हिमांशु कुमार
किसी भी देश की नैतिक जिम्मेदारी है कि वह अपने हर बच्चे को मुफ्त शिक्षा दे. कोई भी सरकार किसी भी बच्चे से पढ़ाई का पैसा नहीं ले सकती है और पैसे लेकर शिक्षा बेचना किसी भी कानून के द्वारा जायज नहीं बना सकती इसलिए देशभर के नौजवानों को मुफ्त शिक्षा की मांग करनी चाहिए.
भारत के समाज को अपनी सरकार से पूछना चाहिए कि आप किसी भी बच्चे से पढ़ाई की फीस कैसे ले सकते हैं ? सबके लिए एक जैसी शिक्षा और सबके लिए मुफ्त शिक्षा यह हर बच्चे का मूलभूत अधिकार है लेकिन भारत के लोगों को दिमागी रूप से गुलाम बनाया गया है बल्कि हम परंपरागत रूप से गुलाम जहन ही हैं.
इसलिए जब जेएनयू के छात्रों ने फीस बढ़ाए जाने का विरोध किया तो भीड़ ने जेएनयू पर हमला किया और घुसकर लड़के लड़कियों के सिर फाड़ दिए. आप कल्पना कर सकते हैं कि कोई समाज अपने ही बच्चों के इसलिए भी सिर फोड़ सकता है कि बच्चे फीस कम करने की मांग कर रहे थे ?
भाजपा ने समाज को न सिर्फ मूर्ख बनाया है बल्कि क्रूर भी बनाया है. अब भारतीय समाज अपने बच्चों के सिर फोड़ने के लिए तैयार हो गया है. बराबरी की मांग करने वाली महिलाओं को रंडी कहने वाले मैसेज आरएसएस के लोग सुबह-सुबह भेजते हैं.
मुसलमानों को देशद्रोही, किसानों को खालिस्तानी, दलितों को सनातन धर्म विरोधी, आदिवासियों को नक्सली, मजदूरों को आलसी कामचोर कहने वाली पब्लिक भाजपा ने तैयार कर दी है. देखिए समाज को किस चतुराई से बांटा गया है.
अब भाजपा के गुंडे और पूंजीपति और भ्रष्ट पुलिस और नेता मिलकर भारत की जमीनों पर कब्जा करेंगे, नौकरियां खत्म कर देंगे, बैंक का पैसा खाली कर देंगे लेकिन जनता इसे रोक नहीं पाएगी.
क्योंकि अपने बच्चों का सिर फोड़ने वाली, औरतों को रंडी कहने वाली, मुसलमानों को देशद्रोही, किसानों को खालिस्तानी कहने वाली, मजदूर को आलसी कामचोर कहने वाली, आदिवासी को नक्सली कहने वाली पब्लिक कभी भी एकजुट होकर ना तो समस्या को समझ पाएगी, ना उसका सामना करने की उसमें एकजुटता बची है, ना समझ बची है.
जनता जातिवाद और धर्म के आधार पर एक दूसरे से नफरत करने में मजा ले रही है. लगभग सभी पार्टियां जनता की मूर्खता से फायदा उठाने में लगी हुई है.
कोई भी पार्टी भाजपा की विभाजनकारी राजनीति के खिलाफ वास्तव में खड़ी नहीं हो रही, ना उसकी सांप्रदायिकता का मुकाबला किया जा रहा है, ना जातिवाद का ना पूंजीवाद का. यह स्थिति निराशाजनक नहीं है, चुनौतीपूर्ण है.
ज्यादा बड़ी चुनौती ज्यादा काम करने की प्रेरणा देती है. अगर समस्या समझ में आ रही है तो समाधान भी समझ में आ रहा होगा. मिलकर इसे ठीक करने में लगिए वरना और बुरी हालत में पहुंच जाएंगे.
मित्र शहनवाज आलम लिखते हैं – 1976 में इंदिरा गांधी सरकार ने 42 वां संविधान संशोधन करके संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक समाजवादी और सेकुलर मुल्क घोषित किया था. 3 जनवरी 1977 से यह अमल में आया था.
सुप्रीम कोर्ट की सबसे बड़ी संवैधानिक पीठ का फैसला है कि संविधान का प्रस्तावना हमारे देश का मौलिक ढांचा है, जिसमें कोई बदलाव संसद भी नहीं कर सकती.
भाजपा और उससे पहले जनसंघ हमेशा से संविधान में जोड़े गए इन दोनों शब्दों का विरोध करते रहे हैं क्योंकि इन दोनों शब्दों के रहते भारत न तो धार्मिक राष्ट्र बन सकता है और ना ही कॉर्पोरेट राष्ट्र बन सकता है. इसीलिए भाजपा हमेशा इन दोनों शब्दों को हटाने की साज़िश रचती रही है.
