजारीलाल नंदा ने 1965 में लोकसभा में प्रस्तुत भारत-चीन सीमा विवाद पर श्वेतपत्र में किया था.

बीमारी की हालत में चारु अध्ययन करते और नई पार्टी के बारे में अपनी आशंकाएं जताते. नई पार्टी से उन्हें खास उम्मीदें तो नहीं थीं फिर भी वे सोचते कि इससे कतारों की पहलकदमी खुलेगी. उनके इलाज के बारे में जिला व प्रादेशिक नेतृत्व पूरी तरह उदासीन था. कथा वो कलम नामक सांस्कृतिक संगठन द्वारा प्रदर्शन आयोजित कर कुछ पैसा इकट्ठा किया गया और बाकी स्थानीय कामरेडों ने किया.

1964 के प्रादेशिक पार्टी सम्मेलन में बीमारी की वजह से चारु भाग नहीं ले सके. लेकिन दार्जिलिंग जिले की ओर से जो प्रतिनिधि गए उन्होंने कार्यक्रम के प्रारूप पर चारु मजुमदार का ही वक्तव्य पेश किया. उन्होंने सम्मेलन में माओ की तस्वीर रखने की मांग की जिसका पूरे हॉल के साथियों ने तालियों की गड़गड़ाहट के साथ स्वागत किया,

1964 में एक बार फिर पश्चिम बंगाल के राज्य नेतृत्व सहित जिला नेतृत्व के बहुतेरे लोग गिरफ्तार हुए, बीमारी की वजह से गतिविधियों में सक्रिय न रहने के कारण चारु मजुमदार उस समय गिरफ्तार नहीं हुए. हालांकि, 1965 के अंत में उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया. गिरफ्तारी के एकमात्र अपवाद रहे ज्योति बसु.

7 नवंबर 1964 को कलकत्ते के त्यागराज हॉल में सातवीं पार्टी कांग्रेस के नाम से नई पार्टी सीपीआई (एम) की पहली कांग्रेस हुईं. उस कांग्रेस में जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु पर शोक प्रस्ताव पारित किया गया, जिसे पेश करते समय पी. राममूर्ति ने कहा, हममें से बहुतों ने जवाहरलाल नेहरू से समाजवाद सीखा है. पी. सुंदरैया महासचिव चुने गए. नम्बूदिरीपाद ने दक्षिणपंथी स्थिति से कार्यक्रम का विरोध करते हुए अपना वक्तव्य रखा. केंद्रीय कमेटी के लिए उनका नाम प्रस्तावित होने पर केरल के प्रतिनिधियों ने तीखा विरोध किया. बाद में दूसरे राज्यों के प्रतिनिधियों के वोट पाकर ही वे चुने जा सके.

1965 के जनवरी महीने में पी. सुन्दरैया गिरफ्तार हुए. सरकारी अनुमति से इलाज के लिए वे सोवियत संघ गए, वहां से लौट कर उन्होंने लिखा कि सोवियत पार्टी की बातों में भी दम है, और सोवियत नेतृत्व को हमने जितना खराब समझा था, वह उतना खराब नहीं है.

विचारधारात्मक-राजनीतिक नेतृत्व की भूमिका में चारु मजुमदार

चारु मजुमदार ने सोचा कि नई पार्टी के निर्माण से कतारों की जो पहलकदमी खुली है, उसके इस्तेमाल के लिए उनके सामने क्रांतिकारी पार्टी संगठन के निर्माण का कार्यभार रखना चाहिए. इसी विचार से 1965 की जनवरी के अंत में उन्होंने मशहूर आठ दस्तावेजों में से पहला दस्तावेज लिखा. इसमें उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रीय परिस्थिति का विश्लेषण किया और भूमिगत क्रांतिकारी संगठन के निर्माण का खाका पेश किया. राजनीतिक शिक्षा के बतौर उन्होंने ‘कृषि क्रांति सफल करो’ का नारा दिया.

1965 के सितंबर तक उन्होंने पांच दस्तावेज लिख डाले थे. उसके बाद ही वे गिरफ्तार कर लिए गए.

इन दस्तावेजों में उन्होंने किसान सभा व ट्रेडयूनियन के जरिए आंशिक मांगों पर आंदोलन चलाते रहने की संकीर्ण सीमाओं से बाहर निकलकर राजनीतिक सत्ता का सवाल उठाया. उन्होंने यह भी कहा कि राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने का अर्थ सरकार पर कब्जा करना नहीं, बल्कि हथियारबंद संघर्षों के जरिए इलाकावार सत्ता पर कब्जा करना है. उन्होंने चीन-पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय शासक वर्गों द्वारा अंधराष्ट्रवाद उभारने की कड़ी निंदा की और सोवियत संघ के सहयोग से बने सार्वजनिक क्षेत्र का भंडाफोड़ करते हुए उसे एकाधिकारी पूंजीपतियों के ही स्वार्थ में काम आनेवाला क्षेत्र बताया. उन्होंने ग्रामीण इलाकों में वर्ग विश्लेषण पर जोर दिया. सीपीआई (एम) नेतृत्व की आलोचना करते हुए उन्होंने लिखा कि नेतृत्व अभी से सशस्त्र संघर्ष का भूत देखने लगा है. नेतृत्व के पास कोई योजना नहीं रहने की वजह से निहत्थी जनता को गोलियों के सामने ठेला जा रहा है.

उन्होंने पहला दस्तावेज लिखने के बाद ही उसे राज्य कमेटी को देने के लिए जिला कमेटी के दफ्तर में पत्र के साथ भेज दिया था. हालांकि, राज्य नेतृत्व ने बाद में इन्कार किया कि उसे कोई दस्तावेज मिला था.

चारु मजुमदार के पहले दस्तावेज ने ही दार्जिलिंग जिले के साथियों के बीच बहसें तेज कर दीं थीं. जेल में भी बहसें तीखी हुईं. दस्तावेज लिखने के साथ-साथ चारु मजुमदार युवा कैडरों को इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए भी प्रेरित करने लगे और इसी मुकाम पर नक्सलबाड़ी के ऐतिहासिक विद्रोह की आधार शिला रखी गई.

1965-66 का दौर विश्वव्यापी पैमाने पर युवा विद्रोह का दौर था. वियतनाम युद्ध के खिलाफ अमरीकी नौजवान सेना में भर्ती होने का कार्ड सड़कों पर जलाने लगे, फ्रांस में विश्वविद्यालयों पर कब्जा कर विद्रोही छात्रगण पुलिस के खिलाफ लड़ाइयों में उतर पड़े. बंगाल में छात्रों ने खाद्य आंदोलन में सक्रिय हिस्सेदारी की और तमिलनाडु में भाषा आंदोलन पर उतरे. बीमारी बढ़ जाने की वजह से चारु मजुमदार को कलकत्ता के अस्पताल में भर्ती करना पड़ा और वहीं से वे 7 मई 1966 को रिहा हुए.

