कृष्ण समिद्ध
देखा जाये तो कविता में कविता के होने की कई जगहें होती हैं – शब्द, भाव, कथा, मिथक… इत्यादि एवं कविता की सीमा से परे जाने की भी की कई जगहें होती हैं. बोधिसत्व भी कविता के परे जाते हैं – अकविता तक. बोधिसत्व की कविता में सामान्य कविता नहीं है, कथा होने का बोध है, मगर कथा भी नहीं है. कई घटनाएं दिखती है, पर उन घटनाओं का होना भी उनका आशय नहीं है. मुख्य है, उनका अपनी बात या चयनित यथार्थ या ‘वजह’ को रखना और इस बात को समझने के लिए बोधिसत्व की कविता ‘पागलदास’ एक आदर्श उदाहरण है. जैसा कि कवि स्वयं कहता है –
‘मैं तो सिर्फ बताना चाहता था लोगों को,
कि इस ‘वजह’ से अयोध्या में बसकर भी,
उदास रहते थे पागलदास.’
बोधिसत्व की कविता ‘पागलदास’ केवल एक व्यक्ति पखावज वादक स्वामी पागलदास के जीवन और उनकी उदासी की व्यक्तिगत वेदना को नहीं प्रकट करती है, बल्कि उस सामूहिक सामाजिक और सांस्कृतिक विडंबना को भी उद्घाटित करती है, जो समय और स्थान की सीमाओं में बंधी होती है.
बोधिसत्व की कविता में अकविता की कई विशेषताएं दिखाई देती हैं. उनकी कविता में पारंपरिक कविता के शिल्प और रूपों का त्याग किया गया है. यहां कोई लयबद्धता या सुंदरता का प्रयास नहीं है, बल्कि जीवन की कटु वास्तविकताओं और पागलदास की आंतरिक उदासी को सीधे तौर पर प्रस्तुत किया गया है. अकविता का मुख्य उद्देश्य पारंपरिक कविताओं की संरचना, शैलियों, और आदर्शों को चुनौती देना जैसा है. जैसे
‘कारण तो बता सकते हैं वे ही,
जो जानते हों पागलदास को ठीक से
मैं तो आते-जाते सुनता था
उनका रोदन
जिसे छुपाते थे वे पखावज की थापों में.’
जैसी पंक्तियाँ दर्शाती हैं कि कविता किसी सुंदरता या संगीतात्मकता की बजाय, जीवन के द्वंद्व और यथार्थ को पकड़ने का प्रयास कर रही है.
अकविता में दुख, निराशा, और असंतोष का प्रमुख स्थान होता है. जैसे ‘दूसरे पागलदास की हत्या से / उसको न बचा पाने के संताप से / उदास रहने लगे थे पागलदास’ यह पंक्ति पागलदास की गहरी उदासी और जीवन की निरर्थकता को सामने लाती है, जो अकविता के मूल तत्त्वों में से एक है. कविता में बोधिसत्व ने पागलदास की आंतरिक और बाहरी दुनिया को एक कठोर यथार्थवादी दृष्टिकोण से पेश किया है. यहां कोई सजावट नहीं है, बल्कि एक नग्न यथार्थ है जो अकविता की पहचान है.
बोधिसत्व की इस कविता में पहचान का द्वंद्व स्पष्ट रूप से उभरता है. पागलदास का द्वैत अस्तित्व, जिसमें एक पागलदास न्याय और सत्य के लिए संघर्ष करता है, जबकि दूसरा पागलदास अपनी कला और उदासी में डूबा रहता है. लुईस एल्थ्यूसर (Louis Althusser) ने कहा था, ‘व्यक्ति की पहचान एक द्वंद्वात्मक प्रक्रिया है, जिसमें वह अपनी सामाजिक स्थिति और आंतरिक संघर्षों के बीच उलझा रहता है.’ पागलदास के भीतर यह द्वंद्व न केवल उसकी पहचान को टुकड़ों में बांट देता है, बल्कि उसकी उदासी का मूल कारण भी बन जाता है. पागलदास की उदासी और उसका द्वैत अस्तित्व इस बात का प्रतीक है कि कैसे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विसंगतियों ने उसे आंतरिक रूप से विखंडित कर दिया है.
