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लहू अब गाता नहीं…

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लहू अब गाता नहीं...
लहू अब गाता नहीं…

लहू अब गाता नहीं
सिर्फ रेंगता है चिपचिपा सा

रेंगते हुए सड़क पर चिपक जाता है कोलतार सा
अपने साथ धूल, मिट्टी, सूखे पत्ते
सब कुछ चिपका लेता है
मानो लहू में किसी ने मिला दी हो गोंद

यह नफरत की गोंद ही तो है
जिसने लहू को बना दिया है चिपचिपा, बदबूदार

अब ग़ालिब यह नहीं कह पाएंगे
‘रगों में दौड़ने फिरने के हम नहीं कायल’

अब लहू आंख से टपकता नहीं
चिपक जाता है आंख के लेंस पर

और आदमी को दिखाई देता है सिर्फ शिकार
अब हर आदमी यहां शिकार है या शिकारी

शिकार और शिकारी के इस खेल का नियंता कौन है ?
क्या वही, जिसने घोली है नफरत लहू में ?
और बनाया है उसे चिपचिपा, बदबूदार

धीरे धीरे इस चिपचिपे,
बदबूदार लहू की जद में
आ रहा है सब कुछ

धूल, मिट्टी, कागज, स्याही,
कलम, फूल, पेड़,नदी,
पहाड़, किताबें, धर्म,
राजनीति, नैतिकता, न्याय,
और यहां तक कि लोकतंत्र भी

हर तरफ़ बस लहू ही लहू
चिपचिपा बदबूदार

लेकिन एक चीज इसकी जद से बाहर है अभी

एक आदिम आग
एक आदिम अवज्ञा

वही आदिम आग
जिसने पिघलाया था कभी अंधकार को पहली बार
और मनुष्य ने बढ़ा दिया था अपना पहला कदम
सूरज की ओर

वही आदिम अवज्ञा
जिसने ईश्वर सरीखे राजाओं को भी
ला पटका था अजायबघर में
जहां वह अपने चेहरे पर पड़ी धूल भी नहीं हटा सकता

क्या यह चिपचिपा बदबूदार लहू
आदिम आग और आदिम अवज्ञा को
अपनी जद में ले पायेगा ?

या आदिम अवज्ञा इसका रास्ता रोक देगी
या आदिम आग इसे भस्म कर देगी

यह सवाल महज इस कविता का सवाल नहीं है
यह सवाल एक आदिम सवाल है

लहू फिर गायेगा ?
रगों में फिर दौड़ेगा ?
या नफरत के जहर से नीला पड़ जायेगा !

  • मनीष आजाद

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