जून 1966 में हुई नक्सलबाड़ी क्षेत्र की लोकल कमेटी की बैठक में, 9 सदस्यों में से एक को छोड़ कर सभी ने इलाकावार सत्ता पर कब्जा करने के लिए हथियारबंद संघर्ष चलाने की लाइन को मान लिया.

इसी समय छठवां दस्तावेज लिखकर चारु मजुमदार ने साफ तौर पर सीपीआई (एम) के ढांचे को तोड़कर नेतृत्व के खिलाफ विद्रोह का आह्वान किया. दरअसल, इसी बीच सीपीआई (एम) की केंद्रीय कमेटी की एक बैठक हुई थी, जिसमें एक प्रस्ताव पारित कर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा भारत सरकार की आलोचना को पूरी तरह गलत करार दिया गया था, और यह भी कहा गया था कि सोवियत नेतृत्व की आलोचना करना अभी उचित नहीं है, क्योंकि इससे लोगों के मन में समाजवाद के प्रति भरोसा घट जाएगा.

चारु मजुमदार ने छठवें दस्तावेज में लिखा कि सोवियत पार्टी के संशोधनवाद की मुखालफत किए बिना क्रांतिकारी संघर्ष आगे नहीं बढ़ सकता. उन्होंने यह भी कहा कि माओ ने आज दुनिया में लेनिन का स्थान ग्रहण कर लिया है, इसलिए उनका विरोध करके संशोधनवाद के खिलाफ नहीं लड़ा जा सकता.

उन्होंने यह भी लिखा कि सीपीएम का नेतृत्व जनांदोलनों को महज सरकार बनाने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है, इसीलिए जनांदोलनों के अंदर बढ़ते हुए सशस्त्र प्रतिरोध के पहलुओं के सवाल पर चुप्पी साधे हुए है.

इन्हीं वजहों से उन्होंने पार्टी के अंदर पार्टी बनाने का और सशस्त्र प्रतिरोध के लिए लड़ाकू दस्ते बनाने का आह्वान किया.

नए पार्टी नेतृत्व के संशोधनवादी रास्ते पर तेजी से फिसलने के खिलाफ इसी बीच कलकत्ते में सुशीतल रायचौधरी, सरोज दत्त, परिमल दासगुप्त, असित सेन आदि ने अंतःपार्टी संशोधनवाद विरोधी कमेटी बना रखी थी. चारु मजुमदार ने उनसे संपर्क किया और पार्टी के अंदर पार्टी का नारा बहुतेरे जिलों में फैल गया. सीपीएम के अंदर इस तरह के संशोधनवाद विरोधी ग्रुप बंगाल के बहुतेरे अंचलों में, तथा आंध्र, उत्तर प्रदेश व बिहार में भी उभर रहे थे.

उधर दार्जिलिंग में सीपीएम की जो जिला कमेटी बनी, उसके 26 सदस्यों में से 19 ने चारु मजुमदार के वक्तव्य का समर्थन किया.

नक्सलबाड़ी का इलाका गरम होने लगा. मजदूरी के सवाल पर चाय बागान के मजदूरों की हड़ताल हुई. दार्जिलिंग में 25,000 से अधिक मजदूरों ने दमन करने आई पुलिस पर हमला करके राइफल छीनने की कोशिश की, जिसमें पुलिस की गोली से एक मजदूर शहीद हुआ. नक्सलबाड़ी के आदिवासी किसान इस हड़ताल के पक्ष में खड़े हुए. तीर, धनुष, लाठियों से लैस किसानों ने पुलिस से डट कर लोहा लिया.

अक्तूबर 1966 में राज्य व केंद्रीय कमेटी के नेतागण चारु मजुमदार को समझाने उनके घर आए, चारु मजुमदार ने उनकी बात मानने से इन्कार कर दिया.

इसी बीच विधानसभा चुनाव आ गए, सीपीएम का नेतृत्व चुनाव के जरिए सरकार बनाने की कोशिश में लग गया. जंगल संथाल और सौरेन बोस को क्रमशः फांसीदेवा और सिलीगुड़ी से पार्टी का टिकट दिया गया. चारु मजुमदार ने कहा, ठीक है, चुनाव का इस्तेमाल हमें क्रांतिकारी राजनीति को फैलाने के लिए करना चाहिए. और ऐसा ही हुआ भी.

चुनाव के ठीक पहले चारु मजुमदार ने सातवां दस्तावेज लिखा. इस दस्तावेज में उन्होंने क्रांतिकारी पार्टी निर्माण का सवाल उठाया.

इसी बीच नक्सलबाड़ी इलाके में किसानों के बड़े-बड़े जुलूस निकलने लगे. नारे लगने लगे कि सारी जमीन हमारी है, गांव में राज हमारा होगा; और जोतदारों के साथ मुठभेड़ की घटनाएं घटने लगीं.

1967 के अप्रैल महीने में चारु मजुमदार ने अपना आठवां दस्तावेज लिखा जिसका शीर्षक था, संशोधनवाद के खिलाफ संघर्ष करके ही किसान संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा,

इसी बीच बंगाल में गैरकांग्रेसी संयुक्त मोर्चा सरकार बन चुकी थी, जिसमें सीपीआई (एम) शामिल थी. इस सरकार की रक्षा के नाम पर सीपीएम नेतृत्व औद्योगिक इलाकों में मालिकों के साथ समझौते कर रहा था, और किसानों को सरकारी जमीन पर कब्जा करने से मना कर रहा था. चारु मजुमदार ने नेतृत्व की वर्ग सहयोग की लाइन का विरोध किया और कृषि क्रांति व मुक्त इलाकों के निर्माण का नारा दिया.

नक्सलबाड़ी विद्रोह

8 मई की सुबह से खेरीबाड़ी, नक्सलबाड़ी, फांसीदेवा और सिलीगुड़ी थानों के कुछेक इलाकों में किसान विद्रोह शुरू हुआ, जो इतिहास में नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह के रूप में मशहूर है. जमीन पर कब्जा करने, फसल दखल से शुरू करके जोतदारों के घरों पर हमला करने, बंदूकें जब्त करने इत्यादि की घटनाएं शुरू हो गई.

हरेकृष्ण कोनार, जो उस समय संयुक्त मोर्चा सरकार के भू-राजस्व मंत्री भी थे, दौड़े आए और नक्सलबाड़ी के नेताओं पर दबाव डालने लगे आंदोलन को रोकने के लिए, वारेंटेड लोगों का आत्मसमर्पण करवाने के लिए. लेकिन उनकी एक न चली. आंदोलन जारी रहा. 24 मई को भूमिगत नेताओं को गिरफ्तार करने आई पुलिस पर करीब तीन हजार किसानों ने तीर-धनुष से जवाबी हमला किया. इसमें सोनाम बांग्दी नामक एक दारोगा मारा गया.