‘सरजू में बहती है दूसरी सरजू / वैसे ही पागलदास में था दूसरा पागलदास’ इस पंक्ति में उस द्वैत अस्तित्व की ओर संकेत है, जो पागलदास के भीतर विद्यमान है. होमी के. भाभा का कहना है, ‘उत्तर-औपनिवेशिक समाजों में व्यक्ति की पहचान हमेशा एक अस्थिर और विखंडित स्थिति में रहती है.’ पागलदास का व्यक्तित्व और उसकी उदासी इसी विखंडन का परिणाम है.
पागलदास की उदासी केवल व्यक्तिगत नहीं है, बल्कि अयोध्या के सांस्कृतिक और धार्मिक परिदृश्य के साथ जुड़ी हुई है. जैसा कि कविता में कहा गया है –
‘मैं अयोध्या में ढूंढ़ता रहा
पागलदास के जानकारों को
और लोग उनका नाम सुनते ही
चुप हो
बढ़ जाते थे.’
यह पंक्ति अयोध्या की पवित्रता और सांस्कृतिक पहचान के साथ पागलदास के द्वंद्व को उजागर करती है. हर रचना अपने समय की संस्कृति और राजनीतिक परिस्थितियों का प्रतिफल होती है. पागलदास की उदासी को अयोध्या के धार्मिक और सांस्कृतिक संघर्षों के साथ जोड़ा जा सकता. यह दर्शाता है कि कैसे पागलदास के व्यक्तिगत संघर्ष और उनकी कला की उपेक्षा सामाजिक और व्यक्तिगत दोनों स्तरों पर हो रही थी.
कविता की ये पंक्तियां व्यक्ति और समाज के बीच के जटिल संबंधों और संघर्षों को दर्शाती हैं. यह कविता इस बात की ओर इशारा करती है कि व्यक्ति का दुःख और उदासी केवल उसके आंतरिक संघर्षों का परिणाम नहीं है, बल्कि यह समाज और संस्कृति के साथ उसके जटिल संबंधों का प्रतिबिंब भी है.
पर बोधिसत्व की कविता यथार्थ का मिथ्या वाचन (मिसरीडिंग) या अतिवाचन करती है. यथार्थ का मिथकों और पुराणों की परंपरा के साथ यह मिश्रण कविता को एक प्रकार के भ्रमात्मक सत्य की ओर ले जाता है. कविता की असली ताकत और कमजोरी वहीं प्रकट होती है जहां मिथक और कथानक आपस में मिलते हैं. मिथक एक सांस्कृतिक संरचना है जो वास्तविकता और कल्पना के बीच के अंतर को मिटा देती है.
पागलदास का दूसरा रूप एक मिथकीय चरित्र के रूप में उभरता है, जो सत्य और न्याय के लिए संघर्ष करता है, जैसा कि कविता में कहा गया है, ‘दूसरे पागलदास की हत्या से / उसको न बचा पाने के संताप से / उदास रहने लगे थे पागलदास.’ यह पंक्ति मिथक और सत्य के संलयन को दर्शाती है, जहां व्यक्ति का निजी संघर्ष एक सांस्कृतिक प्रतीक बन जाता है.
इस तरह की कविता में कविता का स्थान वहीं है जहां मिथक और कथानक एक साथ मिलते हैं, जहां उनकी सीमाएं धुंधली हो जाती हैं, और एक ऐसी भाषा का निर्माण होता है जो न पूरी तरह ऐतिहासिक होती है और न ही पूरी तरह कल्पनात्मक, बल्कि दोनों का मिश्रण होती है.
वैसे यह भी कहा जा सकता है कि बोधिसत्व की कविता में मिथकों और पुराणों की परंपरा से बहुत कुछ आया है, जो कविता को गहरे सांस्कृतिक संदर्भों से जोड़ता है. यह वही बिंदु है जहां ‘कविता सत्य का प्रतिपादन नहीं है, बल्कि उस सत्य को और अधिक वास्तविक, अधिक सजीव, और अधिक ग्राह्य बनाने की प्रक्रिया है.’