उसके दो राज्य सभा सांसदों राकेश सिन्हा और केजे अल्फोंस इन दोनों शब्दों को संविधान की प्रस्तावना से हटाने के लिए दो बार संसद में प्राइवेट मेंबर बिल भी ला चुके हैं.
संवैधानिक तौर पर ऐसे बिल संसद में स्वीकार भी नहीं किए जा सकते लेकिन राज्यसभा के उप सभापति हरिवंश ने यह बिल स्वीकार कर लिया.
अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस वेंकट चलैया के नेतृत्व में इसे बदलने की कोशिश की थी लेकिन सहयोगी दलों और समाज के विरोध के कारण वो इस साज़िश में सफल नहीं हो पायी.
मोदी सरकार ने 15 अगस्त 2014 को हर अखबार के पहले पन्ने पर संविधान की प्रस्तावना का पुराना संसकरण प्रकाशित करवाया जिसमें समाजवादी और सेकुलर शब्द नहीं था. विरोध होने के बाद सरकार ने इसे तकनीकी भूल बता दिया लेकिन देश जानता है कि यह तकनीकी भूल नहीं थी.
15 अगस्त 2023 को प्रधान मंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय ने अपने पद के नाम से अंग्रेज़ी अखबार ‘द मिंट’ में लेख लिखकर संविधान की प्रस्तावना में से समाजवादी, सेकुलर, समानता और बंधुत्व शब्द हटाकर नया संविधान बनाने की वकालत की. विपक्षी दलों और समाज के विरोध के बाद सरकार ने इसे फिर से उनका निजी विचार बता दिया.
नए संसद भवन में भी सभी सांसदों को संविधान की ऐसी प्रति भेंट की गयी, जिसकी प्रस्तावना से समाजवादी और सेकुलर शब्द गायब थे. कांग्रेस द्वारा इसपर सवाल उठाने पर एक बार फिर सरकार ने इसे चूक बता दिया.
बाबरी मस्जिद – राम जन्म भूमि मुकदमे के फैसले में जजों ने पूजा स्थल अधिनियम 1991 को संविधान के मौलिक ढांचे यानी प्रस्तावना को मजबूत करने वाला बताया था.
लेकिन एसए बोबड़े के मुख्य न्यायाधीश बनने के बाद से ही इस क़ानून को बदलने की कोशिशें न्यायपालिका के एक हिस्से के सक्रिय प्रयास से बदलने की कोशिश की जा रही है. इससे संविधान का मौलिक ढांचा यानी प्रस्तावना कमज़ोर होगा.
भाजपा नेताओं सुब्रमण्यम स्वामी और अश्वनी चौबे संविधान में किए गए 42वें संशोधन यानी प्रस्तावना में जोड़े गए समाजवादी और सेकुलर शब्द को हटाने की याचिकाएं डालते हैं और न्यायपालिका उसे स्वीकार भी कर लेती है.
जम्मू कश्मीर के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पंकज मित्तल ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि संविधान में सेकुलर शब्द का होना देश के लिए ‘कलंक’ है. मौजूदा मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की कॉलेजीयम ने उन्हें प्रोमोट करके सुप्रीम कोर्ट में जज नियुक्त कर दिया.
उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने पिछले दिनों कहा कि मौलिक ढांचे में बदलाव को रोकने वाले संविधान पीठ के फैसले पर फिर से विचार करना चाहिए. यह कह कर वो संविधान से समाजवादी और सेकुलर शब्द हटाने के लिए माहौल बना रहे हैं.
इंदिरा जी की हत्या से कुछ दिन पहले गुप्तचर विभाग के अधिकारियों ने उन्हें बताया था कि उनकी सुरक्षा में तैनात कुछ जवान उनकी हत्या करने की साज़िश रच रहे हैं. उन्होंने एक समुदाय विशेष के जवानों को अपनी सुरक्षा दस्ता से हटा देने का सुझाव दिया.
इंदिरा जी का जवाब था कि हो सकता है उनकी सूचना सही हो लेकिन वो एक सेकुलर मुल्क की प्रधानमंत्री हैं. अगर वो उन्हें हटायेंगी तो धर्मनिरपेक्षता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता कमज़ोर होगी.
इंदिरा जी ने 42वें संविधान संशोधन की मान अपनी शहादत दे कर रखी. देश को इंदिरा गांधी की सबसे बड़ी देन संविधान में किया गया 42वां संशोधन है. इसकी रक्षा करना सभी नागरिकों की ज़िम्मेदारी है.
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