गिरीश मालवीय
मोदी सरकार ने कल हर साल सोने का अंडा देने वाली एक और मुर्गी जिबह कर दिया. बीपीसीएल के निजीकरण के लिए सरकार ने बोलियां आमंत्रित की थी, जिन्हें सौंपने का कल आखिरी दिन था. जैसी की उम्मीद की जा रही थी कि इसका अधिग्रहण रिलायंस इंडस्ट्रीज करेगी, वैसा कल तो नही हुआ है. रिलायंस भारत पेट्रालियम कॉरपोरेशन लिमिटेड (BPCL) की बिक्री के लिए लगी प्रारंभिक बोली में शामिल नहीं हुई है. शायद वह किसी दूसरी कम्पनी के मार्फ़त इसे हथियाना चाह रही है. सरकार ने भी बिड लगाने वाली कम्पनियों के नाम डिस्क्लोज नही किये हैं.
रिलायंस ने अभी तक बीपीसीएल को लेकर अपने इरादों पर चुप्पी बनाए रखी है. रिलायंस ने हाल में बीपीसीएल के पूर्व अध्यक्ष सार्थक बेहुरिया को कंपनी में बड़े पद पर नियुक्त किया था और कुछ हफ्ते पहले इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन (आईओसी) के पूर्व चेयरमैन संजीव सिंह को भी नियुक्त किया था. वैसे बीपीसीएल को बेचना ही गलत है. यह सरकार के लिए प्रॉफिट कमाने वाली देश की सबसे एफिशिएंट कंपनी है और पिछले पांच साल से यह सालाना 8 से 10 हजार करोड़ रुपये लाभांश दे रही थी. वित्त वर्ष 2018-19 में बीपीसीएल को 7,132 करोड़ रुपये का मुनाफा हुआ था.
भारत के पेट्रोलियम सेक्टर में बीपीसीएल बड़ा नाम है. सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों में बीपीसीएल सबसे पेशेवर ढंग से चलने वाली कंपनी है. अगर कच्चे तेल यानी क्रूड ऑयल की रिफाइनिंग की बात करें तो बीपीसीएल देश में करीब 13 फ़ीसदी तेल रिफाइन करता है. यानी हर साल करीब 33 मिलियन मीट्रिक टन. तकरीबन 15000 फ्यूलिंग स्टेशन हैं और 6000 एलपीजी डिस्टीब्यूटर्स. घर में इस्तेमाल होने वाली एलपीजी गैस से लेकर प्लेन के फ्यूल तक बीपीसीएल सब बनाती है.
अधिग्रहण करने की दौड़ में शामिल कंपनियों के लिए सबसे बड़ा आकर्षण ईंधन बिक्री का खुदरा नेटवर्क है. इस बाजार में बीपीसीएल की हिस्सेदारी 22 प्रतिशत है. सूत्र ने कहा कि कंपनी की रिफाइनरियां के पास विस्तार की जगह नहीं हैं. विशेष रूप से मुंबई और कोच्चि में यह स्थिति है. इन रिफाइनरियों के पास विस्तार या पेट्रो-रसायन इकाई के विस्तार के लिए जमीन पाना लगभग असंभव है इसलिए बोली लगाने के लिए कम्पनियों के लिए बेहद लाभदायक अवसर है लेकिन कोरोना काल की वजह से देस- विदेशी कंपनियां इसमे कम रुचि दिखा रही है.
NDA सरकार की बीपीसीएल को बेचने की यह पहली कोशिश नही है. 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में भी ऐसी कोशिश हुई थी. तब सरकार 34.1 फीसदी हिस्सा बेच रही थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सरकार बिना कानून में ज़रूरी बदलाव किए बीपीसीएल को नहीं बेच सकती. लेकिन अब ऐसी कोई बंदिश नहीं रही है. संसद की अनुमति लेने का प्रावधान 2016 में कानून बदलने के साथ ही ख़त्म हो गया.
सरकार के बीपीसीएल के विनिवेश के फैसले को लेकर उसके कर्मचारी आश्चर्यचकित हैं. वे कहते हैं कि इसे प्राइवटाइज करना सोने की चिड़िया को मारने जैसा होगा और इससे इकॉनमी, सरकार के सामाजिक कल्याण कार्यक्रम और एनर्जी सिक्यॉरिटी को नुकसान पहुंचेगा. विनिवेश का आधार यह होता रहा है कि जो सरकारी उपक्रम लगातार नुकसान में चल रहे हैं, उन्हें बेच दिया जाएगा. लेकिन यहां तो प्रॉफिट मेकिंग कम्पनी को ही बेचा जा रहा है.
दरअसल, नोटबंदी और जीएसटी के बाद सरकार की राजस्व हानि में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है. इसे काबू करने के लिए सरकार ने सरकारी संपत्तियों को बेचने पर अपना ध्यान बढ़ा दिया है. बांबे स्टॉक एक्सचेंज पर कंपनी का शेयर प्राइस 412.70 रुपए के बंद भाव पर बीपीसीएल में सरकार की 52.98 फीसदी की हिस्सेदारी के आधार पर 47,430 करोड़ रुपए की है. वहीं खरीदार को जनता से 26 फीसदी खरीदने के लिए खुली पेशकश करनी होगी, जिसकी लागत 23,276 करोड़ रुपए आंकी गई है. यानी कंपनी की कुल कीमत के लिए करीब 70 हजार करोड़ रुपए चुकाने होंगे, जो कंपनी की वास्तविक वैल्यू से काफी कम है.
बीपीसीएल की कर्मचारी यूनियन का कहना है कि ‘बीपीसीएल की संपत्ति के व्यापक मूल्यांकन से पता चलता है कि कंपनी का सही मूल्यांकन 9 लाख करोड़ रुपये होगा. सामान्य तौर पर प्रबंधन नियंत्रण बाजार पूंजीकरण के ऊपर 30 से 40 प्रतिशत प्रीमियम के साथ दिया जाता है. अगर 100 प्रतिशत से अधिक प्रीमियम भी कंपनी पर मिलता है तो भी 4.46 लाख करोड़ रुपये की संपत्ति का नुकसान हो सकता है.
कोरोना काल की वजह से भी इसकी कीमत बेहद कम मिल रही है, इसके बावजूद भी मोदी सरकार प्राइवेट कंपनियों को फायदा पुहंचाने के लिए बेहद कम कीमत में इसे बेच रही है.
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