इन जगहों पर बोधिसत्व की कविता न केवल मिथकों का पुनर्निर्माण करती है, बल्कि उन मिथकों के माध्यम से यथार्थ का एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है, जो उनका ‘चयनित यथार्थ’ या ‘वजह’ है. पर इसकी अगली स्वाभाविक निष्पत्ति अतिवाचन या मिथ्या वाचन के रुप में होता है क्योंकि यह समाज के यथार्थ को रखता है, मगर कविता के यथार्थ पर मौन रह जाता है.
मिथकीय अतिवाचन से समाज का यथार्थ नये रुपों में प्रत्यक्ष होता है, मगर कविता का यथार्थ बाधित होता है. यह एक महत्वपूर्ण आलोचना है जो अक्सर इस तरह की कविताओं पर लागू होती है जो ऐतिहासिक, सामाजिक, या राजनीतिक यथार्थ को अधिक ज़ोर देकर प्रस्तुत करती हैं. इस प्रकार की कविताओं में वास्तविकता को कृत्रिम रूप से पकड़ने की कोशिश में, काव्यात्मक यथार्थ और उसका स्वाभाविक विकास बाधित हो जाता है, जिससे एक तथ्य स्थापित हो जाता है, मगर काव्यात्मक यथार्थ बाधित होता और अंततः भावात्मक प्रभाव भी.
कला का असली उद्देश्य यथार्थ की पुनरावृत्ति करना नहीं है, बल्कि उसकी गहराई में जाकर उसे समझना और प्रकट करना है. अगर कोई कविता अपने कथ्य को ‘कथ्य के यथार्थ’ से अधिक पकड़ने की कोशिश करती है, तो वह अक्सर कृत्रिमता की ओर बढ़ जाती है, जहां यथार्थ का स्वाभाविक विकास बाधित हो जाता है. बोधिसत्व की कविता में, पागलदास की उदासी का तथ्यात्मक वर्णन तो किया गया है, लेकिन उसकी काव्यात्मक गहराई की खोज नहीं की गई, जैसा मुक्तिबोध के अंधेरे में या ब्रह्मराक्षस में दिखता है. जैसा कि कविता में कवि स्वयं कहता है –
‘मैंने कहा –
मुझे उनकी (पागलदास की) उदासी से कुछ काम नहीं
मुझे बुद्ध, कालिदास या लोगों की उदासी से
कुछ लेना-देना नहीं
मैं तो सिर्फ बताना चाहता था लोगों को
कि इस वजह से अयोध्या में बसकर भी
उदास रहते थे पागलदास.’
जब कविता यथार्थ को केवल एक तथ्य के रूप में प्रस्तुत करती है, तो वह कविता के बहु यथार्थ या यथार्थ के संभावित संभावनाओं को अप्रस्तुत करता है.
टी.एस. इलियट कहते हैं कि ‘Poetry is not a turning loose of emotion, but an escape from emotion; it is not the expression of personality, but an escape from personality.’ यानी, कविता का उद्देश्य भावनाओं को बिना किसी बाधा के प्रवाहित करना नहीं है, बल्कि उन्हें एक नियंत्रित और स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत करना है.
उसी तरह यथार्थ को कृत्रिम रूप से पकड़ने की कोशिश की जाती है, तो कविता का यथार्थ और उसके साथ जुड़ी भावनाएं अप्राकृतिक रूप से प्रभावित होती हैं, खास करके कवि के व्यक्तित्व से. इसका परिणाम यह होता है कि कविता का स्वाभाविक विकास रुक जाता है और उससे यथार्थ का भविष्य भी अस्पष्ट और अप्राकृतिक हो जाता है.
कवि की रचना प्रक्रिया उस भाषा-रूप से प्रभावित होती है, जिसे वह अंततः चुनता है. कविता की रचनात्मकता का प्रारंभिक रूप और उसकी अंतिम संरचना के बीच एक स्वाभाविक संबंध होना चाहिए. एक कवि द्वारा चयनित विषय के आधार पर अपनी काव्यात्मक और पाठ्य रूप को चुनना एक जटिल और संवेदनशील प्रक्रिया होती है, जिसमें कई कारक शामिल होते हैं. यह निर्णय कवि के भावनात्मक अनुभवों, सांस्कृतिक संदर्भों, और उनके साहित्यिक उद्देश्यों पर निर्भर करता है.