25 मई को पुलिस ने एक जघन्य हत्याकांड रचा. महिलाओं के एक जुलूस पर पुलिस ने छिप कर गोलियां बरसाईं, जिसमें सात महिलाएं व दो बच्चे मारे गए. इस जनसंहार के प्रतिवाद में रेल व बिजली मजदूरों का एक विशाल जुलूस सिलीगुड़ी में निकला, शिक्षक भी सड़कों पर उतरे. चाय बागान के मजदूरों ने हड़ताल कर दी,

कलककत्ते में नक्सलबाड़ी कृषक संग्राम सहायक समिति बनी. इसी के साथ सीपीएम राज्य कमेटी ने चारु मजुमदार, सुशीतल रायचौधरी व सौरेन बोस को पार्टी से निकालने की घोषणा कर दी.

7 जून को चारु मजुमदार ने कामरेडों के नाम चिट्ठी में लड़ाई को नई ऊंचाइयों पर ले जाने का आह्वान किया, और बीमारी की हालत में भी गांव के रास्ते पर दो किलोमीटर पैदल चल कर किसान कार्यकर्ताओं की मीटिंग में भाषण दे आए,

कैबिनेट सब-कमेटी का दौरा हुआ नवसलबाड़ी में, सरकारी कम्युनिस्ट हो या अर्थशास्त्री, पत्रकार हो या लेखक, सबकी धारणा थी कि भूमि सुधार कार्यालय द्वारा कुछ जमीन वगैरह बांट दी जाए तो समस्या का हल निकल आएगा. लेकिन आंदोलनकारियों के लिए यह लड़ाई महज जमीन की लड़ाई नहीं रह गई थी, मजदूर-किसान राज बनाने की लड़ाई बन गई थी. चारु मजुमदार को लगातार दवाएं खानी पड़ती थीं, पैथीड्रीन का इंजेक्शन लेना पड़ता था, बीच-बीच में सीने में तेज दर्द होता था, मगर वे बेहद उत्साहित थे कि उनकी जिंदगी का इतने दिनों का सपना साकार हो रहा था.

चारु मजुमदार के घर में देशी-विदेशी पत्रकारों की भीड़ लगी रहती थी. नक्सलबाड़ी और चारु मजुमदार, कानू सान्याल, जंगल संथाल का नाम देश के तमाम अखबारों में छप रहा था.

एक दिन धर्मयुग के संवाददाता ने उनसे पूछा, आपके घर में रवीन्द्रनाथ की फोटो लगी हुई है, क्या आप रवीन्द्रनाथ को मानते हैं ? चारु ने जवाब दिया, सवाल मानने या न मानने का नहीं है. सवाल तो है एक महान शिल्पी के सकारात्मक पहलू की विवेचना का. मैं तो समझता हूं कि उनकी कई कविताएं बेजोड हैं. जैसे मृत्युंजय शीर्षक कविता. इतना कह कर उन्होंने वह पूरी कविता सस्वर सुना दी.

चारु मजुमदार की फोटो के साथ हिंदी में इस कविता का एक अंश छापकर धर्मयुग में चारु मजुमदार का मंतव्य छपा – दुनिया में क्या किसी ने ऐसी कविता लिखी है ?

जुलाई के महीने से मोर्चा सरकार की ओर से दमन अभियान चल पड़ा. पुलिस की सहायता से जोतदारों की गुंडावाहिनी गांवों पर हमले करने लगी. उधर किसान भी छापामार ढंग से प्रतिरोध करने लगे.

5 जुलाई को पीपुल्स डेली (चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का मुखपत्र) के संपादकीय में नक्सलबाड़ी को ‘भारत में वसंत का वज़नाद’ की आख्या दी गई.

इधर पुलिस अभियान में नेतागण घिरते गए. कानू सन्याल ने चारु मजुमदार को चिट्ठी भेजी कि हमलोगों के पीछे हटने का इंतजाम नहीं करने से सभी लोग मारे जाएंगे. चिट्ठी पाकर चारु ने जीप का इंतजाम किया और खुद ही जाकर गुप्त रूप से उन लोगों को ले आए और इस्लामपुर में उनके आश्रय का इंतजाम करवाया.

सीपीएम नेता खुश हुए कि नक्सलबाड़ी का खात्मा हो गया. लेकिन इधर देश भर में सीपीएम के खिलाफ पार्टी में ही विद्रोह शुरू हो चुका था. देश भर के क्रांतिकारी कम्युनिस्टों के बीच आपसी संपर्क बनने लगे थे.

राष्ट्रीय स्तर पर क्रांतिकारी कम्युनिस्टों के बीच एकजुटता

11 नवंबर 1967 को शहीद मीनार पर एक आम सभा हुई, जिसमें मुख्य वक्ता के बतौर चारु मजुमदार ने भाषण दिया. अपने बहुत ही संक्षिप्त भाषण में उन्होंने कहा कि नक्सलबाड़ी के किसानों ने जमीन या फसल के लिए नहीं, राजनीतिक सत्ता के लिए लड़ाई लड़ी है. इस लड़ाई में उन्होंने घरेलू हथियारों के जरिए ही प्रतिक्रांतिकारी सशस्त्र राजसत्ता का मुकाबला किया है, और किसी के निर्देश के इंतजार में बैठे रहने के बजाय उन्होंने इस लड़ाई को अपने पैरों पर खड़े होकर लड़ा है. यह लड़ाई किसान केवल संशोधनवाद के खिलाफ लड़कर ही लड़ सके हैं. भाषण की शुरूआत में ही उन्होंने कहा कि नक्सलबाड़ी का नेता मैं नहीं हूं, नक्सलबाड़ी के नेता हैं कानू सान्याल, जंगल संथाल, कदम मल्लिक, खोखन मजुमदार. उन्होंने भारतीय क्रांति जिंदाबाद, नक्सलबाड़ी लाल सलाम और चेयरमैन माओ की विचारधारा जिंदाबाद का नारा लगाते हुए अपना भाषण समाप्त किया. खुले मंच से यही उनका आखिरी भाषण था.

3 नवंबर को सीपीआई (एम) के अंदर ‘अखिल भारतीय कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की समन्वय समिति’ बनी. 4 मई 1968 को इसके नाम से सीपीआई (एम) के अंदर वाक्यांश को हटा दिया गया.

