Home गेस्ट ब्लॉग बीजेपी को किन लोगों ने वोट किया ?

बीजेपी को किन लोगों ने वोट किया ?

5 second read
0
0
335
हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

सवाल यह है कि बीजेपी को किन लोगों ने वोट किया कि वह इतनी सीटें जीतने में कामयाब रही ? सीमांचल के कुछ इलाकों को छोड़ दें तो बाकी बिहार में हिन्दू वोट जैसी कोई बात नहीं थी. फिर, कैसे इतने वोट मिले ? किस आधार पर ? यह कहना मामले का सरलीकरण करना होगा कि नीतीश कुमार के प्रति नाराजगी थी इसलिये उन्हें कम सीटें मिली और भाजपा ने अपनी कुशल रणनीति की बदौलत खुद को ‘एंटी इनकंबेंसी’ के प्रकोप से बचाए रखा.

चिराग पासवान को इस्तेमाल कर नीतीश को कमजोर करने की बात अगर नहीं होती तो जद यू भी 43 सीटों पर अटका नहीं रहता. जैसा कि परिणामों के विश्लेषण संकेत कर रहे हैं, दर्जनाधिक सीटें ऐसी हैं जहां लोजपा ने जद यू को प्रभावी हानि पहुंचाई. इसका एक नकारात्मक असर यह भी पड़ा कि इन क्षेत्रों में एनडीए के बहुत सारे वोटर भ्रमित और उत्साहहीन हो गए, जिस कारण जद-यू को स्वाभाविक तौर पर मिलने वाले वोटों की संख्या में कमी आ गई. नतीजा सामने है.

अब फिर से उस सवाल पर लौटते है कि इतनी सीटें जीत कर एनडीए में ‘बिग ब्रदर’ बन जाने वाली भाजपा को किन लोगों ने वोट किया. निस्संदेह, इन वोटर्स में वे भी शामिल थे जो नीतीश कुमार के समर्थक थे. विश्लेषक अक्सर इन्हें ‘चुप्पा वोटर’ भी कहते हैं. महिलाओं में अगर अभी भी नीतीश के लिये समर्थन का भाव खत्म नहीं हुआ है तो उसका लाभ भी भाजपा को मिला, क्योंकि दांव पर तो नीतीश कुमार का मुख्यमंत्रित्व था.

ये जो अनेक भाजपाई ‘बिग ब्रदर’ बन जाने के उत्साह में कह रहे हैं कि जब हमारी सीटें इतनी अधिक हैं तो हमारा मुख्यमंत्री होना चाहिये, यह गणितीय तौर पर तो ठीक लगता है लेकिन, रासायनिक विश्लेषण करें तो यह वाजिब मांग नहीं लगती. आप अपना मुख्यमंत्री घोषित कर चुनाव जीतो और अपना मुख्यमंत्री बनवा लो. या फिर, यूपी की तरह खुद को आगे रख कर चुनाव लड़ो और खुद का मुख्यमंत्री बन लो. जब किसी दूसरे के नाम को आगे कर चुनाव में उतरते हैं तो उसके प्लस-माइनस के भी भागी आप होते हैं.

इस चुनाव ने अगर तेजस्वी यादव को बिहार के एक बड़े नेता और विपक्ष की प्रमुख आवाज के रूप में स्थापित किया तो यह भी साबित किया कि लगातार 15 वर्षों के शासन और स्वाभाविक ‘एंटी इनकंबेंसी फैक्टर’ के बावजूद नीतीश कुमार का समर्थन आधार पूरी तरह दरका नहीं है. वरना, चौतरफा निशाने पर रहने के बावजूद उन्हें 43 सीटें नहीं मिलती. यह सोचना भोलापन है कि मोदी जी की लोकप्रियता ने नीतीश को पूरी तरह डूबने से बचा लिया. नहीं. नीतीश के अपने बचे-खुचे समर्थन आधार ने उन्हें पूरी तरह डूबने से बचा लिया.