एलियट का कहना सही है कि, ‘No poet, no artist of any art, has his complete meaning alone; his significance, his appreciation is the appreciation of his relation to the dead poets and artists.’ अर्थात कोई भी कवि अकेले अपने अर्थ को पूर्ण नहीं कर सकता; उसकी महत्ता परंपरा और इतिहास से उसके संबंध के माध्यम से ही समझी जाती है. इस तरह, जब कोई कवि एक विशेष विषय को चुनता है, तो वह उस विषय की परंपरा के भीतर एक स्थान बनाता है जिसमें वह शामिल होता है, और इसी प्रक्रिया के माध्यम से वह अपने काव्यात्मक रूप का चयन करता है.
अरस्तू ने अपनी पुस्तक ‘Poetics’ में कहा है कि कविता का रूप उसके अनुकरण (मिमेसिस) पर निर्भर करता है. वह कहते हैं, ‘Poetry is more philosophical and more significant than history, for poetry expresses the universal, while history only the particular.’ कविता का उद्देश्य सार्वभौमिक सत्य को व्यक्त करना होता है, और यह उसी आधार पर अपना रूप चुनती है. सार्वभौमिक सत्य व्यक्तिगत सत्य से भी वृहद होता है और कवि के व्यक्तित्व से भी. जब कवि किसी विषय को चुनता है, तो वह यह देखता चाहिए कि वह किस प्रकार का अनुकरण करेगा और किस रूप में इसे प्रस्तुत करेगा ताकि वह चयनित विषय और चयनित शिल्प या विधा के साथ यथासंभव अधिकतम न्याय कर सके.
बोधिसत्व ने भी इस प्रक्रिया में अपनी रचनात्मकता का एक विशेष पाठ्य रूप चुना है और अपनी कविता में कविता से अधिक अपनी बात, विचार और ‘वजह’ को अधिक प्रमुखता दी है. जैसा कि गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक ने कहा है साहित्य और कविता यथार्थ को समझने और नई दृष्टिकोण से देखने का एक तरीका प्रदान करती है और यह कवि बोधिसत्व का तरीका है.
इस चयन प्रक्रिया में बोधिसत्व के साहित्यिक उद्देश्य, उसकी व्यक्तिगत अनुभव और वह संवाद शामिल हैं, जो वह अपने पाठकों के साथ स्थापित करना चाहते हैं और इस चयन से उनका चयनित यथार्थ के तथ्य तो स्थापित हो जाते हैं, मगर चयनित विषय और काव्य विधा का काव्यात्मक यथार्थ बाधित होता, अंततः इससे भावात्मक प्रभाव और संभावित यथार्थ भी बाधित होता है. जैसा कि बोधिसत्व ने ‘पागलदास’ ही कहा है –
‘मैंने पागलदास के पट्ट शिष्यों से पूछा
क्या अयोध्या में बसकर सचमुच उदास रहते थे पागलदास.
शिष्य कुछ बोले-बासे नहीं
बस थाप देते रहे.’
संदर्भ –
- Cleanth Brooks, The Well Wrought Urn, 1947.
- नामवर सिंह, दूसरी परंपरा की खोज, 2010.
- Northrop Frye, Anatomy of Criticism,1957.
- Barthes, Mythologies, 1957
- Louis Althusser, On the Reproduction
of Capitalism-Ideology and Ideological State Apparatuses, 2014. - Stephen Greenblatt, Renaissance Self-Fashioning, 1980
- Homi K. Bhabha,The Location of Culture, 1994.
- Emmanuel Levinas ,Totality and Infinity,1961.
- T S Eliot, Tradition and the Individual Talent ,1996.
- T S Eliot, The Use of Poetry and the Use of Criticism,2006.
- Claude Lévi-Strauss, “Myth and Meaning,” 1978
- Aristotle, Poetics, 1991.
- Robert Lee Frost ,The Figure a Poem Makes ,1978.
- Gayatri Chakravorty Spivak , In Other Worlds, 1987.
- T.S. Eliot, Selected Essays, 1932.
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