आंध्र के श्रीकाकुलम जिले में आंदोलन तीत्र होने लगा. वहां के साथियों ने मांग की कि चारु मजुमदार को एक बार आना होगा. डाक्टरों की मनाही थी, फिर भी चारु मजुमदार न माने और चल दिए, उस सभा में श्रीकाकुलम के अलावा गुंटूर, नालगोंडा, वारंगल और आदिलाबाद जिले के, रायलसीमा अंचल के व कृष्णा जिले के साथी उपस्थित थे. नौजवानों ने शपथ ली कि अपनी सारी संपत्ति पार्टी को देकर, घर-बार छोड़कर वे क्रांति के लिए आजीवन काम करेंगे. चारु मजुमदार का गला रुंध आया. बाद में उन्होंने लिखा, तेलंगना का संघर्ष व्यर्थ नहीं गया. चारों ओर जंगल और इन तेजस्वी नौजवानों को देखकर ऐसा लगा कि क्‍या श्रीकाकुलम भारत का येनान बनने जा रहा है ?

आंध्र के अलावा नक्सलबाड़ी का आंदोलन पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर में, बिहार के मुशहरी में और उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में फैल गया. नक्सलबाड़ी इलाके में परिस्थिति को संभालने के लिए 1968 के उत्तरार्ध में मिरिक के पहाड़ी इलाके में एक पृष्ठभागीय क्षेत्र बनाने की कोशिशें हुईं, जो कामयाब नहीं हुईं.

नक्सलबाड़ी की स्थिति जो भी हुई हो, नक्सलबाड़ी के वज्रनाद ने देश भर में हलचल जरूर मचा दी थी. लंबे अरसे से घिसे-पिटे ढर्रें पर चल रहे कम्युनिस्ट आंदोलन के सामने एक स्पष्ट क्रांतिकारी दिशा का आगमन हुआ था और देश भर में संघर्ष के नए केंद्र उभर रहे थे. नई युवा पीढ़ी आंदोलन की ओर मुखातिब हो रही थी.

परिस्थिति की मांग थी एक अखिल भारतीय क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण. सन 1968 के मध्य से ही चारु मजुमदार ऐसी एक पार्टी की आवश्यकता पर जोर देने लगे थे.

डाक्टरों का निर्देश आराम करने का था, लेकिन चारु मजुमदार यहां-वहां दौड़ते रहे. देश भर में मांग थी – चारु मजुमदार को देखना है. पार्टी का निर्माण करने के बारे में तमाम दुविधाओं व बहसों से गुजरते हुए अंततोगत्वा 22 अप्रैल 1969 को सीपीआई (एमएल) का गठन हुआ. कामरेड चारु मजुमदार के नेतृत्व में 1 मई 1969 को कलकत्ते के शहीद मीनार मैदान में कानू सान्याल ने इसकी घोषणा की.

27 अप्रैल 1969 के अधिवेशन में सीपीआई (एमएल) की केंद्रीय सांगठनिक कमेटी बनी 11 लोगों को लेकर. ये 11 लोग थे – चारु मजुमदार, सुशीतल रायचौधरी, शिव कुमार मिश्र, सरोज दत्त, सत्यनारायण सिंह, आर.पी. सर्राफ, कानू सान्याल, पंचाद्रि कृष्णमूर्ति, चौधरी तेजेश्वर राव, एल. अप्पू और सौरेन बोस.

पार्टी निर्माण की घोषणा के साथ ही बंगाल के छात्र-युवाओं के क्रांतिकारी आंदोलन में जबर्दस्त उभार आया. पुराने ढर्रे के छात्र संगठन में इसे बांधने की कोशिशें हुईं, लेकिन चारु मजुमदार ने सीधे छात्रों से पढ़ाई-लिखाई छोड़कर गरीब-भूमिहीन किसानों से एकरूप होने का आह्वान किया. इस आह्वान को जबर्दस्त समर्थन मिला.

1969 के अंत तक केंद्रीय व राज्य सरकारों ने बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, आंध्र और पंजाब के कई इलाकों को अशांत क्षेत्र घोषित कर दिया और वहां सशस्त्र पुलिस कैंप बैठा दिए,

इंदिरा गांधी ने लोकसभा में घोषणा की कि जल्द ही नक्सलपंथियों को पूरी तरह से खत्म कर देने का इंतजाम कर लिया गया है.

और इसी के साथ मुक्त होगी प्रिय मातृभूमि के नारों के साथ वह क्रांतिकारी आंदोलन भी चल रहा था. उसे खत्म करने के लिए शासक वगों ने जिस किस्म के निष्ठुर दमन का सहारा लिया वैसा पहले कभी भी, यहां तक कि अंग्रेजी राज में भी नहीं लागू हुआ था. एनकाउंटर (मुठभेड़) के नाम पर पकड़ने के साथ ही क्रांतिकारियों की हत्या करना शुरू हुआ और तमाम काले कानूनों के जरिए उन्हें लंबी मीयाद के लिए जेल में बंद रखा गया.

इधर समन्वय समिति के दौर से ही नए संगठन में बहसें शुरू हो चुकी थीं. चेकोस्लोवाकिया पर सोवियत हमले का जहां परिमल दासगुप्त ने समर्थन किया था, वहीं चारु मजुमदार ने इसका विरोध किया. परिमल दासगुप्त ट्रेडयूनियन नेता थे और उनका जोर जनसंगठन बनाने पर ही था. पर चारु मजुमदार ने जोर देकर कहा कि वर्तमान समय भूमिगत पार्टी संगठन बनाने का है न कि खुले जनसंगठन बनाने का. किसान आंदोलन में चेग्वेवारावाद चल रहा है – परिमल बाबू के इस अभियोग का जवाब देते हुए चारु मजुमदार ने कहा कि यह सच है कि छापामार युद्ध में सारे किसान हिस्सा नहीं ले सकते, लेकिन चूंकि छापामार दस्ता किसानों को ही लेकर बना है, शहरी मध्यमवर्गीयों को लेकर नहीं, और क्योंकि वे घरेलू हथियारों से ही लड़ रहे हैं, अत्याधुनिक अस्त्रों से नहीं; इसलिए वे व्यापक किसान जनता से अलगाव में कत्तई नहीं हैं, बल्कि उनके कार्यकलापों से प्रेरित किसान उन्हें जनसमर्थन भी देंगे. यहीं पर चेग्वेवारावाद से हमारे छापामार किसान युद्ध का फर्क है.

1968 के नवंबर में जब कुन्नीकल नारायण, उनकी पली मंदाकिनी व पुत्री अजिता इत्यादि ने केरल के वायनाड जिले के पुलापल्ली थाने पर आधुनिक हथियारों से हमला किया तो चारु मजुमदार का मंतव्य था, राजनीतिक प्रचार के बिना इस तरह की व्यक्तिगत पहलकदमी पर हमला करना दुस्साहसवाद के अलावा कुछ नहीं है. हालांकि बाद में, और खासकर पेकिंग रेडियो द्वारा इस घटना की तारीफ करने पर चारु मजुमदार ने इसे केरल के पुन्लप्रा-वायलार को गौरवमय परंपरा की धारावाहिकता बताया था.

