नतीजों से जनता के बीच असंतोष को साफ़ तौर से देखा जा सकता है. भाजपा के दक्षिणपंथी/फासीवादी विचार को नाकारा पर साथ में ही कांग्रेस को भी पूरी तरह से बहुमत न मिलना, आम जन की बेचैनी को दिखा रहा है.
चुनाव के नतीज़े आने के बाद भाजपा और भक्तों में बेचैनी तो दिख रही है पर उनके स्वर में अभी भी वही साम्प्रदायिकता और धुर दक्षिणपंथ के तल्खी दीख रही है.
नतीजों से जनता के बीच असंतोष को साफ़ तौर से देखा जा सकता है. भाजपा के दक्षिणपंथी/फासीवादी विचार को नाकारा पर साथ में ही कांग्रेस को भी पूरी तरह से बहुमत न मिलना, आम जन की बेचैनी को दिखा रहा है.
चुनाव से कोई आमूल परिवर्तन नहीं होता लेकिन जैसा मार्क्स ने कहा है कि यह समर्थकों को गिनने का एक तरीका होता है. उस लिहाज से भाजपा के भक्तों को छोड़ दें तो समर्थकों की संख्या में हर राज्य में कमी दिखाई दे रही है लेकिन कांग्रेस के साथ भी जन सैलाब नहीं देखा जा रहा. इसका क्या मतलब निकल जा सकता है ? यही कि जनता के बीच दोनों पार्टियों के प्रति उदासीनता बढ़ती जा रही है, पर कोई विकल्प ना होने की वजह से उसके पास राक्षस और गहरे समुद्र में से ही एक को चुनने की मजबूरी है.
छोटी पार्टियों को मिले वोट और सीट भी इस बार के चुनावों में गौर करने वाली बात रही है. हालांकि अधिकांश छोटी पार्टी या तो कांग्रेस से या भाजपा से ही टूट कर निकली है और उनकी ’घर वापसी’ की सम्भावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन इसमें जनता कितनी जिम्मेदार है, यह हम सभी जानते हैं.
संसदीय वाम को राजस्थान में 2 सीट का मिलना और उसके दो एनी जगहों पर आशा के विपरीत प्रदर्शन भी दर्शाता है कि मीडिया के लाख कहने के बावजूद गरीबों के बीच लाल झन्डा का मोह भंग नहीं हुआ है. इन संसदीय वाम पार्टियों के पास मौका है और था कि भाजपा-कांग्रेस से परे एक जन विकल्प को पेश करने का लेकिन यह मौका हर बार की तरह ही वे गवां बैठे और आगे भी गवाएंगे इसकी पूरी गारंटी ली जा सकती है.
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