और, भले ही छद्म लोजपा प्रत्याशियों के रूप में कई भाजपाइयों ने दर्जनाधिक सीटों पर नीतीश की कब्र खोदने में सक्रिय भूमिका निभाई, नीतीश के समर्थन आधार ने भाजपा प्रत्याशियों को वोट दिया. कह सकते हैं कि उनके पास विकल्प नहीं था, क्योंकि राजद का महागठबंधन उन्हें अपने पाले में लाने में नाक़ाबयाब रहा. नीतीश समर्थक ऐसे साइलेंट वोटर्स बूथ पर जाने के प्रति उत्साहहीन हो सकते थे, जैसे जद-यू प्रत्याशियों वाले क्षेत्रों में भाजपा के कोर वोटर्स उत्साहहीन हो गए. लेकिन, वे गए, उन्होंने वोट भी डाला, भाजपा को ही डाला. भाजपा को वोट डालते वक्त उनके दिमाग मे न कश्मीर का 370 रहा होगा, न नागरिकता कानून का विवाद रहा होगा, न मोदी का ‘मैजिक’ रहा होगा. उनके दिमाग में यही बात रही होगी कि नीतीश को समर्थन देना है तो भाजपा को वोट देना होगा.

इस बात में क्या संदेह कि कोई मुख्यमंत्री लगातार 15 वर्षों तक सत्ता में रहे तो ‘एंटी इनकंबेंसी फैक्टर’ होगा, नाराजगी भी होगी. लेकिन, दिल्ली से आए पत्रकारों के समूह ने इस नाराजगी को कुछ अधिक ही महसूस कर लिया. बिहार के बहुत सारे मीडियाकर्मियों ने नीतीश के प्रति खास तौर पर सवर्ण नाराजगी का सामान्यीकरण कर दिया. भारत में नेताओं और सरकारों से नाराजगी विरोधी वोटों में जल्दी तब्दील नहीं होती. अगर ऐसा होता तो लॉकडाउन, मजदूरों की फजीहत और बेरोजगारी के लिये नरेंद्र मोदी नीतीश कुमार से अधिक जिम्मेदार हैं.

नीतीश के प्रति सवर्णों के एक बड़े तबके का कोप, इस कोप का कारण चाहे जो हो, लोजपा के सवर्ण प्रत्याशियों को वोट देने के रूप में फूटा, या फिर, बूथ पर नहीं जाने के निर्णय के रूप में सामने आया.

पटना शहर के विधान सभा क्षेत्रों में, जो भाजपा की निर्विवाद धरोहर हैं, वोटिंग का प्रतिशत महज़ 35-36 के करीब रह जाना बहुत कुछ बता जाता है. अगर उनमें भाजपा के लिये दीवानगी बनी रहती तो वोट प्रतिशत बाकी बिहार की तरह 50 से अधिक तो जाता ही. यह निराशा भाजपा के लिये संकेत है कि उसके कोर वोटर्स उससे बहुत खुश नहीं हैं.

भाजपा की वास्तविक ताकत बिहार में तब आंकी जाएगी जब वह अपना कोई चेहरा सामने रख कर विधान सभा चुनाव में उतरे. इस चुनाव में तो नीतीश कुमार का चेहरा सामने था, जिसको कमजोर करने की रणनीतिक योजना में भाजपा अंशतः सफल रही, जबकि उस चेहरे का राजनीतिक लाभ खुद के प्रत्याशियों के लिये लेने में भी सफल रही.

कमजोर पिच पर आ जाने के बाद नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बनेंगे या नहीं बनेंगे, यह उनका और उनके सलाहकारों का फैसला होगा, लेकिन, भाजपा का मुख्यमंत्री बनाने की जो भी मांग उठ रही है, उसका कोई बहुत मजबूत राजनीतिक आधार नहीं है. अपने दम पर सरकार बना लेना, अपना मुख्यमंत्री बना लेना बिहार में भाजपा के लिये न आज आसान था न भविष्य में आसान होगा.

Read Also –

 

[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

कामरेडस जोसेफ (दर्शन पाल) एवं संजीत (अर्जुन प्रसाद सिंह) भाकपा (माओवादी) से बर्खास्त

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने पंजाब और बिहार के अपने कामरेडसद्वय जोसेफ (दर्शन पाल…