1969 के मध्यावधि चुनाव में पश्चिम बंगाल में संयुक्त मोर्चे की दुबारा जीत से प्रमोद सेनगुप्त ने सवाल उठाया कि चुनाव बहिष्कार का नारा जनता ने ग्रहण नहीं किया.

बीच में अफवाहें उड़ीं चारु मजुमदार और कानू सान्याल के बीच मतभेद की. पर कानू सन्याल द्वारा लिखित तराई के किसान आंदोलन की रिपोर्ट निकलने के साथ-साथ यह मसला हल हो गया, क्योंकि इस रिपोर्ट में कानू सान्याल ने चारु मजुमदार की शिक्षा के महत्व का विशेष रूप से उल्लेख किया था.

1968 के अप्रैल में सीपीएम का वर्धमान प्लेनम हुआ. इस प्लेनम में पेश किए गए विचारधारात्मक प्रस्ताव में कहा गया था कि अंतरराष्ट्रीय बहस में सोवियत नेताओं का बहुत-सा वक्तव्य अगर संशोधनवादी है तो चीनी पार्टी का दृष्टिकोण भी संकीर्ण है, और खासकर सीपीएम के बारे में तो उनका वक्तव्य पूरी तरह से गलत है. और फिर चूंकि इस प्रस्ताव में कृषि क्रांति पर कोई जोर नहीं दिया गया था और न ही लोकयुद्ध की बात कही गई थी, अत: इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए आंध्र के प्रतिनिधियों ने प्लेनम का बहिष्कार किया. बाद में नागिरेड्डी, डी.वी. राव, चन्द्र पुल्ला रेड्डी आदि ने राज्य समन्वय समिति बनाई. अखिल भारतीय समन्वय समिति के साथ पहली नैठक में ही दो बिंदुओं पर मतभेद उभर आए. नागि रेड्डी का कहना था कि आर्थिक मांगों पर जनांदोलन खड़ा करना होगा और जनता की जरूरतों के मुताबिक उसे सशस्त्र रूप देना होगा. दुसरे, उनका कहना था कि कार्यनीति के बतौर चुनाव का इस्तेमाल करना होगा. मतविरोध के बावजूद एक साथ काम करने की बात तय हुई थी और अनुभव के आदान-प्रदान को जारी रखने की भी बात तय हुई थी, लेकिन इसी बीच श्रीकाकुलम में क्रांतिकारी उभार पैदा होने से तथा आंध्र में नए युवा क्रांतिकारियों के पार्टी के साथ जुड़ने की वजह से यह प्रक्रिया बंद हो गई.

युवाओं का चौतरफा विद्रोह

पार्टी निर्माण के बाद से ही शुरू हुआ चारु मजुमदार का भूमिगत जीवन. घूम-घूमकर विभिन्‍न जगहों पर रहने से शरीर पर काफी जोर पड़ रहा था. पैथिड्रीन इंजेक्शन की मात्रा बढ़ती ही जा रही थी. लेकिन इस सबकी उनको परवाह नहीं थी. सत्तर के दशक को मुक्ति का दशक बनाने का स्वप्न लिए वे आगे बढ़ते रहे. इस नारे का जबर्दस्त असर हुआ बंगाल की तरुण पीढ़ी पर. शिक्षण संस्थानों पर, तथाकथित महापुरुषों की मूर्तियों पर हमले शुरू हुए, चीन के चेयरमैन हमारे चेयरमैन, चीन का रास्ता हमारा रास्ता नारे से कलकत्ता और बंगाल के तमाम छोटे-बड़े शहरों की दीवारें भर गईं. अन्य महत्वपूर्ण नारे थे – राजसत्ता का जन्म बंदूक की नली से होता है और देहाती इलाकों में जमींदारों-जोतदारों का सफाया जारी है, और जारी रहेगा, इत्यादि.

छात्र-नौजवानों के इस सांस्कृतिक अभियान के बारे में चारु मजुमदार ने कहा कि कृषि क्रांति जब इस व्यवस्था की नींव पर चोट कर रही है, तो जाहिर है कि उसकी इमारत पर, उसके ऊपरी ढांचे पर भी चोट पड़ेगी. इसीलिए छात्र-युवाओं का यह आंदोलन चूंकि उस शिक्षा-व्यवस्था पर चोट करता है जे मजदूरों-किसानों, मेहनतकशों से नफरत करना सिखाती है या ऐसे महापुरुषों पर चोट करती है, जिन्होंने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का विरोध किया था, या जो हमेशा ही किसान संघर्षों को शांति का उपदेश सुना कर ठंडा पानी ढालते रहे और विदेशी शासकों की चादुकारिता करते रहे, इसलिए यह आंदोलन दरअसल एक नया सांस्कृतिक आंदोलन है, जो कृषि क्रांति का ही अंग है.

इस तरुण समुदाय में हर तरह के नौजवान शामिल थे – इंजीनियरिंग, मेडिकल व सर्वोत्तम विश्वविद्यालयों व कालेजों के मेधावी छात्र, समाज के संभ्रांत उच्च वर्ग की संतानों से लेकर सीपीएम नेताओं के पुत्रों से लेकर, लुम्पेन सर्वहारा के युवा समुदाय तक. जात-पांत, धर्मीय कुसंस्कार और ऐसे सभी कुछ के खिलाफ विद्रोह की भावना से भरपूर. रेड बुक हाथ में लिए, कभी-कभी बिना किसी रीति-रिवाज के शादियां करते या पति-पत्नी के रूप में रहते, मन नहीं मिला तो एक-दूसरे को छोड़ देते, किसानों के यहां खेतों में जाकर कठोर मेहनत भी करते और उनके जीवन के साथ एकरूप हो जाते. शहर का कोई शिक्षित नौजवान शादी करता किसी राजवंशी या आदिवासी युवती के साथ,

पहली पार्टी कांग्रेस

चौवन साल की उप्र में ही चारु मजुमदार चहुत बूढ़े हो चले थे. फिर भी उत्साह की कमी नहीं. 1972 में ही रिपब्लिक घोषणा करूंगा, 75 तक भारत मुक्त हो जाएगा, वर्ग दुश्मन सफाया अभियान के तहत देश के तमाम अंचलों में चलने लगा जोतदारों-जमींदारों का सफाया, जहां-तहां पुलिस के खिलाफ छापामार हमला. जनप्रतिरोध की घटनाएं घटती रहीं. उधर पुलिस दमन की मात्रा भी तीब्र हो गई.

अप्रैल 1970 में पार्टी कांग्रेस की तैयारी के लिए तीन दिन तक केंद्रीय सांगठनिक कमेटी की बैठक चली. इस मीटिंग में सुशीतल रायचौधरी का संगठनात्मक प्रस्ताव और चारु मजुमदार का बहुत ही संक्षिप्त कार्यक्रम बनाने का प्रस्ताव खारिज हो गया. सत्यनारायण सिंह, शिव कुमार मिश्र व सौरेन बोस पर जिम्मेवारी पड़ी पार्टी कार्यक्रम का मसविदा तैयार करने की, और सुशीतल रायचौधरी, आर.पी. सर्रफ व सरोज दत्त को राजनीतिक प्रस्ताव तैयार करने की जिम्मेवारी सौंपी गई.

पार्टी की पहली कांग्रेस 15 व 16 मई 1970 को कलकत्ते के गार्डन रीच इलाके में आयोजित हुई. पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश असम, त्रिपुरा, आंध्र, तमिलनाडु, केरल, पंजाब और जम्मू-कश्मीर से आए प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया.

उत्तर प्रदेश राज्य सम्मेलन में पार्टी कांग्रेस के राजनीतिक प्रस्ताव के मसविदे पर जो बहस चली थी, उसे कांग्रेस में आरएन उपाध्याय ने पेश किया. इस वक्तव्य में छापामार संघर्ष ही संघर्ष का एकमात्र रूप, अबाध सफाया नीति और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति विश्वस्तता को क्रांतिकारियों के साथ एकरूपता की एकमात्र शर्त बनाने का विरोध किया गया था. संचालन समिति की ओर से सत्यनारायण सिंह ने मसविदा दस्तावेज के पक्ष में जवाब दिया.

सौरेन बोस ने जब चारु मजुमदार के व्यक्तिगत प्राधिकार को स्थापित करने का प्रस्ताव रखा तो असीम चटर्जी का मंतव्य था – केंद्रीय कमेटी व चारु मजुमदार के बीच विरोध होने पर मैं तो चारु मजुमदार का ही समर्थन करूंगा. कानू सान्याल ने कहा कि तराई किसान आंदोलन की रिपोर्ट में चारु मजुमदार की भूमिका का और भी ज्यादा उल्लेख करना जरूरी था. सत्यनारायण सिंह ने इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा कि इससे व्यक्ति को केंद्रीय कमेटी के ऊपर स्थान दे दिया जाएगा. सुशीतल रायचौधरी का भी कहना था कि चारु मजुमदार के नेतृत्व की भूमिका पर अवश्य ही यथोचित महत्व देना होगा मगर इसके लिए व्यक्ति के प्राधिकार को स्थापित करना सही नहीं है. शिव कुमार मिश्र व आरपी सर्राफ भी इस तरह के प्रस्ताव के पक्ष में नहीं थे. बहस में हस्तक्षेप करते हुए कामरेड चारु मजुमदार ने कहा कि यह सब बातचीत ही उचित नहीं है. राजनीतिक संगठनात्मक प्रस्ताव में मेरी भूमिका का जिक्र रह सकता है – पर इससे ज्यादा इसे महत्व देना ठीक नहीं है.

कांग्रेस में समापन भाषण दिया चारु मजुमदार ने, जिसमें उन्होंने मध्यपंथ को अपने हमले का निशाना बनाया.

इसके बाद बीस कामरेडों की केंद्रीय कमेटी चुनी गई, जिसमें चारु मजुमदार, सुशीतल रायचौधरी, सरोज दत्त, कानू सान्याल, सौरेन बोस, सुनीति घोष व असीम चटर्जी (बंगाल); सत्यनारायण सिंह व गुरुबख्श सिंह (बिहार); शिव कुमार मिश्र व महेन्द्र सिंह (उत्तर प्रदेश); वेम्पटाप्पु सत्यनारायण, नागभूषण पटनायक व अप्पलासूरी (आंध्र प्रदेश); एल. अप्पू व ‘कोदण्डरामन (तमिलनाडु); आम्बाडि (केरल), आर.पी. सर्राफ (जम्मू कश्मीर) और जगजीत सिंह सोहल (पंजाब) थे. कामरेड चारु मजुमदार को महासचिव चुना गया.

केंद्रीय कमेटी की इस बैठक में आलोचना उठी कि चारु मजुमदार कई बार कमेटी के साथ सलाह-मशविरा किए बिना ही व्यक्तिगत मत को पार्टी के मत के बतौर बोल देते हैं. चारु मजुमदार ने इस पर कहा कि महासचिव को केंद्रीय कमेटी या पालिट ब्यूरो के साथ बातचीत करके ही मत देना चाहिए. लेकिन ऐसी परिस्थितियां भी आती हैं कि मीटिंग बुलाना संभव नहीं होता है. ऐसे में उचित है कि व्यक्तिगत मत को जितना जल्द हो सके पार्टी की बैठक बुलाकर स्वीकृत कराया जाए.

पार्टी इतिहास की धारावाहिकता बरकरार रखने के लिए इस कांग्रेस को आठवीं कांग्रेस कहा गया.

आंदोलन में धक्का और पार्टी का संकट

इधर तीव्र दमन की वजह से जुलाई महीने तक श्रीकाकुलम के सारे जिम्मेदार नेता या तो मारे गए या गिरफ्तार हो गए थे. 1970 की 20 अगस्त को कानू सान्याल दल-बल के साथ गिरफ्तार हो गए.

1970 के अगस्त में सुशीतल रायचौधरी ने मूर्ति तोड़ने, स्कूल जलाने इत्यादि के बारे में अपनी आलोचना पार्टी के सामने पेश की. भारतीय क्रांति की समस्या व संकट शीर्षक एक दस्तावेज में सुशीतल बाबू ने लिखा कि पार्टी अतिवामपंथ का शिकार हो गई है. 1975 में भारत मुक्त होगा के आह्वान को उन्होंने दीर्घकालीन युद्ध का विरोधी बताया. किसानों के पिछड़े हिस्से को आंदोलन में शामिल करने के लिए उन्होंने आर्थिक मांगों पर व्यापक आंदोलन के निर्माण का भी सवाल उठाया. पार्टी यूनिटों को छापामार यूनिटों में रूपांतरित करने की जगह षड्यंत्रमूलक तरीके से गुप्त रूप से छापामार यूनिटों के गठन का भी उन्होंने विरोध किया. शहरों में लंबे अरसे तक इंतजार करने के चीन के अनुभव को भी खारिज करके लाल आतंक कायम करने की कोशिशों को उन्होंने गलत बताया.

1970 के सितंबर में सत्यनारायण सिंह ने प्राधिकारवाद का विरोध किया और धनी किसानों से एकता की वकालत की. इधर चीन से लौटे सौरेन बोस ने बताया कि चीनी नेताओं ने भी पार्टी की कई कार्यनीतियों की आलोचना की है. इन तमाम कारणों से पार्टी में विभाजन की स्थिति पैदा हो गई.

इधर 1970 के नवंबर से कलककत्ते में स्थानीय दस्तों की स्वतंत्र पहलकदमी से पुलिस पर हमले शुरू हुए, 1971 में वीरभूम, मुर्शिदाबाद व संथाल परगना के कुछ इलाकों में व्यापक किसान विद्रोह शुरू हुआ. 1971 की जुलाई से करीब आठ हजार सीआरपी और बाद में मिलिटरी की मदद से इस आंदोलन का दमन किया गया.

चीनी पार्टी की आलोचना के बारे में चारु मजुमदार ने कहा कि कुछ-कुछ एकांगीपन तो हो रहा है. इसे क्रमशः दुरुस्त करना होगा. जनवरी 1971 की पश्चिम बंगाल राज्य कमेटी की बैठक में कुछ लोगों ने सुशीतल रायचौधरी को पार्टी से निकाल देने की मांग की. इस पर चारु मजुमदार ने कहा सुशीतल बाबू पालिट ब्यूरो के सदस्य हैं, उन्हें निकालने वाले तुम कौन होते हो ? सुशीतल बाबू ने राज्य सचिव पद से हटने की इच्छा जाहिर की और तय हुआ कि वे हुगली जिले में अपनी पसंद का इलाका चुन लें जहां वे अपनी लाइन का प्रयोग करें. जब एक साथी ने कहा कि ठीक है, मगर वहां वे अपनी बात नहीं रख सकेंगे, तो इस पर चारु मजुमदार ने बिगड़ कर कहा, ऐसा कैसे संभव है ? हम तो उन्हें उनकी ही लाइन-के मुताबिक काम करने के लिए एक इलाका देने की बात कर रहे हैं.

1971 तक बंगाल की जेलें नक्सलपंथी क्रांतिकारियों से भर गईं. बरानगर में भीषण नरसंहार हुआ, जिसमें कांग्रेस-सीपीएम और पुलिस ने मिलकर 50 से अधिक नौजवानों का दिन-दहाड़े खून कर दिया. सीपीएम और सीपीआई (एमएल) के बीच खूनी झड्पों में भी दोनों तरफ से सैकड़ों लोग मारे गए, जेलों में भी बीभत्स हत्याकांड हुए. हालांकि बहुतेरी जेलों को तोड़कर नक्सलपंथी बंदी भाग निकलने में भी कामयाब हुए.

चीनी पार्टी की ओर से आई आलोचना के बारे में चारु मजुमदार की धारणा की व्याख्या करते हुए सरोज दत्त ने कहा कि गलतियां अगर कुछ हुई हैं तो उन्हें आत्मालोचना के जरिए क्रमशः सुधारा जाएगा. लेकिन जो लोग सिर्फ पेक्रिंग रेडियो सुनकर फैसला करना चाहते हैं कि चारु मजुमदार का समर्थन करना उचित है या नहीं, वे बाहरी कारणों पर निर्भर कर रहे हैं, अंदरूनी कारणों पर नहीं, चीनी पार्टी बिरादराना पार्टी है, उसके मत से हमारा मत नहीं मिलने पर हम अपने वक्तव्य पर ही दृढ़ रहेंगे, क्योंकि वे भारतीय समाज की वास्तविकताओं से उभरे हैं.

13 मार्च 1971 को भूमिगत स्थितियों में ही कामरेड सुशीतल रायचौधरी का हृदय गति रुक जाने से निधन हो गया. उसी साल 4 अगस्त की रात को कामरेड सरोज दत्त को गिरफ्तार करके पुलिस ने कलकत्ता मैदान ले जाकर गोलियों से उड़ा दिया.

ये सारे हत्याकांड चारु मजुमदार को गंभीर रूप से व्यथित कर देते थे. एक-एक साथी की मृत्यु की खबर पाकर उनकी आंखों से आंसू बहंते रहते थे. वे कहते थे, हम तो मनुष्य हैं. इतने अच्छे-अच्छे साथियों के चले जाने से दुख तो होगा ही, लेकिन क्रांतिकारियों को समझना होगा कि क्रांति में यह सब अनिवार्य है. इन्हीं दधीचियों की हड्डी से ही विजय का अस्त्र निर्मित होगा.

पार्टी का गहराता अंदरूनी संकट

इसी बीच चारु मजुमदार के प्राधिकार को स्थापित करने के नाम पर कुछेक अतिवामपंथी लफ्फाज किस्म के लोग पार्टी संगठन पर हावी होने लगे. इसी प्रश्न पर कलकत्ते में दो साथियों की हत्या कर दी गई. इस पर कड़ी आलोचना करते हुए चारु मजुमदार ने कहा, इस तरह कोई प्राधिकार नहीं स्थापित होता है. विरोधी मत के प्रति और भी सहनशील होना होगा.

1971 के नवंबर में सत्यनारायण सिंह ने पार्टी में पहला विभाजन किया. समानांतर केंद्रीय कमेटी की बैठक बुलाकर चारु मजुमदार व जेल में बंद तमाम चारुपंथियों को बहिष्कृत कर दिया और सत्यनारायण सिंह खुद इस समानांतर केंद्रीय कमेटी के महासचिव बन गए. चारु मजुमदार की संकीर्णतावादी लाइन के खिलाफ संघर्ष के नाम पर फैसला किया गया कि सारे धनी किसानों को वर्ग दुश्मन नहीं समझना चाहिए. कृषि कार्यक्रम या मजदूर आंदोलन पर कोई प्रस्ताव वहां नहीं पास हुआ. खैर, चारु मजुमदार के जिंदा रहने तक इस केंद्रीय कमेटी का कोई खास महत्व नहीं दिखाई पड़ा.

1972 की शुरूआत से चारु मजुमदार पुराने वकतव्यों में कुछ-कुछ परिवर्तन लाते गए, जिनमें फसल दखल, जमीन के बंटवारे की भी बातें थीं, लेकिन उनका मूल सपना भूमिहीन किसान योद्धा के हाथों में रायफल व लाल सेना का निर्माण कर मुक्त इलाका बनाना यथावत था. चारु मजुमदार की तबीयत खराब होती गई. बिस्तर पर ही पड़े रहना पड़ता था, शेल्टरों की संख्या भी घटती जा रही थी. उनका आशावाद फिर भी जिंदा था. उन्होंने कहा, 1975 में भारत मुक्त होगा, यह कोई ज्योतिषी की भविष्यवाणी नहीं है. 1975 के बाद भी संघर्ष जारी रहेगा लेकिन तब तक हम भारत में एक शक्ति के बतौर जाने जाएंगे, कलकत्ते पर कब्जा हमारी योजना नहीं है. जिस जनजागरण की आवश्यकता थी, वह हो गया है. अब हमें मजदूरों में पार्टी यूनिट बनानी होगी, उन्हें इज्जत और मर्यादा की लड़ाई में लगाना होगा.

जहां तक जाना जाता है, चारु मजुमदार चीनी पार्टी की आलोचनाओं से सहमत नहीं थे. एकमात्र चीन का चेयरमैन हमारा चेयरमैन नारे को वापस लेने के लिए वे तैयार थे. जहां तक गलतियों को सुधारने की बात थी, उस पर उनका कहना था कि खुद चीन के कामरेडों का भी कहना है कि उन्हें क्रमशः कदम-ब-कदम सुधारना ही उचित होगा.

नई आशाएं

9 जून 1972 को उन्होंने अपना आखिरी लेख ‘जनता का स्वार्थ ही पार्टी का स्वार्थ है’ लिखा. इस लेख में उन्होंने लिखा, आज हमारे कर्तव्य हैं व्यापक बुनियादी जनता के बीच पार्टी गठन करना और संघर्ष के आधार पर जनता के व्यापकतम हिस्से के साथ संयुक्त मोर्चा कायम करना. कांग्रेस राज के खिलाफ व्यापक संयुक्त मोर्चा कायम किया जा सकता है. आज आम जनता पर कांग्रेस जो जुल्म ढा रही है, उसके खिलाफ संघर्ष में वामपंथी पार्टियां नेतृत्व नहीं दे रही हैं. इन तमाम पार्टियों के मजदूरों-किसानों और मेहनतकश जनता के बीच अपने ही पार्टी नेतृत्व के खिलाफ विक्षोभ मौजूद है. एकताबद्ध संघर्ष के आधार पर हमें इनके साथ एकताबद्ध होने की कोशिशें करनी होगी. यहां तक कि कभी जो हमसे दुश्मनी करते थे वे भी इन विशेष परिस्थितियों में हमारे साथ एकताबद्ध होने आएंगे. इन तमाम ताकतों के साथ एकताबद्ध होने के लिए हृदय की विशालता रखनी होगी. हृदय की विशालता कम्युनिस्ट का. गुण है. जनता का स्वार्थ ही आज एकताबद्ध संघर्ष की मांग करता है. जनता का स्वार्थ ही पार्टी का स्वार्थ है.

इस लेख में उन्होंने जल्द ही इंदिरा कांग्रेस की सरकार के खिलाफ राष्ट्रव्यापी उभार की संभावना की ओर इशारा किया था और कहा था, हमारे देश में ऐसी घटनाएं घटेंगी जिनके बारे में पहले से नहीं कहा जा सकता. इसी संदर्भ में उन्होंने कांग्रेस सरकार के खिलाफ व्यापक संयुक्त मोर्चे के निर्माण का आह्वान किया था. 1974 आते-आते वाकई रेल मजदूरों की देशव्यापी हड़ताल से लेकर इंदिरा सरक़ार के खिलाफ छात्र-नौजवानों का देशव्यापी उभार पैदा हुआ. शासक वर्गों के बीच बड़े पैमाने का विभाजन हुआ और 1975 में इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता को टिकाए रखने के लिए भारत में पहली बार इमरजेंसी जारी की. कांग्रेस सरकार विरोधी व्यापक संयुक्त मोर्चा बना और 1977 में कांग्रेस चुनाव में बुरी तरह हारी, सीपीआई (एमएल) की विडंबना थी कि अखिल भारतीय स्तर पर एकताबद्ध पार्टी के अभाव में इस विशाल संभावना में कोई सार्थक हस्तक्षेप नहीं किया जा सका. फिर भी उसके बाद से सीपीआई (एमएल) नए सिरे से एक ताकत बन कर उभरती गई.

इसी बीच, बिहार में पटना जिले के पुनपुन व भोजपुर के सहार में नए सिरे से गरीब व भूमिहीन किसान गोलबंद होने लगे. यहां के क्रांतिकारियों ने सत्यनारायण सिंह को ठुकरा दिया और वे चारु मजुमदार की दिशा में ही आगे बढ़े.

13 जुलाई 1972 को कामरेडों के साथ बातचीत में चारु मजुमदार ने कहा, ‘जनउभार आ रहा है. कौन-सा रूप लेकर आ रहा है, नहीं कहा जा सकता. पटना के पुनपुन थाने के भूमिहीन किसानों की हड़ताल भी एक जनउभार है. यह उभार का ही एक चेहरा है. हमें इसी ओर नजर रखनी होगी. किस तरह से हो रहा है ? इसे कैसे लागू किया जाए ? करीब 70 भूमिहीन किसान जमा हुए हैं. अब तय करना होगा कि इसे किस तरह क्रांतिकारी कमेटी का रूप दिया जाए, यह भी उनसे बातचीत करके ही तय करना होगा. जिन्होंने हड़ताल का नेतृत्व किया है, उन्हें लेकर क्रांतिकारी कमेटी गठित की जा सकती है. हमें (संगठन को) पहलकदमी लेनी होगी.

उन्होंने कहा, पार्टी का अंदरूनी संघर्ष बहुत कष्टसाध्य होता है. उसे धीरज के साथ चलाना पड़ता है. यही संभवत: उनकी आखिरी रिकार्डेड बातचीत थी.

महानायक की अंतिम यात्रा

16 जुलाई 1972 को कलकत्ते के एक आश्रय स्थल से चारू मजुमदार गिरफ्तार हुए. इसके पहले राज्य कमेटी के जो दो सदस्य गिरफ्तार हुए थे, उन्होंने ही चारु मजुमदार की शेल्टर का पता पुलिस को बता दिया था. ये वही सदस्य थे, जो प्राधिकार के नाम पर और क्रांतिकारिता के नाम पर अतिवामपंथी लफ्फाजी किया करते थे. दरअसल, उनकी यह लफ्फाजी अपने चौतरफा पतन को ढकने की ही कोशिशों का नतीजा था.

गिरफ्तारी के बाद लाल बाजार के सेंट्रल लॉक अप में 12 दिनों तक पैथिड़ीन इंजेक्शन व अन्य दवाइयों को बंद करके उनसे लगातार जिरह करके उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया. 28 जुलाई 1972 को चारु मजुमदार ने आखिरी सांस ली. उस समय उनका सारा शरीर नीला पड़ चुका था. लॉक अप में भी अंतिम सांस तक उनका क्रांतिकारी आशावाद जीवित था और उन्होंने घोषणा की थी कि भारतीय क्रांति हो के रहेगी.

भारतीय क्रांति के इस महानायक को शत-शत नमन, जो क्रांति के लिए ही जिया व क्रांति के लिए ही मरा.

  • यह आलेख ‘समकालीन प्रकाशन’ के द्वारा जुलाई, 2001 में प्रकाशित ‘चारु मजुमदार : संग्रहित रचनाएं’ पुस्तक से ली गई है.

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